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स्या. क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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ततो मध्यमक्षणरूपा संविदेव सर्वधर्मरहिता परमार्थसतीति सिद्धम् । आह च"मध्यमा प्रतिपत सैव, सैव धर्मनिरात्मता । भृतकोटिश्च सैवेयं तथ्यता सैव शून्यता ॥१॥" इति । __सा चाविभागणाप्यविधानपाट निभवनम्व भासते, तदन्तम्"अविभागोऽपि बुद्धथात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥१॥” इति ।
___समस्ताविद्याविलये तु स्वच्छसंविन्मात्रमाभासते, तदुक्तम्"नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोऽपरः ।
. ग्राह्य-ग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥१॥" इति ॥५६॥
[ सर्वधर्मरहित मध्यमक्षणरूप संवित् की परमार्थ सत्ता] इस प्रकार उक्त तर्कपूर्ण विचार और शून्यवादी प्राचार्यों के प्रधनों से यह सिद्ध है कि सम्पूर्ण धर्मों से रहित मध्यम क्षणरूपा एकानेक रूपों से अनिर्वचनीय संविद ही परमार्थ सत् है । यही शून्यता है । जैसा कि नागार्जुन को एक कारिका से स्पष्ट है कि मध्यमाप्रतिपद् यानो मध्यम मार्ग, धर्मनैरात्म्य, भूतकोटि यानी सत्य को पराकाष्ठा, तथ्यता और शून्यता सब एक ही तत्त्व है। अर्थात ये सभी शब्द एक ही परमार्थ तत्त्व के बोधक हैं। उक्त शून्यता सर्वथा निविभाग है। किन्तु अविद्यायश-अनादिकालप्रवृत्तभ्रमप्रवाहवश विभिन्न रूपमत् प्रतीति होती है । जैसा कि एक कारिका में कहा गया है कि-'बुद्धि अर्थात् समस्त धर्मों से शून्य मध्यमाप्रतिपद् प्रादि शब्दों से अभिहित संवितरूपशून्यता सर्वथा निविभाग होने पर भी विपर्यासप्रस्त चित्तवाले मनुष्य को ग्राह्य, गृहीता और ग्रहण (ज्ञान) इन भेदों से युक्त जैसी प्रतीत होती है। उक्त शून्यता के विषय में यह भी सिद्धान्त है कि समस्त प्रविद्या का बिलय होने पर वह एकमात्र स्वच्छ संवित रूप में प्रकाशित होती है। यह बात भी एक कारिका द्वारा प्रतिपादित को गई है-अनुभव में आनेवाली कोई वस्तुधुद्धि स्वच्छसंवित रूप शून्यता से भिन्न नहीं है और विषय का अनुभव भी उससे भिन्न नहीं है क्योंकि प्राह्य और प्राहक का पृथक् अस्तिश्व न होने से स्वच्छ संवित रूप शून्यता ही स्वयं प्रकाशित होती है ॥५६॥
५७ षी कारिका में शून्यवाद की उक्तरीति से प्रतिपादित स्थापना का निराकरण किया गया हैएतनिराकरणवार्तामाहमूलम्-अत्राप्यभिदधत्यन्ये किमित्थं तत्त्वसाधनम् ।
प्रमाणं विद्यते किश्चिदाहोस्विच्छन्यमेव हि ॥५७॥ अनापि-शून्यतावादेऽपि, अन्येवादिनः अभिदधति यदुत-किमित्थं तत्त्वसाधनं शून्यतातत्त्वसाधनम् किञ्चित् प्रमाणं-वस्तुसद् विद्यते, आहोस्विच शून्यमेव हिन विद्यते प्रमाणम् ? इत्यर्थः ॥५७||
[ माध्यमिक के शून्यवाद की समालोचना ] उक्त शून्यवाद के सम्बन्ध में अन्यवादियों का कहना है कि क्या इस प्रकार शून्यता तस्व का साधन सम्भव है? इस प्रश्नात्मक संकेत का यह आशय है कि शुन्यता का साधक कोई वास्तविक प्रमाण है ? अथवा अन्य सभी के समान वह भी शून्य ही है अर्थात शून्यता का साधक कोई पारमार्थिक प्रमाण नहीं है ? ५८ वी कारिका में उक्त दोनों पक्षों में दोष बताया गया है