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स्था क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
यह बुद्धि बौद्ध मत में कल्पनारूप है क्योंकि अपनी उत्पत्ति से लेकर अपने विनाश तक भाव एक नहीं होता है किन्तु मेद का ज्ञान नहीं होने से उक्त कल्पनात्मक बुद्धि होती है, फिर उस कल्पनात्मक बुद्धि से मात्र में एकत्व की सिद्धि अनिवार्य हो जायगी। कहने का निष्कर्ष यह है कि कल्पना उत्पन्नकार्य की अपेक्षा जिस भाव में जनकत्व को ग्रहण करती है, अनुत्पस कार्य की अपेक्षा उसने माव में अजनकत्व का आरोप करती है । ग्रतः प्रथमक्षणस्य भाव में प्रथमक्षण में द्वितीयक्षणसम्बन्ध का उत्पाद न होने से द्वितीयक्षणसम्बन्ध के अजनकत्व का आरोप होता है । अतः द्वितीयक्षणसम्बन्ध के आरोपित अजनकत्व से उसमें प्रथमक्षणस्थ भाव में द्वितीयक्षणसम्बन्धजनक का भेद सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि वह भाव द्वितीयक्षण में द्वितीयक्षणसम्बन्ध का जनक होता है । यदि अपेक्षामेव से भी एक कार्य के जनकत्व - अजनकत्व में अविरोध न माना जायगा तो एकक्षण में भी भेद हो जायगा । अर्थात् तत्क्षण में भी तत्क्षण का भेद हो जायगा। क्योंकि जो क्षण स्वअन्य व्यापार द्वारा कालान्तर में जिस कार्य का जनक होता है वह अन्यजन्यकार्य ( व्यापार ) द्वारा उसी कार्य का प्रजनक भी होता है तो इस प्रकार एक क्षण में भी एक कार्य के जनकत्व और अजनकत्व इन दोनों विरुद्ध धर्मो के समावेश का प्रसङ्ग होने से उस क्षण में स्त्र से हो भिन्नता को प्राप्ति होगी। जिस का पर्यवसान शून्यवाद में होगा । यदि यह कहा जाय कि ' तत्क्षण में तत्क्षण के प्रभेद का बोध तत्क्षण में तत्क्षण के कल्पनारोपित भेद का बाधक होगा अतः तत्क्षण में तत्क्षण के भेद का प्रसंग नहीं होगा तो यह युक्ति स्थेयपक्ष में भी तुल्य है क्योंकि- 'उस पक्ष में भी यह कहा जा सकता है कि स्थिर बीज में अभेव का बोध कुशूलस्थ दशा में अङ्करजनकत्व की कल्पना से उपनीत मेद का भी बाधक हो सकता है। अतः कुशूलस्थबीज में क्षेत्रस्थ बीज का भेद सिद्ध नहीं हो सकता ।
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स्थैय पक्ष के विरुद्ध यदि यह प्रश्न किया जाय कि 'स्थिर भाव यदि कालान्तर में होने वाले कार्य के प्रति समर्थ माना जायगा तो उससे स्व की उत्पत्ति अनन्तर ही कालान्तरमाथी कार्य की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ?' तो इसके उत्तर में क्षणिकत्ववादी बौद्ध के प्रति स्थर्यवादी को श्रोर से यह प्रश्न हो सकता है कि तत्तत्कार्यानुकूल कुर्वद्रूपक्षण भी निश्चित समय के पूर्व हो अर्थात् जिस सन्तान में वह उत्पन्न होता है उस सन्तान के प्रथमक्षण की उत्पत्ति के अनन्तर ही क्यों नहीं उत्पन्न होता ? यदि उत्तर में बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि कुर्वद्रूपक्षण को उत्पन करने में अपेक्षित सहकारी का पूर्व में अभाव होने से पूर्व में उस क्षण की उत्पत्ति नहीं होती तो यह उत्तर स्थवादो के मत में भी समान है - अर्थात् यह स्थैर्यवादी कह सकता है कि कुशूलस्थबीज कुशूल में रहते समय अंकूर का Series इसलिये नहीं होता कि अंकूर की उत्पत्ति में अपेक्षित क्षेत्र जैसे उपजाउ भूमि आदि सहकारी का संविधान नहीं रहता ।
स्यादेतत् मम कुर्वाणां दण्ड-घटादिक्षणानामेकेन घटकुर्वद्रूपत्वेनैव घटव्याप्यत्वम्, परेषां वितरसहकारिसमवहितदण्डत्वादिना घटादिव्याप्यत्वम्, तत्रावच्छेद्यावच्छेदकभावेऽ विनिगमश्वेत्यतिगौरवम् । न च वटसामग्रीत्वेन घटव्याप्यता, सामग्रया एवाऽनिरुक्तेः तथाहिन तावद् यावन्ति कारणानि सामग्री, क्रमिककारणसमुदायेऽतिव्याप्तेः नाप्येकक्षणावच्छिन्नानि यावन्ति कारणानि यागादे विरातीतत्वेन स्वर्गादिसामरस्यामव्याप्तेः । न च तादृशयावत्कारणसमवधानं सा, अस्ति च चिरातीतस्यापि हेतोर्व्यापाररूपसमवधानमिति वाच्यम्, विशक