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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
'प्रत्ययों=ज्ञानकारणों में बाह्मार्थ को ग्रहण करने का स्वभाव नहीं होता अत: बाह्यार्यग्रहण नहीं होता'-इस कथन से भी बौद्ध को इष्टसिद्धि यानी बाह्याथ के असत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि तद्वस्तु को ग्रहण करने के स्वभाव से होन कारणों से तद्वस्तु का ग्रहण न होने के कारण तद्वस्तु एवं तद्वस्तुग्रहण का असत्व माना जायगा तो अतिप्रसंग होगा । जैसे, पीतग्रहण का स्वभाव जिसमें नहीं है उससे पीत का ग्रहण नहीं होता, किन्तु केवल इतने से पीत का अथवा पीतग्रहण का प्रभाव नहीं होता किन्तु उक्त हेतु से यदि वस्तु का और वस्तुग्रहण का अभाव माना जायगा तो पोत और पौतग्रहण के अभाव को भी आपत्ति होगी।
बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-भावस्थर्यवादी दर्शनों के अभ्यास से जो भावस्थैर्य की वासना मनुष्य में बन जाती है उस वासना का उद्बोधन होने पर बाह्य घट की उपस्थिति होती है, जिससे उसे घटाकारज्ञान होता है। किन्तु उस ज्ञान के होने पर भी बाह्यघटाभाव का ज्ञान हो सकता है। क्योंकि वासनामूलक घटज्ञान बाह्य घटाभाव ज्ञान का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता है । जैसे, शशविषाण के भ्रम से उत्पन्न अनादि वासना के उद्बोधन से शश-विषाण की उपस्थिति होती है किन्तु अमाव के ग्राहक समनन्तरप्रत्ययरूप कारण का सन्निधान होने पर उसका अभावज्ञान सर्ववा होता है। विषाणाकार ज्ञान उक्त वासना से प्रादुर्भूत होने पर भी उससे शश-विषाणाभाव के ज्ञान का प्रतिबन्ध नहीं होता। अतः बाह्यार्थवादी का यह कथन कि योग्यानुपलस्थि के अभाव से बाह्यघटाभाव का ग्रहण नहीं हो सकता-निराधार है। तत्तदभावाकारज्ञान में तत्तत्समनन्तरप्रत्यय ही योग्यता है । अतः योग्यानुपलब्धि का अभाव बताना संगत नहीं है। इस पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि'तत्तदभायाकार ज्ञान में तत्तरसमनन्तर प्रत्यय की योग्यता मानने पर सम्पूर्ण अभाधज्ञान के लिये अनुगत योग्यता का प्रतिपादन न हो सकने से 'योग्यानुपलब्धि प्रभाव को ग्राहक है यह सामान्य व्यवस्था नहीं बन सकतो'- क्योंकि बाह्यार्थवादी भी अपने मतानुसार किसी एक अनुगत योग्यता का निर्वचन नहीं कर सकते । अाहें भी तत्तदभावग्रहण करने के लिये उन प्रभावों के प्रतियोगी की अनुपलब्धि की सहकारीभूत योग्यता को भिन्न-भिन्नरूप में ही स्वीकार करना होगा।
[ उदयनकृत योग्यता का नियंचन दोपपूर्ण] जैसे, उदयनाचार्य ने 'प्रतियोगी और प्रतियोगीश्याप्य इन दोनों से भिन्न प्रतियोगी-उपलम्भ के समस्त कारणों के समधान' को योग्यता कहा है। किन्त इसका तर्क शख निर्व सकता-६योंकि किसी भी अभाव के प्रतियोगी के उपलम्भक, प्रतियोगी और प्रतियोगीव्याप्य से इतर जितने साधन होते हैं उन सबका समवधान कहीं भी एकत्र नहीं हो सकता। जैसे, घटाभाव का प्रतियोगी घट होता है। घट और घटल्याप्य से इतर घट के उपलम्भ के साधनों में आश्रयगतमहत्त्वउद भूतरूप और आश्रय में आलोक का सन्निधान भी आता है। किन्तु घट का उपलम्भ किसी एक ही आश्रय में नहीं होता, विभिन्नाश्रयों में होता है, अत: विभिन्न आश्रयों का उभूतरूप, महत्त्व और आश्रयों में विद्यमान आलोक घटोपलम्भक समग्र साधनों में आ जाते हैं किन्तु सबका समवधान किसी एक आश्रय में नहीं हो सकता, क्योंकि एक आश्रयगत जो उद्भूतरूपावि है अन्य आश्रय में नहीं रह सकते।
यदि इसके विरुद्ध यह कहा जाय कि-'प्रतियोगो उपलम्भक सभी साधनों का समवधान योग्यता नहीं है, किन्तु प्रतियोगी के यावत् उपलम्भकतावच्छेदक का स्वाश्रयसम्बन्ध से समवधान ही
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