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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० ६२ परिशीलितसुगतश्रुतोपनिषद्गलितनिखिलाविद्याकलंकः, स एवाऽशून्यः, तस्यैव च निर्धर्मकसंधिन्मानं मानमशून्यं, परमार्थसत्वात् , इतरेषां तु वादि-प्रतिवादिप्राश्निकानां च्यवहारत एव सत्त्वम् । तत एव च साध्य-साधन-दृष्टान्तादिभेदेनोक्तप्रपश्चाऽसत्यतानुमानसंभवः, तदुक्तमाचार्यण-"सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारः सांवृतः” इत्यादीति चेत् ? न, तर तत्वज्ञानिनः शून्यतानुभवस्य त्वयैव [१ तवैव ] श्रद्धाविषयत्वात् । अनुमानेन च प्रामुक्तेन न नीलादिज्ञाने द्विचन्द्रादिज्ञानतुल्यमसत्यत्वं सायितुं शक्यम् , बाध्यत्वाऽवाध्यत्वाभ्यामुभयबैलक्षण्यात् । न च बाध्यबाधकभाको निराकृत एवेति वाच्यम्, व्यवहारसिद्धस्य तस्य निराकतु - मशक्यत्वात् , बाधकेन ज्ञानस्य, स्वरूपस्य, विषयस्य, फलस्य बाऽबाधेऽपि वाध्यत्रानेऽप्रामाण्यज्ञापनात् , तदुक्तं सूरिणा-"किन्तु ज्ञानस्यासद्विषयत्वम्', अर्थस्य चासत्प्रतिभासनं तेन ज्ञाप्यते” इति । अत्र ज्ञानस्यासद्विषयत्वं तदभाववति तत्प्रकारकत्वम् , अर्थस्यासत्प्रतिभासनं च स्वाभाववद्विशेष्यकज्ञानप्रकारत्वम् , तथाभानं च तदभावस्फूर्त्या मानसाध्यक्षोहादिना दीर्घाध्यवसायिनेति तत्वम् ।
जितने प्रमाताओं को शून्यतासाधक प्रमाणः : अस्तित्व मान्य होगा और जितने पुरुषों के प्रति उस प्रमाण का प्रयोग होगा वे सब परमार्थ सव होंगे. शून्य नहीं हो सकते । इस कारण बहुतों को अशून्यता प्रसक्त होगी।
[एक ही तत्त्वज्ञानी को अशून्य बताना युक्तिशून्य है ] यवि माध्यमिक की ओर से यह कहा जाय कि-"अनेक प्रमाता-प्रतिपादक पुरुषों को अशून्य
आवश्यक है। अशुन्य एकमात्र वही व्यक्ति है जिसका संपूर्ण अविद्या कलंक सुगत-बद्ध से प्राप्त तत्वविद्या के परिशीलन से निर्मूल हो चुका है और उसी का सर्वधर्मों से रहित एकमात्र संविद् रूप प्रमाण ही प्रशून्य है क्योंकि यही परमार्थ सत् है। उससे अन्य वादी-प्रतिवादी प्राश्निकादि की केवल व्यावहारिक सत्ता है। और साध्य-साधन और दृष्टान्तादि में भेद भी व्यावहारिक ही सव है। अतः प्रपश्च में प्रसत्यता के साधक उक्त अनुमान का प्रयोग निर्वाध रूप से सम्भव है। जैसा कि प्राचार्य ने कहा है-अनुमान-अनुमेय का समस्त व्यवहार ही संवृतिमूलक है ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसे तत्त्वज्ञानी और उसके शून्यता तत्व के अनुभव की सत्ता माध्यमिक को केवल श्रद्धा का ही विषय है, उसमें कोई प्रमाण नहीं है। जिसमें कोई प्रमाण न हो उसे किसी की श्रद्धा के आधार पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रतः पूर्वोक्त अनुमान से नीलादि पवार्थों के ज्ञान में चन्द्रद्वयादि के ज्ञान के समान असत्यता का साधन नहीं हो सकता क्योंकि चन्द्रद्वयादि का ज्ञान बाध्य है और नीलादि का ज्ञान बाध्य है-अतः दोनों में वलक्षण्य है। इसके विरुद्ध यह कहना सम्भव नहीं है कि'बाध्य-बाधक भाव का युक्तिपूर्वक निराकरण किया जा चुका है अतः बाध्यत्व-अबाध्यत्व के आधार पर उन ज्ञानों को विलक्षण बताता सम्भव नहीं है क्योंकि बाध्य-बाधकभाव व्यवहार सिद्ध है, प्रतः उसका निराकरण अशक्य है । बाधक ज्ञान से ज्ञान का, उसके स्वरूप का, विषय का और फल का बाधन होने पर भी बाध्यज्ञान में अप्रामाण्य का ज्ञापन हो सकता है। जैसा कि सूरि ने कहा है कि ज्ञान में असद्विषयकत्व यानी बाधक ज्ञान से बाध्यज्ञान में असद्विषयत्व और अर्थ में, असत् होते हुये