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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ६ इलो० ३७
कपिसंयोग में अप्रदेशावच्छिन्न वृक्षवृत्तिश्व का भान होता है । इसीप्रकार 'गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता न गुणवृत्तिः ' इस स्थल में गुणात्पत्यविशिष्टसत्ताभाव में गुणवृत्तित्व का भान होता है न कि सत्ता में गुणान्यत्वविशिष्टत्यावच्छेदेन गुणवृत्तित्वाभाव का भान होता है । इसीप्रकार 'घटपटोभयत्वं न घटवृत्ति' इस स्थल में भी घटत्व-पटत्व उभयाभाव में घटयत्तित्व का ही भाग होता है न कि उभयस्वच्छेन घटत्व पटवोभय में घटवृत्तित्याभाव का भान होता है । श्रतः वृत्तित्वाभाव के अध्यायवृत्तित्व में कोई प्रमाण न होने से नष्टत्व में घटयुतित्व होने से नष्टश्वाभाव में घटवृतित्व का भान सम्भव नहीं है ।" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'मूले वृक्षे कपिसंयोगः न शाखायाम्' और 'द्रव्ये गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता न गुणे' इत्यादि प्रतीतियों में क्रमशः 'मूल में वृक्षवृत्ति कपिसंयोगान बच्छेदकत्व और शाखा में वृक्षवृत्तिकपिसंयोगावच्छेदकत्व' का भान मानने पर, एवं 'द्रव्यत्व में गुणान्यस्वविशिष्ट सत्ता का अवच्छेदकत्व और गुणत्व में गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता का प्रनवच्छेदकत्व' का भान मानने से विशेष्यभेद हो जाता है। अतः उन प्रतोतियों में एक विशेषयकत्व के अनुरोध से क्रम से कविसंयोग में शाखावच्छेदेन वृक्षवृत्तित्व और मूलायच्छेदेन वृक्षवृत्तित्वाभाव का एवं गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता में गुणाव्यवविशिष्टसप्तत्यावच्छेदेन द्रव्यवृत्तित्व और उसमें सत्त त्यावच्छेदेन विद्यमान गुणवृत्तित्य का भी गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता त्वावच्छेदेन अभाव का बोध मानना ही उचित है । इसप्रकार ये प्रतीति तत्रिरूपितवृत्तित्व के अव्याप्यवृत्तित्व होने में प्राण हैं ।
[ 'वृत्ते पटे न कपिसंयोगः ' इस प्रयोग में प्रामाण्यशंका का निवारण ]
इस पर यदि यह शंका की जाय कि “ऐसा मानने पर 'वृक्षं पटे न कपिसंयोग: इस प्रयोग में भी प्रामाण्य आपत्ति होगी क्योंकि इस से भी वृक्ष में कपिसंयोग और पट में कपिसंयोग के प्रभाव का बोध मानने पर भिन्नविशेष्यकरण की आपत्ति होगी । अतः वृक्ष में पटावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव का भात मानना हो उचित है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि पट देशविधया वृक्षनिष्ठ कपिसंयोगाभाव का प्रवच्छेदक नहीं हो सकता क्योंकि पट वृक्ष का अवयव न होने से देशविघया वृक्ष का सम्बन्ध नहीं है । और नियम यह है कि तत्सम्बन्धी देश ही तन्निष्ठधर्म का प्रवच्छेदक होता है। यदि यह कहा जाय कि उक्त वाक्य से होनेवाले बोध में, पट में कालविधया अवच्छेदकत्व विवक्षित है और पटात्मक काल वृक्ष का सम्बन्धी होने से वृक्षस्थित कपिसंयोगाभाव का अवच्छेदक हो सकता है-" तो इसका उत्तर यह है कि उस स्थिति में उक्त प्रयोग के प्रामाण्य की आपत्ति इष्ट ही है ।
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वस्तु को नित्यानित्यात्मक मानने पर जो नित्यत्व ज्ञान के प्रति अनित्यत्वज्ञान की प्रतिबन्धकता में अव्याप्यवृत्तित्वज्ञान के उत्तेजकत्व की कल्पना से गौरव की आपत्ति प्रदर्शित की गई थी वह भी नहीं हो सकती, क्योंकि जब नित्यत्व और अनित्यत्व का प्रदच्छित्य श्रर्थात् अवच्चकभेव से दोनों का एकत्र संनिवेश प्रामाणिक है तो उक्त गौरव फल मुख होने से दोषावह नहीं हो सकता । अतः उक्त गौरव वस्तु के नित्यत्व-निश्रय के अभ्युपगम में बाधक नहीं हो सकता ।
यदि वैशेषिक विद्वान् विरोध से भयभीत होकर अनुभवसिद्ध भी नित्याऽनित्यात्मक एकवस्तु के अस्तित्व का प्रतिषेध करेगा, तो चित्रपट में एक चित्ररूपसत्ता कर अभ्युपगम भी उस के मत में कैसे सम्भव होगा ? जैसा कि आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने अपने वीतराग स्तोत्र में कहा है कि एक चित्रवस्तु में एकरूपता और अनेकरूपता को प्रामाणिक मानने वाले नैयायिक और वैशेषिक मतानुयाय श्रनेकान्तवाद का निषेध नहीं कर सकते ।