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स्या०० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
ब्राह्मणादि में जिस विशुद्धता के ज्ञान से ब्राह्मण्य की अभिव्यक्ति होती है शूद्रादि में उस विशुद्धि का ज्ञान नहीं होता।
[भूतल में घटाभाव अयोग्यता' की आपत्ति का निवारण ] यदि यह पहा जाय कि ' में से जुस बिष्यफ उपलम्भविषयत्वाभाव है उसी प्रकार गगनादि में भी है और आश्रयमेद से अभाव का भेद न होने से गगनादिनिष्ठ और घटादिनिष्ट उक्त उपलम्भ विषयत्व के प्रभाव में ऐक्य है। एवं गगनादि में उक्त अभाव अयोग्यता प्रयुक्त भी है, अत एव उस अभाव में प्रतियोगी प्रौर तत्सं निकर्ष उभय के विरहमात्र प्रयुक्तत्व नहीं है । अतः भूतल में घटामाय अयोग्य हो जायगा" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि गगन में उक्त उपलम्भ विषयत्वाभाव व्याप्यवत्ति है और घटादि में उक्त अभाव अध्याप्यवृत्ति है, क्योंकि घटादि में उक्त अमाव का प्रतियोगी उपलम्भ विषयत्व भी कभी कभी रहता है, अत: दोनों में भेद है। अत एव भूतल में घटाभाव प्रत्यक्षयोग्य होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । अथवा योग्यता का निर्यचन इस प्रकार से करना चाहिये कि यधर्मविशिष्ट प्रतियोगिकत्वावच्छेदेन-यद्धर्मावच्छिन्नाधिकरणकरवावच्छेदेन यदधिकरणविशेष्यकोपलम्भविषयत्वाभाव में प्रतियोगितत्संबन्धविरमात्रप्रयुक्तत्व हो तदधिकरण में तद्धर्मावच्छिन्नाभाव योग्य होता है। गगनादि और घटादि में जो भूतलविशेष्यक लौकिकप्रत्यक्षविषयत्वाभाव है. वह गगनवृत्तित्वावच्छेवेन घर और घटइन्द्रिय संबंध विरहमात्र प्रयुक्त है। अतः भूतल में घटाभाव की योग्यता निर्वाध है।
[संयोगाभाव प्रत्यक्ष न होने की शंका का वारण ] यदि यह शंका को जाय कि-'संसर्गाभाव को प्रत्यक्ष योग्यता का उक्त प्रकार से निर्वचन करने पर संयोगाभाव प्रत्यक्षयोग्य न हो सकेगा। क्योंकि, संयोग के प्रत्यक्ष में संयोगिद्वय का प्रत्यक्ष भी कारण होता है, अतः संयोग में भूतलादिविशेष्यक-लौकिकोपलम्भविषयत्वाभाव संयोगिद्वय के प्रत्यक्षाभाव से भी प्रयुक्त होगा प्रतः उसमें प्रतियोगी और प्रतियोगी-इन्द्रियसंबंध विरहमात्र प्रयुक्तत्व नहीं रहेगा फलतः संयोगाभाव का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा" - तो यह ठोक नहीं है। क्योंकि संयोग प्रत्यक्ष के प्रति संयोगिय के प्रत्यक्ष की कारणता प्रसिद्ध है। क्योंकि जब कोई स्थूल दो द्रव्य परस्पर संयुक्त होते हैं और उन स्थलसंयोगिद्रध्य का प्रत्यक्ष उस भाग में होता है जिस भाग में उनका परस्पर संयोग नहीं होता उस समय संयोगिय के प्रत्यक्ष होने पर भी संयोगिप्रत्यक्ष का उदय न होने से उक्त कारणता मानने में अन्वय व्यभिचार है । यदि यह शंका की जाय कि'जहां संयोगिय के नाश से संयोग का नाश होता है वहां संयोगिद्वय के नाशकाल में संयोग के प्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार करने के लिये संयोगप्रत्यक्ष के प्रति संयोगिप्रत्यक्ष को कारण मानना आवश्यक है तो यह ठीक नहीं है क्यों कि संयोग के प्रत्यक्ष में संयोगी की सत्ता उस प्रत्यक्ष के कारणभूत विषयरूप में अपेक्षित नहीं है किन्तु सयोग के साथ इन्द्रिय संबध के सम्पादन रूप में अपेक्षित है। प्राशय यह है कि संयोगी के अभाव में संयोगी द्वारा संयोग के साथ इन्द्रिय संनिकर्ष न होने से हो संयोगनाशकाल में संयोग का अप्रत्यक्ष होता है।"
लदपि न, धारावाहिकामावप्रत्यक्षानुपपत्तेः, तत्र बाधस्याऽप्यनुपलम्भप्रयोजकत्वात् । न च धर्मितावच्छेदकामिश्रितोपलम्भस्याभावस्तन्मात्रप्रयुक्त इति स एव वाच्यः, बाधाभावोऽपि