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॥ अहम् ॥ 卐शास्त्रवार्तासमुच्चय ॥
॥ पञ्चमः स्तबकः ॥
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[ व्याख्याकार का मंगलाचरण ] स्वामी सतामीहितसिद्धयेऽन्तर्यामी स चामीकरकान्तिराप्तः। वामीभवन्तोऽपि परे बतामी क्षमा न यदर्शनलद्धनाथ ॥ १ ॥ अनाकलितमन्यथाकलितमन्यतीथेश्वरैः
____ स्वरूपनियतं जगद् बहिरिवान्तरालोकते । य एष परमेश्वरश्चरणनम्रशक्रस्फुरस्किरीट
मणिदीधितिस्नापतपादपद्मः श्रिये ॥२॥ समीहितं कल्पतरूपमश्चेत् शङ्केश्वरः पाजिनः पिपर्ति ।
तदाऽऽसदालापसमुद्भवेभ्यो भयं न किञ्चिद् मम दुनयेभ्यः ॥ ३॥ व्याख्याकार ने पश्चम स्तबक की व्याख्या का उपक्रम करते हुये जिनेश्वर भगवान को वन्दना की है और अपनी निर्भयता बताकर अन्य दुर्नयप्रायः मतों की दुर्बलता का संकेत किया है, जो इस प्रकार है
___ अत्यन्त प्रतिकूल चेष्टा करने पर भी बौद्धादि प्रतिवादी जिन के दर्शन का उल्लहुन (खण्डन) करने में समर्थ नहीं हो पाते, ये सुवर्ण के समान कान्ति बाले, एवं वस्तु के यथार्थ दृष्टा और वक्ता, एवं अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन-अनन्तसुख-अनन्तवीर्य इस अनन्त-चतुष्टय के स्वामी, तथा सत्पुरुषों के अन्तःकरण को धर्म और अध्यात्ममार्ग में प्रवृत्त कराने वाले भगवान हमारे मनोरथ को सिद्धि के लिए हो अर्थात् हमारा वांछित सिद्ध करो ॥१॥
अन्य-अन्य शास्त्रों के प्रवर्तक ईश्वर गिने जाने वाले पुरुषवर्ग भी अपने नियत प्रमाणसिद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित जिस जगत् को अनेक अंशों में समझने में निष्फल रहे अथवा अन्यथा= विपरोत रूप में समझ बैठे, उस जगत् का, जो परमेश्वर उसके बाह्य स्थूल स्वरूप के समान आन्तरदुर्जेय सूक्ष्म स्वरूप में भी स्पष्ट अवलोकन करते हैं और जिनके चरण कमल, चरण पर झुके हुये देवराज इन्द्र के चमकते हुये मुकुट के मणि की किरणे प्रक्षालन करती हैं, वे परमेश्वर हमारी श्री यानी अभिमतसिद्धि के अनुकूल हो ॥ २ ॥