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[ शास्त्रवाता. स्त०६ श्लो० ४८
अणिकत्व ज्ञान के प्राकार स्वरूप में अन्तत हो जाता है। इसलिये ही ज्ञानस्वरूपात्मनाक्षणिकत्व को उसीप्रकार ग्रहण करता है जैसे नीलादि अर्थ के समान आकार होने से नीलावि को ग्रहण करता है किन्तु नीलादि अंश में सविकल्पक नहीं होता।" इसके उत्तर में ग्रन्थकार का यह कहना है कि क्षणिकत्वबोध के क्षणिकत्वांश में सविकल्पक न होने से उसमें मिथ्यात्व का संशय हो जायगा अतः वह ज्ञान अर्थ में क्षणिकत्व का निश्चायक नहीं हो सकता। अतः अर्थ में क्षणिकत्व को सिद्धि न हो सकेगी।
व्याख्याकार ने ग्रन्थकार की इस उक्ति को एक दृष्टान्त से समर्थन देते हुये कहा है-जैसे सांख्यों के मत में शंखगत शुक्ल का जब केवल आलोचन होता है-अर्थात् शुक्लत्वरूप से उसका मान न होकर केवल स्वरूपतः ज्ञान होता है, तब दोषवश शुक्लशंख में पोत रूप का दर्शन होता है-किन्तु उस ज्ञान में पीतत्वेन शुक्ल का भान होने से पोतत्वेन पीतप्रतियोगिक अभाव का मान सम्भव होने से उक्त ज्ञान में पीताभावधान में पीतप्रकारत्व का संशय जाग्रत होने से उत्तरकाल में पीतरूप का निश्चय नहीं होता। इसी प्रकार क्षणिकत्व बोध में अर्थ में क्षणिकत्व का विषयविधया भान न होने पर अर्थ में अक्षणिकत्वग्रह का विरोधी न होने के कारण अक्षणिक में क्षरिणकत्वग्राहित्व का संदेह हो सकता है और इस संदेह के कारण अर्थ में क्षणिकत्व का निश्चय नहीं हो सकता।
यदि इसके सम्बन्ध में यौद्ध की और से यह कहा जाय कि-"उक्त दृष्टान्त और दार्शन्तिक क्षणिकत्वबोध में वैषम्य है, जैसे-दृष्टान्तस्थल में पीत का अनिश्चय पीतदर्शन में मिथ्यात्वसंशयप्रयुक्त नहीं होता है किन्तु पीत के अनिश्चय से यह अनुमान किया जाता है कि पूर्व में पीत का पालोचन नहीं है। इसलिये पीतालोचनरूप कारण के अमाव से पीतनिश्चयरूप कार्य का अभाव होता है"-तो ठीक नहीं, क्योंकि इस कथन का क्षणिकत्व के दर्शन के सम्बन्ध में भी योगक्षेम तुल्य है। अर्थात क्षणिकत्व के दर्शन के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि पूर्व में क्षणिकत्व का मालोचन न होने से क्षणिकवालोचनरूप कारणा के अभाव से हो क्षणिकत्व का निश्चय होता है। व्याख्याकार का तात्पर्य केवल यह दिखाने में है कि उक्त प्रकार से क्षणिकत्व का बोध मानने पर क्षणिकत्व का निश्चय नहीं हो सकता । इसका कारण क्षणिकत्वबोध में मिथ्यात्व का संशय है अथवा पूर्व में क्षणिकत्व के आलोचन का अभाव है-इन दोनों कारणों में किसी एक में उनका कुछ अभिनिवेश नहीं है ॥४॥
४८ वीं कारिका में स्व अनुमान से भी क्षणिकत्व बोध की अशक्यता बताई गई हैस्वानुमानतोऽपि न क्षणिकत्वबोध इल्पाहमूलम्-न चापि स्वानुमानेन धर्मभेदस्य संभवात् ।
लिङ्गधर्मातिपाताच तत्स्वभावाचयोगतः ॥४८॥ न चापि स्वानुमानेन जानाति क्षणिकत्वं, यथा मद्रपमनित्यं तथाऽयमपीति । कुतः ? इत्याह-धर्मभेदस्य संभवात् चेतनेतररूपधर्मभेदोपपत्तेः, किश्चित्ताद्रप्येऽपि तथा ताप्याभावेन साधारण्या व्याप्तेरविकल्पनात् । दोपान्तरमाह-लिङ्गधर्मातिपाताच-लिङ्गरूपातिलङ्घनाच तदात्मन एव स्वानुमानपक्षे । कुतः १ इत्याह -तत्स्वभावाद्ययोगतः उस्यार्थस्य न तज्ज्ञानं म्वभावः, नापि कार्यम, न चान्येन गम्य इति यावत् , तद्र पविशेषाभावात् ।