________________
[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० ३०
मुद्गराभिघात के पूर्व क्षण तक एक नहीं रहता कि तु प्रतिक्षण में बदलता रहता है अर्थात् प्रथम क्षणोत्पत्र घट द्वितीय क्षण में नहीं रहता किन्तु तत्सदृश दूसरा घट उत्पन्न होता है और यह क्रम घट क। विनाश न होने तक चलता है। तब तो यह मानना आवश्यक होता है कि प्रथमसरणोत्पन्नघटका कारण दूसरा है और द्वितीय तृतीयक्षण में उत्पन्न होने वाले घट का कारण दूसरा है । किन्तु यही यात प्रमाण के अभाव होने से असिद्ध है । अतः अर्थक्रिया से प्रतिक्षण भित्र कारण को सिद्धि असम्भव है ।
१३२
| काल असिद्ध होने पर अर्थक्रियाक्रम भी असिद्ध ]
यह भी ज्ञातव्य है कि बौद्ध मत में अतिरिक्त काल को सत्ता नहीं है क्योंकि कार्य परम्परा से भिन्न काल की सत्ता उन्हें मान्य नहीं है । अतः अर्थक्रियाओं का क्रम भी युक्ति सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि क्रम कालमूलक होता है और काल उनके मत में है नहीं। साथ में यह भी ज्ञातव्य हैं कि कार्य के भेदमात्र से कारणभेद की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि प्रदीप शादि एक कारण से भी प्रकाश दाह- कज्जल प्रादि अनेक कार्य की युगपद् उत्पत्ति होती है। यदि इस पर यह कहा जाय कि - "बौद्ध मत में काल मान्य न होने पर भी अन्य मत में स्वीकृत काल द्वारा कार्य के क्रमिकत्व की उपपत्ति की जा सकती है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कार्य का क्रम यदि प्रमाण से सिद्ध हो तब उसकी उपपत्ति के लिये श्रन्यमत स्वीकृत काल के अवलम्बन की बात हो सकती है किन्तु कार्य-क्रम ही प्रामाणिक है। विशेष रूप से ज्ञातथ्य यह है कि यदि परमत श्रभ्युपगत काल का अवलम्बन कर कार्यक्रम की और कार्य-क्रम से कारण क्रम की उपपत्ति कर भी दी जाय तो भी स्थैर्य का भङ्ग नहीं सिद्ध हो सकता है क्योंकि क्रमिक कार्य का क्रमिक कारण भी स्थिर रह सकता है। अर्थात् विभिन्न क्षणों में उत्पन्न होने वाले घट का कारण विभिन्न क्षणों में भिन्न भिन्न होते हुये भी उन्हें चिरस्थायी मानने में कोई बाधा नहीं है ।
[ एक हेतु से क्रमिक कार्य प्रत्यक्ष सिद्ध ]
यदि यह कहा जाय कि - "स्थैर्य का अर्थ हो है एक में क्रमिक अनेक क्षणों का सम्बन्ध, किन्तु यह सम्भवित नहीं है । क्योंकि ऐसी स्थिति में प्रथमक्षण सम्बद्ध भाव को द्वितीयक्षणसम्बन्ध का भी जनक मानना होगा, किन्तु वह असंगत है; अन्यथा प्रथम क्षण में ही द्वितीयक्षण सम्बन्ध की आपत्ति होगी । इसी प्रकार द्वितीयक्षणस्थ भाव को प्रथमक्षणसम्बन्ध का भजनक मानना होगा अन्यथा द्वितीयक्षण में प्रथमक्षणसम्बन्ध की आपत्ति होगी। इसी प्रकार प्रथमक्षणस्थ भाव में प्रथमक्षणसम्बन्ध जनकत्व और द्वितीयक्षणसम्बन्ध का अजनकत्व एवं द्वितीयक्षणस्थ भाव में द्वितीयक्षणसम्बन्ध जनकत्व और प्रथमक्षण सम्बन्धाऽजनकत्व होने से प्रथमक्षणस्थ और द्वितीयक्षणस्थ भाव में ऐक्य नहीं हो सकता; क्योंकि जनकत्व और अजनकत्व ये दोनों विरोधी स्वभाव एक व्यक्ति में नहीं हो सकते ।"
तो यह ठीक नहीं है क्योंकि एक हेतु का क्रमिक कार्य प्रत्यक्ष सिद्ध है । जनकत्व और जनकत्वरूप स्वभाव भेद यह कल्पना का विषय है इसलिये उस काल्पनिक स्वभावभेद से माव का मेद नहीं सिद्ध हो सकता । यदि कल्पना को भी वस्तु की साधक माना जाय तो भावों में अर्थात् एक भाव की उत्पत्ति से उसके विनाश न होने तक उस भाव में जो 'स एवायं घट:' इत्यादि रूप बद्धि होती है