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स्वा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन 1
उक्तं शून्यतासाधकं मानं विहाय चेद्यद्यन्यस्य वस्तुनः शून्यता, मानं पुनरशून्यमेवेति न दोष इति भावः, तदा प्रतिपाद्यस्य यमुद्दिश्य शून्यतासाधकं मानं प्रयुज्यते तस्य, शून्यत्वे व्यर्थः परिश्रमः प्रकृतप्रयोगस्य, अन्यथा शशशृङ्गमुद्दिश्याप्येतत्प्रयोगं किं न कुरुपे ? । तथा च सुष्ट्रक्तं भट्टेन - "सर्वदा सदुपायानां वादमार्गः प्रवर्तते I
अधिकारोऽनुपायत्वाद् न वादे शून्यवादिनः || १ ||" इति ॥ ६० ॥
यदि माध्यमिक की ओर से यह कहा जाय कि- "सर्वशून्यता का अर्थ है - शून्यतासाधक प्रमाण को छोड कर ग्रन्य समस्त वस्तुओं की शून्यता । अतः शून्यतासाधक प्रमाण के अशून्य होने पर भी कोई दोष नहीं है" - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रमाण के समान ही प्रतिपाद्य पुरुष के विषय में भीमक को यह मानना होगा कि जिस पुरुष के प्रति शून्यतासाधक प्रमाण का प्रयोग होता है वह भी अशून्य है, क्योंकि उसके शून्य होने पर शून्यतासाधक प्रमाण के प्रयोग का परिश्रम व्यर्थ होगा । यदि असत् प्रतिपाद्य के प्रति भी शून्यतासाधक अनुमानप्रयोग किया जाय तो 'शशशृङ्गादि के प्रति भी माध्यमिक बौद्ध शून्यता के साधक प्रमाण का प्रयोग क्यों नहीं करते ?' इस प्रश्न का उनकी ओर से कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। इस सम्बन्ध में कुमारिलभट्ट ने यह ठीक ही कहा है कि जिनके मत में अपने श्रभिमतपक्ष के साधक उपायों का अस्तित्व है उन्हीं के बीच बाद कथा हो सकती है । शून्यवादी के पास अपने पक्ष का साधक उपाय न होने से वह बाद के लिये अधिकारी ही नहीं हो सकता [ श्लो०वा० सूत्र ५ निरालम्वनवादे श्लो० १२८ ] ॥६०॥
६१ व कारिका में प्रतिपाद्य पुरुष को अशून्य मानने पर माध्यमिकमत में दोष बताया है-तदशून्यताय दोषमाह -
मूलम् -- तस्याप्यशून्यत्तायां च प्राशिनकानां बहुत्वतः । प्रभूताऽशून्यतापत्तिरनिष्टा संप्रसज्यते ॥ ६१ ॥
तस्यापि प्रतिपाद्यस्यापि, अशून्यतायामभ्युपगम्यमानायाम्, प्रानिकानां पर्यनुयोक्तॄणाम्, बहुत्वतः बाहुल्याव, प्रभूताऽशून्यतापत्तिः बहूनां तात्त्विकतापत्तिः, अनिष्टा तत्र संप्रसज्यते = बलादापतति ॥ ६१॥
यदि माध्यमिकवादी प्रमाण के समान प्रतिपाद्य पुरुष की भी अशून्यता स्वीकार करेगा तो प्रश्नकर्ताओं के बाहुल्य से बहुतों के अशून्यता को आपत्ति होगी, अर्थात् बहुतों को तात्त्विक मानना पढ़ेगा, जो माध्यमिक को अनिष्ट है ।। ६१ ॥
६२ वीं कारिका में पूर्वकारिका में उक्त विषय का स्पष्टीकरण किया हैइदमेव स्पष्टयति-
मूलम् - यावतामस्ति तन्मानं प्रतिपाद्यास्तथा च ये ।
सन्ति ते सर्व एवेति प्रभूतानामशून्यता ॥ ६२ ॥
यादतां श्रमातॄणामस्ति तत्मानं - शून्यता साधकं प्रमाणम्, तथा ये प्रतिपाद्यास्ते सर्व एव सन्ति परमार्थतो, न तु शून्याः, इति हेतोः प्रभूतानामशून्यतेति । ननु य एव