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[ शास्त्रवात्ती ० स्त० ६ श्लोक ११
सम्भव नहीं है। अतः काष्ठादि का स्वभिन्न अवस्तुभूत विनाश होने पर भी काष्ठादि तदवस्थ रहने से विनाश के पूर्वकाल के समान विनाशकाल में भी काष्ठादि के प्रत्यक्ष की प्रापत्ति होगी । (२) यदि विनाश वस्तुरूप होगा तो यह प्रश्न उठेगा कि 'काष्ठादि का ध्वंस अङ्गारादि रूप ही होता है घटपटादिरूप नहीं होता है इसका क्या कारण ?' यदि इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जाय कि- "अङ्गार आदि के होने पर काष्ठावि की निवृत्ति होती है, घटपटादि के होने पर काष्ठादि की निवृत्ति नहीं होती, अतः काष्ठ की निवृत्ति अङ्गारादिरूप ही है, घटपटादिरूप नहीं है" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि काष्ठनिवृत्ति को अङ्गार प्रादि से भिन्न न मानने पर 'अंगारादि होने पर काष्ठनिवृत्ति होती है' इस वाक्य का अर्थ उपपन्न नहीं हो सकता ।
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किञ्च, एवं भावनिवृत्तावभिधेयायां भावान्तरविधानमभिहितमित्यप्रस्तुताभिधानम् । किञ्च, भावान्तरस्य प्रध्वंसत्वे तद्विनाशाद् घटाद्युन्मञ्जनप्रसक्तिः । न च कपालादेर्भावरूपतेव ध्वस्ता स्वभावरूपतेति नायं दोष इति वाच्यम्, भावान्तररूपस्याभावस्य तदभावे प्रच्युतत्वात् । क्ष भावस्तु कल्पतरूपते न उभावरूपानुविद्धः तस्य च कार्यत्वे हेत्वनन्तरं भक्तृित्वेन भावत्वं स्यात्, अभावात्मकतयैवासी भवतीति च व्याहतमेतत् ।
[ नाश के पश्चाद् घट के पुनः उन्मजन की आपत्ति ]
इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि भावनिवृत्ति के प्रतिपादन के प्रसंग में उसे भावान्तर के रूप में विधान करने से अप्रस्तुत के अभिधान को प्रसक्ति होती है । और दूसरी बात यह है कि यदि प्रध्वंस को भावान्तररूप माना जायगा तो कपालादिरूप घटप्रध्वंस का विनाश होने पर घटादि के उन्मज्जन ( पुनर्जन्म ) की आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि- कपालादि के नाशक से कपालादि की भावरूपता ही नष्ट होती है, प्रभावरूपता नहीं ध्वस्त होती, अतः भावरूप से कपालादि का नाश होने पर भी अभावरूप से कपालाविरूप घटध्वंस विद्यमान रहता है अतः घटादि के उन्मज्जन को आपत्ति नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव यानी विनाश यदि भावान्तररूप होगा तो भावान्तर का विनाश होने पर सद्रूप अभाव यानी विनाश का भी विनाश अवश्य होगा। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि अभाव का अनुभव तुच्छरूप में ही होता है, भावरूप से अनुविद्ध प्रभाव का अनुभव नहीं होता । अतः उसे भावस्वरूप मानना उचित भी नहीं है । यह भी विचारणीय है कि अभाव यानी विनाश को यदि कार्यरूप माना जायगा तो हेतु के अनन्तर भवनशील होने से वह भावात्मक हो जायगा । फिर, तुच्छरूप में उसका अनुभव न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि “विनाश यह कार्यरूप होने पर भी अभावात्मकरूप में ही हेतु द्वारा उत्पन्न होता है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'विनाश अभावात्मक भी है और हेतु के अनन्तर अभावात्मकरूप से भवनशील होता है यह यचद व्याहत है, क्योंकि जो अभावात्मक है उसे हेतु के पश्चात् 'भवति' इस रूप से व्यपदिष्ट नहीं किया जा सकता ।
अपि च, यदि हेतुमान् विनाशस्तदा तद्भेदादात्मभेदं किं नानुभवेत् ? । दृष्टो हि घटादीनां कार्यरूपाणां कारणभेदाद् भेदः । ध्वंसस्य लग्न्यभिघातादिहेतुभेदेऽपि न भेदोऽनुभूयते, सर्वत्र विकल्पज्ञाने तुल्यरूपस्यैवाभावस्यावभासनात् । किञ्च, अस्य हेतुमचे विनाशप्रसंगो