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स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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से बाधकज्ञान से बाध्यज्ञान को निवृत्ति मी सम्भव हो सकने से बाध्य-बाधफभाध का निराकरण अयुक्त है। यदि यह कहा जाय कि-'नीलादिज्ञान में भी सर्वशून्यताज्ञान से फलतः तदभाववधिशेष्य. कत्वे सति तत्प्रकारकत्व रूप प्रसद्विषयकत्व का ही साधन होता है तो यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि लोकहदि से नीलाविज्ञान में सद्विषयकत्व होने के कारण असद्विषयकत्व का प्रत्यक्षबाध है । क्योंकि जैसे चन्द्रदय के ज्ञान का लोकाभिमत बाध होता है उस प्रकार लोक दृष्टि से सत्य बाले नीलादिविषयक ज्ञान का कोई लोकसिद्ध बाध नहीं होता।
इस के विरुद्ध यदि यह कहा जाय फि-'यद्यपि यह सत्य है कि द्विचन्द्रादि का बाध लोकाभिमत हो है और उस बाध में लोकसंवृति-तत्वसंवृतिसिद्ध सत्ता है इसलिये उस में लोक को सत्त्व का अभिमान होता है तथापि शास्त्र से उसमें पारमायिक सत्य के अभाव का ज्ञापन होता है-उसी प्रकार नोलादि तथा नीलाविज्ञान में लोकबाध्यत्व न होने पर भी परमार्थ सत्त्व के अभाव का साधन करने में कोई दोष नहीं हो सकता। क्योंकि जैसे 'प्रकाशस्य प्रकाशता यानी प्रकाश की प्रकाशरूपता' और 'नीलादीनां स्वभाव:-नीलादि का स्वभाव' इन व्यवहारों में लोकसिद्ध भो भेद युक्तिसह न होने से परमार्थ से उसका अभाव होता है उसी प्रकार नीलादि भी पुक्तिसह न होने से उनके परमार्थसत्त्व का प्रभाव हो सकता है। किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि लोकसिद्ध साध्य का साधन करने में लोकसिद्ध बाध का दोष होना अनिवार्य है। नीलादि में जो प्रसव साधनीय है वह अन्यत्र राशविषाणादि में लोकसिद्ध है अतः उसका अनुमान करने पर नोलादि का लोकसिद्ध सत्त्व एवं नोलादिक्षान का लोकसिद्ध सद्विषयकत्व बाधक हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि- नीलादि और उस के ज्ञान में जो असत्व तथा प्रसद्विषयकत्व सापनीय है वह लौकिक न होकर मलौकिक है अतः उस में लोकसिद्ध बाध दोष नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अलौकिक साध्य अप्रसिद्ध है।
यदि यह कहा जाय कि-"नीलादि में लोक को परमार्थ सत्व का ज्ञान नहीं होता है किन्तु उसमें लोक को सत्त्व मात्र काही अनुभव होता है और सत्त्व का अनुभव परमार्थसत्त्व के प्रभाव साधन में बाधक नहीं हो सकता क्योंकि जैसे मृतलादि में घटप्रकारक ज्ञान होने पर भी नोलघाभावप्रकारक ज्ञान होता है उसी प्रकार नीलावि में सामान्यरूप से सत्त्व का ज्ञान होने पर भी परमार्थसत्त्व के अभाव का ज्ञान हो सकता है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि द्विचन्द्रादि में भी लोक को असत्त्वमात्र काही अनुभव होता है। परमार्थसत्याभाव का अनुभव नहीं होता। अत: परमार्थसत्त्वाभाव कहीं सिद्ध नहीं है, अत एव साध्याऽप्रसिद्धि दोष होने से नोलावि में परमार्थसत्त्वाभाव का साधन नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि जैसे सर्वशून्यतापक्ष की स्वप्न में भी प्रतीति न होने से उसका निरास होता है उसी प्रकार स्वच्छसंविद् से भिन्न सर्वशून्यतापक्ष का भी निराकरण समझना चाहिये क्योंकि मध्यमक्षणस्थायी अर्थात् ग्राह्य तथा ग्राहक न होने से ग्राह्यक्षण और ग्राहकक्षण के मध्यमक्षरण में स्थायी अर्थात् ग्राह्य ग्राहकाकारविनिर्मुक्त ऐसे स्वच्छसंवि मात्र का कमी उपलम्भ नहीं होता। क्योंकि स्वपरव्यवसायी ज्ञान का ही स्पष्ट उपलम्म होता है, अर्थात जो ज्ञान उपलब्ध होता है वह स्वस्वरूप और स्वभिन्न का बोधक होने से ग्राह्यग्राहक उमयाकार हो होता है। जो प्रत्यय अनुपलब्ध-असिद्ध है उससे उपलब्ध यानी सिद्ध प्रत्यय का बाध सुघट नहीं हो सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसङ्ग होगा। अर्थाद शुक्ति में रजतमेवज्ञान अनुपजात रहने पर मी शुक्ति में रजतज्ञान का बाधक होगा, क्योंकि अनुपजातवशा में वह अनुपलब्ध प्रत्ययरूप है।