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[ शास्त्रवार्ता स्त० ६ इलो० ३७
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प्रयुक्त गौरव नहीं होगा। यदि इस पर यह शंका की आय कि 'नीलपीतादि अनेकरूपवान् कपालों से उत्पन्न होनेवाले घट में जो अध्याप्यवृत्ति नीलरूप उत्पन्न होता है उसको प्रवच्छेदकता सम्बन्ध से कपाल में उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा क्योंकि उसमें भी नीलरूप समवायसम्बन्ध से विद्यमान हैं"तो यह ठीक नहीं है- क्योंकि - अवच्छेदकता सम्बन्ध से नोलादि के प्रति केवल नीलादि अर्थात् नीलेतररूपाभावविविशिष्टनीलत्या विरूप से कारण मान लेने पर उक्त दोष नहीं हो सकता । इस प्रकार अवच्छेदकतासम्बन्ध से नोलादि के प्रति समवायसम्बन्ध से केवल नीलत्वादिरूप से छः कार्यकरणभाव सिद्ध होते हैं । इसी प्रकार नोलादिकपाल से अनारब्ध घट में समवायसम्बन्ध से नीलादि की उत्पत्ति की आपत्ति का परिहार करने के लिये समवायसम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतश्व सम्बन्ध से नीलादि को भी कारण मानना होगा। इसप्रकार ये कार्यकारणभाव भी छः होगा । एवं नीलादिकपालमात्र से आरब्ध घट में उत्पन्न होने वाले मील की उस घट के अवयवों में अवच्छेदकतासम्बन्ध से उत्पत्ति की आपत्ति रूप अव्याप्यवृत्तित्व का वारण करने के लिए अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतद्वव्य समवायित्वसम्बन्ध से नोलेतररूपादि को कारण मानना होगा। ये भी छः कार्यकारणभाव हुए। इस प्रकार अव्याप्यवृत्ति नीलादि के उत्पत्ति पक्ष में १६ कार्यकारणभाव हुये । जब चित्ररूपवाद में देखिये
चित्ररूपपक्ष में भी इतने हो कार्यकारणभाव होंगे जैसे चित्ररूप में नोलेतर रूपादि के छः कार्यकारणभाव तथा समवाय से नोलादि के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलादि के छः कार्यकारणभाव । तथा समवाय से नीलादि के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलेतरादि के प्रतिबन्धक होने से समवायसम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलेतरादिरूपामात्र के छः कार्यकारणभाव हुये । इस प्रकार अव्याप्यवृत्तिनीलरूपादि की उत्पत्ति पक्ष में तथा अतिरिक्त चित्ररूप को उत्पत्ति पक्ष में कार्यकारणभाव की संख्या में साम्य होने से अतिरिक्त चित्ररूप की कल्पना में गौरव का उद्भावन असंगत है । यद्यपि ऐसा कह सकते हैं, तथापि —
वस्तुतोऽवच्छेदकतया नीलादावुक्त संवन्धेन नीलेतररूपविशिष्टनीलत्वादिनैव हेतुत्वम् । न च नीलेतर वाद्यवच्छिन्नं प्रति नीलविशिष्टनीलेतरत्वादिना हेतुत्वे विनिगमकाभावः, नीलत्वापेक्षया नीलेतरत्वस्य गुरुत्वात् । एतेन 'उक्तसंबन्धेन नीलेतरादेनलादिकं प्रति हेतुत्वम्, नीलादीनां नीलेतरादिकं प्रति वा इति विनिगमनाविरहाद् द्वादश कार्यकारणभावापत्तिः' इत्यपास्तम् । इत्थं चातिनिष्कपदस्माकं द्वादशैव कार्यकारणभावाः, तव त्वष्टादशेति चेत् । न, ममापि नीलाड़ी नीलेतर रादिप्रतिबन्धकत्वेनैव शुक्लावयवमात्रारब्धे नीलाद्यनुत्पत्तिनिर्वाहात्, नीलादौ नीलादिहेतुत्वाऽकल्पनात् कार्यकारणभावसंख्यासा म्यात्, अव्याप्यवृत्तिनानारूपतत्यागभावध्वंसादिकल्पना गौरवस्य च तवाधिकत्वात् ।
[ अन्ततः अन्याप्यवृत्ति नीलादि पक्ष में लाघव-पूर्वेप चालु ]
इस पर अव्याप्यवृत्तिनोलादिवादी का कथन यह है कि इस मत में अवच्देवकतासम्बध से नीलादि के प्रति समवाय से नीलादि की कारणता है और श्रवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवाथिसमवेत द्रव्यसमवायित्वसम्बन्ध से नीलेतररूपादि की काररता है इन दोनों का परित्याग