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स्या० २० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
अत्र नव्या:-चित्रपटेऽव्याप्यवृत्तीन्येव नील-पीतादीनि नानारूपाणि 'एक रूपम्' इति प्रतीतेः 'एको धान्यराशिः' इतिक्त समूहकत्वविषयत्वात् । सविषयाऽवृत्तिव्याप्यत्तिवृत्तिजातेख्याप्यवृत्तिवृत्तिलविरोधस्त्वग्रामाणिक एव 1 अत एप
"लोहितो यस्तु वर्णेन मुखे पुच्छे च पाण्डुरः ।
श्वेतः खुर-विषाणाभ्यां स नीलो धूप उच्यते ॥ १॥" इत्यादिकमुपपद्यते । तत्र चित्रकरूपकल्पने तु गौरवम् , तथाहि-चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति न नीलस्वादिना हेतुत्वम् , व्यभिचारान् । नापि रूपत्वेन, नीलमात्रारब्धेऽपि तदापतेः । अथ नीलेतर-पोतेतररूपादेरपि तत्र हेतुत्वाद् न तदापत्तिः, यत्रैकाययवे नीलम् , अपरत्र च पीतजनकाग्निसंयोगः, तत्रावयवे पीतरूपोत्पत्त्यनन्तरमेवावयविनि चित्रोपत्तिस्वीकाराद् न व्यभिचारः। न च नीलाभावादिपटकस्यैव समायेन विजातीयचित्रं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वेन हेतुत्वमस्त्यिति वाच्यम् , नील-पीनोमयकपालारब्धे घटे पाकनाशितावयवपीतस्यचित्रेऽवयवे व्याप्यवृत्तिनीलोत्पत्तिकाले चित्रोत्पत्त्यापत्तः । न च कार्यसहभावेन नीलाभारादीनां तद्धतुत्वाद् नायं दोष इति वाच्यम् , नील-पीत-श्वेतत्रितयकपालारब्धे पाकेन पीत-श्वेतयोः क्रमेण नाशे श्वेतनाशकालेऽपि तदापत्तेः । नील नीलजनकतेजःयोगान्यतरत्यावच्छिन्नाभावत्यादिना हेतुत्वे तु गौरवम , संयोगस्याय्याप्यवृत्तित्वेन प्रतियोगिन्यधिकरणत्वनिवेशे च सुतराम् । न चानवच्छिन्नविशेषणतया प्रतियोगितावच्छेदकाविशेषितोक्ताभायहेतुत्वसंभवः, प्रतियोगिकोटाबुदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यामविनिगमादिति चेत् न, पाकमावादपि चित्रोत्पत्तः ।
[चित्ररूपमीमांसा में नव्य नैयायिक मत ] अनेकरूपसमूहात्मकचित्ररूपवादी नव्य नैयायिकों का यह मत है कि चित्रपट में अध्याप्यवृत्ति नील-पीतादि नानारूपों को उत्पत्ति होती है । न कि नोल-पोतादि से विलक्षण अतिरिक्त चित्ररूप की उत्पत्ति होती है। चित्रपट में 'अत्र एक रूपम्: इस घट में एक रूप है' यह प्रतोति ‘एको धान्यराशिः' इस प्रतीति के समान समूहगत एकत्व के द्वारा उपपन्न होती है । अतः चित्रपट में एक चित्र रूप की सत्ता सिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि-"सविषयकपदार्थ में अवसि और स्पाप्यवृत्ति (पदार्थ) में वांत जो जाति होती है वह अव्याप्यवृत्ति नहीं होती'-इस नियम का, नीलपीतादि का प्रध्याप्यवृत्ति मानने पर, विरोध होगा क्योंकि सविषयकज्ञानादि में प्रत्ति और व्यावृत्ति जलीयरूपावि में वृत्ति जो रूपत्वादिजाति, उस में प्रत्याप्यत्ति नीलपोतादिवत्तित्व हो जायगा :'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्तजाति के अव्याप्यत्तिात्तत्व में विरोष होने का कोई प्रमाण नहीं है बल्कि उसके विरुद्ध शास्त्रवचन उपलब्ध होता है । जिस में नोलवृष की इस प्रकार परिभाषा दी गई है कि-'जिस वष का वर्ण रयत हो, तथा मुख और पुच्छ में पाण्डुर, (एक विलक्षणरूप जो रक्ताभश्वेत होता है) और खुर तथा विधाण में श्वेतरूप होला है उसे नोलवृष कहा जाता है। यह वचन अतिरिक्तचित्ररूप