________________
[ शास्त्रवासी स्त०६लो. ४२
एतदपि-परोक्तम् , असदेव अनुपपद्यमानार्थकमेव, यदु-यस्माद ,सदृशो भिन्न एवभेदघटित एव । तद्भिन्नत्वे सति तवृत्तिधर्मवच्चं हिं सादृश्यम् । तद्वृत्तिश्च धर्मो विधिरूपो निषेधरूपो वेत्यन्यदेतत् । ततः किम् ? इत्याह-भेदाग्रहे सति कथं तस्य सदृशस्य ग्रहः । कुतः इत्याह-तत्स्वभावत्वतः भेदयटितस्वभावत्वात् । न च तद्घटितं तदग्रहे गृह्यते, जलत्याग्रहे जलवस्वभावत्वाऽप्रदर्शनात् ॥४॥
भेदग्रह न होने पर सादृश्य का अग्रहण ] बौद्ध के इस कथन का कि 'सदृशग्रह से प्रथमादि क्षणों में भावनाश का अग्रह होता है'-अर्थ ही अनुपपन्न है क्योंकि सदृशभाव भेदघटित ही होता है। तात्पर्य यह है कि तत्सदृश वही है जो कि तभिन्न हो व तद्गतविशिष्टयभवान हो अथात सत से भिन्न होते हुये तनिष्ठधर्म की आश्रयता ही सादृश्य है, हो, यह अन्य एक बात है कि सारश्य के स्वरूप में प्रविष्ट तनिष्ट धर्म विधिरूप हो या निषेधरूप हो । अर्थात सादृश्य के विवरण में तनिष्ठधर्म का विधि अथवा निषेध-किसी एक निश्चित रूप से निवेश न होकर सामान्यतः तनिष्ठधर्मस्वरूप से निवेश है । स्थिरवाही के मत में यह धर्म भावात्मक होता है क्योंकि पूर्वोत्तरक्षणों के साथ सम्बन्ध रूप भावात्मकधर्म उस मत में प्रामाणिक है किन्तु बौद्धमत में मावात्मक सभी अर्थ क्षणिक होने से यह धर्म निषेधात्मक=अतघ्यावृत्ति रूप होता है । इस प्रकार सादृश्य जब नियम से गेवघटित है तय भेदग्रह न होने पर सदृश का ज्ञान नहीं हो सकता है, क्योंकि जो जिस से घटित होता है वह उसके प्रग्रह में महीत नहीं होता जैसे जलव का अग्रह रहने पर जलस्वघटित जलस्वभावत्व का भी अग्रह देखा जाता है ॥४१॥
४२ वों कारिका में उक्त आक्षेप के बौद्धाभिमत उत्तर को प्रस्तुत करते हुये उस में भी दोष
बताया गया है
पराभिप्रायमाशङ्कतेमूलम् तदर्थनियतोऽसौ यद्भेदमन्याग्रहाडि तत् ।
न गृह्णातीति चेत्तुल्यः सोऽपरेण कुतो गतिः ? ॥४॥ तदर्थनियतः अधिकृतकक्षणार्थविषय इत्यर्थः, असौ-ब्रहः सदृशपरिच्छेदः, यद्यस्मात् , भेदं नानान्वलक्षगम्, तत्-तस्माद , अन्याऽग्रहाद्वि-तदा प्रतियोग्यग्रहणादेव न गृह्णाति, तत्वतस्त्वस्त्येव स वस्तुतः सदृशग्रहे । एवं हि तन्नाशाहप्रतिबन्धको दोपः, न तु सदृशत्वग्रहोऽप्यपेक्षितः । न हि शुक्ती रजतसारूप्याहोऽप्युल्लिखितरजतभेद एव रजतत्वभ्रमजनकः, रजतभेदग्रहे रजतत्वभ्रमस्यैवाऽभावात् , किन्तु स्वरूपत [व, तद्वदनापीति भावः । अत्र शुक्ती रजतसहचरितचाकचिक्यादिधर्मवत्वग्रहादेव रजतभ्रमः, प्रकृते तु सदृशदर्शनं निर्विकल्पतयाऽसरकल्पं न नाशवहविरोधि, अतिप्रसङ्गात् । अस्तु वा यथाकथञ्चिदेतत्, तथापि सादृश्यस्य दुहत्वात् तदुक्तेरेवानुपपत्तिः, इत्यभिप्रायत्रानुत्तरयति-इति चेत् ? ययुक्ताभिप्रायवान