Book Title: Mahavira Bhagavana
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Pustakalay
Catalog link: https://jainqq.org/explore/010403/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website. Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility. If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ かなり MOHAN ABAGASATÚČAS ॥ श्रीमहावीराय नमः JAIPY भगवान महावीर से, आधुनिक शैलीपर रचयिता - बाबू कामताप्रसादजी जैन, उपसम्पादक "वीर" - अलीगंज (एटा) मूलबन्द किसनदास कापड़िया, दिगम्बर जैनपुस्तकालय, चंदावाड़ी - सूरत। प्रकाशक प्रथमावृति] धीर सं० २४५० [प्रति १९०० मूल्य रु० १-२२-० NUTAZAL 199 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रय --- मूलचन्द किसनदास कापड़िया, " जैन विजय" प्रिन्टिंग प्रेस - सूरत । भगवान् महावोरका चिह्न । " वीरो वीरनरामणीगुणनिधि वीरा हि वोरं श्रता । वीरे सोह भवेत्सुबीर विभवं वीराय नित्यं नमः || " श्री सकलकीर्ति । Buda प्रकाशक मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक दिगम्बर जैन पुस्तकालय, चन्दावाड़ी - सुरत । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSZABORE निवेदन। - यों तो सारी जैन समाजमें कई महावीरचरित्र भनेक भाषाओंमें प्रगट होचुके है, तो भी भाजतक जिसके द्वारा अजैन समाजपर जैनधर्मकी प्राचीनता व उत्तमताकी छाप पड़े व जैनधर्मका हिन्द देश तो क्या विदेशमें भी प्रचार हो ऐसा कोई भी महावीरचरित्र उपलब्ध न होनेसे राष्ट्रीय-हिन्दी भाषामें एक ऐसे प्रन्थकी बड़ी भारी आवश्यकता थी। हर्ष है कि अब इस आवश्यक्ताकी पूर्ति हमारे परम मित्र व 'वीर' के उपसम्पादक यावू कामताप्रसादजी जैन अलीगंज निवासीने भतीष परिश्रम करके कर दी है। बाबू कामताप्रसादजीने इस प्रन्थकी रचना भाधुनिक प्रामाणिक शैलीपर ऐतिहासिक व तुलनात्मक दृष्टिसे अतीव परिश्रम करके की है, जिससे अजैन समाजमें जो यह भ्रम फैला हुआ है कि जैनधर्म तो बौद्धधर्मकी शाखा है व प्राचीन नहीं है उसका एवं महावीरस्वामीके प्रबंध में प्रचलित विविध शकाओका निवारण होकर वास्तवमें जैनधर्म कबसे प्रचलित है व इसके सिद्धांत कितने भनुपम तथा महावीरस्वामीका उससे क्या संवध है, यह सब सभ्य ससारके समक्ष दृष्टिगत होगा। इस प्रन्यके संपादन करनेमें रचयिताने कितना गाढ़ परिश्रम किया है उसका पता तो उन्होंने जो आगे हिन्दी व अग्रेजी २३ प्रन्यों की सूची (जिसकी सहायतासे यह प्रन्धराज तैयार हुआ है) दी है उससे लगता है तथा विशेष खूबी यह है कि उन्होंने इस प्रन्यमें कोई भी भाने नवीन विचार नहीं प्रकट किये है परन्तु नवीन शैलीपर प्राचीन आचार्य च विद्वानोके वाक्य ही भगवान महावीर पवित्र जीवनपर उड़न किये है। इस प्रन्यकी महत्वता इससे और भी बढ़ जाती है कि इस संशोधन हमारे माननीय विद्वान् वा चम्पतरायती रिष्ठर या Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीमान जैनधर्मभूषण शीतलप्रसादजीने लिया है तथा इस प्रथकी लेखनकली व उपयोगिता पर अपना उत्तम मत प्रदर्शित किया है। तथा पेरिस्टर साहपने तो इस प्रन्यकी भूमिका भी लिख दी। इससे माम होता है कि ऐसे महत्वपूर्ण अन्धका जैन तो क्या भगेन समाजमें भी विशेष भावर होगा । भन्तमें एक बातका उल्लेख किये बिना हम नही हसते कि जब भनेक अन्योंके लेखक प्रन्य तेणर काके उसका मेटर (कोपी) प्रकाशकको मूल्यसे पेच देते है तब बाबू कामताप्रसादजीने इस कार्यको भतीष परिश्रमसे परोपकार के लिये कर दिया है अर्थात थापने भानरेरी तोरसे ही इसका संपादन करके हमको प्रकट करनेके लिये दे दिया है जिसके लिये हम सारी जैन समाज भापकी भतीष भामारी है। अगर ऐसे ही पढ़े लिखे जैन नवयुवक हमारी समाजमें जैनधर्म की प्राचीनता व उत्तमताके विषयों नवीन शैलीपर तुलनात्मक दृष्टिले अन्य निरगे तो जैनधर्मका बड़ा भारी उपकार होगा। इस प्रन्यके संपादन व प्रकाशन कार्य जो कोई दस गई हो उसकी सुचना पाठकवर्ग हमें लिख भेजेंगे तो दूसरी भावृत्तिके समय ससमें संशोधन कर दिया आयगा । हम चाहते है कि इस अन्यका प्रचार हमारोकी संख्या में हो इसलिये जैन समाजसे अपील करते है कि उसे इसकी भनेक प्रतिय खरीद करके इसको भजन समाजमें मुफ्त भी बांटना चाहिये । इत्पलम् । पीस. २४५. ज्येष्ठ सुदी५ ता०७-1-२४ मूलचंर किसनवास कापड़िया, प्रकाशका Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमहावीराय नमः | प्रस्तावना | "प्रभु स्वरूप अति अगम अथाह, क्यों हमसे यह होय निवाह" सुरुगुरूसे वंदनीक, अविकार गुणसमुद्र, सर्वहितैषी, परमब्रह्म, पतितपावन, पुनीत परमात्मा महावीरके कल्याणकारी जीवनका वर्णन परिमित शब्दोंमे करनेका साहस करना दुरसाहस } मात्र धृष्टता है । उस उन्मत्त पुरुषकी क्रिया सदृश है जो उद्धत तरल तरङ्गकर वेष्टित अगाध उदधिकी थाह लेनेके लिए अग्रगामी 1 हुआ हो । भला जब उन विशुद्ध प्रभुके साक्षात् दर्शन करनेवाले, मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय एवं केवलज्ञान के धारक गणधर ¦ ' भगवान भी उन परमोत्कृष्ट प्रभुके गुणगान करनेको पर्याप्त समर्थ नही हुए, तो इस कालके एक क्षुद्र छद्मस्थ मानवकी क्या शक्ति है कि वह उन प्रभुके दिव्य जीवनका प्रकाश प्रकट कर सके ? यही बात मेरे परमप्रिय श्रद्धेय मित्र श्रीमान् वैरिष्टर चम्पतरायजीने अन्यत्र ; अपनी भूमिकामे प्रकट की है ! तो फिर क्या भगवानके जीवन के विषयमें हम कुछ नही कह सक्ते ? अपने जाराध्यदेव, हृदय के तारे, त्रिजग उजियारेके यशगान हम नही कर सक्ते ? क्या हमारे शुद्ध अन्तः करणकी पुनीत भक्तांजलि भी उनको समर्पित नहीं की ना । सक्ती ? भक्तिकी महोघ शक्तिसे अवश्य ही अम्म्म्भव संभव हो जाता है । प्रेमके आवेशमें क्षुद्र मृग निजसुतकी रक्षा निमित्त 'मृगपतिका सामना करते नही डरता है ! अतएव भक्तिकी मनमोहन तरंगने परमात्मा नहा वीरके पवित्र जीवनपर फिरसे प्रकाश डाल भले ही मैने "प्रांशु लभ्ये फले लेमा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२). दुबाहुरिव वामनः वत् क्रिया की हो; परन्तु मैं जानता हूं कि. जहां कविकुल शिरोमणि, नरोत्तम भगवान गुणभद्राचार्य, भट्टारक. कुलभूपण श्री सकलकीर्तिनी और कविवर अशगने जिस प्रकार भक्ति-रस-संचित हृदयोयानसे परम-सरस-सौरभयुक्त पूर्ण प्रस्फुटित-प्रसून प्रभू वीरके पवित्र पाद-युगलमें समर्पण करनेका सौभाग्य प्राप्त किया था, वहां क्या मै अपनी अविकसित निर्मल भक्तिकुसुम-कर्णिकाको स्वात्माकी संतुष्टि मात्रके अर्थ समर्पित कर लतकल्यावस्थाको प्राप्त हो सका हूं ? परन्तु भक्तिवश मनुष्य सर्वे कुछ कर सकता है ! तथास्तु! यद्यपि भगवान महावीरके जीवनचरित्र लिखनेके लिए मुख्य प्रेरक हृदयकी भक्ति ही है परन्तु, बाएनिमित्त भी उसमें विशेष सहायक हैं। और यह मानी हुई बात है कि समय समय मनुप्यकी आवश्यकाएं और रुचियां बदलती रहती है; इसलिए मी भगनानके पवित्र जीवनपर नपीन ढंगसे प्रकाश डालना आवश्यक है । स्वयं भगवान महावीरने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार वर्तन करणा उपयुक्त बतलाया था। तिसपर हिन्दी मैन, साहित्यमे भगवान महावीरका कोई भी ऐसा जीवनसंथ उपलब्ध नहीं है, जो आधुनिक रीतिपर लिला हुआ हो और अनेन विद्वानोंके हाथेमे अर्पण किया जा सके ! यही कमी गत महावीर जयन्ती महोन्स के समय इटानेने नुको विशेष रूपसे दुरित करने लगी। गाय सना गर्नाहत तुगा कि मैंने उस कमीतो स्वयं ही सीरम पूर्ण करता हल्लप कर लिया, जिसके फलस्वरूप प्रस्तुत 'जीनाममात्र धर्म-प्रगादनाती पूर्ति निमित्त Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) सम्य संसारके समक्ष उपस्थित हो रहा है। संभव है कि जबतक आगामी में कोई प्रखर विद्वान इस विषयमें अपनी मूल्यवान लेखनीको अविश्रान्त श्रम नहीं दे, तबतक मेरा यह प्रथम बाल - प्रयत्न उक्त आवश्यक्ताकी पूर्ति करने में सहायक हो । सर्वोपरि भगवान महावीर के संबंध में जो तरह २ की कल्पितविचार- विभ्रांतियां और थोथी मिथ्या किम्वदंतियां प्रचलित हैं उनका निराकरण करना इसलिए और भी आवश्यक होगया है कि उनके कारण विद्वत्समाज जैनधर्मका अध्ययन करना अथवा उससे मामूली जानकारी ही प्राप्त करना अनावश्यक समझती है । इन भ्रमपूर्ण विचारोंकी उत्पत्तिका मुख्य कारण प्रखर जैन साहित्यको समुचित रीतिमें प्रकट प्रकाशमें नहीं लाना ही कहा जा सक्ता है ! अतएव यदि आधुनिक प्रामाणिक ढंगपर जैन सिद्धांत और इतिहास ग्रंथ लिखे जांय तो यह मिथ्या-भ्रम स्वयं ही काफूरवत् उड़ जांय, किंतु भारतके प्राचीन इतिहासके सम्बन्धमें जो कुछ भी प्रकाश आज तक प्रकट हुआ है वह अधिकांश में योरुपीय विद्यानोके साधु-श्रमका फल है । प्रथम ही प्रथम योरुपीय विद्वानोंनें भारतवर्षके चिषयमें ज्ञान प्राप्त करनेके जो कुछ प्रयत्न किए थे वह बहुतायत से ब्राह्मण और बौद्धग्रन्थोंके आधारसे किए थे । इन विधर्मी ग्रन्थों में स्वभावतः जैनधर्मके विषयमें यथार्थ वर्णन नहीं था; क्योंकि मध्यकालसे इन भारतीय धर्मोौमें आपसी प्रतिस्पर्धा भी खूब चली आरही है । फलतः ब्राह्मण और बौद्ध श्रोतोंसे प्राप्त अधूरे ज्ञानके कारण इन विदेशी विद्वानोने यह मत निश्चित कर लिया था कि जैनधर्म बौद्धधर्मका बिगड़ा हुआ रूप है और Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) भगवान महावीर कोई वास्तविक व्यक्ति नहीं थे !! परन्तु, यह भ्रमपूर्ण व्याख्या अधिक दिन टिक नहीं सक्ती थी। सत्यका प्रकट होना अवश्यम्भावी था। नर्मनीके डा० जैकोबी सदृश विद्वानोंने जैन शास्त्रोको प्राप्त किया। और उनका अध्ययन करके उनको, सम्यसंसारके समक्ष प्रगट भी किया। यह श्वेताम्बरामायके अंग ग्रंथ हैं। और डॉ० जैकोबी इन्हीको वास्तविक जैन श्रुत शास्त्र समझते हैं। इस भ्रममय श्रद्धानके होते हुए भी डॉ जैकोबी के इस उत्तम अमके कारण उक्त-भ्रम-मूलक व्याख्या निर्मूल होगई है और प्रमाणित हो गया है कि जैन धर्म एक अतीव प्राचीन धर्म है और भगवान महावीर म० बुद्धसे भिन्न एक वास्तविक व्यक्ति थे। ___यद्यपि इन उदार सत्यानुवेषी विद्वान् महोदयोंके मूल्यमय परिश्रमसे भगवान महावीर और जैनधर्मके अस्तित्वकी खाधीनता और प्राचीनता प्रकट होगई है। परन्तु अब भी सभ्य संसारके मध्य यही दृढ़ श्रद्धान घर किए हुए है कि जैनधर्मको हिंदूधर्मके विपरीत सामाजिक क्रांतिरूपमें भगवान महावीरने ही म० बुद्धके साथ २ चलाया था और दुःखकी बात तो यह है कि इसी व्याख्याकी पुष्टि अधिकांशमें हमारे स्कूलों और कॉलिजोके पठनकमके इतिहास ग्रन्थोसे भी होती है । अतएव इस प्रकार लोगोंको #Not only Tacobi but other scholars also believed that Jainism far from being an off.hoot of Buddhism, might have been the ear licst of home religions of India. The simplicity of devotion and the homely prayer of the Tan without the intervenition of a Bmlımın yould certain add to thestrength of the theory so rightly mpheld lhy Jacobr." (Scc the Studies in Sesath Indian Jainism I't 1 p 9). - - - -- Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (५) विश्वास हो जाता है कि वास्तवमें महात्मा बुद्धके अनुसार ही भगवान महावीरने भी एक धर्म प्रकट किया था और वह जैनधर्म है । यही कारण है कि म० बुद्धके समान ही भगवान महावीरके प्रति उनकी दृष्टि गौरवपूर्ण नहीं रहती हैं। वह समझते हैं कि ईसासे पूर्वकी ९ वीं शताब्दिसे लेकर ईसाकी पहिली दूसरी शताब्दितक' चराबर म ० बुद्धका प्रभाव भारतवर्ष में सर्वत्र रहा, और भगवान महावीरका धर्म उनके ही निकट संबंधीजनोंके राज्योंमें सीमित रहा । कठिनतासे एकाध दफे वह भारतवर्ष में सर्वत्र प्रचलित हुआ । यहांतक कि विद्वानोंके निकट यह काल " बौद्ध काल " के नामसे विख्यात है । परन्तु वास्तवमें यथार्थ खोजके निकट यह भ्रम दूर हो जाता है और हमको ज्ञात होता है कि इस कालके अन्तर्गत समयानुसार जैन धर्म और बौद्ध धर्मकी समान प्रधानता रही है और साथमें हिदूधर्म भी अपनी शक्तिको एकत्रित करता जा रहा था । अतएव पूर्वी - भाषा-भाषी विद्वानोंके शुभ प्रयत्नोंके उपरांत भी सभ्य संसारके मध्य उपर्युक्त प्रकारके मिथ्या भ्रमं घर कर रहे हैं जिनके कारण वह जैनधर्मके मनन करनेसे कुछ नवीन संदेश पानेकी आशा नहीं रखते हैं । उनके इन 1 भ्रमोंका औचित्य दिखलानेके लिए भी इस पवित्र 'जीवनी' के लिखनेका साहस किया गया है। इसके पाठ करनेसे साधारण रूप में सत्य खोजी मस्तिष्कको ज्ञात हो जायगा कि वास्तवमे जैन धर्म क्या है ? वह कबसे है ? और उसका भगवान महावीरके साथ क्या सम्पर्क है ? भगवान महावीरका दिव्य प्रभाव उनके समय में कितना दिगन्तव्यापी था कि स्वयं म० बुद्धने उनके जीव Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) नसे दृढ़ श्रद्धानको प्राप्त किया था, यह इसके पाठसे ज्ञात हो जायगा । और इस तरह भगवान महावीरकी यथार्थ जीवन घटना-' ओंका शुभ्र ज्ञान भी विज्ञपाठकोंको हो जायगा ! तथैव उनके दिव्य जीवनसे और उनके सर्व कल्याणकारी अवाधित संदेशसे उनके हृदयो में सौम्य वीरत्व और सुन्दर सार्वप्रेमका उक नह निकलेगा ! इसी लिए यह पवित्र 'पुस्तक ' ऐतिहासिक प्रमाणिकताकी दृष्टिसे लिखी गई है। संभव है कि इस नूतन प्रणालीको हमारे कुछ साधर्मी सज्जन पसन्द न करें; परन्तु उनको जान लेना चाहिए कि धर्मकी वास्तविक प्रभावना के निमित्त ही यह इस ढंग पर लिखी गई है, क्योंकि आधुनिक विद्वत्समाज अपनी भ्रम बुद्धिके अनौचित्यको तव ही स्वीकार करेगी जब वह अपनी व्याख्याके विपरीत सप्रमाण वर्णन देखेगी । धर्मके प्रति प्रचलित कुत्सित, विचारोंका दूर होना ही वास्तविक प्रभावना कही जासक्ती है इसके साथ ही विज्ञ पाठकोको इसके पाठसे इस बातका भी पता चल जायगा कि जैन शास्त्रों के कथा- विवरणों में कितना ऐतिहांसिक सत्य विद्यमान है और इस लिए भारतके इतिहास निर्माणमें उनका महत्व कितना बड़ा चढ़ा है। मुख्य बात तो जैन शास्त्रोंमें दृष्टव्य यह है कि जहां उन्होने अन्य धर्मोंका वर्णन किया है वहां वह यथार्थ रूपमे है । पारस्परिक विरोधके कारण जैन ऋषियोंने अन्य धर्मी मान्य लेखकोमें अधिकांशकी भांति किसी भी धर्मके सिद्धान्तो वा घटनाओका चित्र चित्रण नहीं किया है। प्रत्युत उनकी समलोचना यदि की है तो समुचित रीत्या की है। इसी लिए तो आजकल भी गण्यमाण्य विद्वानोंको मानना पड़ा है कि: Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * Characteristic of Todisn narrative art die tho narratives of tho Jaias. They describe the life and mannois of the Indian population in all its different classes and in full accordance with reality. Hence Jain Darm live literature is amongst the most precious sound, not only of folkloze in the wost comprehousive sonse of tho void but also of the history of Indian Civilisation." - Dr. Foernle. वस्तुतः डॉ. हर्नलके उक्त शब्दोंसे नेन ग्रन्थोंकी प्रमाणिकता प्रगट है । अतएव कहना होगा कि हृदयकी पवित्र भक्तिके साथर उक्त बाह्य कारणोसे प्रेरित हो इस प्रथम प्रयत्नका प्रयास किया गया है । मैं नहीं जानता कि मै उसमें कहांतक सफलमनोरथ हुआ हूं। मुझे तो आशा है कि इस अनधिकार प्रयत्नमें मुझसे यथार्थ चरित्रके चित्रन करने में भी शायद त्रुटिया होगई हैं, क्योंकि वह मनुष्यके लिए स्वाभाविक है । उनकी निवृत्ति के लिए केवल एक मार्ग यही है कि विनयरूपमें विद्वत्समाजके निकट यह निवेदन किया जाय कि ऐसी त्रुटियोसे वह मुझे मूचित करदे जिससे आगामी उनका सुधारकर दिया जावे। ___ यद्यपि मैंने ऊपर कहा है कि इस जीवनीको लिखना मेरा प्रथम-प्रयास है, परन्तु एक तरहसे मेरा इसमें कुछ भी नहीं है। जो कुछ भी पूर्वागामी महत् पुष्यवान महान विद्वानोंने प्रकट किया था, उसको ही मैने नवीन रूप दिया है और उतना ही श्रम मात्र मेरा है । इसपर भी बहुत कुछ श्रेय मेरे मान्य मित्र श्रीमान् चम्पतरायनी जैन, वैरिष्टर-एट-ला, हरदोई पर निर्भर Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) है, जिन्होंने मुझे न केवल आवश्यक ग्रन्थोंको ही देकर उत्साहित किया, बल्कि समग्र लिखित-कॉपीको पढ़कर अपनी अमूल्य सम्मतियोंद्वारा मुझे पूर्ण साहाय्य और इस पुस्तककी भूमिका लिखकर वास्तविक उत्साह प्रदान किया है। इसके लिए मैं उनके निकट विशेष रूपसे छतज्ञता पाशमें वेष्टित हूं। साथमें ही मैं श्रीमान् जैनधर्मभूषण व शीतलप्रसादनी संपादक "जैनमित्र " का भी आभारी हूं, जिन्होने भी प्रस्तुत पुस्तकके प्रथमके कुछ परिच्छेदोंका अवलोकनकर मुझे अनुग्रहीत किया था। तथैव श्रीयुत बाबू हीरालालनी एम० ए० एल० एल० बी० संस्कृत रिचर्स स्कॉलर, प्रयाग विश्वविद्यालयके निकट भी मैं आभारी हूं, जिन्होंने भगवान महावीरकी सर्वज्ञताका प्रमाणीक परिगिष्ट लिखकर इस पुस्तकका महत्व बढ़ा दिया है। अथच मै इस सम्बन्धमें उन सर्व आचार्यों और ग्रन्थकर्ताओंका भी मी आभार माने विना नहीं रह सक्का, जिनके ग्रन्थोंसे मैंने सहायता ग्रहण की है । इन अन्थोंकी नामावली पृथक् दी हुई है। ____ अस्तु, अन्तमें मुझे यह प्रकट करते हुए अत्यन्त हर्ष है कि मेरे प्रियमित्र सेठ मूलचंद किसनदासजी कापडियाका ही सब कुछ श्रेय है कि उनके अनुग्रहसे ही यह ग्रन्थ आज सभ्यसंसारके निकट प्रकाशमें आ रहा है । प्रभू वीरकी पवित्र संस्तुतिसे उनके इस साधु-श्रेयका वास्तविक फल प्राप्त हो, यही भावना है। गयम् भवतु । विनीत-- कार नियम दिवस कामताप्रसाद जैन, सं० २४५० अलीगंज (पटा) Page #15 --------------------------------------------------------------------------  Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ រៀយដោយអមនុងដនមកអងបងក្តី Revan&ArtRJARSKENARISTUTUBABAANSAGRERERERENEATUS បទបមក ... स्वर्गीय कुमार देवेन्द्रप्रसादजी जैन-आरा । កងកម9នាក€edePe (alk Ł |KhaJIH—ble hable) IPB-AK BE " កកប់ម · Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण - । - - - ILUSIVE JeNETI LATE an (LEUNT (ENVEIC Teve - प्रिय स्वर्गासीन सखे ! ___ मैं जानता हूँ कि वर्गलोकमें आपको यहांसे बहुत कुछ अधिक सुख प्राप्त होगे; किन्तु जिस पुनीत कार्यकी आपके पवित्र हृदयमें उत्कट लालसाथी, उसीके अनुरूपमे यह एक तुच्छ कृत्य अवश्य ही आपकी आत्माको सुखमाजन होगा। अतएव प्यारे देवसखा 'देवेन्द्र'! यह -पुनीति 'वाल-कृति ' आपकी ही पवित्र स्मृतिके निमित्त आपको ही सादर सप्रेम समर्पित है। यदि इससे किञ्चित् भी 'धर्मप्रभावना' हुई तो उससे 'मेरो और आपकी' दोनों आत्माओकी संतुष्टि होगी। तथास्तु। प्रेम-वियोगीकामताप्रसाद जैन। - - - -- nanter - - - Tr - NAXXAN Insaninepinten 「 同根 GRIGS75 - - - -- Page #18 --------------------------------------------------------------------------  Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ भूमिका। श्री पूज्य परमात्मा भगवान वर्द्धमान महावीरका जीवनचरित्रइतना अद्भुत और अनुपम है कि जिन्होंने उन्हें उनके जीवनकालमें देखा था वे भी उनका जीवनचरित्र वर्णन करनेमें असमर्थ रहे, तो फिर वर्तमानकालके लेखकोंकी क्या शक्ति है जो उसको पूर्ण रीत्या वर्णन कर सके। आज श्रीभगवानके निर्वाणको २४४९ वर्ष हुवे हैं। इतने समयके पश्चात् भगवानकी शुभ जीवनी लिखना और उससे यह आशा करना कि वह सर्वाश ही भगवानकी दिव्य मूर्ति या उनके पूज्य गुणोको दर्शा सकेगी, एक झूठा विचार है, तथापि मेरे परम मित्र बाबू कामताप्रसादनीने बड़े परिश्रम व कष्टसे बहुत कुछ सामिग्री उक्त पूज्य तीर्थकरके जीवनकालकी एकत्रित करके उसको बहुत सुन्दर रीतिसे लेखबद्ध किया है इसके लिये मैं उनको हार्दिक धन्यवाद देता हूं। कुछ काल पूर्व स्वयं मेरे हृदयमें एक बार यह उमंग पैदा हुई थी कि मैं पूज्य अन्तिम तीर्थकरका जीवन-चरित्र लिखू परंतु तीच अन्तरायकमके कारण मै इस शुभ कार्यसे चश्चित रहा। अब जव कि मेरे मित्र बाबू कामताप्रसादजीने अपनी इच्छा प्रगट की कि मैं उनकी पुस्तककी भूमिका लिखू तो मुझको अत्यन्त हर्ष प्राप्त हुआ, मानो एक प्रकार मेरी अभिलागाकी पूर्ति ही हो गई। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैंने उपर कहा है कि भगवान महावीरका जीवन अनुपम है। तीर्थकरका जीवन सदैव ही अनुपम होता है, क्योंकि वह नीवित परमात्मा होता है जिसकी उपमा दूसरे जीवित परमात्मासे ही दी जा सक्ती है, अन्यथा नहीं । भगवानका जन्माभिषेक स्वर्ग लोकके देवताओने आकर मनाया था। भगवान चरम शरीरी थे। मल, मूत्र पसीना आदि वालपन हीसे भगवानके नहीं होते थे। जन्मसे ही भगवान तीन प्रकारके (मति, श्रुति और अवधि) ज्ञानसे भूषित थे । तप कल्याणके समय चौथा अर्थात् मनःपर्याय ज्ञान भगवानको प्राप्त हुआ था और 'सर्वज्ञता' धातिया कोके नाश होनेपर मिल गई थी। केवलज्ञानको प्राप्त हुये पश्चात भगवान साक्षात परमात्मा थे, जिनके दर्शन मात्रसे भव्य जीवोंको यही प्रतीत होता था कि मानो मोक्ष निधि ही मिल गई है। भगवानके समवशरणमें विराजनेके समयकी महिमाका तो कहना ही क्या है । वयं बुद्ध ग्रन्थोंमें भगवानके सर्वज्ञ होनेकी साक्षी 'मिलती है । देखो ममिन निकार व इन्साइलोपीडिया ओफ रिलीजन एण्ड धियख भाग २ पृट ७०)। पुद्धदेवके हृदयपर भगवानके केवलजानका ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह निल्कुल गुग्ध होगये और स्वयं यह विचार करने लगे कि सर्वज्ञता किस प्रकार प्राप्त करें। इसके लिये उन्होंने भगवान महावीरले सदन पतुन काल कठिन तपस्या की और तप करने २ अपने गरीसो अत्यन्त दुबल और शक्तिहीन कर दिया। कतर पात कार जब कि तपकी रनिता कारण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) - उनकी शारीरिक शक्ति बहुत ही क्षीण होगई और 'बेहोशी की नौबत पहुंची तो उन्होंने विचारा कि: "न इन कठिनाइयो के अनिष्ट मार्ग द्वारा मैं उस पृथकू और सर्वोत्कृष्ट सम्पूर्ण आय के ज्ञानके प्रकाशको जो मनुप्यकी बुद्धिसे परे है, प्राप्त कर पाऊँगा । क्या यह संभव नहीं है कि उससे प्राप्त करनेका कोई अन्य मार्ग हो ? " (इन्साइक्लोपीडिया ओफ रिलीजन ऐंड इथिक्स भाग २ पृष्ट ७० ) । 1 विश्वास इसीका नाम है । इतनी कठिन तपस्याके निप्फल होने पर भी हृदय से सर्वज्ञताका ध्यान न गया। केवल यही विचार उत्पन्न हुआ कि अथवा उसकी प्राप्तिका कोई दूसरा मार्ग तो नहीं है । हां ! यह अद्धा, यह विश्वास इसी कारण था कि महात्मा बुद्धदेवने खयं अपनी आंखों से परमात्मा महावीरमें उस सर्वज्ञताका चमत्कार देखा था। क्या सुनी सुनाई सर्वज्ञतामें इतनी गाढ़ श्रद्धा होती थी कि वर्षोंकी कठिन से कठिन तपस्याके पश्चात् भी उसका ध्यान हृदयमें जमा रहे ? बुद्धदेवने जिन सुन्दर और गम्भीर शब्दों में सर्वज्ञताकी प्रशंसा की है वह ध्यान देने योग्य है : " वह पृथक् व सर्वोत्कृष्ट सम्पूर्ण आय्योंके ज्ञानका प्रकाश जो मनुष्यकी बुद्धिसे परे है। " यही सर्वज्ञता है जिसके कारण तीर्थकर भगवान परमगुरु और परमपूज्य माने जाते है और यही सर्वज्ञता प्रत्येक भव्य-जीव को भोटा प्राप्तिके पहिले घातिया कमौके सर्वथा नाग होजानेपर मिलती है। जैनधर्म सर्वशता और मोक्ष प्राप्तिका मार्ग है. जिसको Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१२) इस कालमें अन्तिम वार परमात्मा महावीरने फिर स्थापित किया था तथैव परमात्मा महावीरको नमस्कार है । इसी कारण वह हमारे जीवन के लिए पूज्य आदर्श हैं कि हम उनके चरणचिन्होपर चलकर उस सर्वोत्कृष्ट पदको प्राप्त करें जिसको उन्होंने स्वयं प्राप्त किया है। ___ इन थोड़े शब्दों सहित मैं सहर्ष एवं सानुरोध प्रगट करता हूं कि धर्मप्रेमियोंके लिये बाबू कामताप्रसादनी कृत " भगवान महावीर" की पवित्र जीवनी अधिक उपयोगी होगी और आशा फरता हूं कि भव्य जन इसके पाठसे लाभ उठावेंगे। इति शुभम् । हरदोई। भक्टूबर १९२३ 1 चम्पतराय जैन, वैरिप्टर-पट-ला। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ-सूची। * निम्न ग्रन्थोसे इस पुस्तकको संकलन करने में साभार सहायता . ली गई है:१. श्री अशग कविकृत "श्री महावीरचरित्र" (सूरत)। २. श्री जिनसेनाचार्यकृत "श्री हरिवंशपुराण" (कलकत्ता)। ३. श्री रविषेणाचार्यकृत "श्री पद्मपुराण" (,) ४. श्री गुणभद्राचार्यकृत "श्री उत्तरपुराण" की कविवर खुशालचंदजीकृत हिन्दी छन्दोबद्ध वचनिका (हलि०)। ५. श्री शुभचंद्राचार्यकृत "श्री श्रेणिकचरित्र" (सूरत)। . ६. श्री वादीमसिंहसत "क्षत्रचूड़ामणि काव्य" (बम्बई)। ७. श्री बुडुलाल श्रावककृत "मोक्षमार्गकी सच्ची कहानियां" सूरत। 8. "Life of Mahavira" by Mr. Manekcband. (Allahabad) 9. "Kalpa Sutra & Nara Tattra" | by Ror: J. Slovenson. D. D. 10. "The Heart of Jainism" by Mas. Stevenson. (Religious Quest of India Series). 171. "The Kshatriya Clans in Baddhist India" by Mr. Bimalebaran Law M. A. B. I. etc. 19. "The Ajirakas” by Dr. Barua 1. A. D. Litt. 13. "Gotana Buddha" by Mr. K. J. Saupners (The Heritage of India Scries) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 "The Coins of Indiv"by Pro: C.J. Brown f... (Tho Baitag of India Saries) 15. "The Oxford History of India" by Mr. Vin: Smith. 16. "The Sludics in the South Ludian Jainism. _by Messus S.K.Ajyangar &B.Seshagiri Ram. 17. "The Practical Path" by Mr. C R. Jain. १८. "असहमतसंगम" मि० चंपतराय जैनके The Confluence of Oppositee का अनुवाद । १९. "भगवान बुद्धदेव" By काशीनाथ ( कानपुर) २०. मि० नगेन्द्रनाथ वसु एम० ए० आदि द्वारा सम्पादित ' "विश्वकोष " 21. Historii nl Gleanings by Mr. B. C. Law. M. A B. I. २२. बुद्ध अने महावीर By K. G. Mashrawalla २३. अंग्रेनी जेनगनट, जेनमिन्न, जैनहितैषी, जैनसंसार, दिगम्बर जन आदि सानयिक पत्र । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASSssess&neralsBasessedRISSUE KatreenarenderersxeisenSSESMSROSE विषयसूची। विषय प्रस्तावना भूमिका ग्रन्थसूची ... १-वीर दर्शन ... २-संसार परस्थिति .... ३-कालचक्र .... ४-तीर्थकर कौन हैं ? ५-श्री ऋषभदेव .... ६-श्री नेमिनाथनी .... ७-श्री पार्श्वनाथनी (-अवशेष तीर्थकर .... ९-जैनधर्म और हिन्दूधर्म ... १०-जैन धर्मका महत्व और उसकी स्वाधीनता ११-तत्कालीन-परस्थिति .. १२-लिच्छावीय क्षत्री और उनका गणराज्य १३-वैशाली और कुण्डग्राम १४-भगवानका शुभागमन * १५-शुभ-शैशव-काल और युवावस्था । १६-पूर्वभव दिग्दर्शन १७-चराग्य और दीवामण ... १८-तपश्चरण व केवलज्ञानोत्पत्ति १९-विविध उपमा वर्णन MeenEEEEEEEErecterseverREERetrent '. Border Recenesssemesterssesnanesear -2 wirefSurePRBreastfer est ME wesaraRIBRestraseshineraine Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***913649849uensa SASUSAASASA rebassiepiversalmansduatisriduistine PRARTHRITISFITSPSARESTHAWSansaridghaasaceag २०-विहार और धर्मप्रचार ..... .... २१-इन्द्रभूति गौतम ' .... १ २२-सुधर्माचार्य एवं अन्य शिष्य..... है २३-महिलारत्न चन्दना .... २४-बारिषेण मुनि . . .... २५-क्षत्रचूड़ामणि जीवन्धर .... २६-जैन सम्राट् श्रेणिक और चेटक १ २७-अभयकुमार व अन्य राजपुत्र । 1 २८-भगवान महावीर और म. बुद्ध २९-मक्खाली गोशाल .... .... 1 ३०-भगवानका मोक्षलाम ... ३१-भगवानका दिव्योपदेश 1 ३२-निर्वाण-प्राप्ति काल-निर्णय ... हूँ ३३-भगवानके संघकी अंतिम दशा और ले० अम्नायकी उत्पत्ति २१४ ३४ वीर संघका प्रभाव व जैन राजा ३५ जीवनसे प्राप्त शिक्षाऐं व उपसंहार परिशिष्ट नं. १ भगवान महावीर व महात्मा गांधी.... परिशिष्ट नं० २-बुद्ध व महावीर .... परिशिष्ट नं. ३ महावीरकी सर्वज्ञताके प्रमाण.... शुद्धिपत्र OUHIAASUANSASUSASUAARSKY meroernsserreal386Sssseensuesen Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 भगवान महावीर वीर दर्शन। "स्वध्यानमें लवलीन हो जब घातिया चारो हने । सर्वज्ञ-पोध निरागिताको पा लिया तब आपन ॥ उपदेश दे हिनकर अनेकों भव्य निजसम कर लिए। रविकिरण ज्ञान प्रकाश डालो 'वीर' मेरे भीहिए।" • - पचाच्याची ___“ सौन्दर्यपूर्ण समय है। सरिता अपने मीठे कलरवनादसे मानों वीना बना रही है, वेलें लताएँ वृओसे लिपटकर नानों प्रणयका पाठ ही पढ़ा रही हैं। मनोहर मन्द मन्द पवन चल रही है, चंद्रके शुत्र और स्वच्छ प्रकाशले पृथ्वी और सरिता दूधके समान स्वच्छ और प्रकाशित दन रही है । रात्रिरूपी तरणी चन्द्रप्रकाश रूसी दुग्धने स्नानकर तातली दकियाने नुमजित पत्र पहिनकर बन्द्ररूप हीसके मुहमको शिरसर धाराकर मानो पनिधारो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगयान महावीर । मिलनेको जा रही है । इस प्रकार संपूर्ण सृष्टिसौंदर्य मौजूद है तो. भी एक मनुष्य वृक्षके नीचे ध्यानस्थ खड़ा हुआ है वह किसी भी ओर नहीं देखता । एक दंपति सृष्टिसौदर्यका निरीक्षण करते खेलते हंसते उस शांति मूर्तिको ध्यानस्थ मूर्तिको देखकर चौंक पड़े !, स्त्री पुंछती है "प्रियतम, 'यह कौन है ? हा ! सुन्दर सौम्य युवा होनेपर भी इसने किस दुःखसे यह वनवास स्वीकार किया है?" पतिने कहा " प्यारी ! यह क्यो पुछती हो ? सारी सम्पत्तिको छोड़कर-राज्य लक्ष्मीको त्यागकर जगतके उद्धारार्थ योग धारणकर यह महात्मा दुःख-समूहोंका नाश कररहे है । एकान्तमे एकाकी रहन्नर सूक्ष्म विचार रूपी डोरीको आकाशकी ओर फेंककर संसारकी अशान्त-जलतीवलती आनाओके उद्धारके लिए-तारनेके लिए मानो पुल ही बना रहे हैं।" "अहा ! प्रियतम, समझी ,समझी, यह ' तो महाप्रमू-जग-उद्धारक महात्मा “वीर जिनेश्वर" है। हम इस प्रेमसागरके समान कब बनेंगे। " दंपति वीरप्रमू-भगवान महावीरके चरणोंपर नतमस्तक होते हैं । बारबार चरणो पर गमन करते • हैं, बारबार प्रसूके प्रफुल्लित कमल पदन देखकर पति मनमें उल्हासित होरहे हैं।" - जैनहितेच्छुकी कवितासे पाठकों, यह दिव्य दृश्य आनसे करीब २५०० वर्ष पहिलेका है । और इसी भव्य भारत महीका है। भगवान महावीर अपने श्रेष्ठ कल्याणकारी तीर्थकालमें प्रवर्त रहे थे । स्वध्यान अवस्थामे लवलीन हो उन्होंने दिव्य केवलज्ञान प्राप्त किया था और संसाराताप तप्त जीवोको परमानन्द पूर्ण मोक्षका मार्ग बतलाया Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर दर्शन । ३ था । उन्होंने कहा था जैसा कि विदित हैं कि:-" इस जगतमें किसी एक आत्माको यह ज्ञान नहीं होता है कि ( मैं कौनसी दिशासे यहांपर आया हॅू ; अर्थात् ) जैसे कि पूर्व दिशासे आया हूं या दक्षिण दिशामेंसे आया हूं; पश्चिम दिशामेंसे आया हूं; या उत्तर दिशामेंसे आया हूं; उई दिशामेसे आया हूं; या अधोदिशामेंसे आया हूं (वैसे ही ) अन्य किसी दिशा या विदिशामेंसे आया हूं । ( इसी तरह ) किसी एकको यह भी नही. ज्ञात होता कि मेरा आत्मा पुर्नजन्मवाला है अथवा नही है ? मैं कौन हूं ? यहाँसे मरकर मैं परजन्म में कौन होऊंगा ?" “ जो पुनः (कोई एक जीवात्मा) अपनी सन्मतिसे या दूसरेके कथनसे, अथवा किसी अन्य तीसरेके पाससे यह जान लेता है कि मैं अमुक दिशामेंसे आया हूं, अर्थात् जैसे कि मैं पूर्व दिशामेंसे आया हूं । यावत् अन्य दिशा विदिशामेंसे आया हूं । (वैसे ही यह भी जान ले कि -). मेरा आत्मा पुनर्जन्मवाला है । जो इन दिशा विदिशाओंमेंसे आता जाता है । ( अर्थात् ऊपर बतलाई हुई ) सर्व दिशा - विदिशाओं मेंसे आता जाता है वही मैं हूं। (भगवान कहते हैं ऐसा जो ज्ञाता है) वह आत्मवादी ( आत्माको समझनेवाला), लोकवादी ( जगतको जाननेवाला ) कर्मबादी (कर्मके रहस्यको माननेवाला) और क्रियावादी (कर्तव्यको करनेवाला ) कहलाता है । 32 विनादित्य संशोधक १-१ ज्ञात पुत्र निर्व्रन्य भगवान महावीरका अपूर्व उपदेश व्यानहारिक और पारमार्थिक दोनों दृष्टियोंकी अपेक्षा वस्तुस्वरूपम Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। होता था । उपर्युक्लिखित वाक्यसे प्रकट है कि व्यवहार दृष्टिके ज्ञानसे शून्य आत्मा यह नहीं जान सक्ता मैं कौन हूं, कहांसे आया हूं, कहाँ जाउंगा इत्यादि । उसी प्रकार विचारविहीन आत्माका, कोई अभ्युदय नहीं हो सका, वह अपने जीवनको प्रगतिमान नहीं बना सका । वह मनुष्य होते हुए भी पशुतुल्य है। क्योंकि वह अनात्मज्ञ, लोकके स्वरूपसे अनिमिज्ञ और कर्तव्य विचारसे हीन है। वैसे ही परमार्थ भावसे, नो आत्मा अध्यात्मभाव पराङ्मुख और ऐहिक विषय आसक्त है वह भी वास्तवमें *संज्ञा' यानी सम्यकूज्ञान हीन है। वह फिर चाहे व्यवहारसे कितना झी बुद्धिमान, प्रयत्नशील, प्रपञ्चपटु और सतत उद्योगी हो। वह नहीं विचार सका मैं यथार्थो कौन हूं, मेरा आत्मा क्या है। इत्यादि। जो आत्मा अध्यात्मक स्वरूपका जिज्ञासु है उसे सत्यमार्ग मिलता है और वह इच्छित स्थान पर पहुंच जाता है। और वही 'आत्मवादी है। जो अपने स्वरूपको जाननेवाला आत्मवादी है वही 'लोकवादी' है । वह लोकके स्वरूपको भी जान सक्का है। और यही लोकवादी कर्मकी विचित्र शक्तियोंका जगतके कार्यकारण भावका ज्ञाता (कर्मवादी ) होसक्ता है। और उसी तरह कर्मवादी बननेपर फिर वह 'क्रियावादी अर्थात् सम्यक् और असम्यक प्रवृत्ति ( कर्तव्याकर्तव्य ) का स्वरूप और रहस्य समझनेवाला बन सका है। इसी लिए श्री मोक्षशास्त्र (जैन वाइविल) में मोक्षमार्गको 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः बतलाया है। जिस प्रकार उपर्युक्त वाक्य परमार्थका उदबोधक है वैसे ही 'व्यवहारका भी उद्योतक है। अर्थात् व्यवहारमें जो कोई मनुष्य Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www वीर दर्शन। समान और राष्ट्र संज्ञा' (चेतना) हीन होकर अपने गतागत यानी भूत भविष्यतूका विचार नहीं करता, वह यह नहीं जान सका कि मेरा भूतकाल कैसा था, वर्तमानमें क्या हालत है, भविष्यमें क्या दशा होगी। इस प्रकारके 'संज्ञा' शून्य मनुष्य, समाज और राष्ट्रसे । अज्ञान होकर अपनी हालतसे अनभिज्ञ होकर जगत (लोक) की स्थितिको नहीं जान सके और अपने कर्तव्याकर्तव्य (कम) का भी ध्यान नहीं ला सक्के, फलतः उद्यमहीन हो अवनति दशाको प्राप्तकर राष्ट्रको भाते हैं । इसलिए अपने उद्धारके लिए हमे परमार्थ और व्यवहार दोनोके ज्ञानका उपाय करना आवश्यक है। भगवान महावीरका भव्य जीवन इस ज्ञानके उपाने मा-करनेमें हमारी सहायता कर सका है । अस्तु, वस्तु स्वरूपका ध्यान रखें क्रमशः चलिए उनके २५०० वर्ष प्राचीन जीवन कालमें प्रवेश कर उनके जीवन चरितसे अपनी आत्माका कल्याण करें। और संसारकी परिस्थिति और कालचक्रका नियातन आदि देखते चलें। Bar See Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा '' भगवान महावीर। memmmmmmmmmmmm M संसार परिस्थिति। "गीयते यन्त्र मानन्दं पूर्वाहे ललितं गृहे। तस्मिन्नेवहि मध्यान्हे, सुदुःखमिह रुद्यते ।"-ज्ञानार्णव । . जिस घरमें प्रभातके समय आनन्दोत्साहके साथ सुन्दर सुन्दर मंगलीक गीत गाए जाने हैं, मध्यान्हके समय उसी धरने , दुःखके साथ रोना सुना जाता है। संसारकी कुटिल लीला एक अनोखी आश्चर्यमय पुनरपि घटनास्थली है। जिसका जान विकाश है कल उसका अन्त है । दूर क्यों नाइए ना दिवस .ाखोके सामने दिनकर गटारणिका अरुणोदय होता है और को पहुंचकर, अन्तमे अन्तकाल होजाता है। और फिर वही उदय उत्कर्ष और, अन्त होता है । चन्द्रकी शुभ-श्वेत--वसना-ज्योत्स्ना अपने आलोकसे लोकके हृदयको रजित करती है पर वही क्रमशः लुप्त होती है किन्तु अपना क्रम जारी रखती है। तभी तो कवि कहता है"चिन्ता नहीं जो व्योमविस्तृत चन्द्रिकाका हास हो। चिन्ता तभी है जपान उसका फिर नवीन विकास हो। सुललित सुवासित रम्य वाटिकामे जो पुष्प थोड़ी देर पहिले पावस पवनके झोकोके साथ इठलाती रंगरलियां कर रहा था वही थोड़ी देर पश्चात् आपको अपने क्षणभंगुर जीवनपर पछताते नजर भायगा। बेगक आपको उसकी मनमोहक मुरत और पारी मीठी सुगन्धकी याद भले ही रह रहकर आए परन्तु वह पुष्प अब यहां! उसकी जीवनलीलाका अन्त होगया। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ' संसार परिस्थिति। ___ इसलिए प्रकृतिके नियमानुसार अथवा वस्तु-स्वरूपके अनुरूपमें सांसारिक वस्तुएँ उत्पाद-ध्रौव्य-व्यय-युक्त वीरवाणीमें, बतलाई गई है। प्रत्येक द्रव्यफी यह तीन अवस्थाऐं संसारमें होती रहती हैं । यद्यपि यथार्थमें द्रव्यका अभाव नहीं होता। सोनेकी 'अंगूठी बनी, ( उत्पाद ) बनवानेवालेने उसे कुछ दिनों पहिना (नौव्य ) अन्तमें तुडवा -डाली. ( व्यय ) परन्तु सोना अब भी मौजूद रहा। वही प्रभूवीरकी, बतलाई हुई द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक दृष्टियां यहां भी काम कररहीं हैं। वीर वाणीमें यही उत्कृष्टता है। " इसी नियमके अनुसार '-महावीर भगवानने अपने पूर्व गामी तीर्थकर श्री पार्श्वनाथनीक शासनकालमा नो,अन्य विधर्मी पन्थोंकी बाहुल्यतासे मन्द पड़ गया था उसको अपने वीर शासनकी उत्पत्ति की थी। और धीरे धीरे - भारत समग्र देशोमें पवित्र वीरशासनका प्रचार किया था। जैसा कि जैन ग्रन्थोके अतिरिक्त बौद्धशानों और गिलालेखादिसे प्रकट होता है। बल्कि क्रमानुगत वह पावन शासन विदेशोंमें भी प्रचलित हो गया था; जैसा कि प्रो० एम. एस. रामास्वामी ऐंगार एम० ए० अपने व्याख्यानके मध्य कहते हैं कि "चौड, अमण और जेन साधु अपने धर्मका प्रचार करनेके लिए यूनान, रोम और नारवे जैसे सुदूर देगोको गए थे। " (See. The Hindu of 25th Tulr 1919.) पर प्रति नियमने पल्ला खाया, जहां प्रायः सब न्यानोपर धर्मनी प्रभावना होने लगी थी। जिन शासनने सारे संसारपर एक ही साथ दया-शांति-सना आदिकी पुण्यभावना Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवान महावीर। फैलाई थीं। वहां अब न कोई प्रभू महावीरका नाम जानता है और न उनके शासनको ! उसी पवित्र शासनकी यह शोचनीय दशा है । वह गरिमा जाने कहाँ पलायमान होगई। न जाने यह सब कहां गया ! परन्तु यह सब वस्तुस्वभावत् है । वीर शासनके जैन ग्रन्थोंमें इसी लिए संसारमें एक कालचक्रका नियम बताया। है जो निन्न लिखे अनुसार हैं। इसी कारण महावीर भगवानके चरित्रके पठनपाठनकी आवश्यक्ता है। उससे वस्तु स्वभावका ' हमको ज्ञान होगा। वैसे तो महान् यत्सालोके जीवन पड़े ही, नाते है क्योकि " महाजनाः येन, ताः सः पन्थः " और उनका अनुकरण करना सबने जमाष्टं है। "सा रम्या नगरी महान्स पनि मामन्तचक्र चतता पावे तस्य च साविदग्ध परिषत ताश्चन्द्र घिम्बानना । उन्मत्तः स च राजपुत्र निवहस्ते बन्दिनस्ता कथाः। सर्व यस्य वशादगास्मृतिपथं कालाय तस्मै नमः" जो कालचक्र अपने प्रभावसे तीर्थकर जैसी महान आत्माओके तीर्य मार्गको वंचित नही रख सत्ता उसका वर्णन करनेके पहिले उपर्युक्त श्लोकके अनुसार उसका अभिवादन करलें क्योंकि यह इसीकी महिमा है जो धर्मके ह्रास होनेपर श्री तीर्थकर भगवान उसको पुनः प्रकट करते हैं। अस्तु “ वह रम्य नगरी. वे महान् नरपति, वे योद्धावह चक्र और वह उनकी पार्यवर्ती Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालचका पण्डित समा, वे चंद्रमुखी रानियां, वह उन्मत्त रानपुत्रोंका समूह, वे वन्दीनन और वे कथाएँ ये सब विषय जिसके प्रभावसे स्मृति पथको प्राप्त होगए, उस कालचक्रको नमस्कार है।" वीर वाणीमें कहा है काल अनन्त है । परन्तु इसके अन्तर्गत कितनेक विभाग हैं । प्रत्येक विभाग ( काल ) के दो युग हैं । (१) अविसर्पिणी अर्थात् वह युग निसमे धर्मका ह्रास होता जाता है और अन्तमें निसमें संसारके भीतर अधर्म और अमका साम्राज्य जम जाता है । इस युगमे प्रत्येक शुभ वस्तुकी अवनति होती है और सत्य Muth ) को लोप होनाता है। और (२) उत्सप्पिणीयात् वह युग जिसमें धर्षकी उन्नति होती है, सत्यका कोश होता है । यह दोनों युग प्रत्येक छ कारण (Ages) में विभक्त हैं जिनका समय विभाग एक दूसरेसे विभिन्न और वह सदैवके लिए उसी प्रकार है-किञ्चित भी घट बढ़ नहीं सका और न उनके क्रममें किसी प्रकारका अन्तर आसक्ता है। इस प्रकार वर्तमान युग--अर्धकल्प अविसर्पिणीके छह काल हैं। (१) सुखमा-सुखमा अर्थात् वह काल जिसमें खूब सुख होता है। (२) सुखमा, वह काल जिसमें सुख होता है (३) मुखमा-दुखमा वह काल जिसमें सुख होता है और साथमें कुछ दुःख भी होता है। (४) दुःखमा-सुखमा; वह काल जिसमें दुःख होता है, पर साथमें किञ्चित् सुख भी होता है। (५) दुःखमा; वह काल जो दुःख पूर्ण होता है। यही वर्तमानमें चालू काल है। इसको आए अनुमान २४०० वर्ष गुजर चुके हैं । (६) दुःखमा दुःखमा, वह कालं जिसमें महान् दुःख होगा। दूसरे युग उत्सर्पिणीके Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० भगवान महावीर । छह कालोके भी यही नाम हैं । परन्तु उनका अनुक्रम अविसर्पिणीके विपरीत है। अर्थात् उसका प्रथम काल दुःखमा दुःखमा होगा और इसी क्रमसे अवशेष अन्य काल होंगे। इस प्रकार अविसप्पिणीके प्रथम तीन काल और उत्सर्पिणीके । अन्तिम तीन काल भोगभूमिके नामसे विख्यात हैं । इनमें सांसारिक मुखोंका आनन्द है। इनमें मनुष्य जन्म लेता है, जीवन व्यतीत करता है, मृत्युको प्राप्त होता है, परन्तु किसी अवस्थामें भी दुःखका अनुभव नहीं करता है । प्रत्येक अपनी इच्छाकी पूर्ति कल्पवृक्षोसे करता है। अवशेष तीन काल कर्मभूमि कहलाते है। अर्थात् क्रिया-कर्तव्यका समय। इनमें मनुष्य जीवननिर्वाहके लिए कार्य करना पड़ता है, अपने जीवन के आरामके लिए श्रम उठाना पड़ता है, और भविष्य जीवनकी उत्तमताके लिए प्रयत्न करने पड़ते हैं । इन अंतिम तीन कालोंक प्रथम कालमें अर्थात् वर्तमान युग ( अविसर्पिणी ) के चतुर्थकालमें नियमसे २४ तीर्थकर अवतीर्ण होते हैं। और अन्य महापुरुष भी जन्म धारण 'करते हैं । इस प्रकार प्राकृतिक रीत्यानुसार कालचक्र है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M तीर्थकर कौन हैं ? . ११ (8) तीर्थकर कौन है ? * For if the dead rise not, then is Christ not risen." -St. Paul (I Cor. XV. 16). बाइविलमें पोलस रसूलके वाक्यसे विदित है कि .. " यदि मुर्दै जी नहीं उठते तो ईसा भी नहीं जी उठा है।" आत्माएं सदैव आत्मिक ( रूहानी ) मृतावस्थासे जी उठती रही: हैं।" (अर्थात् अज्ञानावस्थासे निकलकर अपने आत्मज्ञानको प्राप्त करती रही हैं ।) और निर्वाण प्राप्त करती रही हैं। परन्तु तीर्थंकर प्रत्येक कालमें केवल २४ होते हैं । वह समस्त जीवित प्राणियोंमें सर्वोत्कृष्ट होते हैं और अपने पिछले जन्म या जन्मोंमें विविध शुभ गुणोंमें अपनेको पूर्ण करनेके कारण सबसे उत्तम और उत्कृष्ट । पद पाते हैं। तीर्थकर वह मनुष्य हैं जो अपने विषयमें किताब मुकाशफाके शब्दोमें यह कह सके हैं: " मै वह हूं जो मर गया था और देख मैं अनन्तकाल तक. . जीवित रहूंगा। और नर्क व मृत्युकी कुञ्जियां मेरे आधीन हैं।" (भ० १ ० १८ ।) तीर्थकरका पद केवलज्ञान प्राप्त होनेपर जो आत्मा परसे ज्ञानके . गेकनेवाले परदे (नानावण) के हटनेका फल है, प्राप्त होता है। तीर्थकर भूख, प्यास, राग, द्वेष, जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, भय. आवर्य, निन्दा, थकावट, पसीना, घमण्ड, मोह, अरति, और चिन्तासे रहित होते हैं। स्वर्गलोकके देव और मनुष्य Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww WAMA भगवान महावीर। उसकी पूजा करते हैं। उसकी आवाज मिस्ल बहुतसी धाराओं के होती है ( मुकाशफा अ० १ ० १५) जो बहुत दूर तक सुनाई देती है। और जिनवाणी (इश्वरीय वाणी) वा श्रुति कहलाती है। " उसका मुख ऐसा चमकता है मानो हनार सूरज एक स्थानपर एकत्रित होगए हों। उसके पांव मट्टीमें तपाए गए पीतलकी तरह चमकदार होते हैं। उसके नेत्र अग्नि सदश प्रदीप्त होते हैं । " (मुकाशफ अ० १ आ० १४-१५ ईसाई वायवलके शब्दोमें वर्णित ) । दयाकी सच्ची मूरत वह धर्म प्रेमियोको सच्चे धर्मका उपदेश निर्वाण प्राप्त करने तक देता है जबकि उनकी आत्मा पुद्गलसे अलग हो जानेके कारण परमात्माके शुद्धरूप कर्म मरण दुःख और मूढतासे मुक्त और सर्वज्ञता अक्षयसुख अमर जीवन और कमी कम न होनेवाली शक्तिको प्राप्त होजाती है । ऐसी अवस्थामें पुद्गलके न होनेके कारण, जो आवाजके लिए आव श्यक है, फिर श्रुति अवस्थित नहीं रहती है। तीर्थकरों और अन्य पवित्र परमात्माओंकी, जिन्होने निर्वाण प्राप्त किया है, किसी प्रकारकी इच्छा मनुष्योंसे अपनी पूजा करानेकी नहीं होती है । और न वह वलि व अर्चनके उपलक्षमें किसी प्रकारकी वस्तुओ नियामतोको देनेका संकल्प करते हैं। वह इच्छा और वाञ्छासे रहित हैं। उनके गुण अवर्णनीय है। उनकी पूना मूर्तिपूना नहीं है कि आदर्श पूजा है । " ( असल्मनसंगम, व्या० ७ यां) हिन्दी विप्रकोप भाग १ ० ३१-३३ १०२१८ परसे इस विषयमें गाना गाता है कि " जनमतगे, जीवके इस मंसारमें दुषण देनेवाले ज्ञानापरण, दनावरण. गोनीय, अन्तराय, वेदनीय, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर कौन है? आयु, नाम, गोत्र ये आठ कर्म हैं। इनमेंसे पहिले चार कर्मोको धातिया (आत्माके अनन्तज्ञान, सर्वज्ञत्व, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख अनन्तवीर्यको आवृत करनेवाले ) और शेष चारको अघातिया कर्म कहते हैं । तपके प्रभावसे जिस समय यह आत्मा घातिया कर्मोको नष्ट कर देता, उस समय उसके पूर्वोक्त चारों गुणोंका आर्विभाव होता है । उससे वर्तमान, भूत, भविष्यत् कालके सपूर्ण पदार्थोको आत्मा युगपत जानता और रागद्वेष विहीन ( वीतराग) जाता है। ऐसे आत्माको अर्हन्त ( अर्हन्त ) केवली, सर्वज्ञ, वीतराग आदि नामोंसे पुकारते हैं। अर्हन्त ( केवली ) दो प्रकारके होते हैं । एक सामान्य, दूसरे तीर्थकर । तीर्थकर केवलियोके केवलज्ञान . होनेसे पहिले गर्म, जन्म और तपके समय देवता स्वर्गसे आकर उत्सव किया करते हैं । फिर सामान्य केवलियोंके केवलज्ञान होते समय ही देवता उत्सव करते हैं । जिस समय केवलज्ञान होता है, उस समय कुवेर इन्द्रकी आज्ञासे समवशरण ( धर्मसभा ) की रचना बनाते हैं । उसमेंसे एकमें मुनि, एकमें आर्यिका, एकमें श्राविका, एकमें श्रावक, एकमें पशुपक्षी, ४ में चारों तरहके (भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी, वैमानिक) देव, और चारमें चारों प्रकारकी देवाङ्गनाऐं बैठकर भगवानका पवित्र उपदेश सुनते हैं। भगवानके विराजनेका एक खास स्थान होता, निसे गन्धकुटी कहते हैं । कुवेर रत्नमय सिहासन पर सुवर्णके कमल रचता है. भगवान उस पर भी चार अङ्गुल अन्तरिक्ष विराजते हैं। देव उनपर चवर दोरते हैं, कल्पवृक्षोके फूलोकी वर्षा होती है। देवोद्वारा बनाए गए दुन्दुभि बाजोके शब्दोंसे आकाश पूर्ण होजाता है। उस समय Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। भगवानके शरीरका तेज एक साथ उगे हुए सूर्योके तेजसे भी अधिक होजाता हैं। उनके वैसे समयकी विभूति दर्शनीय और अति विचित्र है। भगवानके प्रमावसे चारों तरफ सौ सौ योजन (चारसौ कोस) तक दुर्भिक्ष नहीं पड़ता, परस्पर विरोधी जीव किसीको किसी प्रकार कष्ट नहीं पहुंचाते, भगवान पर किसी तरहका ' उपरार्ग नही उठता । उनको क्षुधा तृषा नही लगती, उनके शरीरकी परछाई नहीं पड़ती, आंखोंके पलक नही झपकते, केश और नख नहीं वढ़ते। उनका शरीर स्फटिकसा निर्मल रहता है । घातिया कोंके नाश होनेसे भगवानके ये अतिशय प्रकट होते हैं। भगवानका उपदेश अर्धमागधी भाषामें होता है, जिसे सब अपनी २ भाषामें समझ लेते हैं। समवशरणमें कुत्ता, विली, सिह, गाय, सांप, नेवला आदि परस्पर विरोधी जीव भी रहते हैं। परन्तु उन सबमें वहां प्रेम होता है, कोई किसीको कष्ट नहीं देता। भगवान जहां जहां विहार करते, वहां वहां सब ऋतुओं के फलफूल लग जाते हैं। कांचके सनान एथिवी निर्मल दिखती है। वायुकुमार देव-यह एक योनन (चार कोस) जमीनको साफ करने हैं। मेघकुमार देव शीतल, मन्द, सुगन्धित नल बरसाते हैं। स्वर्गके देव भगवानके चरणोंके इन वायोंको इस अध्यायके प्रारभिक वाक्यके उन शब्दोंसे जो लाई शाम मुगलमा ० १ आ० १४-१५ के हैं मिलान कोलिए। साई धर्म में नियमके वर्णन नाश्य इस प्रकार होना एक गोचरणीय बात है। मि० चमतराय जैन धरिष्टरने अपनी असहमतसगम नामका समें इस धर्ममें माता बेनपके सिद्धान्तका पर्गन प्रकट कर दिया। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थकर कौन है? नीचे सुवर्णके कमलोंको रचते जाते हैं, सब दिशाएं खच्छ होजाती हैं। देवता लोग भगवानका जय जयकार बोलते हैं। धर्मचक्र भगवानके आगे चलता है। सब चौदह देवरूत अतिशय भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न होनेसे होते हैं। भगवान १८ दोषोंसे रहित, क्षायिकसम्यक्तव, क्षायिकचरित्र, केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनन्तदान, अनन्तलाम, अनन्तभोग, अनन्त उपभोग और अनन्त वीर्यसे शोभायमान होते हैं।" इन्हीके उपदेशको जैनधर्म कहते हैं। ___ इस प्रकार तीर्थकर भगवानका खरूप है। उनके संबंध . जेन शास्त्रानुसार वर्णन की हुई वहुतसी बातोंपर आधुनिक सम्य समानको सहसा विश्वास न होगा। वह ऐसी बातोंको असंभवताके गतमें पटकते नहीं हिचकिचाएंगे परंतु विचार करनेसे इनका सत्यांश बुद्धिको स्वीकार करना पड़ता है। आधुनिक पुद्गलवादके जमानेमें . जो आश्चर्यजनक उन्नति इस पौलिक शक्तिकी सभ्य समानने की: है येनी भी परमोच्च उन्नति स जमानेके आत्मवादी मनुष्योंने मात्मवादमें की थी । इसलिए इन बातोंर विश्वास किया जासका है। जो कि अब पुराण वर्णित विमान और अग्निस्थ आदिका विधान लोगो होगया है। जनधर्म के वर्गनानुसार वनस्पतिमें भी व बीनशक्तिका होना ममाणित कर दिया गया है । अन्तु आत्माकी अनन्त शक्ति है। उसके प्रभावसे कोई भी कार्य सहसा जांभान गाता और उनका वर्णन अतिशयोक्ति नहीं है। बोल सुनील अपने नामिना उपन्यासको भूमिकामें श्री मी सत प्रभावले संवने लिखते हैं कि "इस बुद्धिका गुण Shiritual Fores अभ्यानिक बलकी सी चाहिए Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ - भगवान महावीर । वैसी मान्यता न रहनेके कारण ऐसी घटनाओंमें लोगोको शंका होती है; परन्तु उन्हें जानना चाहिए कि आध्यात्मिक बल एक ऐसा बल है कि उसके सामने सब बल निःसत्व होजाते हैं । इस प्रभावका स्वरूप वे ही लोग देख सके हैं जो ईश्वरतत्वके स्वरूपको समझ चुके हैं। ऐसे अनुभवमें न आने वाले विषयकी बुद्धि द्वारा शब्दोंमें व्याख्या करना व्यर्थ है । स्पिनोजा ( SpinozD } नामक एक तत्ववेताने बहुत ठीक कहा है:- To difine God is to dony hinı अर्थात् ईश्वरकी व्याख्या करना मानो उसे अस्वीकार करना है । ".... यह युग शरीरबल और कुछ थोड़े विज्ञानबल या बुद्धिवलको समझने लगा है; परन्तु आध्यात्मिक वळके समझने के लिए इसे अब भी बहुत कुछ प्रगतिकी आवश्यक्ता है ।" अस्तु, प्रत्येक अविसर्पिणीके चतुर्थकालमें ऐसे ही २४ तीर्थकर जन्म धारण करते है । और वैज्ञानिक रीत्या अथवा वस्तु 1 'रूपके अनुसार सत्य धर्मका स्वरूप भवाताप भयमीत जगतको समझते हैं और उसको सच्चे सुखका रास्ता बतलाते हैं । यह २४ तीर्थकर श्रमवार धर्मका उद्योत करते हैं। इस प्रगतिशील युगमें श्री ऋषभदेवको आदिले महावीर भगवान तर्क २४ तीर्थकर हुए थे। इन्होंने अपने २ समय में धर्मका प्रचार किया था। इनका पूर्ण वर्णन जैन पुराणों में मिलता है। हम यहांपर अगाड़ी चलकर इनके जीवन पर साधारणरीत्या प्रकाश डालेंगे; जिससे कि भगवान महावीरके जीवनको समझने में हमको सहायता मिले । ' " " Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी ऋषभदेव। A NNANA श्री ऋषमदेव। ." सयम्भुग भूतहिनेन भूतले. खमञ्जमज्ञानविभूतिपक्षुषा। विराजितं येन विधुन्वता तमः क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः कः ॥", - इहत्त्वयंभूतोत्र।। विक्रमकी दूसरी शताब्दिमें होनेवाले श्रीमद्भगवद्वादिगजकेसरी स्वामी समन्तभद्राचार्य प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवके विषयमें कहते हैं कि "दूसरेके उपदेश विना ही अपने आप मोक्षमार्गको जानकर अनन्त चतुष्टयरूप होनेवाले तथा परम दयालु होनेसे प्राणियोंको मोक्षसुखके प्रथम प्रदर्शक अतएव हितकारक, और यथावत् ( ठीक २) सम्पूर्ण पदार्थोको साक्षात् करनेवाली ज्ञानलक्ष्मीरूप नेत्रवाले, और सन्यदर्शनादि गुणोंके समूहरूप किरणोंसे ज्ञानावरणादि कर्मान्धकारको अथवा ज्योंके त्यो स्थित पदार्थोके प्रकाशक गुण समुदायरूप किरणोंके द्वारा प्राणियोके अज्ञानान्धकारको हरनेवाले चन्द्रमाके समान श्री आदिनाथ (ऋषभदेव) भगवान इस पृथ्वीपर सुशोभित हुए।" ___ इस भरतक्षेत्रमें अविसर्पिणीके प्रारंभमें जब भोगभूमिका लोप होगया तब कर्तव्यबाद (कर्मभूमि)का समय आया। उस समय लोग अपने मानवीय जीवनकी प्रारंभिक बातोंसे अनिभिज्ञ थे। ऐसे समय जगतके आदि गुरु, उपर्युक्त गुणोवाले मति, श्रुति, अवधिज्ञानके धारक श्री ऋषभदेव तीर्थकर भगवान अवतीर्ण हुए.थे। इन्हींके। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAMANA १८. भगवान महावीर करकमलोंद्वारा आर्यसभ्यता पठिवित हुई थी। उन्होंने मनुष्यों को उनके देनिक सत्य असि, मसि, कृषि आदि भीवनोपयोगी कलाचातुर्य और शिल्प आदि लौकिक कृत्य बतलाए थे और पारलौकिक हितके लिए वस्तु तत्वमय यथार्थ आत्मधर्मका खरूप समझाया था, यथार्थ स्थायी परमसुखका मार्ग बतलाया था और स्वयं उसपर चलकर संसारके संसर्गसे मुक्त होगए थे। मोक्ष होनेके पहिले आपने सर्व तीर्थकरोंकी भांति सदुपदेश दिया था। उसी प्रकार इस कालमें आप हीने सर्व प्रथम जैनधर्मका प्रकाश किया था । चौदह कुलकरों (मनुओं) मेंसे आप अन्तिम मर्नु, श्री नाभिरायके पुत्र थे और माता मरुदेवी थीं। आप इक्ष्वाकुवंशके आदि जन थे। आपके दो विदुषी सहधर्मणी यशखती और सुनन्दा थीं। यशखनीसे भरत और पुत्री ब्राह्मी व अन्य पुत्रोंका जन्म हुआ था। और सुनन्दासे पाहुवली व सुन्दरी नामक कन्याका जन्म हुआ था। ये दोनों कन्यायें ही वह भारतीय .ललनाऐं हैं जिन्होंने सर्व प्रथम साधुवृत्ति धारण की थी। उन्होंने अपने पिता ऋषभदेवळे निकट आर्यिकाके व्रत ग्रहणकर देशविदेश भ्रमणकर । दुःखित आत्माओंका कल्याण किया था। वृषभदेवके पौत्र मरीचने भी संसार त्याग दिगम्बरी दीक्षा ग्रहण की थी; पर वह तपश्चरणकी कठिनताको सहन न कर सकें, और अपने एक अन्य मार्ग-मतका अवलम्बन करने लगे थे। भगवानके पुत्र भरत चक्रवर्ती और बाहुबलिमें युद्ध हुआ था । बाहुबलिने भरतको परास्त किया था, परंतु तत्क्षण बाहुवलिको इस घटनासे वैराग्य उत्पन्न होगया था। और उन्होंने मुनिधर्मकी शरण लेकर मुक्ति लाम किया था। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | श्री ऋषभदेव । आपकी इस पुण्यमई स्मृतिमें दक्षिण भारतमें श्रवणबेलगोल आदि स्थानोंपर आपके दीर्घकायक (६० फीट ऊंचाईके) प्रतिबिम्ब आज भी देशविदेशके यात्रियोंको संसारकी नश्वरता और संयमकी उत्तम ताका उपदेश देरहे हैं। भगवान ऋषभदेवको प्रथम भोजन हस्तिनागपुरके राजा श्रेयांसने इक्षुरसका कराया था। अन्तमें जैनधर्म और सभ्य भारतीय सभ्यताका उद्योतकर आपने श्री कैलाशपर्वतसे विजयलक्ष्मी - प्राप्तकर परमानन्दमय अनन्तसुख प्राप्त किया था । " हिन्दूशास्त्रोंमें भी आपका वर्णन है । आश्चर्यका विषय है'कि नैनियोके आदि गुरुको हिन्दुओने अपना आठवां अथवा नवमां अवतार माना है। श्री ऋषभदेवने ही पहिले पहिल अक्षरलिपिकी उत्पत्ति की थी जैसा कि हिन्दी विश्वकोष भाग प्रथम पृष्ट ६४ में श्री अनुमान किया गया है कि " ऋषभदेवने ही संभवतः लिपि - विद्याके लिए लिपिकौशलका उद्भावन किया था । ....... ऋषभदेवने ही संभवतः ब्रह्मविद्या शिक्षाकी उपयोगी ब्राह्मी लिपिका प्रचार किया हो न हो, इसीलिए वह अष्टम अवतार बताए जाकर परिचित हुए।" इस कोषके तृतीय भाग पृष्ट ४४४ पर ऋषभदेवके विषयमें लिखा है कि "भागवतोक्त २२ अवतारो में ऋषभ अष्टम हैं । इन्होंने भारतवर्षाधिपति नाभिराजाके औरस और मरदेवीके गर्भ से जन्मग्रहण किया था । भागवतमे लिखा है कि जन्म लेते ही ऋषभदेवके अंग में सब भगवत लक्षण झलकते थे । सर्वत्र समंता, उपशम, वैराग्य, ऐश्वर्य और महैधर्यके साथ उनका प्रभाक दिन दिन बढ़ने लगा | वह स्वयं तेज, प्रभाव, शक्ति, उत्साह, कान्ति और यशः प्रभृति, गुणसे सर्व प्रधान बन गए... ऋषभदेवने Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। अपने ज्येष्टपुत्र भरतको राज्य सौंप परमहंस धर्म सीखने के लिए. संसार त्याग किया था। उसी समय उन्होंने उन्मत्तके न्याय विगंबर वेशमें आलुलायित कैश हो ब्रह्मावर्तसे पैर बढ़ाया ..... • "भागवतमें ऋषभदेवका धर्ममत इस प्रकार कहा है:- । । 'मानव देह पा मनुष्यको समुचित आचरण करना चाहिए। जो सकलका सुहृद, प्रशान्त, क्रोधहीन एवं सदाचार रहता और सबपर समान दृष्टि रखता, वही महत् ठहरता है। जो धनपर स्सहा तथा पुत्र कलत्रादिपर प्रीति नहीं रखता और ईश्वरपर निर्भर करें चलता, वही मनुष्योंमें बड़ा निकलता है । इन्द्रियकी तृप्ति ही पाप है। कर्म स्वभाव मन ही शरीरके बन्धका कारण बन जाता है। स्त्रीपुरुष मिलनेसे परस्परके प्रति एक प्रकार प्रेमाकर्षण होता है। उसी आकर्षणसे महामोहका जन्म है । किन्तु उस आकर्षण के टलने और मनके निवृत्तिपथपर चलनेसे संसारका अहकार नाता तथा मानव परमपद पाता है। _ "भागवतमें लिखते, कि ऋषभदेव स्वयं भगवान् और कैवस्वपति ठहरते हैं । योगचर्या उनका आचरण और आनन्द उनका - खरूप है। . (भागवत १४,५,६ अ०). जैनियों के प्रथम तीर्थकर ही यह ऋषभदेव हैं। उनके। जीवनकी मुख्य २ बातोंको जैसे मातापिताका नाम, जन्मसे भगवतगुण तीन ज्ञानसे परिपूर्ण होना, दिगम्बर दीक्षा धारण करना इत्यादिको हिन्दूशास्त्रमें मी जैन शास्त्रानुसार ही वर्णित किया है, किन्तु उनके धर्मके विषयमें अवश्य ही ब्राह्मण और जैनोंकी बापसी प्रतिस्पर्धाक कारण चित्रचित्रण किया गया है। आपक Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ऋषभदेव । २१ धर्म जैनधर्मका यथार्थस्वरूप अगाड़ी अवलोकन करेंगे। हिन्दुओंक बराहपुराण में भी ऋषभदेवका उल्लेख है : तस्य भरतस्य पिता ऋषभः हेमाद्रेर्दक्षिणं वर्ष महद्भारतं नाम शशस ॥ तथैव अग्निपुराणमें कहा है : " "ऋषभो मरुदेव्यान्ज ऋषभाद्भरतोऽभवत् । भरताद्भारतं वर्षे भरतात्सुमीतस्त्वभूत् ॥ योरोपीय पूर्वी भाषाभाषी विद्वानोंमें मि० जे० स्टीवेन्सन ! इस विषयको स्वीकार करते हैं कि ऋषभदेवके विवरण हिन्दू और जैनशास्त्रों में समान रीतिपर हैं। वह क्षत्रिय थे और उनके ज्येष्ठ पुत्र भरतके नामसे ही भारतवर्ष नाम इस देशका पड़ा है । P डॉ० फुहररने मथुराके स्तूपका अध्ययन करके निश्चय किया कि एक अति प्राचीन समयमें श्री ऋषभदेवको अर्चन आदि अर्पित किए गए थे । 1. इन सब बातोंसे यह जाना जा सक्ता है कि भारतीय आर्य संभ्यताके प्रथम संस्थापक श्री ऋषभ भगवान हैं । और इन्होंने जैनधर्मकी उत्पत्ति इस युगमें की थी । यह केवल भ्रम है कि श्री महावीरखामीने जैनधर्मको स्थापित किया था । अथवा २२ वें तीर्थंकर नेमिनाथ वा २३ वें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ जैनधर्मक प्रणेता थे । जैनधर्मके संस्थापनका श्रेय जब २२ वें व २३ वें तीर्थकरौंको भी श्री महावीर भगवानके समान ही दिया जाता है, तो आइए उनके विषयमें भी हम खास तौरपर श्री महावीर भगवानके साथ २ कुछ ज्ञान प्राप्त कर लें । Bab Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। श्री नेमिनाथजी। "हरिवंशकेतुरनवयविनयदमतीर्थनायकः । शीलजलाधरभवो विभवस्त्वमरिष्टनेमिशिन-, कुकारोऽजरः॥ .. बृहतस्वयभूस्तोत्र। अर्थात् हरिवंश (विष्णुवंश) का केतु, निर्दोष ज्ञान, दर्शन, तप, चारित्र 'उपचाररूप पंच विनय या पञ्चेन्द्रिय विजय करनेवाले शास्त्रके खामी, (प्रणेता) शीलधर्म पालनेमें समुद्र खरूप, संसार रहित, अजर, निनोंगें हाथीके सदृश प्रधान आदि विशेषणों सहित अरिष्ट नेमि तीर्थकर हुए।" गुजरातके प्रख्यात यादववंश हरिवंशमें ही आपका जन्म हुआ था। आप अपने अनुगामी तीर्थकर श्री पार्थनाथसे ८४००० वर्ष पहिले हुए थे। राना समुद्रविनयके पुत्र थे। जिस समय आपका पाणिग्रहण राना उग्रसेनकी पुत्री राजमतीसे होने जा रहा था उस समय मार्गमें श्वसुर रानप्रसादके निकट आपको बंधनमें पड़े हुए पशुओंके आतपूर्ण शब्द सुन पड़े। पूछने पर ज्ञात हुआ कि यह पशु भोननके निमित्त पकड़े गए थे। अस्तु मूक पशुओकी इस विलबिलाहटने परम दयालु नेमनाथके पवित्र युवक हृदयमें दयाका उद्रेक बह निकाला। प्रभूने उन निरापराध पशुओंको बन्धनमुक्त किया और आप अपने राज्यामूषण उतार समारसे विरक्त हो सांसारिक विषयभोगोंकि लिए रानकुमारी रानमतीसे पाणिग्रहण न कर मोमलल्मीरूपी, परमानन्द भदायिनी परमसुंदरीको प्राप्त करने के लिए कठिन तपन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भी मिनाथजी । रणका आराधन दिगम्बरीय दीक्षा ले करने लगे। इनकी भावी सहचरी राजमती भी अपने भाविके निकट जार्यिका होगई थीं। अन्तमें नेमनाथजीने गिरनार पर्वतसे मोक्षरूपी कन्याको वराया और राजमती भी वहींसे स्वर्गको सिधारी थी। इनके स्मृति चिह्नमें गिरनार पर्वतपर चरण चिह्न और गुफा जिसमें राजमती रहीं थीं, मौजूद हैं। ___ कहा जाता है कि अर्जुनके परम हितैषी मित्र भगवतीताके कृष्ण नेमनाथके भतीजे थे । हिन्दूशास्त्र विशारद जैनियों यदि चाहें तो इन २२वें तीर्थकरके विषयमें हिन्दूशास्त्रोंका अनुशीलन करनेसे बहुत कुछ प्रकाश पासते हैं । और इतिहासपर रोशनी डाल सकते हैं। ___यजुर्वेद अध्याय ९ मंत्र २५ में इनके विषयमें इस प्रकार एक श्लोक अवश्य दिया है जैसा कि मासिक पत्र "दिगम्बर जैन" के वीर सं० २४४३ के खास अङ्कके एष्ट ४८ Aसे विदिरा है:वाजत्यनु मसव आवभूवेमा चविश्वभुवनानिमत:/सनेमिराजा परियाति विज्ञान प्रजांपुष्टियानोnt अस्मे वह . अर्थात् ( स्वाहा ) यह अर्चन उन ( अस्मै ) प्रभू नेमिनाथ (२२वें तीर्थकर ) को ( समर्पित है, नो (राजा) केवलज्ञान आदिके प्रभू (च) और ( विद्वान ) सर्वज्ञ (हैं) (स) जिन्होंने वर्णित किया है ( आवभूव) उसका यथार्थ रूपमें (सर्वशः) और ज्ञानके प्रत्येक योग्य साअमस्यके साथ ( वानस्य) नो (ज्ञान) एक व्यक्तिके आत्माका है (विश्वभुवनानि ) इस लोकके प्रत्येक जीवधारीको और (उनके हितैषी उपदेशसे ) (पुष्टि) आत्मज्ञानकी शक्ति (नु) तत्क्षण (वर्षयमानों) बढ़ती है (प्रना) जीवोंमें। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ भगवान महावीर । 1 इससे प्रकट है कि वेदोंके रचियता कृष्णके समकालीन तीर्थकर भगवान नेमिनाथको भूले नहीं थे और यज्ञाहुतिके समय उन्होने उनका भी स्मरण किया था । इस प्रकार यदि यह विषय आधुनिक इतिहासवेत्ताओं को स्वीकृत हो, जिसके स्वीकृत न होनेमें कोई विशेष कारण प्रगट नहीं होते तो जैनधर्मकी ऐतिहासिक प्राचीनता श्री पार्श्वनाथसे भी अगाडी बढ़ जाती है। और इसी प्रकार यदि अन्य मध्यवर्ती जैन तीर्थकरोके विषयमें अध्ययन किया जाय तो उनके विषयमें भी बहुत कुछ स्वाधीन रूपमें प्रकट होना संभव है। वैसे तो उनका वर्णन जैन शास्त्रोंमें वर्णित है । और सामान्य में अगाड़ी दिया जायगा । 1 हम इस प्रकार देखते हैं कि हिन्दुओके श्री कृष्णके साथ जैनियोंक २२वें तीर्थकर भगवान नेमिनाथका सम्पर्क होनेके कारण 'और उनका जन्म द्वारिकामें होने व तप व निर्वाण आदि कृष्णके राजगृह द्वारिका धामके अति समीप होनेके कारण कहीं कहीं जनसाधारणमें यह भ्रम फैल जाना उपयुक्त है कि जैनी बाबा नेमिनाथके उपासक हैं । और जैनधर्मके प्रणेता वही थे । यद्यपि चास्तवर्मे जैनधर्मकी वर्तमान युगकालीन उत्पत्तिका मुकट हम पहिले ही यथार्थरत्या श्री ऋषभदेवजीके बांध चुके हैं। अस्तु, अब आइए २३ वें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथनीके सम्बन्धमें भी महावीर भगवान तक पहुंचने के लिए कुछ विचार करलें ।. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पार्श्वनाथजी। श्री पार्श्वनाथजी। 'बृहत्फणामलमण्डपेन यं स्फुरत्तहित्पिश्चो पसभिणाम् । जुगृह नागो धरणो घराघरं विरागसन्ध्याताडद म्युदो यथा १३२॥ - बृहत्स्वयंभू स्तोत्र। " उपसर्ग युक्त नो पार्श्वनाथ है उसके धरणेन्द्र नामके सर्पराजने अपनी पीली विनलीकी भांति चमकते हुए कांतिवान फण समूहसे वेष्टित किया है ( अर्थात् उपसर्ग दूर किया है। निस प्रकारसे मानो संध्याकी लालिमा नष्ट हो जाने पर उसमें जो पीत विद्युतसे मिला हुआ पीत मेध पर्वतको आच्छादित करता है।" __ श्री महावीर भगवानसे २५० वर्ष पहिले २३ वें तीर्थक्कर काशीके अधिपति अश्वसेनके पुत्र श्री पार्श्वनाथ स्वामी हुए थे। उन्हीका उल्लेख उपर्युक्त श्लोकमें है कि जब आप बरेली जिले में अवस्थित आंवलाके निकट आधुनिक अहिच्छेत्र (रामनगर) स्थानपर शुक्रध्यानमें ध्यानारूढ़ थे तब कमठके नीव देवने अहङ्कार वश क्रोधित हो आपपर उपसर्ग किया था। कारण एक दफेका पूर्व वैर था, - कमठ तापसके शरीरमें लकड़ सुलगाए पंचाग्नितप रहा था। उस लकड़के भीतर खोखालमें एक सर्पयुगल अवस्थित था । तापसको “उनका भान नहीं था। प्रभूपार्श्वनाथ नो तीन ज्ञानके.धारी ये उपरसे विहार करते निकले और तापसकी इस अज्ञानता और - सर्पयुगलकी अकाल मृत्युका चितवनकर उसको यह भ्रम बतलाते Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ r भगवान महावीर हुए। क्रोधित हो ताप्सने लकड चीड़े तो उसमें भरणासन्न सर्पयुगल निकले । भगवानने सोको उपदेश दिया जिससे समताभावसे प्राण त्यागकर वे स्वर्गमें देवता हुए। तापस मरकर व्यंतर हुआ। और कई भवोंके वैरके कारणवश जब भगवान ध्यानमें लवलीन थे तब उन पर नाना प्रकारके कष्टोंका प्रहार करने लगा। भगवान धीरवीर ध्यानसे अविचल थे। उसने जब अग्न्यिादिकी वर्षा करना प्रारंभ की तब वहांपर वही सर्पके जीव धरणेन्द्रने आकर सर्प वेष धारणकर भगवानके ऊपर अपना फण फैलाकर उपसर्ग निवारण किया था--अपने उपकारीका इस प्रकार कष्ट हटाया था। तो समन्त-' भद्रस्वामीने इस ही घटनाका उल्लेख उपर्युक्त लोकमें किया है और · अगाडी चलकर कहा है कि इस उपसर्गका फल यह हुआ कि भगवान पार्श्वनाथको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और वे अर्हन्त पदको प्राप्त हुए थे। जिसके प्रभाव से अन्य मिथ्या मार्गामें प्रवर्तित वापस आदि भी भगवानकी शरणमें आए थे। इस मुख्य घटनाके उपलक्षमें ही जितनी भी दिगम्बर मूर्तियां श्री पार्श्वनाथ भगवानकी मिलती ' हैं वे सब इसी उपसर्गावस्थाको व्यक्त करती हैं और उनपर सर्पका" फण होता है। इस कारण इस घटनाकी प्रबलता हृदयपर अङ्कित होनाती है। और ऐसा विशेष कारण उपलब्ध नहीं होता जिससे जेनशास्त्रोके वर्णन पर विश्वास न किया नाय । वैसे भी डॉ. जेकोबी यह मानते हैं कि जैनियोंके पवित्र अन्य अवश्य ही ( Classical ) संस्स्त साहित्यसे प्राचीन हैं। और उनको एक विश्वसनीय इतिहासका सौतन माननेका केवल यहीं एक कारण प्रो० कोवीके अनुसार था कि नैनधर्म और बौदधर्ममें। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'श्री पार्श्वनाथजी वस्तुतः अथवा अन्यथा एक सादृश्य पाया जाता है। परन्तु जब खयं जैकोबीने तथा अन्य प्राची विद्या महार्णवोंने जैनधर्मकी प्राचीनता बौद्धधर्मसे अगाडीकी स्वीकार कर ली है; तब ऐसा कौनसा कारण रह जाता है कि जैनशास्त्रों पर बिल्कुल ही विश्वास न किया जावे । और इसीलिए अन्तमें प्रो० नैकोबी जैनशास्त्रको विश्वास योग्य बतला गए हैं । और भगवान पार्श्वनाथकी ऐतिहासिकता खीकार कर गए है। तिसपर जनशास्त्रोंका वर्णन बहुतायतसे ऐतिहासिक सिद्ध होता जारहा है। इन्हीं पार्श्वनाथस्वामीको कुछ काल पडिले ऐतासिक व्यक्ति स्वीकार नहीं किया जाता था पर वही अब ऐतिहासिक व्यक्ति माने जाने लगे हैं। जैसा कि डॉ. लड्डू अपने व्याख्यानमें कहते हैं कि "यह तो अवश्य यथार्थ है कि जैनधर्म बौद्धसे प्राचीन हैं और इसके संस्थापक चाहे पार्श्वनाथ हो-अथवा उनके पहिलेके कोई तीर्थफर जो महावीर स्वामीसे पहिले विद्यमान रहे हों।" (देखो Practical Path p. 175) और योरूपीय विद्वानोंमें इन्सालोपेडिया आफ रिलीजन एण्ड ईथिकस भाग सप्तम ४० ४६६ पर भी जैनधर्मकी प्राचीनता सिद्ध करते हुए कहा है कि २३ ३ तीर्थकर पार्श्व बहुतायतसे जैनधर्मके संस्थापक कहे जासकते हैं और « Harmosworth History of the World " Vol IL p. 1198 में भी कहा है कि "जैन नातपुत (श्री महावीर वर्डमान) से भी पहिले कितने तीर्थकरोंका होना मानते हैं, जिनमें सबसे अंतिम पार्श्व अथवा पार्श्वनायकी विशेष विनय करते हैं। सो उनका ऐसा मानना ठीक ही है क्योंकि Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ भगवान महावार । अंतिम व्यक्ति (पार्श्वनाथ) पौराणिक न होकर कुछ अधिक हैं।" अर्थात् ऐतिहासिक हैं । अस्तु । ___ उधर जैन शास्त्रोमें वर्णित मौर्य सम्राट्को भी अब आधुनिक इतिहासवेत्ता जैन स्वीकार करने लगे हैं। इसीसे तो श्रीमहामहोपाध्याय स्व. डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण, एम० ए० पी० एच० डी० इत्यादिने अपने २७ दिसम्बर सन् १९१३ को काशीनीके व्याख्यान में कहा था कि ऐतिहासिक संसारमें तो जैन साहित्य शायद जगतके लिए सबसे अधिक कामकी वस्तु है। अस्तु, तात्पर्यरूपमें कहा नासता है कि जेन शास्त्रों के वर्णनका आधारभूत बहुतायतसे सत्यपर निर्भर है। और उनपर विश्वास किया जासक्ता है। __ इसलिए ऐतिहासिक व्यक्ति श्री पार्श्वनाथ भगवानके उपयुक्त वर्णनपर विचार करनेसे विदित होता है कि जनसमुदायका मैनियोंको पारसनाथका ही भक्त मानना यथार्थ है। और उनकी मान्यता भी स्वयं जैनियोंमें विशेष रूपसे है। पार्श्वनाथ भगवान १०० वर्ष तक जीवित रहे थे और मोक्षमार्गका उपदेश लोगोंको । देकर ईसासे ७७६ वर्ष पूर्व निर्वाणको सम्मेदशिखर (Parasnath { HI)से प्राप्त हुए थे। आपके ही नामके कारण वर्तमानमें सम्मेदशि खर पारसनाथ हिलके नामसे विख्यात है। आपके १० गणधर थे। ___ इस प्रकार पार्श्वनाथ भगवान जैनधर्मको फिरसे उत्तेनित करनेवाले ऐतिहासिक व्यक्ति ईसा पूर्वकी ९ वीं शताब्दिके थे। अब अवशेषमें चलिए अन्य २० तीर्थंकरोंके, जीवनका दिग्दर्शन करके महावीर भगवान के जीवनका परिचय प्राप्त करें। . . Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MA NAWWAR . . . भवो तार । miniannamin (८) अवशेष तीर्थकर। ॐ त्रैलोक्यप्रतिष्ठितान चतविशति तीर्थंकरान्. ऋषमाया वर्षमानान्तान सिद्धान् शरणं प्रपद्ये ।। किन खास अंक २०४८ उपर्युक्त पत्रमें कहा गया है कि उक्त श्लोक ऋग्वेदका है। यदि वास्तवमें यह ऐसे ही है तो २४ तीर्थकरोंके अस्तित्वको स्वीकार करनेमें यह प्रबल प्रमाण है। इसके अतिरिक्त ऋग्वेद अष्टक २० ७ वर्ग १७ में भगवान अर्हनको स्मर्ण किया है, जिससे प्रकट है कि श्री महावीर व पार्श्वनाथ स्वामीके पहिले अन्य तीर्थकर अवश्य थे। स्वयं श्री मुनसुवृतनाथ भगवानके समकालीन श्री रामचंद्रने "श्री निन जैसी शांतिकी वाञ्क्षा की थी।" (देखो वृहदयोगवशिष्टम् सर्ग १५ वर्ग ) उधर आधुनिक विद्वानोंने जैनियोंके २४ तीर्थंकरोंके अस्तित्वको स्वीकार किया है। जैसे कि मेनर-जनरल जे० जी० आर० फरलामा, एफ० आर० एस० ई। इत्यादि जो अपने १७ वर्षके अध्ययनके पश्चात् प्रकट करते हैं। (See short studies in the science of comparative' Religions. pp. 248-4): "आर्य लोग गंगा बल्कि सरस्वती तक पहुंचे भी न थे कि उसके बहुत पहिले नैनी अपने मुख्य २२ बौद्धों वा सन्तों अथवा तीर्थकरों द्वारा सिखाए पढाए नाए चुके थे। ईसाके पूर्वकी 1-९वीं शताब्दिक २३ ३ बौद्ध पावके 'पहिले ही; जो अपने पूर्वागामी कालन्तरसे अवस्थित पवित्र ऋषियोंको नानते थे।" Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर । (और अन्यत्र जैसे पहिले कह चुके 'हामस्वर्थ हिस्टरी आफ दी वरुडके भाग २ पत्र ११९० में कहा गया है कि जैन नातपुत (श्री-महावीर वईमान ) से पहिले कितने ही तीर्थहरोंका होना मानते हैं । अस्तु, इन वास्तविक २४ तीर्थहरों से तीनका वर्णन पहिले वर्णित किया जाना है। और अन्तिम तीर्थदर श्री महावीर भगवानका इस पुस्तकमें अगाड़ी पूर्णरूपेण आयगा । अवशेषमें २० तीर्थहरोंका वर्णन इस प्रकार है नो क्रमवार दिया जाता है: (१) श्री अजितनाथजी-दूसरे तीर्थकर थे। आपको जन्म इक्ष्वाक वंशमें श्री ऋषभदेवके कुलमें अयोध्या नगरीमें प्रथम तीर्थरके निर्वाण प्रातिके एक दीर्घकाल पश्चात हुआ था। पहिले राजा धरणीधर अयोध्याके नृपति थे। उनके पुत्र विदसंजयदेव हुए। इनकी रानीका नाम इन्दुरेखा था। इन्दुरेखाके गर्नसे राजा नितशत्रुका जन्म हुआ था | राना नितशत्रुका विवाह पोदनपुरके राजा व्यानंदकी पुत्री विजयासे हुआ था। इन्ही राजदम्पति जितशत्रु और विजयाके अजितनाथनीका जन्म हुआ था। गममें आते ही माताको बोड़स शुभ स्वम हुए थे जैसे कि हर तीबदरकी माताको होते हैं। और गर्भ-जन्म-तप-जान-नोक्ष कल्याणकों (शुमा वसरों) पर देवीने मार उन्मव मनाए थे ले मिचे प्रत्येक तीसरके उक्त अवारों पर करते हैं। जिस समय अनितप्रमूने जन्म लिया था उस समय राग जितमनुसमन्त रानामीको परास्त फरलमें समर्थ हुए थे। इस उपलसमें इन्होंने अपने पुत्र का नाम अजित रस्ताया। युवावस्था में इन्होंने भी दो रानन्यामोशे पानि Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . अवशेष तीर्थंकर। ग्रहण किया था, पिताके मुनि होजानेपर एक काल पर्यन्त विशाल राज्य किया था। अकस्मात् वनक्रीड़ा करते एक फूलको खिलते और नष्ट होते देख आपको वैराग्य होगया था। तत्क्षण आपने दिगम्बरीय दीक्षा ग्रहण कर ली थी। तपश्चरणके पश्चात प्रथम आहार आपने राजा ब्रह्मदत्तके यहां लिया था। 'तपश्चरणके १२ वर्ष उपरान्त आपको केवलज्ञान प्राप्त होगया था। आपने तब विहारकर धर्मका उद्योतन किया था। आपके संघमें ९० गणधर और एक लाख मुनि थे व तीन लाख आर्यिकाएं थीं। उस समय अजितप्रभूके काका विनयसागरके पुत्र सगर चक्रवर्ति भारतवर्षाधिपति थे। इनके पुत्र भागीरथ इनके उत्तराधिकारी हुए थे। सगरके मोक्षलाम करनेपर इन्होने भी सन्यास ग्रहण किया था। भागीरथने कैलाश पर्वतपर गंगाकिनारे तप धारण किया था जहांसे उनको केवलज्ञान होकर मोक्षलाम हुआ। इस अवसर पर देवोंने इनका अभिषेक किया सो वह पानी गंगानीकी धारमे मिला; जिसके कारण आजतक गंगाजल पवित्र माना जाता है। अनितप्रभू सम्मेदशिखरसे मोक्षको प्राप्त हुए थे। चिन्ह हाथीका है इनका उल्लेख यर्जुवदने है। (२) श्रीसंभवनाथ-तृतीय तीर्थकर थे। ये अजित प्रभूके मोक्ष , प्राप्त करनेके एक अति दीर्घकाल पश्चात् हुए । अयोध्याके इक्ष्वाका वशीय, काश्यप गोत्री राजा दृढ़रथराय वा जितारि रानी सुपेणाके सुपुत्र थे । आपका विवाह हुआ था। राज्य भोगकर दीक्षा ग्रहण कर' मुक्त हुए थे। चारुष्णादि १०६ गणधर थे। सम्मेदशिखरपर आपके स्मृति चरणचिन्ह मौजूद । चिन्ह घोड़ेक्न था । :: Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। (२) श्री अभिनंदननाथ-चौथे तीर्थकर अयोध्याके इक्वाक वंशीय नृपति संवर रानी सिद्धार्थाके पुत्र थे। राज्य लक्ष्मी और गृहलक्ष्मीका उपभोगकर आप दीक्षित हो सर्व तीर्थंकरोंकी भांति उपदेश दे सम्मेदशिखरसे मुक्त हुए थे। वजनामि आपके मुख्य. गणधर थे। आपका चिन्ह बन्दरका है। . - (१) श्री सुमतिनाथजी-पांचवे तीर्थकरके पिताका नाम राजा मेघस्थ और माताका सुमंगल देवी था। जन्म स्थान अयोध्या था। वंश व गोत्र पूर्व तीर्थकरकी भांति था । विवाह और राजभोग किया था । दीक्षा लेकर पद्मभूपके सौमनसपुरमें प्रथम आहार लिया था। चामर आदि ११६ गणधर थे। शिखरनीसे मुक्त हुए। आपका चिन्ह क्रौंचका था। .(९) श्री पद्मप्रभू-छट्टे तीर्थकर कौशांबीपुरके नरेश मुकुटवर रानी सुसीमाके पुत्र थे । वंश व गोत्र इनके पहिले तीर्थकरके थे। राजा सोमदत्तके आहार लिया । बचचामर मुख्य गणधर था। समस्त आर्यखंडम विहारकर अन्य तीर्थकरोंकी भांति शिखरजीसे निर्वाणको गए थे। चिन्ह कमलका था। (६) श्री सुपार्व-सातवें तीर्थकर काशीमें हुए थे। वहांके अधिपति आपके पिता सुमतिष्ट नामक थे और माता सुसीमा थीं। सोमखेटके राजा महेन्द्रदत्तके आहार लिया । बल आदि ७५ गयपर थे। सम्मेदशिखर मोक्षस्थान है । चिन्ह स्वस्तिका है। यजुबंद २९-१९ में आपका उल्लेख है। चन्द्रप्रभ स्वामी अष्टम तीर्थडर चन्द्रपुरीके महाराज महासेन, रानी लक्ष्मणाके सुपुत्र थे । बनारस के निकट चन्द्रपुरी Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवशेष तीर्थंकर । ३३ नामक छोटीसी वस्ती है । दर्पणमें मुंह देखते वैराग्य उत्पन्न होनेसे अपने पुत्र बरचंद्रको राज्य दे तपश्चरणको गए थे। दतमुनि आदे ९३ गणधर थे । और बहुतसे मुनि आर्थिकाऐं आदि सब तीर्थङ्करोंकी भां ते इनके संघ भी थे । चिन्ह अर्धचंद्राकार था। चंद्रप्रभकाव्यमें उत्कृष्ट भाषाशैलीसे आपका चरित्र वर्णित है । (८) भगवान पुष्पदंत - नौवें तीर्थंकर कौकंदीपुरसें हुए थे । आपके पिता महाराज सुग्रीव थे। और माता जयरामा थी । पुत्र सुमतिको राज्यभार सौंप मुनि होकर केवली हुए और शिखरजीसे मोक्षको गए । सपल पुरमें पुष्पमित्रके यहां आहार हुआ था । मकरका चिन्ह है । (९) पगवान शीतलनाथ - दसवें तीर्थकर हुए थे। हजारीबाग जिलेमें भद्दलपुर कुलहापहाड़ के पास आपका जन्म स्थान है । और 1 राजा दृढ़रथ वहांके राजा इनके पिता थे । रानी सुनंदा थी । आपका विवाह हुवा था । अरिष्टनगरके राजा पुर्नवसुके यहां आहार लिया था । चिन्ह श्री उत्सवृक्ष है । (१०) ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ वर्तमानमें वनारसके निकट अवस्थित सिहपुरके महाराज विष्णु और रानी नंदाके यहां उत्पन्न हुए थे । गोत्र इनका इक्वाक काश्यप था । पुत्र श्रेयंकरको राज्य दिया था । कुंयु आदि ७७ गणधर थे । चिन्ह गेंड़ाका है। प्रथम नारायण तृष्टष्ट और चलदेव विजय अब ही हुए थे । (११) बारहवें तीर्थकर वँ सपूज्य थे। चंपापुरीके ईदवाकवंशीय काश्यप गोत्री राजा वसुपुज्य पिता और रानी जयायति Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ भगवान महावीर । माता थीं। आप बालब्रह्मचारी थे। दूसरे प्रतिनारायण भोगवर्द्धनपुरके राजा श्रीधरके पुत्र तारक आपके समयमें हुआ था । यद्यपि प्रतापी पर अन्यायी राजा था। दूसरे नारायण डिष्टष्ट और बलदेव अचल मी अभी हुए थे । भगवानका चिन्ह मैंसा है। 3 (१२) विमलनाथ स्वामी तेरहवें तीर्थकर कम्पिला नगरीमें L · हुएं थे। आपके पिता सुक्रतवर्मा उस समय यहां राज्य करते थे । रानी संयमा थीं । कम्पिलमें ही राजा द्रोपद हुए थे । यह आम कायमगंज रेल्वे स्टेशन (R. M. R. से १ मील दूर है 1 भगवानके गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान कल्याणक यहीं हुए थे । परन्तु मोक्षलाभ सम्मेदशिखरसे हुआ था । चिन्ह सुअरका है। (१३) अनन्तनाथ भगवान १४ वें तीर्थकर थे । अजुध्या नगरीके राजा सिघसेन रानी सर्वयशाके यहां इन्होने जन्म लिया था । चंश इक्ष्वाक और गोत्र काश्यप था । सम्मेदशिखरसे मोक्षलाभ किया था | चिन्ह रींछका है । (१४) धर्मनाथजी १५ वें तीर्थकर रत्नपुरीके राजा मानुरानी सुव्रताके महान पुत्र थे । आपके मोक्ष प्राप्त करनेके बाद तीसरे चक्रवर्ती श्रावस्तीके राजा सुमित्र हुए थे। आपके पट्टरानी भद्रवती थी । भगवानने धर्मका उद्योतकर सम्मेदशिखरसे मोदालाम किया था | चिन्ह वज्जदण्ड है । (१५) श्री शांतिनथजी १६ वें तीर्थकर हुए थे । हस्थिनापुरके राजा विश्वसेन आपके पिता और उनकी पत्नी रानी एग - आपकी माता थी । आप पंचम चक्रवत्ति थे । सार्वभौमिक राज्य करके आपने धर्मका भी साम्राज्य फैलाया था । और अन्तमें मोश 1 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A AANA अवशेष तार्यकर। पद पाया था। चिन्ह हिरनका है। चौथे सनत्कुमार चक्रवर्ति आपके पहिले हो चुके थे। (१६) सत्रहवें तीर्थकर कुन्थुनाथका जन्म स्थान भी हस्तिनागपुर था। पिताका नाम सूर्या और माताका श्रीदेवी था। आप क्रमसे छटे चक्रवर्ति भी थे। महान प्रतापी धर्मरत्न थे। चिन्ह वफरेका है। (१७) अरहनाथजी अठारवें तीर्थकर भी चक्रवर्ति थे। आपके पिता हस्तिनागपुरके राजा सुदर्शन थे । और माताका नाम मित्रा था। सम्मेदशिखरसे मोक्ष गए थे । चिन्ह मछलीका है। (१० १९ वें तीर्थकर मल्लिनाथजी थे। आपके पिता मिथुलापुरी (मथुरा) के राजा कुम्भ थे। और माता रानी रक्षता थीं। सम्मेदशिखरसे मोक्ष गए थे। चिन्ह नन्द्यावर्त कलशका है। इनके मध्य समयमें ८ वें चक्रवर्ति सुभूमि हुए। आरके पिता कीर्तिवीर्य और माता तारा थीं। इनने परशुराम क्षत्री शत्रुको मारा था। (१९) वीसवें तीर्थकर मुनि सुव्रतनाथजी थे। कुसाग्र व राजगृह नगरके अधिपति सुमित्र रानाके पुत्र थे। मानाका नाम पद्मावती था। आपके पहिले ९३ चक्रवर्ति राजा महापद्म हो चुके थे। यह हस्तिनापुरके राजा पद्मरथ रानी मयूरीके पुत्र थे। इनकी आठों पुत्री आर्यिका होगई थी। श्री मुनिसुवतनाथजी शिखरजीसे मुक्त हुए थे। चिन्ह कछवेका है। (२०) २१ वें तीर्थकर नमिनाथ भगवान थे। आपका जन्म मिथुलापुरीके राना विजय और रानी विमाके गृहमे हुआ था। १० वें चक्रवर्ति राजा हरिषेण कपिलामें आपके पहिले हो चुके Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। थे। यह हरिकेतुके पुत्र थे। हरिकेतुने बहुतसे जैन चैत्यालय बनवाए थे। और मुनि हो मुक्तको गए थे । नमिप्रभू शिखरजीसे मोक्ष गए । उनका चिन्ह नीलपद्मका था। । । इनके पश्चात् ११ वें चक्रवर्ति राजा नयसेन हुए थे। यह राना वैजय रानी यशोवतीके पुत्र थे । यह मुनि होगए थे। अंतिम १२ वें चक्रवर्ति राजा पद्मगुल्म भगवान नेमनाथ और पार्धनाथके मध्यमें हुए थे । इस प्रकार २३ वें तीर्थकर पार्श्वप्रभूसे पहिले सार्वभौमिक अखंड राज्यके कर्ता १२ चक्रवति होचुके थे। प्रथम तीर्थकर आदिनाथके वृषभ (बेल) का चिन्ह था । और नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर स्वामीके क्रमसे शंख, सर्प और सिंहके चिह्न थे। इन चिह्नोंसे साधारणतया तीर्थकरोकी प्रतिमाओंको जाननेका भाव है। परन्तु प्राचीन भारतमें संकेत विद्याका होना प्रमाणित है जो Pictographic वा Hieratic कहलाती थी और मिश्र चीन आदि देशोमें भी प्रचिलित थी। (देखो हिन्दी विश्वकोप भाग प्रथम दृष्ट ६०-६९) और संभवता एक गुप्त माषा का लिपि भी प्रचिलित थी जिसको मि० चम्पतराय जैन, बेरिटरने अपनी 'असहमत-संगम' नामक पुस्तकमें 'पिकोरुत' व्यक्त किया है। और सर्वमतोंके प्राचीन ग्रन्थोंको जसे वेद, वाईबिल आदिको उसी भाषामें लिये प्रमाणित किया है । अस्तु प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथके वेल चिन्हमे भार निकल मक्का है कि उन्होंने सर्व प्रथम धर्मका रूप मममाग था। और वैनका मेकेनात्मकरूपमिक ऐग्यग्ने आनी पुस्तक "द्री परमेनेन्ट हिस्टरी जॉक भारतवर्ष" एट २१३ पर प्रदरियादिलो भान धनको प्रस्ट भनेका है। ऐसे Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवशेष तीर्थकर। ३७ ही खस्तिकाका भाव प्रकट है कि दो रेखाओंका आपसमें धन राशिके चिन्हरूपमें एक दूसरेके विमुख निकलना प्रकट करता है कि शुद्ध आत्मद्रव्य पुद्गल द्रव्यसे मिली हुई है। जिसके कारण वह चार गतियोंमें (देव, नर्क, मनुष्य, पशु) भ्रमण कर रही है। चार गतियोंको व्यक्त करनेके लिए इस धनराशि चिन्ह (+) के अतिम शिखाओंसे चार रेखाएं निकाली जाती हैं (5) इसके बाद ऊपर जो तीन बिन्दुकाएं जैन स्वस्तिकामें () रखी जाती हैं, उनसे यह उपदेश है कि इस भ्रमणसे निकलनेके लिए जयरत्नमय मार्ग अर्थात् सम्यकदर्शन, ज्ञान और चारित्र मोक्षका मार्ग है। और फिर खस्तिकाके शिखामागमें अर्धचंद्राकारके मध्य बिन्दुका होना प्रकट करता है कि रत्नत्रय मार्गसे संसारी (भ्रमता) जीव मोक्षस्थानमें पहुँचकर शुद्धखरूप आत्मद्रव्य (बिंदु)हो जाता है और परम सुख अनुभव करता है । जैन शास्त्रोमें मोक्ष स्थान अर्धचन्द्राकार माना है। इस प्रकार जैन स्वस्तिकाका भाव है। अस्तु, २३ तीर्थंकरोंके जीवनका ज्ञान प्राप्त करके चलिए इन तीर्थहरोंके धर्मके सम्बन्धमें कुछ ज्ञान और प्राप्त करलें। latest 401 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwww भगवान महावीर। (९) . जैनधर्म और हिन्दूधर्म। “Yes ! his (Jain's) religion is only true one upon earth, the primitive faith of all mankind." -Rev. J. A Dabois.' "Discription of the character, manner and custom of the people of Indit and their insti. tutions, religious and civil " नामक पुस्तकके लेखक, मेसोर प्रान्तमें रहे हुए पादरी डुबोई साहव निष्पक्ष सत्य ही कहते हैं कि " हाँ ! अवश्य ही जैनियोंका धर्म ही दुनियांमें सत्य है और वही मनुष्य समाजका प्रारंभिक मत है।" डुबोई साहबने जो इस प्रकार जैनधर्मका महत्व प्रकट किया, उसको यथार्थ प्रगट करनेके लिए आइए प्राचीनतम मानेनानेवाले धर्म हिन्दूधर्मसे इसकी तुलना करें। ___ पहिले तो स्वयं एक तरहसे हिन्दू धर्मके ग्रन्थ जैन धर्मके संस्थापक श्री ऋषभदेवको नवमा (या आठवां) अवतार मानकर उसकी प्राचीनता वेटोंसे भी पहिलेकी सिद्ध कर देते हैं, क्योंकि वेदोंमें १४ वे वामन अवतारका भी उल्लेख है। इसलिए वामन अवतारके बाद वेद बने साबित होते हैं। और जैनधर्म नवमें 'अवतार मानेजानेवाले श्री ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित हुआ था। तिसपर मागवतमें साफ लिखा है कि " वह (ऋपमदेव) लोक, वेद, ब्राह्मण और गौ सबके परमगुरु थे और Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और हिन्दूधर्म। उन्होंने सकल धर्मके मूल गुह्य ब्राह्मणधर्मका ब्राह्मणदर्शित : मार्गके अनुसार उपदेश दिया था।" (५-६- अ०) यह ब्राह्मणधर्म वेदोंमे वर्णित है। अस्तु, अब हमें देखना चाहिए कि इन वेदोमें है क्या ? और यह कब बने ? इनमें निरूपित धर्मका स्वरूप क्या है ? इन पनोंका सप्रमाण पूर्ण विवरण तो मि० चम्पतरायनी बैरिस्टरकी Key of Knowledge Pra. otical Path और अमड्मतसंगम नामक पुस्तकोंमें है, पर साधारणतया इनका उत्तर इस प्रकार होगा। सम्थतिम वेद दुनिया में सबसे प्राचीन ग्रन्थ कहे जाते हैं। प्रथम तीर्यङ्कर श्री ऋषभदेव उनसे बहुत पहिले होचुके थे, यह हम ऊपर मिद कर चुके है । यही ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे। इस प्रकार जैनधर्मके बहुत पीछे वेद बने थे। आधुनिक योरूपीयन विद्वान उनके दिपयमें कहते हैं कि वे उस समय बने, थे, जब कि आर्यसभ्यताके नवपछव भी विकसित नहीं हुए थे। और लोग प्राकृतिक शक्तियों-अग्नि, सूर्य, चन्द्र आदिसे अत्यन्त भयभीत थे। और उनकी पूजा किया करते थे। इसके अगाड़ी वे मानते हैं कि इन्ही शक्तियोंकी पूजा वन्दनाके मंत्रोंक समुदायरूप यह वेद हैं। पर उस समयके आर्योंकी सभ्यताका जब हम ध्यान करते हैं जैसी कि मि० विल्सन आदि यूरोपीय विद्वानोंने सिद्ध की है कि वे आधुनिक हिंदू समाजके तरह ही करीबर सभ्य थे, (देखो Practical Path p. 188) तब हम इस बातपर कभी भी विश्वास नहीं कर सके कि उस समयके हिं ऋषि इतने असभ्य और अज्ञानी थे जो प्राकृतिक शक्तियोसेर Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर जाते और उनकी उपासना करते ! तो फिर इन वेदमंत्रोंका भाव क्या है नो अग्नि आदिको समर्पित हैं ? यह प्रश्न अगाड़ी आता है। परन्तु इसका उत्तर जैसा कि मि० चम्पतरायने अपने उक्त अन्योंमें दिया है, उससे इन मंत्रोंका भाव साफ प्रकट होजाता है। वास्तवमें यह शक्तियां प्राकृतिक नहीं हैं बल्कि आत्मगतियोंकि रूपान्तर हैं । वैदिक ऋषियोंने काव्यकी अलंकृत भाषामें आत्मशक्तियों के रूपक बांधकर उनका गुणगान किया है जिससे कि उनकी आत्मामें जागृति पैदा हो जाय । और इस प्रकार उसका महत्व सेदेव हृदयपट पर अकित वना रहे। अब निस आत्माकी शक्तियोंको वे इन्द्र, सूर्य्य आदिके रूपक पूजतेथे तव यह आवश्यक है कि वे उसके तत्वसे भिज्ञ रहे हों। वेदमें इन्द्र, सूर्य और अग्नुि यह तीन मुख्य देवता माने गए हैं। इंद्र आत्माको पुद्गलसे मिलकर सांसारिक मोगोमे लिप्त रहने की अवस्थाका द्योतक है। तव सूर्य आत्माको शुद्धात्मस्वरूप केवलज्ञानावस्थामें प्रकट करता है। और अग्नि वह तपकी अग्निहै जिसके द्वारा कर्मवन्धनोकी निर्जरा होकर नवीन कमौका बन्ध होना रुक जाताहै जिससे आत्मा कोसे संसार परिभ्रमणसे छुटकारा पा लेता है। जिन ऋषियोंने आत्माके मिन्न स्वरू-- पोंको इस तरह पहिचाना उन्हें जरूर आत्मा सम्बन्धी गूढ ज्ञान था। और नहांसे उन्हें यह गूढज्ञान प्राप्त हुआ। उन लोगोंका आत्मज्ञान' गुढ़ ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक रहा होगा। अब देखना चाहिए कि यह वैज्ञानिक ज्ञान उस समय किस धर्ममें पाया जासता था। वेदोंमें तो था ही नहीं क्योंकि उनमें तो सिवा गीतोंके और कुछ महत्त्वपूर्ण वस्तु देखने में नहीं आती तब यही मानना पड़ेगा कि यह Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और हिन्दूधर्म । 1 ४१ ज्ञान नैनधर्मसे उन्हें प्राप्त हुआ होगा जो भारतीय धम्मोंमें, आधुनिक खोजद्वारा, प्राचीनतामें दूसरे नम्बरका माना गया है और जिसमें कर्म सिद्धांत सम्बंधी शब्दोंको शब्दार्थ में व्यवहृत किया है जैसे इन्साइक्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथ्किस भाग ७ ष्टष्ट ४७२ में प्रमाणित किया गया है: Cobaltung " जैनी लोग इन शब्दों (आश्रव-बन्ध-संवर- निर्जरा आदि ) को उनके शब्दार्थ में काम में लाते हैं और मुक्ति के मार्गको समझाने में व्यवहृत करते हैं (आश्रवोंका संवर और निर्जरा मोक्षके कारण है) अब यह शब्द इतने ही पुराने हैं जितना जैनधर्म; क्योंकि बौद्ध -लोगोंने जैनधर्मसे आस्रवका अति भावपूर्ण टर्म ( Term = शब्द ) ले लिया है । और वह उसको करीब करीब उसी भावमें व्यवहृत करते हैं जिसमें जैनी लोग; किन्तु उसके शब्दार्थ में नहीं, क्योकि वह कर्मको सूक्ष्म पुद्गल नहीं मानते हैं और आत्माकी सत्ताको भी नहीं मानते हैं जिसमें कि कर्मोंका आश्रव होसके । संवरके बजाय वह 'असवक्खय' जिसके माने आश्रवका क्षय होता है, व्यवहारमें लाते हैं और उसको मार्ग निर्दिष्ट करते हैं । यह प्रकट है कि बौद्धोंके -यहां आश्रवका शब्दार्थ जाता रहा है। और इस कारण यह आवश्यक है कि उन्होंने इसको किसी ऐसे सम्प्रदायसे लिया हो कि जो इसको इसके यथार्थ भाव में व्यवहृत करता हो; अर्थात् दूसरे शब्दो में जैनियोंसे । बुद्ध लोग शब्द 'संवर' को भी व्यवहृत करते हैं जैसे शीलसंवर और क्रियारूपमें 'सम्वत्', जो ऐसे शब्द हैं जिनको ब्राह्मण धर्मके संस्थापकोंने इस भावमें नही व्यवहृत किए हैं। इससे प्रकट है कि वह जैनधर्मसे लिए गए हैं जहां वह अपने Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwww भगवान महावीर। शब्दार्थमें अपने व्यवहृत भावको ठीक ठीक प्रकट करते हैं।" __इसलिए प्रमाणित होता है कि जैनधर्मका कर्मसिद्धान्त जैनदर्शनका आदि और यथार्थ अंश है । और वह बौद्ध एवं हिन्दू दर्शनोंसे प्राचीन है । और हिन्दूधर्मके अन्दर किसी समयमें सर्वाग पूर्ण आत्मिक ज्ञानका प्रतिपादन नहीं किया गया। उसमे जो सम• यानुसार सामयिक बातें जोड़ी गई व जोड़ी जाती हैं और जो स्वयं पूर्वापर विरोधित हैं उससे वह ईश्वरीय धर्म कहा नहीं जा सक्ता । ईश्वरके मुखसे निकला हुआ धर्म कमी अपूर्ण नहीं हो सक्का । और न ऐसा ही हो सका है कि उसके अनेक अर्थ लग सकें। इसलिए वेदोंको ईश्वरकृत मानना बिलकुल मिथ्या है। वे ऋषि महर्षियोंके आत्मज्ञानके फल हैं । और वह आत्मज्ञान उनको जैनधर्मसे प्राप्त हुआ था, जैसा ऊपर प्रगट किया गया है। उस समय भी लोग असम्य नहीं थे। जैनधर्मके सिद्धान्त वैज्ञानिक हैं। दूसरे शब्दोंमे साक्षात 'सत्य' (TRUTH) हैं । और सत्य अमर है । इस हेतुसे जैनधर्म अनादिनिधन और सर्वज्ञ कथित है और उसके ज्ञानके आधार पर वेद बने हैं। इसलिए इस दृष्टिसे वेदोंको ईश्वरत मानना किन्ही अंशोंमे उपयुक्त है । वेदोंमें यज्ञादिमें पशुओंके बलिदान सम्बन्धी विधान पीछेसे किसी दुर्समयमे बढ़ा दिए गए होंगे,क्योकि म्वयं वेदामे हिंसाको बुरा कहा है। जो राक्षसों और मांसभक्षकोंको ' श्राप सम्बन्धी वाक्योंसे प्रकट है। अस्तु, प्रकट है कि हिन्दूधर्मके प्रारम्भिक सिद्धान्त जैनधर्मलग गए थे। कालान्तरमे वैदिकधर्मावलम्बी उसके श्रोतको Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और हिन्दूधर्म | ર द्वेषपूर्ण दृष्टिसे देखने लगे । और अपने धर्मको पूर्ण बनानेके लिए उपनिषिध, पद्दर्शन आदि रचते हुए । इसीलिए मि० चम्पतरायजी बैरिप्टर अपनी " की आफ नोलेज " नामक पुस्तकमें सब धर्मोका अव्ययन करके कहते हैं :---- " खोज करने पर हरएक धर्मके द्वारसे निराशा होती है । और जब हम जैनधर्मकी तरफ देखते हैं कि क्या इससे धर्मके सिद्धान्त में संतोष मिलता है, जिसके विचारने हरएकको घबड़ा दिया है, तब यह जैनधर्म तुरत हमको छः मूलद्रव्योंकी तरफ ले जाता है, जिनकी मढ़ढ़के विना सिवाय गड़बड़ाहटके और कुछ नहीं होसक्का । ... ...जब हम सत्यकी खोज करते हुए धर्मकी तरफ पहुँचते हैं; और मान व मायाके विचारसे नहीं तब यह देखतेहै कि जैनधर्म उन सर्वमतोंमे अनुपम है जो सत्य बतानेका दावा करते हैं । " इस प्रकार डुबोईसाहबके उपर्युक्त उद्गार बिल्कुल ठीक बैठते है । और जैनधर्म और हिन्दूधर्मकी यथार्थता प्रकट होजाती है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ भगवान महावीर। AAMRAPARA Ww HTML जैनधर्मका महत्व और उसकी स्वाधीनता "There is very great ethical value in Jainism for men's improvement. Jainisru is a very original, independent and systematical doctrine. It is more simple, more ri:b and varied than Brahmanical Systems and not negativa like Budhism." -Dr. A. Guirncot भगवान महावीरने जिस धर्मका पुनः उपदेश दिया था उसका हिन्दूधर्मसे सम्बन्ध हम पहिले देख चुके हैं। अब उनके जीवन कालका वर्णन करनेके पहिले उनके धर्मक महत्त्व और स्वाधीनताका दिग्दर्शन कर लें। डॉ० ए० गिरनाट साहब फ्रान्सके बड़े विद्वान हैं। आप इस विषयमें कहते हैं कि___“मनुष्योंकी उन्नतिके लिए जैनधर्ममें चारित्र सम्बन्धी मूल्य बहुत बड़ा है । जैनधर्म एक बहुत असली, स्वतंत्र और नियमरूप धर्म है । यह ब्राह्मण मतोकी अपेक्षा वहुत सादा, बहुत मूल्यवान तथा विचित्र है। और बौद्धके समान नास्तिक नहीं है।" इसके अतिरिक्त स्वयं जैनधर्मका अव्ययन अन्य विविध दर्शनोसे तुलना .करके करनेसे उसकी महत्ता और स्वतंत्रता प्राट करता है । जैन'धर्म स्वयं एक पूर्ण मत है। प्राचीनसे प्राचीन जमानेसे ही यह थोये कोरे क्रियाकाण्ड (Ritualism)के खिलाफ रहा है। जैनधर्मने सांख्यदर्शन जैसे अन्य भारतीय दर्शनोंके समान ही वैदिक यज्ञ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मका महत्व और उसकी स्वाधीनता । ४५ काण्डका निषेध किया है । परन्तु उसने बौद्धोंके समान ही चार्वा - कोंका घृणित दुराचार नीच दृष्टिसे देखा है। जैनधर्मका कहना है कि हमारे इन सुख व दुःखमय दशाओंके कारणभूत हमारे ही कर्म हैं । उसी तरह वह अहिंसा और त्यागके सिद्धान्तोंको मानव चारित्रके उत्तम अंग बतलाता है । जैनधर्मके अनुसार तपश्चरणका उद्देश्य बौद्धोके उद्देश्यसे निहायत विपरीत है। एक जैनीके निकट उस तपसे भाव आत्माकी पूर्णता और शुद्धता प्राप्त करनेका होगा। जबकि बौद्धके निकट इसके विपरीत आत्माके अभाव में ! जैनी आत्माको नित्य और अकृत्रिम मानते हैं । जीवद्रव्य एक नित्य और अकृत्रिम सत्तात्मक पदार्थ है । भले ही वह जन्म मरण धारण करता है और दुःख व सुख अनुभव करता है पर उसके यथार्थ गुण अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान और अनन्तसुख हैं। इस प्रकार जैनधर्म और वेदान्त दोनों ही बौडोके सैद्धान्तिक क्रियाकाण्डका निषेध करते हैं । और आत्माकी नित्यात्मक सत्ताको स्वीकार करते हैं । परन्तु अब दोनों धर्म एक दूसरेसे विपरीत होजाते हैं । वेदान्ती केवल आत्माकी सत्ता स्वीकार करके ही संतोष धारण नही कर लेता, बल्कि अगाड़ी बढ़कर उसे संसारभरकी आत्मा व्यक्त करता है । वेदान्तदर्शन के अनुसार समस्त चेतन अचेतन पदार्थोंसे पूर्ण जगत एक और समान सत्ताका ही विकाश है । "मैं वह हूं। सांसारिक शक्ति जो मुझसे बाहर है और जो मेरा सामना करती है, मेरेसे भिन्न और स्वतंत्र सत्ता नही है । केवल एक ही यथार्थ सत्ता है । और आप, 1 मैं व अन्य चेतन पढ़ार्थ एवं समस्त अचेतन पदार्थ इसी एक सत्तात्मक सत्ताके रूप हैं । " यह सिद्धान्त यद्यपि उच्च है किन्तु Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર भगवान महावीर । जैन विचारकके वैज्ञानिक मस्तिष्क में इसकी महत्ता नहीं है। उसके निकट तो जीवित पदार्थ जीव, मृत पदार्थ पुद्गलसे नितान्तं विभिन्न और विच्छिन्न है। दोनो पदार्थ एक दूसरे से इतनी विभिन्नता रखते हैं कि चाहे जैसा ही सैद्धांतिक गोरखधन्धेका पेच क्यों न हो वह दोनोंका एक में समावेश नहीं कर सक्ता । नीव और अजीव दोनों ही दो विभिन्न, अकृत्रिम, नित्य सत्तात्मक पदार्थ हैं। फिर भी जैनधर्मके अनुसार केवल एक ही आत्मा नही है बल्कि अनन्त आत्माऐं हैं । एक मजिष्ट्रेटकी आत्मा उस कैदीकी आत्मासे विलकुल दूसरी है, जिसको वह सजा दे रहा है। किन्तु सर्व जीवोंका असली स्वभाव एक समान है । जब योग और सांख्य दर्शनोंकी तुलना जैनधर्मसे करते हैं तो दोनों ही जैनधर्मसे इतने सहमत हैं कि आत्माकी सत्ता और अनन्तराशिको स्वीकार करते हैं और एक विभिन्न अचेतन शक्तिके अस्तित्वको मानते हैं । परन्तु सांख्य दर्शनमे कोई ऐसा उद्देश्य नहीं माना गया है जिसके प्रति मनुष्य प्रगतिशील हो । तब जैनी अर्हत् पढ़को अपना उदेश्य मानते हैं 'और पाताञ्जलि परमात्मपदको । जैनधर्म वैशेषिक मतके समान ही अगु, काल और आकाशको अकृत्रिम और नित्य मानता है। और जैसे न्याय दर्शनमे विविध नैयायिक सिद्धान्त माने गए है वैसे ही जेनधर्ममें भी विविध न्याय सिद्धान्त धार्मिक सिद्धातोंको व्यक्त करनेको व्यवहृत किए जाते हैं । परन्तु जैन न्यायमें अपने मुख्य 'विशेषण भी हैं । और उसे अपने स्याहाट सिद्धांतपर वस्तुतः गवं करना चाहिए जिससे कि जैनधर्मकी महत्ता न्यायवादमें भी जाती है । इम प्रकार हम देखते हैं कि जननमें बहुतसी चढ़ 1 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन परिस्थिति । s बातें अन्य भारतीय दर्शनोंसे सादृश्यता रखती हैं, परन्तु साथ ही 'उसमें इन दर्शनोसे इतनी खूबियां भी हैं जो उसे एक स्वतंत्र और स्वाधीन दर्शन प्रगट करती हैं । (See Jain Gazette Vol: XIX No. 3 P. 71 ) अस्तु चलिये अब उस समयका भी कुछ ज्ञान प्राप्त कर लें, जब भगवान महावीरजीने जन्म लेकर ant फिरसे अपने पूर्व तीर्थकरों की भांति बतलाया था । QUAK ( ११ ) तत्कालीन परिस्थिति I " अतिशय देख धर्मको हानी । परम सभीत धरा अकुलानी ॥ " 1 संसारकी परिस्थिति और कालचककी महिमाका अवलोकन हम पहिले कर चुके हैं। देख चुके हैं कि समय हमेशा एकसा नही रहता है । परिस्थिति संदैव पल्टा खाती रहती है। नई नई घटनाएँ सदैव घटित होती रहती हैं। आज जो बात ठीक थी, वही कल विपरीत मासने लगती है। भगवान महावीरने धर्मोपदे-. शमें यह जतला दिया था कि संसारमें ऐसी भी प्रकृतिकी आत्माएँ मौजूद हैं, जिन्हें अपने सच्चे आत्मखरूपका ज्ञान कभी भी नहीं होगा । वे सदैव संसारके संतप्तसागरमे गोते लगाती रहेंगीं । कभी ऊपर सतह पर आ जांवगी, तो कभी गहरे गढेमें चली जायगी । उनके ज्ञानको आवरण करनेवाली प्राकृतिक शक्तियाँ इतनी जटिल हैं कि वह कभी भी उस विचारी आत्माको सन्मार्ग C Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। पर आकर मुक्तधाममें नहीं पधराने देगी। भले ही वे अपने कृत्योंसे सांसारिक भोगोंमें उत्कृष्टता प्राप्त करलें । और. सर्व सांसारिक आत्माओंको आत्मज्ञानका भान होना मी सहल नहीं है। पूर्वके शुभकृत्यों के प्रभावसे यदि सुयोग्य अवसर (काललब्धि) उन्हें प्राप्त होजाय तो भले ही वे सच्चे मोक्षमार्गपर आकर अपनी आत्माओंका कल्याण कर सकें । सो सर्वसे ऐसे हो जानेकी संभावना अलि दुष्कर है। इसी लिए कभी समय शुभ उन्नतिकी ओर पग बढ़ाता है तो कभी अवनतिके गर्तकी ओर लुडकने लगता है। यह तत्कालीन मनुष्योंके कृत्योंके आधीन है। यदि उनके कृत्य शुभ होगे तो उनकी दशा उत्तम होगी । और यदि सत्य दुप्परिणाममय दुष्ट होगे तो दशा भी अधम होगी । अस्तु, इसी क्रमके अनुसार समाजकी आवश्यकाएं घटती बढती रहती हैं। नये नये विचार उत्पन्न होते रहते हैं। और मनुष्य अपने मनोनुकूल सिद्धांत आदि गढ लेते हैं। पर जितना ही उनमें सत्यान्श होता है, उतना ही उनका आदर और टिकाव होता है। इस युगके आरम्भमे श्री ऋषभदेवने यथार्थ मार्गका रूप जनताको दर्शाया था, पर उसी समय ही स्वयं उनके पात्र (मारीच ) ने अन्य मार्ग अपनी रुचिके अनुसार बनाया था। वस कभी ऐसी समस्या आजाती है कि उसका उत्तर नहीं मिलता. अशांति और असंतोष फैल जाता है. धर्ममें अविश्वास और अंघ श्रद्धा होनानी है । इनको हल करनेके लिए उस समयकी अवस्थानुमार महान आत्मा जन्न धारण करती है, और गनीर सितिको मुलझाकर समानको पुन. सन्मार्गपर ले आते हैं। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन परिस्थिति। ईसाके पूर्वकी पांचवीं और छठवीं शताब्दियां मानव जातिके इतिहासमें अपूर्व शताब्दिया गिने जाने लायक हैं। उनका प्रभाव चिरस्मरणीय है । इन शताब्दियों में चारों ओर संसारभरमें हलचल मच गई थी। भारत ने उस समय भगवान महावीर और म. बुद्ध प्रभृति महात्माओंने जन्म धारणकर मानवोंका उपकार किया था। भारतकी दशा उस समय बड़ी मार्मिक थी। उस समयकी आर्थिक, राज्यनैतिक, सामाजिक और धार्मिक परिस्थिति बडी विचित्र होरही थी, नए २ मन्तव्य, नए २ सिद्धान्त लोगोंको बतलाए जारहे थे और लोग खुशी २ उनको अपनालेते थे। उस समयकी आर्थिक दशा अवश्य अबसे लाख दर्ने अच्छी थी। हमें बौद्धग्रन्थोंके साथ २ जैनग्रन्थोंके वर्णनोंसे उस समयकी आर्थिक दशाके समृद्धिशाली होनेका पता चल जाता है । आजकलकीसी दरिद्रता उस समय भारतमें नामको भी नहीं दिखाई पड़ती थी। मनुष्योंको खानेपीनेकी कमी नही थी। दास और दासीके सिवाय और कोई मजदूरी नहीं करता था। छपि ही मुख्य व्यवसाय था, पर शिल्पका भी अभाव नहीं था। विविधर कारकी कलाओंका प्रचार ग्राम २ में था। लोग चैनसे रहते थे। रोजगार दूर दूर देशोंसे होता था। चीन, फारस, लंका आदि देशाके व्यापारीगण यहां व्यापार करने आते थे, ऐसे व्यापा:योकं सफर करनेका विवरण भी हमको मिलता है। उस सन्यके सिक मिले हैं, उनसे प्रमाणित होता है कि उस समय लेनदेनजिसकी तरह नकदका व्यवहार था और सागमें शादी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० भगवान महावीर । घोडों ( हुण्डियोके भुगतान ) का खूब प्रचार था । (See The Coins of Incis P. 15) उस समयके लोग बहुतायतसे ' गावोमें रहते थे, और नगरोंकी संख्या इनीगिनी थीं। पर नग f "I 7 1 . रोनें उस समय जनता के आरामके लिए विशेष प्रकार की तडाग वापी स्नानागार आदि सुखद सामित्री प्राप्त थीं. और गृह आदि उत्तम कारगरीके परिचायक दो दो तीन तीन मञ्जिलके बनते थे । हाँ ! उस समय जुल्म और अत्याचार भी नहीं होते थे । चोरीका { · r तो नामविशान तक नही था । विद्याका भी खूब प्रचार था। तक्षशिला विख्यात विश्वविद्यालय था । इतनी सुसमृद्धिशाली दशा होनेपर भी 1 "" 1 } लोग विलासिताप्रिय नहीं थे; र्बल्कि मिहनती और सरल स्वामाची थे। ग्रामीण सीधा सादा जीवन व्यतीत करते थे ।। See The Kslytriya Clans in Buddhist India P. 67 וי 1 1 तवकी राज्यनैतिक स्थिति भी एक अनोखा ही दृश्य दिखकारही थी, लोगोंक स्वतंत्र भावोको दर्शा रही थी । एक ओर तो प्रजातंत्र अपनी स्वाधीनताका प्रभाव दिखा रहे थे । और 1 गंगाकी दूसरी ओर राजा लोग अपनी शानकी आन जंतला रहे थे और नीति पूर्वक अपनी प्रजापर शासन कर रहे थे। प्राचीन यूनान जैसी हाजत होरही थी । जेन, बौद्ध और ब्राह्मण ग्रन्थोंसे पता चलता है कि उस समय सोलह राजा अपने राज्य में शासनाधिकारी थे. इनमे मुख्य वह थे, जिनसे श्री महावीरस्वामीका विशेष सम्बंध था। कौशल राज्यकी राजधानी श्रावस्ती या अयोध्या थी, यही राज्य आजकलका अवध प्रांत है। दूसरा मुख्य राज्य मग था जो कि आजकलका दक्षिण विहार हा नारता है। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन परिस्थिति। इसकी राजधानी राजगृह थी। जैनधर्मके परमश्रद्धालु राजा श्रेणिक । यहां राज्य करते थे। और वर्तमानके उत्तरीय विहार, 'विदेह राज्य था, जिसकी राजधानी मिथिला थी। यह राज्य एक दूसरेसे प्राकृतिकरीत्या विभिन्न थे। गंगा नदी विदेहको मगधसे पृथक करती थी और उसे सदानीर नदी कौशलसे अलंग कर देती थी। इन राज्योंके राजा एक दूसरेके निकटसम्बंधी थे। इस कारण सानन्द राज्य करते थे। दूसरे प्रकारके प्रजातंत्र राज्य 'गण-राज्य' से विख्यात थे। इनमें मुख्य वैशाली नगरीके चहुंओर रहनेवाले लिच्छावी क्षत्रिय राजा थे। संभवतः इन्हीक गणराज्यमें भगवान महावीरने जन्म धारण किया था। इनका वर्णन हम अगाड़ी देंगे। अन्नमे यह गणराज्य अजातशत्रु. मगधाधिपतिके आधीन होगया था। इसी. राज्यके वर्णनसे उस समयकी उत्कृष्ट प्रजातंत्र प्रणालीका भी दिग्दर्शन हो जायगा। इसके अतिरिक्त मल्ल और शाक्य गणराज्य विशेष उल्लेखनीय थे। इनमे इतनी स्वाधीनता और ऐक्यता थी कि सहसा इन राज्योंपर कोई अधिकार नहीं जमा सका था। उस समयकी सामाजिक स्थिति भी वर्तमान जैसी जटिल नहीं थी। जाति भेद अवश्य विद्यमान थे। और मुख्य चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र ही थे। परन्तु इतनी संकीर्णता नहीं थी कि अन्यान्य वर्गोसे परहेज रखा जाय। पाणिग्रहण करनेकी अबकी अपेक्षा तब बडी स्वतंत्रता थी । चार वर्णोमे क्षत्रिय लोगोंका सबसे अधिक मान था। उनकी मर्यादा समाजमें खब बढ़ी चढ़ी थी। उनके बाद ब्राह्मण, और ब्राह्मणोके वद वैश्यों Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANNA भगवान महावीर। और उनके बाद शूद्रोंका मान था। क्षत्रिय लोग नीतिनिपुण, सदाचारी थे और ब्राह्मण केवल यज्ञकाण्डमें व्यस्त थे। इसीके कारण उनकी मान्यता कम होगई थी, और भत्री लोग उन्हें द्वेषमरी दृष्टिसे देखने लगे थे। वे इस समय धार्मिक क्रियाओंमें ब्राह्मणोंसे बढ़ चढ़ गए थे । और कोरे क्रियाकाण्डमें नहीं फंसे थे। स्वयं श्री सज तीर्थकर भगवानने उन्हीमें जन्म लिया था.! यह खींचातानी इतनी बढ़ गई थी कि पडे २ राजा लोग इन ब्राह्मणोंको तिरस्कारकी वष्टिले देखने लगे थे, और उसी मतके संरक्षक बन जाते थे जो इनके खिलाफ खडा होता था ( See Mr..K. I. Eaunder's Gotama Buddha P. 17.) इस प्रकार उस समय के सामाजिक वन्धनाका चित्र है जो कि वर्तमानके बन्धनोंसे कहीं उदार थे । यह जाति बन्धन आजकलकी तरह कठोर और कड़े कदापि न थे। जैन शास्त्रों में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनसे इस व्याख्याकी पुष्टि होती है। अस्तु, देवल धार्मिक स्थितिने देखना अवशेष है कि उस समय वह कमी थी कि जिससे ब्राह्मणों और क्षत्रियोंमें इतना मनोमालिन्य बढ रहा था। - उस समयकी अवस्थाका ध्यान करनेसे विदित होता है कि. उस समय वर्मी वडी दुरी दशा थी, जब किमहावीरस्वामीने जन्न लिग ण । धार्मिक अराजकताका झण्डा चारों ओर उड़ रहा था। लोग अंधकारने पड़े हुए ज्ञान ज्योतिके प्रकाशके लिए लालायित होरहे थे। मनमय जमुनान्त. तीनसौ तिरसठ विविध वन पन्ध प्रचिलित थे (का-एपति श्री ३वीं गाय और क्षत्रिय लेग इन विचरले हुए नामे विशेष दिनवापी तेथे वरिक उनके Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन परिस्थिति। ५३ लिए आश्रम आदि वनवा देते थे। इनमें मुख्य परिव्राजक, आनीवक, अचेलक, वौद्ध आदि थे। मि० वेङ्कटेश नारायण त्रिपाठी एम०ए० इस धार्मिक हलचल और वेचैनीको उत्पन्न करनेवाली तीन प्रवृत्तियोंको गिनते हैं । अर्थात् (१) यज्ञकी हत्या (२) कर्मकाण्डका प्रचार और (३) हठयोगकी धारा। भगवान महावीरके जन्म समय पशु यज्ञ पराकाष्टाको पहुंचा हुआ था । निर्दोष, दीन, असहाय जानवरोंके खूनसे यज्ञकी वेदी लाल होजाती थी। यह बलि विविध देवताओंको प्रसन्न करके यजमानकी मनोकामना पूर्ण कराती समझी जाती थी। पुरोहित लोग यज्ञके करानेमें सदैव तत्पर रहते थे, क्योंकि यही उनकी जीविका थी। इस प्रवृत्तिने उस समय सबके दिलोंको दहला दिया था । और अन्तमें भगवान महावीरने इन मूक, निरापराध पशुओंके दुःखपाशको काट जीवनदान दिया था। इस विषयमें प्रख्यात विद्वान लोकमान्य स्व० बालगंगाधर तिलकने अपने व्याख्यानके मध्य एक दफे कहा था कि “ अहिंसा परमो धर्मः इस उदार सिद्धान्तने ब्राह्मण धर्मपर चिरस्मरणीय छाप मारी है। पूर्वकालमें यज्ञके लिए असंख्य पशु हिंसा होती थीं, इसके प्रमाण मेघदूतकाव्य आदि अनेक ग्रन्थोंसे मिलते हैं।..परन्तु इस घोर हिसाका ब्राह्मण धर्मसे विदाई ले जानेका श्रेय जैनधर्म ही के हिस्सेमें है।" इसके साथ २ कर्मकाण्डका प्रचार भी खूब बढ़ रहा था । ढोंग और अधर्म छाया हुआ था। मि० त्रिपाठी, इस विषयमें इस प्रकार वर्णन करते हैं कि " अनात्मवाद और कर्मकाण्ड ही का पूर्णरूपसे सार्वभौमिक राज्य था। समान वाह्याडम्बरमें फंसा हुआ था। परन्तु समाजकी आत्मा घोर अन्ध Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ५४ . भगवान महावीर । कारमें पड़ी हुई प्रकाशके लिए चिल्ला रही थी। इस यज्ञप्रथाका प्रभाव समाजपरं बड़ा ही बुरा पड़ता था। एक तो यज्ञोमें जो पशुहत्या होती थी, उसके कारण मनुष्योंके हृदय निर्दय और कठोर होते जाते थे, और उनके हृदयसे जीवनके महत्व और प्रतिष्ठाको भाव उठता जाता था। मनुष्य अध्यात्मिक जीवन के गौरवको मूलने लगे थे । इन यज्ञोका दूसरा प्रभाव यह था कि मनुष्योंमें जड़ पदार्थकी महिमा बहुत अधिक फैल गई थी। इतना ही नहीं कि वे आम्यन्तिरिक बातोंकी अपेक्षा वाह्य वातोका अधिक सम्मान करने लगे थे, किन्तु बाह्य वातों ही को अपने जीवनमे सबसे श्रेष्ठ स्थान देते थे। लोगोंका विश्वास था कि यज्ञ करनेसे बुरे कर्मोका फल नष्ट होनाता है। भला 'सद-जीवन और पवित्र आचरणका गुरुत्व ऐसे समाजमे कब रहसता है, क्योंकि लोग जानते है कि पापसे कलुषित आत्माकी कालिमाको नष्ट करने के लिए पश्चात्ताप और संतापकी प्रचण्ड अग्नि उद्दीपित करनेकी कोई आवश्यका नहीं, केवल यज्ञके मांस-दुर्गन्धामिसिक्त धूमसे ही आत्मा उज्जवल होनायगी। फल इससे बिल्कुल विपरीत होता था। आत्माकी कालिमा और अधिक गहरी होती जाती थी। यज्ञ करनेमें बहुत रुपया खर्च होता था. ..अतएव हरएकेके भाग्य में यज्ञ करके यश प्राप्त करना न था। धनवान पुरुष ही या करनेका साहम कर सका था। इसलिए विचारप्रवाह कर्मकाण्डके विरुद्ध बहने लगा और लोग आत्मशाति, प्राप्त करनेके लिए नए नए. उपाय सोचने लगे।" इस ही अवसर पर गान महावीरने जन्न ले उनके मनस्तापको शांत किया था। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्कालीन परिस्थिति। ऐसी अवस्थाको उत्पन्न करने में कारणभूत हठ-योगकी धारा भी थी। जैन शास्त्रोंसे हमें पता चलता है कि भगवान पार्धनाथके जमानेसे ही इसकी प्रधानता फैल गई थी। और विविध वानप्रस्थ पन्थ और आम्नाय प्रचलित हो गए थे। नि० त्रिपाठी इनके विषयमें कहते हैं कि " इतके ('हठ-योग) प्रवर्तकोंका विश्वास था कि कठिन तपस्या करनेसे उनको ऋद्धिसिद्धि प्राप्त हो जायगी, उनमे दैवी शक्तियोंका आविभाव होगा, और प्रकृतिकी शक्तियों उनके वश हो जायगी । उनका यह भी ख्याल था कि आत्मा और शरीरमें विरोध है, अर्थात् आत्मा शरीररूपी कारागारमें कैद कर दी गई हैअत इस बधनसे निवृत्त होते ही आत्मा स्वतंत्र हो जायगी । ज्यों ज्यों शरीर क्षीण होता जायगा, त्यों त्यों आत्माका उत्तरोत्तर विकास होता जायगा। इस विचारको लेकर ये लोग अपने शरीरको नाना प्रकारके तपोंसे नष्ट करने लगे। .... उत्साहपूर्ण पुरुषोंकी आत्माको न तो कर्मकाण्डों शान्ति मिली और न हठ तपश्चयामें ही परमानन्दका लाभ हुआ। ऐसे लोगोंको समाजका बनावटी जीवन कष्ट देने लगा। उनकी आत्माकी ज्वाला और अधिक भभकने लगी। इन सत्यके खोजियोंने अपने घरेवारसे और इस असत्य प्रिय संसारसे मुख मोड़कर जंगलकी तरफ प्रस्थान किया। ......ये लोग प्रचलित धर्मका प्रतिपादन और समर्थन न करते थे। प्रचलित प्रणालीकी त्रुटियोंसे असंतुष्ट होनेके कारण ये लोग चारो तरफ इन संस्थाओंकी बुराइयोको प्रकट करते थे, और समाजकी वर्तनान अवस्थाकी समालोचना करते हुए सर्व-साधारणके हृदयोंमें प्रच Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM भगवान महावीर । लित धर्ममें असंतोप और अश्रद्धा पैदा कररहे थे। पुराने देवी देवताओंकी ओरसे उनको मोड़कर दूसरी तरफ ले जानेका प्रयत्न करते थे। प्रचलित धर्मकी जड़ डिगने लगी। ऐसा क्षेत्र इन सन्यासियोने धीरे २ तैयार कर दिया था कि नए विचारोंका वीज वोया जाय । पर अभी बीज बोनेवालेकी कमी थी और लोग उसीकी प्रतीक्षा कर रहे थे।' (देखो भगवान बुद्धदेव ट० १८-२४) प्रतीक्षा विफल न गई.। भगवान महावीरस्वामीने शीघ्र ही जन्म धारण किया । और उन तापसोको तपश्चरणका यथार्थ रूप और आत्माका महत्व बतलाया, जिससे वे सन्मार्गमें प्रवर्तित हुए थे। 'इस प्रकार भगवान महावीरके जन्म समयमें भारतवर्षकी अवस्था थो अस्तु अब देखना है कि इन सर्वज्ञ भगवानने किस जातिमें और कहाँ जन्म लिया था। - - - ANIIIIII Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिच्छवीय क्षत्री और उनका गण-राज्य । ( १२ ) हिच्छाकीय क्षत्री और उनका गण- राज्य । "वे आर्य हो थे जो कभी अपने लिए जीते न थे। वे स्वार्थ हो मोह की मदिरा कभी पीते न थे । संसारके उपकार हित जब जन्म लेते थे सभी निश्चेष्ट होकर किस तरह वे बैठ सकते थे कभी ?" ५७ उस समय में अर्थात् ईसा पूर्वकी छठवीं शताब्दिमें पूर्वीय भारतमें लिच्छावीय क्षत्रियोकी एक विशाल और वीर जाति थी । ये लोग आर्घ्य क्षत्री थे । उनके रीतिरिवाज, शासनप्रणाली, धर्म आदि बड़े अपूर्व और उत्कृष्ट थे जिनके कारण उनके मध्य ऐसी ऐक्यता थी कि मगधाधिपति अजातशत्रु भी इनपर सहसा आक्रमण न कर सका था, जबतक उसने इनके मध्य अनैक्यका बीज नहीं बुवा दिया था । इनमें जैनधर्मका प्रचार खूब रहा था, जैसे कि अगाडी मालूम होगा । लिच्छावी वशिष्ट गोत्रके इक्ष्वाकवंशीय क्षत्री थे । इनकी उत्पत्ति कहांसे कब हुई, यह अन्धकारमें है, किन्तु जिस समय भगवान महावीर इस संसार में विद्यमान थे और धर्मका प्रचार कर रहे थे उस समय वे एक उच्चवंशीय क्षत्री माने जाते थे । वे अपने उच्चवंशमें जन्म धारण करनेके लिए शिर ऊँचा रखते थे; और पूर्वीय भारतके अन्यान्य उच्चवंशीय क्षत्री उनसे विवाह सम्बन्ध करनेमें अपना बड़ा मान समझते थे । भगवान महावीर शायद इन्हीके गणराज्यके एक राजाके पुत्र थे । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर । mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmimmmmm और संभवतः इनके एक सहयोगी नागरिक थे। इसमें संशय नहीं कि वैशालीमें इनके धर्मके अनुयायी एक विशाल संख्यामें थे। और उच्च पदाधिकारी थे; जैसे सेनापति 'सिह और प्रख्यात् राजा चेटक, इनकी राजधानी वैशाली एक विशाल नगरी थी जिसका वर्णन अगले अध्यायमे करेंगे । यहाँपर केवल इनके आचार विचार और राज्य प्रणालीका उल्लेख करना अभीष्ट है. . . , .. ..लिच्छावी वजियन राजसंघमें सम्मिलित थे, जिसकी सत्ता समस्त वजी वा वृजी देशपर कायम थी। इस संघमे कितनीक जातियाँ -सम्मिलित थी, जो संभवत. आठ थी। यह जातियां आपसमें बड़े प्रेम और स्नेहसे रहती थी, जिसके कारण उनकी आर्थिक दशा समुन्नत होनेके सायर ऐक्यता ऐसी थी कि जिसने उन्हें बड़ा प्रभावशाली राज्य बना दिया था। इन जातियोके लोग बड़े दयालु और परोपकारी थे। और अति सुन्दर थे। इनको विविध प्रकारके तेन रंगोंसे बड़ा प्रेम था। यह जातियां अलग अलग रंगके कपड़े और सुन्दर बहुमूल्य आभूषण पहनती थी। उनके घोड़े गाड़ियां सोनेकी थी। हाथीकी अम्बारी सोनेकी थी। और पालकी भी सोनेकी थीं। इससे उनके समृद्धिशाली और पूर्ण सुखसम्पन्न होनेका पता चल जाता है। परन्तु वे ऐमी उद्ध ऐहिक अवस्था होते हुए भी विलासिताप्रिय नहीं थे। उनमें व्यभिचार इतकमी नहीं गया था। वास्तव ने स्वतंत्रतानिय थे। और किसी प्रकारको भी आधीनता स्वीकार ग्ना उनके लिए सहन मार्य न था। उनमें जोरीका नाम निमान नी था। उल्लष्ट कार गरीको सूख अपनाने में और नाविका विदा विधाय Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . लिच्छावीय क्षत्री और उनका गण-राज्य। ५९ विद्याध्ययन करने जाते थे। उनके महल और देव मंदिर अपूर्व कारीगरीके दो २ तीन २ मञ्जिलके बने हुए थे। उन्होंने अपने पाणिग्रहण सम्बन्धी कुछ नियम भी शायद बना लिये थे; जिनका भाव यह था कि वैशाली राज्यके वाहर उनकी कन्यायें न जाए, जो उनके उच्चवंशज होनेके कारण होना खाभाविक था। "श्रेणिक चरित्र से ज्ञात होता है कि इसी संघके मुख्यराजा वैशालीके शासक चेटकने अपनी पुत्री मगधेश श्रेणिक महाराजको देना कबूल नहीं की थी। और अन्तमें उन्होंने उसे चातुर्यतासे गुप्तरीत्या - मंगवा लिया था। वह स्वयं महाराजकी रूपराशिपर मुग्ध हो चली आई थीं। इसही चेटककी इस पुत्री चेलनाने महाराज श्रेणिकको जैनधर्मका श्रद्धानी बनाया था। चेलनाका उल्लेख बौद्ध शास्त्रोंमें भी है। अस्तु, इससे उस समयके विवाह संबंधी नियमोकी उदारताका पता चलता है। यदि किसी तरह स्त्री अपने दाम्पत्यप्रणका पालन नही करती थी, तो बड़े कठोर दण्डकी भागी होती थी। और उसका. छुटकारा उस दण्डसे केवल सन्यास धारणमे होता था।. लिच्छावी एक परिश्रमी, वीर धीर, समृद्धिशाली जाति होनेके साथ ही साथ धार्मिक रुचि और भावको रखनेवाली थी। जैनधर्म और बौद्धधर्म दोनोंका ही प्रचार उनमे था । परन्तु जैन धर्मकी प्रधानता मुख्य थी। इसका प्रचार वैशालीमे भगवान महावीरके पहिलेले विद्यमान था। संभवतः भगवान महावीर वैनालीक नागरिक थे। और उनके पिता जैनधर्मके पालक थे। उनके साथ और अन्य जैनीभीथे। मि० विमलचरण लॉ. एम० ए० आदिने इस वातको अपनी पुस्तक The Kshatriya Clans in Buddhist Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावार । India(P.82) में स्वीकार किया है । इसी पुस्तकके आधारपर यह वर्णन लिखा जा रहा है। इस विषयका पूर्ण विवरण लॉ. साहबकी इसी पुस्तकमें मिलेगा। लॉ. साहब इस वातको भी मानते हैं कि श्रमण (जैन मुनि ) प्राचीन उपनिषदके जमानेसे धर्मका प्रचार कर रहे थे; और भगवान महावीरके पिता इन्हीं श्रमणोंकी बड़ी भक्तिसे विनय करते थे । भगवान महावीरके पुनः धर्मका उपदेश देनेके पश्चात् लिच्छावियोंमें जैन धर्मके अनुयायी बहुत होगए थे। वैशालीमें जेनी उच्च पदाधिकारी थे जैसा कि वौड गन्योंसे विदित होता है। म० बुद्धके वहां कई वार अपने धर्मका प्रचार करनेपर मी जैनियोंकी संख्या अधिक थी। यह वात वौद्धोके 'महावग नामक ग्रन्थमें सेनापति सिंह के कयानकसे विदित है। (See Vinaya Tests, S.BE, Vol XVII, P. 116) अस्तु, यह प्रगट है कि लिच्छावी नीतिनिपुण, सदाचारी और सांसारिक सुख सम्पन्न होने के सायर सच्चे धर्मके अनुयायी मी थे। लिच्छावी राज्यवासियों द्वारा धार्मिक सिद्धांतोंकी विशेष उन्नति हुई थी। इस वातको मि० लॉ और डॉ० वाल्मा भी स्वीकार करते हैं। और ऐसा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि उन्हीं के मध्यसे सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान महावीरका जन्म हुआ था। - यह हम पहिले ही कह चुके हैं कि लिच्छावियोंका गणराज्य एक प्रजातंत्र था। और उनकी राज्य प्रणाली बिल्कुल आधुनिक ढंगकी थी। जहाँपर यह दरबार करते थे वहां उन्होंने याउनहाल बना लिए थे जिनको वे सन्यागार रहते थे। इनमेंसे भेम्बर चुनकर गण संघमें जाते थे। वे सब संभवतः राना कहलाने Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww. लिच्छावाय भवां और उनका गण-राज्य। ६१ थे। उनके दरबारका कार्यक्रम इस प्रकार बौद्धग्रंथोंसे जाना जाता है। पहिले उनमें एक 'आसनपन्नापक' नामक अधिकारी चुना जाता था। वह अवस्थानुसार आगन्तुकोंको आसन बतलाता था। अब एकत्रित दरवारमें एक प्रस्ताव उपस्थित किया जाता था। इस उपस्थित करनेको 'नात्ति' (ज्ञाप्ति) कहा जाता था। नात्तिके पश्चात् प्रस्तावकी मंजूरी ली जाती थी, अथवा रक्खा जावे या नहीं, यह प्रभ एक दफेसे तीन दफे तक पुछा जाता था, और यदि इसपर सब सहमत होते थे, तो वह पास होजाता था । और यदि विरोध खड़ा होता था तो वोट लेकर निर्णय किया जाता था। जो मेम्बर अनुपस्थित होता था, उसका भी वोट गिना जाता था। कोरम पूरे करनेका भी ख्याल सदैव रहता था। इनमें नायक, चीफ मेजिस्ट्रेट भी होते थे, जो लिच्छावियोंकी राज्यसत्तासम्पन कुलों द्वारा चुने जाते थे। इन हीके द्वारा संभवतः दरबारमें निश्चित प्रस्तावोको कार्यरूपमें परिणत किया जाता होगा। इनमें कितनेक मुख्य राजा थे, उपराजा थे, और भण्डारी भी थे, सेनापति भी थे। इनकी संख्या ठीक अन्दाज नही की जासकी। इन दरवारोंकी कार्रवाई ४-४ राजा अंकित करते जाते थे। वे लेखकों Recondersके रूपमें थे। न्यायालयोंका प्रवन्ध इस प्रकार था। संघके राजाओके समक्ष अपराधी लायाजाता था। वे उसे विनिश्चयमहामानस के सुपुर्द करदेते थे जो उसके अपराधकी जांच पड़ताल करके निर्णय करते थे। यदि अपराव प्रमाणित नहीं हुआ तो अपराधीको छोड़ देते थे। और पदि प्रमाणित हुआ तोवह उने व्यवहारिक के सुटुंद कर देते , जो कानून और रमने जानकार होते थे Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર "भगवान महावीर । यदि उन्होंने भी अपराधीको दोषी पाया तो 'सूत्रधार' के हवाले कर दिया, अन्यथा छोड़ दिया। सूत्रधारके अधिकारमें, प्राचीन' कानून और रिवाजका कायम - चालू रखना आवश्यक था । वे 1 अपराधकी विशेष छानवीन करने थे । यदि निर्दोष पाया तो छोड़ दिया अन्यथा अपराधीको 'अठ्ठकूलक' के समक्ष मेजं दिया । यह 'अटकूलक' एक प्रकारका न्यायालय (Judicial Institution) था जिसमे आठ न्यायाधीस आठो कुलके होते थे । यदि यह दोषीके अपराधसे सहमत हो गए तो उसे सेनापतिकें सुपुंद कर देते थे । सेनापति उपराजाको, और उपराजा राजाके सुपुर्द कर देता था । राजा यदि अपराधीको निरापराध पाता तो मुक्त कर देता । वरनं कानून और नजीरोंकी पुस्तकसे उसके अपराधका दण्ड निर्णय करता था । इस प्रकार उनके राज्यका प्रवन्ध था । प्रत्येक चातका इन्तजाम इस ही प्रजासत्तात्मक दरबारसे होता था. जिसके मेम्बर प्रत्येक वंशसे होते थे, और राजा कहलाते थे । इन राजाओंके अपनी निजी सम्पत्ति और पृथ्वी आदि भी होती थी । और सेनापतिं व भण्डारी भी होते थे। ऐसा प्रो० भाण्डारकर का मत है । जो संभवता ठीक जंचतः है । लिच्छवियोका अन्य राज्योसे भी विशेष सम्पर्क था। भगवेश श्रेणिककी महाराज्ञी चेलना लिच्छवी गणराज्य के मुख्वराजा चेटक्की पुत्री थी। इससे इनकी आपस में मित्रता थो । नल राजाजांचे श्री समग्नेका व्यवहार था । कौशलके राजा प्रत वजीत से भी मैत्री थी । लिच्छाविचोका अन्त मगधके राजा अजं न शत्रुद्वारा अगाट्री चलकर हुआ था। इसके उपरान्त्र मौथे सम्राट चन्द्रगुप्त तक इनका पता चलता है ।,, " + · Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' वाला और कूण्डप्राम। __ इस प्रकार भगवान महावीरके कुलके गण-राज्य संघका वर्णन है । अब हम अगाडी वैशाली नगरीका वर्णन मि० लाकी उपयुल्लिखित पुस्तकके आधार परं करेंगे जिसके निकटके कुण्ड ग्राम ( कुण्डलपुर) में भगवान महावीरका जन्म हुआ था। SEEN (१३) ঈহুদী জী লুঙ্ক্ষ । "Time, which entiquates antiquities, and hath an art to mako dust of all things, hath yet spared these minor monuments." . . ---Sir Thomas Browne. जैन शास्त्रोमे वैशाली नगर चेटक (जाकी राजधानी बतलाया गया है। संभव है चेटक महाराज उस नगरके क्षत्रियवंश और अन्य के अधिपति राजा थे और इनका सम्पर्क लिच्छावी गण-राज्य संमसे था। जैसा कि प्रो० भाण्डारकार इन राज्यसंघ मेम्बरोको ऐसा व्यक्त करते हैं। इसी नगरीके पास तीन नगर और भी थे । और भगवान महावरका जन्म स्थान कुण्ड ग्राम अथवा कुण्डलपुर इन्ह मिसे एक था। कुण्डलपुरकी व्यवस्थाका मो सम्बन्ध लिच्छावी गणराज्य संघसे था ऐसा प्रतीत होता है, क्योकि इस संघकी न्याय व्यवस्थाका जो वर्णन दिया है, उससे विदित होता है कि इन क्षत्रिय वंशोमेसे अलग२ प्रतिनिधि आते थे और वे उन कुलोके व अपने आधीन अन्य वर्गों के राजाहोते थे। और यह भी विचारमे रखनेकी बात है कि जैनशास्त्रोंमे महारान Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " भगवान महावीर । चेटकको और महाराज सिद्धार्थको वैशालों और कुंडलपुरका राजा · कहा है । और मि० लॉने अपनी उपयुर्लिखित पुस्तकमे वैशालो अथवा ब्रजिदेश (विदेह आदि) में गणराज्यका होना सिद्ध किया है । इसलिए उपर्युक्त प्रकार राजा सिद्धार्थको इस राज्य संघमें सम्मिलित मानना अपयुक्त नहीं भासता है । वह उस समय ज्ञात कुलकी ओरसे संभवतः राज संघमें उपस्थित थे । अस्तु, जैसे कि मि० एन० एस० रामास्वामी एैयंगर० एम० ए० भी अपनी 'साउथ इन्डियन जेनीजन ' नामक पुस्तकके एप्ट १३ घर भगवान महावीरको नातपुत क्षेत्रिय व्यक्त करते हुए लिखते हैं कि " महावर वर्द्धमान उच्च प्रजासत्तात्मक राजपा घरानेनेसे उसी प्रकार थे, जिस प्रकार गौतमबुद्ध | उनके पिता सिद्धार्थ उस क्षत्रिय जातिके नेता थे, और वैसाल, कुण्डगाम और वनियगानके संयुक्त गणराज्यके एक शामननतासम्पन्न राजा थे। * अस्तु, उस सनयके अन्य प्रभावशाली राज्य भगवादिले जानेको स्वरक्षित रखने के लिए बहुत मंभव है कि इन राज्योने इस प्रकार एक गणराज्य कम कर दिया हो। किंतु इन विषयमे कोई निश्वयात्मक निर्णय नहीं दिया जा सकता है जब तक कि उस नमानेके और हाल मानून न हो जायें । अनएव महाराज चेक और नृप रूप में वैशाली और किस अधिपति थे, जैन ना 4 कारण है कि इ - बनाएकी श्री P vay करते हैं। जब इन Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली और कुण्डग्राम। यह लिच्छावा राजाओंको राजधानो और वञ्जियन राज्यसंघके मुख्य स्थान होनेके रूपमें विख्यात है। जैन धर्म और बौद्धधर्मका इससे विशेष सम्पर्क रहा था, यह हम पहिले ही देख आए हैं। तिसपर भी वैशालीमें जैन धर्मको प्रधानता होनेके विषयमें अनेक श्रोतोंसे प्रकाश मिलता है । इसी बातको पुष्ट करते हुए ही सर रमेशचन्द्र दत्तने अपने " प्राचीन भारतवर्षकी सभ्यताके इतिहास में लिखा है कि "वह (भगवान महावीर ) गौतमबुद्धके प्रतिस्पर्धी थे और बौद्ध ग्रंथोंमें उनका नातिपुत्रके नामसे वर्णन किया गया है और वह निग्रन्थों ( वस्त्र रहित लोगों )के मुखिया कहे गए हैं जे लंग कि वैशालीमे अधिकतासे थे ।" भगवान महावीर भी संभवतः इमी राज्यसंघके एक राजाके राजकुमार थे, यह भी हम देख चुके हैं । यहांके अधिपति चेटक आपके मामा थे। इस नगरकी विशालताका अन्दाना कालिदासके इस वाक्यसे भले ही बांधा जासका है: "श्रीविशालमविसालम् । " चीन-यात्री यॉनॉना दैशालीको २० मीलकी लम्बाई-चौड़ाई में बसा बतला गया था। और तीन कोटोका भी उल्लेख कर गया था। उसके कथनके अनुसार निकटके तीन अन्य ग्रामोका भी होना सिद्ध होता है जैसा कि बौद्ध शास्त्रोमे वर्णन है । यही चीन यात्री इस सारे देशको ५००० ली (अनुमागता १६०० मील) की परिधिमे फैला बतलाता है, और वह कहता है कि यह देश बड़ा सरसन था । आम, केले आदि मेवेके वृक्षोसे भरपुर था। मनुष्य ईमानदार, शुभ कायोके प्रेमी, विद्याके पारिखी जौर विश्वासमें कभी कट्टर व कभी उदार थे। वास्तवमें देश अति उत्तम और Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ भगवान महावीर | WWW - सब तरहसे भरपूर था । सुन्दर गृह थे । मनमोहक देवमन्दिर थे । चित्तहारी सलौने बाग और बंगीचे थे। एक तरहसे वह देश साक्षात स्वर्गका भास कराता था । वर्तमानका मुजप्फरपुर जिलेका बसाड़ ही यह वैशाली माना गया है। इसी सर्व सम्पन्न देशके निकट भगवान महावीरकी जन्मनगरी कुण्डलपुर थी, जिसका वर्णन जैनशास्त्रोंमें खुब दिया हुआ है। और जब हम वैशालीका जैसा वर्णन देख चुके हैं तब उसके निकटस्थ नगरके निम्न वर्णनमें कुछ अतिशयोक्ति प्रतीत नहीं होती । श्री गुणभद्राचार्य विरचित उत्तरपुराणकी भाषा छन्दोबद्ध वृत्तिमें भगवानके पितृगृहका वर्णन इन शब्दोंमें किया है जिससे ज्ञात होता है कि उस नगर में विशाल सुन्दर गृह थे - "सप्तषं प्रमाद उतङ्गा स्वेतकणकमयत असु अङ्ग॥ ऊपर मंदिर सोभ सार । नाम सुनंदावर्त्त विचार ॥" ( हिन्दी उत्तरपुगण ) श्री अगग कविकृत महावीरचरित्रमें इस नगरका विशेष इस प्रकार वर्णन है : "उस देशमें जगत् में प्रसिद्ध कुंडपुर नामका एक नगर है वो अपने समान शोभाके धारक आकाशकी तरह मालूम पड़ता है । क्योंकि आकाश समस्त वस्तुओंके अवगाहसे युक्त है । नगर मी सब तरहकी वस्तुओं से भरा हुआ है। आकाटामें भाम्बत्कलाage. (सूर्य चंद्र और बुध नक्षत्र) रहते हैं, नगरमें भी गावान तेजस्वी कलावर-कलाओं में धारण करनेवाले हैं। जाम मप-नृप नक्षत्रसे युक्त है; नगर भी सप-धर्मसे बुध - विद्वान रहते Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली और कुण्डग्राम। ६७ या बैलोंसे पूर्ण है । आकाश सतार-तारागोंसे व्याप्त है, नगर भी सतार-चांदी और मोतियोंसे भरा हुआ अथवा सफाईदार है। जहां परकोटके किनारोंपर लगी हुई अरुणमणियों मन्नाओंकी प्रभाके छायामय पटलोंसे चारोंतरफ व्याप्त जलपूर्ण खाई दिनमें भी विल्कुल ऐसी मालूम पड़ती है मानों इसने सन्ध्याकालीन श्री शोभाको धारण कर रखा है।........इस नगरके नागरिक पुरुष और महल दोनों एक सरीखे मालूम पड़ते थे। क्योंकि दोनों ही अत्यन्त उन्नत चन्द्रमाकी किरण जालके समान अवदात, स्वच्छप्रभासे युक्त, मस्तक पर रखे हुए (मुकुट आदिकमें लगे हुए; महलोंके पक्षमें छत वगैरहमें जड़े हुए) रत्नोंकी कांतिसे जिन्होंने आकाशको पल्लवित कर दिया है ऐसे थे।........जहांकी कामिनियोंके खच्छ कपोलमे रात्रिके समय चन्द्रमाका प्रतिविम्ब पड़ने लगता है।...." इस प्रकारका वर्णन भगवानके जन्मस्थानका है। प्रो० कोबीने जो उसे एक छोटासा ग्राम-मार्ग की सराय बतलाया था, वह उनका भ्रम था, क्योंकि उन्होंने “सन्निवेश" शब्दका अर्थ ऐसा लगा लिया था, यद्यपि उसका यथार्थ भाव एक धार्मिक संस्थासे है। डॉ. होर्नल जैन शास्त्रानुसार कुण्डलपुरको एक विशालनगर इस लिहाजसे मानते हैं कि वह वैशालीका ही निकट अंग था। यद्यपि यह वैशालीके निकटस्थ एक अन्य ग्राम कोडागको बहुतायतसे भगवान महावीरका जन्मस्थान बतलाते हैं, क्योंकि वहांपर नाथ वा नाय (ज्ञात्रि) वंशज क्षत्रिय रहते थे और जिनके ही कारण भगवान महावीर नाथवन्शी वा नायकुलीन कहलाते थे, Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। परन्तु यदि ऐसा होता तो. नैनियोंके दिगम्बर और श्वेताम्बर अन्थोंमेसे किसीमें इसका उल्लेख अवश्य होना चाहिए था। (See The Life of Mahavira P. 16-17.) और दूसरी और स्वयं बौद्धोंक "महावग्ग" नामक ग्रन्थमें उल्लेख है कि एक मरतवा बुद्ध कोटिगाम्ममें ठहरे थे, जहां नाथिक लोग रहते थे। बुद्ध जिस भवनमें ठहरे थे उसका नाम "नाधिक-विक हॉल" था । वहाँसे वह वैशाली गए थे। कोटिगाम्मकी और कुन्डगाम्मकी सादृश्यता और नाथवंशीय क्षत्रियोंका उस ग्रामसे संबंध होना प्रमाणित करता है कि यह दोनों ग्राम एक थे। यही मत सर रमेचन्द्र दत्तका था, जो अपने 'प्राचीन भारतवर्षकी सम्यताके इतिहास' मे प्रगट करते हैं कि "यह कोटियाम वही है जो कि जैनियोंका कुण्डग्राम है और वौद्ध ग्रन्थोंमे निन नातिकोंका वर्णन है वे ही ज्ञात्रिक क्षत्रिय थे।" इसलिए कुन्डल ग्राम ही भगवानका जन्न स्थान था, यद्यपि वर्तमान कुंडलपुर राजग्रहके पास है परन्तु वह ठीक स्थान नहीं है। - - - ANS .. L T LADALA Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका शुभागमन । (१४) भगवानका शुभागमन | " दिशः प्रसेदुर्मरुतो ववुः सुखाः प्रदक्षिणार्चिर्हविरग्निराददे । ६९ बभूव सर्व शुभशंसि तत्क्षणं भवो हि लोकाभ्युदयाय तादृशाम् ॥ 'दिशाएं निर्मल होगई । सुन्दर वायु बहने लगा | अग्नि दक्षिणाग्नि होकर हवि (हवनद्रव्य) ग्रहण करने लगी । उस समय सब बातें शुभकी सूचना देने लगी । बात यह है कि महा पुरुषोंका जन्म संसारके कल्याणके लिए हुवा करता है ।' उनकी जीती जागती मूर्ति उनके समयके मनुष्योंका साक्षात् उपकार करती है । पर उनके जीवनके अनुपम चरित्र उनके बाद आनेवाले मनुप्योंका परमोपकार किया करते हैं । वे ही हमारे नेत्रोके अगाड़ीसे अंधकारका परदा हटा देते हैं। आदर्शजीवनके लिए इन महात्माओंके जीवनके सुनहरे कृत्य ही सच्चे पथप्रदर्शक हैं । आदर्श और उच्च बननेके लिए इसके सिवाय सरल उपाय नहीं है । कैसा भी उपदेश इस साक्षात् आदर्शके अगाड़ी कुछ भी नही है । वस्तुत:-- 6 "हमें महत पुरुषों के जीवन, ये ही बात सिखाते हैं। जो करते हैं सतत परिश्रम, वे पवित्र बन जाते हैं।" अस्तु, स्वयं सर्वज्ञ भगवान अन्तिम तीर्थकर प्रभू महावीरका विशाल चरित्र क्यों न चित्तमें अपूर्व शान्ति और ज्ञानके उद्रेकको प्रकट करनेका कारण बनेगा ? Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० - भगवान महावीर। जब संसार ब्राह्मण लोगोंकी कार्रवाईसे उसी तरह दुःखित हो रहा था, जिस तरह गत शताब्दियोमें यूरोप रोमके पोपोंकी. पोपलीलासे दुःखी बन रहा था, तब क्षत्रिय कुलमें ऐसे अंधकारको मेटनेके लिए सूर्यका प्रन्ट होना, किसके चित्तको आनन्द देनेवाला नथा। होनहार विरवानके, होत चीकने पात' इसीलोकोक्तिके अनुसार भगवान महावीरका शुभागमन आषाढ़ शुक्लाषष्ठीके दिन जब कि चन्द्र उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रपर वृद्धियुक्त विराजमान था, पुष्पोत्तर विमानसे उतरकर महाराज सिद्धार्थकी रानी त्रिशलादेवीके गर्भ में हुआ, इसके पहिले हीसे महाराज सिद्धार्थकी राजधानी कुण्डलपुरमें अतुल धन ऋद्धि आदिकी वृद्धि होने लगी थी। चहुंओर सुखसम्पन्नता फैल रही थी, यह हम पहिले देख चुके हैं । जैन शास्त्रोंके अनुसार स्वर्गके देवेन्द्रने कुबेरको पन्द्रह महीने पहिलेसे रत्नोंकी वर्षा करनेके लिए कुण्डलपुरमें भेज दिया था। तात्पर्य यह है कि भगवानके आगमनके साथ ही साथ कुण्डलपुरकी भाग्यशाली जनताके भी दिन फिर गए थे। पहिले तो उन्हें ऐहिक सुखसम्पत्तिकी प्राप्ति हुई और जब प्रमू महावीरने धर्मका उद्योतन किया तब उनको आम्यंतरिक आत्मसम्पदाकी वृद्धि हुई थी। . इसीसे प्रभू वर्तमानके नामसे मी विख्यात हैं। भगवान अपनी माताके गर्भ चन्द्रकी भांति दिन प्रतिदिन बढ़ रहे थे। महारानी त्रिशला वैशालीक मुख्य नृपति चेटकी ज्येष्टा पुत्री थी। इनका दूसरा नाम प्रियकारिणी था। यह महिला समानकी अद्वितीयरल थीं। नन्दाता भी अपूर्व थीस्वियं इन्द्रने इनके दर्जनमें अपनको रताय माना था। दया, मील मनि Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका शुभागमन । ७१ गुणोंकी साक्षात् मूर्ति थीं। नृपति सिद्धार्थ स्वयं ही स्वाभाविक रमणीयताके धारक थे, परन्तु दूसरा कोई जिसकी समानता नहीं कर सक्ता ऐसी कांतिको धारण करनेवाली इस प्रियाको पाकर और भी शोभायमान मालूम होने लगे थे । भगवान महावीरके पिता राजा सिद्धार्थके विषयमें हम पहिले ही जान चुके हैं कि वे कुण्डलपुरके न्यायनिपुण और धर्मसम्पन्न शासक थे । जिन्होंने आत्ममति और विक्रमके द्वारा अर्थ - प्रयोजनको सिद्ध कर लिया था; और पृथ्वीका उद्धार करके उन्नत ज्ञातिवंशको अलंकृत कर दिया था। महाराज सिद्धार्थ विद्यामें भी पारगामी और उसके अनन्य प्रसारक थे । यह महावीरचरित्रके ( पत्र २४२ ) इस कथनसे व्यक्त होता है कि "अपने (विद्याओंके) फलसे समस्त लोकको संयोजित करनेवाले उस निर्मल राजाको पाकर राजविद्याएं प्रकाशित होने लगीं थीं । " फलतः यह प्रकट है कि भगवान महावीर एक बुद्धिमान, धर्मज्ञ, परिश्रमी और प्रभावशाली राजाके पुत्र थे । जब भगवान रानी त्रिशलाके गर्भमें थे तब उनकी सेवाका विशेष प्रबन्ध था । और प्रसूतिकालमें और भी उत्कृष्टतासे उनकी सेवामें सेविकाऐं नियत थी। जैन शास्त्र कहते हैं कि स्वर्गके इन्द्रकी आज्ञानुसार ५६ दिक्कुमारियाँ माताकी सेवामें तल्लीन थीं। यह इस समय में माताके चित्तको हरतरह प्रफुलित रखती थी । कभी२ काव्य रचना करके उनके मनको हुल्लासित किया करती थी । निगूढ़ अर्थ, क्रियागुप्त, बिन्दुच्युत, मात्राच्युत, अक्षरच्युत आदि श्लोकोंको कह कहकर माताको प्रसन्न करती थी । माता त्रिशला • Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ भगवान महावीर। देवीने जो इन देवियों के प्रश्नों का उत्तर दिया था, उससे उनके ज्ञानकी विद्वत्ता टपकती है और गर्मस्य दिव्य वालकका प्रभाव झलकता है। वे पूछती कि संसारमें सत्पुरुष कौन है ? तो रानी उत्तरमें कहतीं थीं कि जो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पदार्थोको सिद्ध कर, मोक्षमें विराजमान होवे वह सत्पुरुष है और कायर वह है जो मनुष्य जन्म पाकर भी धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष पुरुषार्थीको सिद्ध नहीं करता । और पूछती कि कौनसा मनुष्य सिहके सनान उनत है और कौनसा नीच है ? माता कहतीं कि जो मनुष्य इन्द्रियों के साथ र कामरूपी दुर्घर हाथीको मार मगाते हैं वे सिह समान हैं। और जो सम्यक् रत्नत्रय धर्मको पाकर उन्हें छोड़ देते हैं वे नीच है। एवं विद्वान वह है जो शास्त्रोको जानकर पाप, मोह और बुरे काम नहीं करतेः विषयोमे आसक्त नहीं होते। और जो शास्त्रोंको मानते हुए भी पाप, मोह, इंद्रियोकी आसक्ति और कुमार्गको नहीं छोडते है वे मूर्ख है। तथैव ककि नाश करनेवाले और संसारको पूर्ण करनेवाले तप, धर्म, व्रत, दान, पूजा, उपकार आदि कार्योंको गीघ्र कर बलना चाहिए। छिपकर हिंसादिक पाप या अनाचारका सेवन करना ही मनुप्योके हृदयके लिए कठिन शल्य है। रानीची विद्वत्ता इस वार्तालापसे माफ टपकती है। निशलादेवीके गर्भ में जिम समय भगवान महावीर स्वामीका जीव आया था. उस समय उनको रात्रिक अभाग पूर्ण होने उपरान्त प्रात कालके कुछ समय पहिले अन्य तीनोंी मातासरी तरह मोलह शुभ संकेतक भूचक स्वप्न दिखाई पड़े थे । प्रातः उठकर रानीने महाराज सिद्धायक निकट ना दिलत नावसे यह Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका शुभागमन । ७३ व्रतान्त कहा था और उन खमोंका फल सुना था। महाराजने आपको अर्हासनपर बैठाया था। इससे उस समयके पुरुषोंकी महिलाओं प्रति आदरपूर्ण दृष्टिका अवलोकन होता है। वस्तुतः इन खमोंका जो वर्णन है, वह अवश्य महत्वका है क्योंकि प्राचीन समयके नो सिके, स्तूप अदि निकलते हैं उनमें ऐसे ही चिन्ह रहते हैं । इतिहासवेत्ता यदि जैन चिन्होंको अपने ध्यानमें रक्खें तो ऐतिहासिक निर्णय, विशेष उपयुक्त हो। (१) रानीने पहिले एक उन्नत चार दांतोंवाला हाथी देखा था। इससे यह भाव व्यक्त होता है कि एक तीर्थकर भगवानका जन्म होनेवाला है। (२) पालतू भाग्यशाली बैल देखा, जिसका वर्ण सफेद कमलदलसे भी स्वच्छ था। इससे एक बडे योग्य धर्मके प्रचारकका होना माना गया है। (३) सुन्दरसिंह आकाशसे रानीके मुखकी ओर उछलते देखा। इससे यह व्यक्त होते समझा गया कि एक ऐसा बालक जन्म लेगा जो प्रभावशाली अतुल वीर्यका धारक होगा । (१) श्री अथवा लक्षमीदेवीको देखा। इससे प्रकट होता था कि बालक एक जन्मसिद्ध राज्याधिकारी होगा। (६) दो मन्दार पुष्प मालाओके देखनेसे भाव यह है कि वालक सुगंधमय शरीरका धारक यशस्वी होगा । (६) चन्द्रके देखनेसे मोहतमका भेदनेवाला होगा। (७) सूर्यके देखनेसे भव्यरूप कमलोंके प्रतिबोधका कती और अज्ञानान्धकारका मेटनेवाला होगा। (८) मीनयुगल देखनेसे यह अनन्त सुख प्राप्त करेगा। (९) दो घंटोके देखनेसे मंगलमय शरीरका धारक उत्कृष्ट ध्यानी होगा। (१०) सरोवरके देखनेसे जीवोंकी तृष्णाको सदा दूर करेगा। (११) समुद्र देखनेसे यह Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। पूर्ण ज्ञानका धारक होगा । (१२) सिहासन देखनेका फल यह होगा कि वह अन्तमें उत्कृष्ट पदको प्राप्त करेगा । (१३) विमान देखनेका फल यह है कि वह स्वर्गसे उतरकर आवेगा। (१४) नागभवन देखनेसे अभिप्राय यह है कि वह यहांपर मुख्य तीर्थको प्रवृत्त करेगा। (१५) रत्नराशिका देखना यह सूचित करता है कि वह अनंतगुणोका धारक होगा । (१६) निघूम अग्निका देखना बताता है कि वह समस्त कर्माका क्षय करेगा। इस तरह प्रियतमसे स्वमावलीका यह फल सुनकर कि वह फल निनपतिके अवतारको सूचित करता है प्रियकारिणी-त्रिशलादेवी परम प्रसन्न हुई। ___"कुछ दिनोंके पश्चात् उच्च स्थानपर प्राप्त समस्त ग्रहोंके लनको योग्यसमयमें रानीने चैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवारको रात्रिके अन्त समयमें जब चन्द्रमा उत्तरा फाल्गुनि पर था, जिनेन्द्र भगवान महावीरका प्रसव किया। प्राणियोंके हृदयोके साथ २ समस्त दिशाएं प्रसन्न होगई । आकाशने विना धुले ही निर्मलता धारण करली । उस समय देवोंकी की हुई मत्त भ्रमरोसे व्याप्त पुप्पोंकी वर्षा हुई । और दुंदुमियोने आकाशमें गम्भीर शब्द किया।" (देखो महावीरचरित्र एष्ट २४८ ।। ___ इस समय चौथे काल दुःखमासुखमामें ७४ वर्ष भामास और अवशेष रह गये थे। प्रभूका जन्माभिषेक स्वर्गके देवेन्द्रोंने आकर मनाया था। स्वयं नृप सिद्धार्थने अपने महलमें दश दिन तक. उत्सव मनाए थे। दीपक जलाए थे। दान पुण्य आदि शुम कुन्य. कराए थे। और वन्धीजनोंक बंधन खुलवाए थे। चहुंओर तुख शांतिसे मनुष्य आनन्दित होगए थे। ऐसी शुभ दशा अन्तिमः Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका शुभागमन । ७५ तीर्थकर भगवान महावीरका जन्म हुआ था । जैन शास्त्रोंमें इन दोनों शुभ अवसरोंको गर्भ और जन्मकल्याणक के नामसे उल्लेख किया है । और देवोंका आगमन और महोत्सव मनाना जतलाया गया है । भगवान महावीरके जन्म विषयमें कहा है कि सौधर्म इन्द्र प्रभूको रत्नमई पाण्डुकशिला पर लेजाकर क्षीरोदधि समुद्रके निर्मल जलसे अभिषेक किया था । श्री हरिवंशपुराण में इस विषय में लिखा है कि " वहां (मेरु पर्वत) पर अतिशय मनोहर एक पांडुक वन है। पांडुकवनमें अतिशय विस्तीर्ण पांडुक शला है । उस पर एक रत्नमई सिंहासन है । इंद्रने भगवानको लेजाकर उस सिंहासनपर विराजमान किया। देवगण क्षीरसागरसे अनेक सुवर्णमई घड़े भरलाए | इंद्रने समस्त देवोंके साथ उस समय भगवानका जन्माभिषेक किया, अनेक प्रकारके वस्त्र और अलंकार पहनाए, सुगंधित माला पहिनाई । " श्री महावीरचरित्र में भी यह वर्णन इसप्रकार है (पृष्ट २५३ ) कि “अभिषेक विशाल था ...नम्रीभूत सुरेन्द्रने 'वीर' यह नाम रखकर उनके आगे अप्सराओके साथ अपने और देव असुरोंके नेत्र युगलको सफल करते हुए हावभावके साथ ऐसा नृत्य किया जिसमें साक्षात् समस्त रस प्रकाशित होगए । विविध लक्षणोसे लाक्षेत - चिन्हित है अंग जिनका तथा जो निर्मल तीनज्ञानोंसे विराजमान हैं, ऐसे अत्यद्भुत श्री वीरभगवानको बाल्योचित मणिमय भूषणोसे विभूषित कर देवगण इष्टसिडिके लिए भक्तिसे उनकी इसप्रकार स्तुति करने लगे । 'हे वीर ! यदि संसार में आपके रुचिर बचन न हो तो भव्यात्माओंको निश्चयसे तत्त्ववोध किस तरह हो Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ भगवान महावीर । सका है। पद्मा (कमलश्री ज्ञानश्री) प्रातःकालमें सूर्यके तेजके विना क्या अपने आप ही विकसित होनाती है ? स्नेहरहित दशाके धारक आप जगतके अद्वितीय दीपक हैं। कठिनतासे रहित हैं अन्तरात्मा जिसकी ऐसे आप चिन्तामणि हो।'.......इस प्रकार स्तुति करके देवगण पुष्पोंसे भूषित हैं समीचीन मेवृक्ष जहाँपर ऐसे उस मेरुसे भगवानको मकानोंके आगे बंधे हुए कदली ध्वनाओंसे रुके हुए और विमानोंके अवतार समयसे व्यात ऐसे नगरमे शीघ्र ही फिर वापिस लौटाकर ले आए। 'पुत्रके हर नानेसे उत्पन्न हुई पीड़ा-खेद आप माता पिताको न हो इसलिए पुत्रकी प्रकृति बनाकर अर्थात् माताके निकट मायामय पुत्रको छोड़कर आपके पुत्रको मेरुपर ले जाकर और वहां उसका अभिषेककर वापिस लाए हैं ।' यह कहकर देवोंने पुत्रको मातापिताको सुपुर्द किया ।" ___ इस प्रकार ज्ञात होता है कि भगवानकी प्रसिद्धि चहुओर जन्मकालसे होगई थी। और उनके दिव्य दर्शनसे मुनिजन भी अपनेको इतन्त्य समझते थे । चारणलब्धिके धारक विजय व संजय नामके दो यतियोका संशयार्थ एक दिन भगवानको देखते ही दूर हो गया था और उन्होने भगवानका नाम 'सन्मति' रखा था । प्रभू दिनोदिन बढ़ने लगे थे और शैशव अवस्थाको प्राप्त होते हुए थे। ॐ म PMENo. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैशव काल और युवावस्था। ७७ (१५) হশহীহ-ক্রান্ত জয় युकास्था। "fan is heaven born, not the thrall of oircumstances and of neccssitics, but the victorious subduer thercof; behold! hom ho can become the Announcer ot himself and of his Tiedom." - Carlyle. मनुप्य देवी जन्मधारक है । संयोगो और आवश्यक्ताओंका गुलाम नहीं है । बल्कि उनका विजयी जेता है । देखो ! वह अपनी स्वतंत्रताको और अपने ( आत्मिक) व्यक्तित्वको घेसी रीतिसे दुनिया के समक्ष प्रगट कर सका है।' आधुनिक तत्ववेत्ता कारलायलके कितने मार्मिक शब्द हैं। प्रत्येक जैन का यह दृढ़ विश्वास होता है कि वह अनन्तशक्ति और अनन्त सुख शांतिका अधिकारी है। जो कुछ भी परिस्थिति है वह स्वयं उसका निर्माता है । वह अपने ही कृत्योसे अपनेको सर्वोत्कटतामें एधरा सक्ता है और अपनी ही विषयाशक्यादि कृत्योसे घोर नीचताके गर्तमें पहुंचजाता है । यह निश्चय उनको भगवान महावीरके उपदेशसे प्राप्त हुआ है। अस्तु, गगवान महावीर भारतवर्षके महान्पुरुषोमे सर्वाग्रगण्य गिने जाने योग्य हैं । परन्तु भारतके हतभाग्य कि उनके विषयमे अनेक भ्रम फैले हुए हैं। कई लोग उन्हें जन्मसे ही देव होना प्रगट करते हैं । और' कोई उनके अस्तित्वको भी स्वीकार नहीं करते ! परन्तु इसके Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ . भगवान महावीर । विपरीत अब यह पूर्णतया प्रमाणित होगया है कि भगवान महावीर स्वामी कोई देव वा काल्पनिक व्यक्ति नहीं थे, बल्कि एक राजाके पुत्र महान मनुष्य थे। जैसे कि एक विद्वान कहते हैं कि "मैं महावीर भगवानके जीवनसे यही व्यक्त करूंगा कि वे 'मनुप्यावस्थासे परमात्मपद' को प्राप्त हुए थे, न कि "देवावस्थासे परमात्मावस्थाको पहुंचे थे। " यदि यह अन्तिम प्रकार होता तो मैंने महावीरस्वामीके जीवनको छुआ भी न होता, क्योंकि हमलोग देव न होकर मनुष्य है। मनुष्यके अध्ययनके लिए मनुष्य ही सबसे गूद्ध विषय है। मानवसमाजके लिए यही ठीक शिक्षा है और इसीलिए वह देवोंको देवोंके लिए ही छोड़ देगी। यह देवोंको देवों के लिए छोड़नेका भाव हमारेमें पहिलेसे घर किए हुए है। हम इस ओर पूर्णरूपेण प्रयत्नशील हैं कि अपने देवोंको मनुष्योंमें परिणत कर दें। और वह समाज जो अपने देवोंको ऐसा व्यक्त करनेमें अच्छी सफल होगी वही मानवसमाजके लिए विशेष उपयुक्त और स्वीकार करने योग्य होगी। 'अलौकिकता संसारसे दूर हो रही है। यह काग्लायला कहना है। और यह समयका चिन्ह होने के कारण हमें अपनी आत्माको उस चिन्ह तक टठाना चाहिए। अन्यथा हम समयके पीछे रह जायगे।" नियोंक सनस्त नंबर संसारमें चरने पिने मनुयोंके सहग ही थे। वह कोई देव वा मनुष्योपरि व्यक्ति नहीं थे । यद यान जनधमके इस सिद्धान्तसे प्रकट है कि निगोंकि अनुमार मनुष्यगति अतिरिक्त दिन्मी भी दुसरी गनिन मन्य माधनम नहीं करसमा तीजक मानन्धमें नन्ना अबश्य है न किम Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैशव काल और युवावस्था । ७९ पहिले देख आए हैं कि वे अपने पूर्वभवोंमें उत्कृष्ट शुभ कृत्य करनेके कारणोंवश जन्मसे ही विशेष गुणोंसे विभूषित होते हैं । भगवान महावीर एक समुन्नत और परमोदार, प्रेमी और घीर बीर सुन्दर और सौम्य राजकुमार थे । वे जन्मसे ही तीन ज्ञानके धारक परमोच्च विद्वान थे । इसलिए उनको किसी गुरुके निकट विद्याध्ययन 'करनेकी आवश्यक्ता नहीं थी । उनके विषयमें दिगम्बर और वे - -ताम्बर दोनों आम्नाओंसे यह विदित है कि प्रभूने तीस वर्ष पर्य्यन्त एक धार्मिक श्रावकका पवित्र जीवन व्यतीत किया था । और इस समय अपने पिताके राजषी ठाठबाठका उपभोग किया था । आठ वर्षसी छोटी अवस्थासे ही आपने श्रावकके बारह व्रतोंको पालन करनेका व्रत ग्रहण कर लिया था । वे अपने बाल्यकालसे ही बड़े धार्मिक पुरुष थे और कभी भी शील और संयमके मार्गसे विचिलित नहीं हुए थे। उनके जीवनका उद्देश्य ही यह था कि अपने जीवनसे लोगोंको - प्रत्यक्षमें एक आदर्श जीवनका पाठ स्वयं नमूना बनकर सिखावें । आपकी माताकी सेवाके लिए देवियां आई थी और रोचक द्वीपकी ५६ कुमारियां आपकी सेवा सुश्रूषा किया करती थीं । क्रमशः । आप अपनी बचपनकी अवस्था को त्याग कर बालकपनेको प्राप्त हुए थे। इस अवस्थामें पहुंचकर आपने व्रतों का दृढ़ अभ्यास रखनेके साथ ही साथ बाल्यकालीन क्रीड़ाएं करना प्रारंभ कर दी थी। वे राजकीय बगीचों में अपने सहचरोंके साथ जाया करते थे और वहां विविध प्रकारके कौतूहलपूर्ण शारीरिक खेल खेला करते थे। इनके सहचरोमें आपके पिता के मंत्रियोके पुत्र भी थे । उनका शरीर सुन्दर और सुडौल था । मुख चित्ताकर्षक था । उनका बल Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर।. और पराक्रम अतुल था। उन्होने कभी भी हिम्मतको नहीं हारा था, चाहे ऐसे अवसरों पर विशेष शारीरिक शक्ति और मानिसक धैर्यकी आवश्यक्ता क्यों न हो। (See Life of Mahavira P.23-24 ) महावीरचरित्रमें आपके अतुल बल, अपरिमित धीरताका उल्लेखक एक कथानक इस प्रकार दिया हुआ है. "बाल्यशर रखरूपको मैं फिर नहीं हो पाऊँगा ...मानों ऐसा मानकर ही जिन भगवान महान देवोंके साथ क्रीड़ा करते थे। एक दिन बालकों के साथ २ महान् वटवृक्षके उपर चढ़कर खेलते हुए वईमान भगवानको देखकर संगम नामका एक देव उनको त्रास देनेके लिए आ पहुँचा । भयंकर फणवाले नागका रूप रखकर उस देवने शव हो आसपासके दूसरे छोटे २ वृक्षति साथ उन वृक्षक मूलको घेर लिया। वालकोंने ज्यो हो उसको देखा त्यों ही वे गिरने लगे, किन्तु शारहित ये भगवान लीलाके द्वारा उन नागराज नन्तकपर दोनों चरणोंको रखकर गये उतरे। ठीक ही है-चीर पुनको जगनने भयका कारण कुछ भी नहीं है। भगवानकी निर्भयता हट हो गया है चित्त जिसका से उस देवने अपने रूप ममागिता नुवमय पर जलले उनका अभियानाम गा|" (TE२६५) Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैशव काल और युवावस्था । ८१ सब देवनमें सूर । "तब हरजू ऐसे कही, वीर स्वामि अब है सही, महागुण कर पूर ॥ इम सुन समघदेव तथ, मन संशय उपजाय । लैन परीक्षा तासकी, धरणी पर तब आय ॥” हिन्दी उत्तरपुराण इस कथानकके अतिरिक्त एक अन्य और है जिससे प्रकट होता है कि भगवान महावीरने एक मदमद नामक मत्त हाथीको बातकी चातमें बांध लिया था । फलतः इनसे भगवानके विशाल पराक्रमका भास साफ प्रगट हो जाता है । भगवानकी शिक्षाके सम्बन्धमें हम देख चुके हैं कि भगवान अपने पूर्व जन्मोके शुभकृत्योंके प्रभावसे एक उत्कृष्ट बुद्धिको लिए हुए जन्मे थे । और उनके समान उस समय कोई भी विद्वान नहीं था। वे जन्मसे ही मति श्रुति अवधि ज्ञानके धारक थे। महावीरपुराण अध्याय आठवेंमें जो यह उल्लेख है कि भगवान प्राचीन काव्योंका अध्ययन शैशव कालसे ही किया करते थे, उससे विदित होता है कि वे शिक्षामे पूर्ण दक्ष ये जैसे कि उनके पिता थे । इस प्रकार "बढ़ते हुए भगवान अपनी चपलता को दूर करने के लिए स्वयं उयुक्त हुए | और शैशवको लांघकर क्रमले उन्होने नवीन यौवन लक्ष्नीको प्राप्त किया । उनका नवीन कनेरके समान है वर्ण जिसका ऐसा सात हाथका मनोज्ञ शरीर, नि स्वेदता ( पसीना न आना ) आदि स्वाभाविक दश अतिशय से + युक्त था। + (१) मलमूत्ररहित शरीर (२) पसीना न जाना (३) दूत्रके सन न क (४) वजवृषभनाराच संहनन (५) समचार संस्थान (६) अनुन रूप (७) अतिशय सुगंधता ( : ) १०८ लक्षण - शरीर (९) तं (१०) प्रियहिर वचन । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। संसारके हता, नवीन कमल समान हैं सुकुमार चरणयुगल जिनके ऐसे कुमार भगवानने देवोपनीत मोगोंको भोगते हुए तीस वर्ष विता दिए। " ( महावीरचरित्र ४० २५६) ___भगवान बालब्रह्मचारी रहे थे। और जैसा हम देख आए हैं, आप वाल्यकालसे ही धार्मिकशील व्यक्ति थे और वैराग्यमावके मुग्ध भ्रमर थे। भगवानके इस अपूर्व कालका उपर्युक्त वर्णन उनके पूर्वजन्मोंमें स्त शुम लत्यों को देखनेकी लालसा उत्पन्न करदेता है। अस्तु, साधारणतया उनके पूर्व जन्मोका दिग्दर्शन भी हम यहां किए लेते हैं। (१६) पूर्वमक-दिग्दर्शन। "काल अनन्त भ्रम्यो जगमें सहिए दुःख भारी। जन्म मरण मित किए पापको हो अधिकारी ॥" - सामायिक पाठ। जीव अनन्तकालसे संसारमें कमौके वश होकर चक्कर लगा रहा है । कमी शुभ कमौके करनेसे मनुष्य देवादि जन्मोंक सुख मोगने लगता है और वहांपर भेद विज्ञानको पाकर उत्तरोत्तर उतति करता हुआ मोक्षधाममें अनन्त सुखका भोला मन जाता है। यदि विदेक और संयमकी उपेक्षा करके वह जीव ननुयादि उच्च स्याओने विषयातक हो नानाप्रकारके सांसारिक मंचोमें पंज जाल है तो उसी क्रमसे संसारमें नीच दशालोम पई दुःख Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वभव-दिग्दर्शन। उठाता चक्कर लगाता फिरता है। भगवान महावीरका जीव भी इसी क्रमसे चक्कर लगा रहा था। उन्होंने अपने पहिलेके जन्मोंमें निम्नलिखित शुभ गुणोंमें अपनेको पूर्ण करनेके कारण तीर्थङ्कर जैसे उच्चपदको पाया था: (१)'पुरा पूरा सच्चा श्रद्धान (सम्यकदर्शन) । (२) सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्रमय रत्नत्रय मागकी एवं उसके अनुयायियोंकी भक्ति विनय । (३) व्रतोंका पालन । (४) स्वाध्यायः । (६) धर्मसे प्रेम और दुनियासे वैराग्य (६) त्याग अथवा सांसारिक वस्तुओंसे ग्लानि । (७) संयम (८) साधु समाधि (अपनी आत्माका ध्यान) (९) सर्व प्राणियोंकी सेवा, खासकर साधुओं और सम्यक्ती नीवोंकी । (१०) तीर्थङ्करकी उसको आदर्श मानकर मक्ति । (११) आचार्यो (साधुओंके पर्थप्रदर्शकों) की विनय (१२) उपाध्यायोंकी विनय (१३) शास्त्रकी भक्ति (१४) शास्त्रों में निर्धारित नियमोंका पालन (१९) धर्मका प्रचार करना और स्वयं उस पर अमल करना (१६) और सत्यमार्ग पर चलनेवालोंके साथ वैसा ही प्रेम रखना जैसा गायंका अपनेबछड़े साथ होता है। भगवानने इन शुभ गुणोंमें उत्कृष्टता बहुतले जन्म धारण करके पाई थी। इनमेंसे आपके जन्मोंका वर्णन भगवान ऋषभनाथसे पहिले तकसे मिलता है। मनुष्य जब सर्वज्ञताको प्राप्त होजाता है तब उसे भूत भविष्य वर्तमान तीनों कालकी वस्तुओंका हालं युगपत माझ्म होने लगता है। भगवान महावीरके मुख्य शिष्य गणधर इन्द्रमूति गौतम सज्ञ थे। उन्होंने ही भगवानके Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। जीवनवृतान्त वर्णन और उपदेशको लोगोंको समझाया था। जिनमें मुख्य श्रोता राजा श्रेणिक विम्बसार थे। जैनशास्त्रोंमे भगवान महावीरका जीव पहिले पहिल एक मनुष्य दर्शाया गया है, यद्यपि इसके पहिले भी उनके और भव हुए होंगे, क्योकि जीव अनादिसे संसार-सागरमें गोते लगा रहा है। जम्बूद्वीपके मध्य मधुवनके भीतर उनका जीव पुरुरवा नामक भील था! सागरसेन मुनिने उसे धर्मका स्वरूप समझाया था जिससे उसने अहिसादिक व्रतोंकी बहुत दिनों तक पालना की; जिसके प्रभावसे वह मरकर सौधर्म खर्गमें देव हुआ था। वहाँकै भोग भोगकर यह देव ऋषभदेवके पुत्र भरत चक्रवर्तिका पुत्र मरीचि हुआ था। और हम देख चुके हैं कि इसने ऋषभदेवके साथ ही साथ दिगम्बरीय दीक्षा ली थी, परन्तु कठिन परीषहोंको न सह सकनेके कारण उससे विमुख हो अपने मनोनुकूल सांख्यसहशमतका अवलम्बन करने लगा था। इस कायझेशके वलसे वह पांचवें स्वर्गमें कुटिल परिणामी देव हुआ था। ___वहांसे चयकर यह जीव कौलीयक नगरके कौशिक ब्राह्मणके यहां प्रिय पुत्र हुआ था। यहां भी इसने मिथ्यातत्वोंका उपदेश दिया था और कायक्लेश किया था, जिसके कारण यह मरकर प्रथम खर्गमें देव हुआ। वहां विषयभोगोमें लिप्त रहा और शोकसे मरकर स्यूणागर नामक नगरमें भारद्वाज द्विजके यहां पुप्पमित्र नामक पुत्र हुआ। पुप्पमित्रने वाल्यकालसे हठयोगका अवलम्बन किया जिससे वह देहत्यागकर पुनः स्वर्गमें देव हुआ। श्वेतिविका नामकी नगरीने अग्निहोत्री वाहण जन्निमूतिकी Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वभव - दिग्दर्शन भार्या गौतमीके गर्मसे यह देव अग्निसह नामक पुत्र हुआ। यहां भी यह सन्यासियोंके धर्मका आचरणकर मृत्युको प्राप्त हो सनत्कुमार खर्गमें भारी विभूतिका धारक देव हुआ । वह देव भरतक्षेत्रके मंदिर नामक पुरमें गौतम ब्राह्मणके यहां अग्निमित्र नामक पुत्र हुआ । और फिर भरकर देव हुआ । पुनः स्वस्तिमती नगरी में संतशयन ब्राह्मणके भारद्वाज पुत्र हुआ । सन्यासीका तप तपा और जीवनको पूर्णकर स्वर्गमें देव हुआ। वहां देवाङ्गनाओंमें विशेष आशक्त रहा, और उनके वियोगके भयसे संतप्तचित्त रोता रोता मरकर दीर्घकाल तक नरक, एकेन्द्रिय दोइन्द्रिय योनियों में भटकता रहा । पापके भारको काटकर शुभ प्रकृतिके उदयसे यह राजगृह नगर में सांडिल्य ब्राह्मणके पाराशरी नामक स्त्रीसे स्थावर नामक पुत्र हुआ । मस्करी – सन्यासीका तपकर ब्रह्मस्वर्ग में जाकर उत्पन्न हुआ । पुनः राजगृह नगरके अधिपति विश्वभूतिके यहां यह देव विश्वनन्दी नामका पुत्र हुआ। राजा विश्वभूति अपने भाई विशाखभूतिको राज्य देकर " साधुमार्गमें रत हुआ ! विश्वनन्दी युवराज पद पर थे । विशाखभूतिका पुत्र विशाखनन्दीको विश्वनन्दीसे ईर्षा हुई । इस हेतु चाचा भतीजोंमें युद्ध हुआ । विश्वनन्दीको विजयलाभ भी हुआ । पर वह वैराग्यको पा साधु हो गया । विशाखभूति भी मुनि होगया । विशाखनन्दी पर राज्य भार चला नहीं अतः राज्यभ्रष्ट होगया । विश्वनन्दी मुनि मयुरा में जारहे थे कि बैलसे धक्का खाकर गिर पड़े । विशाखनन्दी भी निकटमें था । उसने इनका उपहास किया । विश्वनन्दी क्रोधके वशीभूत हो प्राण ● ८५ w Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ भगवान महावीर | त्याग कर दशवें स्वर्गमें देव हुआ। यह देव वहांसे आकर पोदनपुरके अधिपति बाहुबलीके रानी मृगवतीके, गर्भसे त्रिपिष्ट नामक चक्रवर्ति हुआ । विशाल राज्य व अनुपम सुन्दरियों और अनन्य उत्तम सामिग्रीका उपभोग करके और हिसादि कृत्यों में रत रहकर रह नरक गतिके दुःख सहता रहा । अन्तमें वहांसे निकलकर विपुलसिंह पर्वतपैर सिह हुआ । वह सिंह हिंसा कृत्यसे मरकर नरकमें गया और पुनः वराह नामक पर्वत पर सिंह हुआ और वहां पर हिस्र पशुओंकी मांति जीवन व्यतीत करने लगा; परन्तु उसके पूर्वके शुभोदयसे उसी समय अमितकीर्ति अमितप्रभू नामक दो चारण मुनियोंने उसको धर्मका उपदेश दिया और उसे हिसादि कार्योंसे दूर हटाया ! इन शुभ भावोके प्रभावसे वह मरकर सौधर्म स्वर्ग में हरिध्वन नामका प्रसिद्ध देव हुआ । यह देव वहांसे आकर कच्चदेशके हेमपुरके राजा कनकामके कनकव्वज नामका पुत्र हुआ। कनकध्वज सानन्द अपनी रानीके साथ कालयापन करता था कि एक मुनिके निकट धर्म श्रवण कर दिगम्वरीय दीक्षा ग्रहणकर, शुद्ध चारित्रका अनुसरण करने लगा। आयुके अन्तमें सल्लेखना व्रतसे मरकर आठवें स्वर्गमें देव हुआ । देवानंद नामक यह देव स्वर्गोके भोग भोगते भी वीतराग जिन भगवानको हृदयमें धारण किये रहता था। WW फिर उज्जयनी नगरीके अधिपति वत्रसेनकी महिषी मुशीलाके गर्मसे हरिषेण नामका पुत्र यही देव हुआ । श्रावकके व्रतों च राज्यलक्ष्मीको धारण करनेवाला यह हरिषेण अन्तमे सुप्रतिष्ट नामक मुनिके निकट साबु होगए और उत्कृष्ट चारित्रका पालन कर Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वभव-दिग्दर्शन | समाधिसे जीवनका अन्त कर प्रीतिवर्धन विमानमें देव वहाँपर अनेक प्रकारके सुखोंको भोगता हुआ रहने लगा । अध्ययन चय कर यह देव क्षेमद्युति नगरके राजा धनंजयके यहां वितः ही नामका पुत्र हुआ । बुद्धि वैभवमें भरपुर था और विशेष के निज था । इसके चक्रवर्तिकी विभूति थी । इसने भक्तिभावात्नशील विभूति प्राप्तिके उपलक्ष में जिनेन्द्रदेवकी पूजा की थी । एवं उसको भूमंडलपर अपना राज्य स्थापित किया था । और उच्य जगह भोगोपभोगका रसास्वादन किया था । अन्तमे इस च तीर्थकर भगवानके समवशरणमें जाकर धर्मको सुनते हुए हैं कि र्गको जानकर चक्रवर्तीकी दुरंत विभूतिको भी तृणको तरनें सुख दी थी और क्षेमंकर आचार्यके निकट दीक्षा ग्रहण की थी । रा सक्ते, व्रतपूर्वक मृत्युको प्राप्त होकर उसने रुचक विमानमें दैवी सग्ह सब प्राप्त किया था । सक्ती वह देव वहांसे आकर भरतक्षेत्रके पूर्वदेशकी श्वेत् भले ही नगरीके अधिपति नंदवर्धनकी महषी वीरवतीके नंदन नामक न प्रदान हुआ । नंदवर्धनके पिहिताश्रव मुनिके निकट दीक्षा लेए हम-' षा इसे नंदन राज्याधिकारी हुए थे और राज्यभोग किया था । ए. मुनिमहाराजके निकट आपने अपने पूर्व भव सुने थे, जिस ग्य उत्पन्न होगया और वह मुनि होगए । शील संयम क्र पालते हुए वे समाधिसे देहत्याग करके पुप्पोत्तर विमानमे दे' -के दिन भोगा री मातृ हम यही देव पुष्पोत्तर विमानसे आकर भगवान महावीरं यल भी प्य शरीरमें अवतीर्ण हुए थे । है । प्रभाव Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर । दिखला रहा है और ऐसे स्थानपर जहां आत्मवादके विषयमें अभी भ्रम फैला हुआ है। रूसके प्रख्यात तत्ववेत्ता काउन्टलिओ टालस्याय एक राजषी ठाठके अधिकारी थे। परन्तु उसमें , उनकी आत्माको शान्ति नहीं मिली, और उन्होंने अन्यमार्गका अवलम्बन लिया। आज भारतमे महात्मा गांधीका चरित्र आंखोके सामने है। तभी तो जैन कवि कहता है किः"जो जगके सुखमें सुख होवहि, तौ किम् कानन जावहि राजा । कोटि विलासि तजहिं किहि कारण, छांडहिं वे किम राज समाजा॥ सूझ परे जब ही उनको, निनका घर ध्यान सुधारहि काना । रे मन! तोहि न सूझ परै, जगके सुख चाह न लागत लाना।" ____ बात यह है संसारमें विदून त्याग और संयमके कुछ भी प्राप्त नहीं होसका । अल्प कार्योंके लिए लव त्यागकी जरूरत है, तब परम सुख प्राप्ति जैसे महान कार्यके लिए कितने नवडे त्यागकी आवश्यकता होगी ? हिन्दूशास्त्रोंमें भी इस त्यागके महत्वका वर्णन शिवजीके लिए पार्वतीके तप करनेके वर्णनसे प्रकट है। तुलसीदासनी इसका उल्लेख इस प्रकार करते है:"ऋषनि गौरि देखी तह कैसी, मूरतवंत तपस्या जैसी।" वस्तुतः किसी भी सफलताके लिए किसी न किसी रूपमें त्याग-तप-संयमकी आवश्यका है। हम भगवान महावीरके विषयमें पहिले ही देख चुके है कि वे बाल्यकालसे ही संसारसे विरक्त थे। उन्हें संसारके भोगोमें आनन्द नहीं भासता था। उन भोगोंका रसास्वादन करते हुए भी Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य और दीक्षाग्रहण | ९१ वे उनमें संलग्न नहीं थे । उनको विश्वास था कि जीवनकी शुद्धावस्थाका अनुभव करना जीवनोद्देश्य है । और सांसारिक धनसम्पदा बाह्य वस्तुऐं संसार परिभ्रमणकी कारण हैं। इसी भावका ध्याने रखते हुए उन्होने अपने तीस वर्ष श्रावककी दशामे व्यतीत कर दिए थे । इसी समय में उनके पिताने उनसे विवाहक लिए कहा था परन्तु आपने इन्द्रिय सुखोकी अनित्यताका विचार करके उनके इस उद्देश्यको स्वीकार नही किया था। एक दिवस जब आप अपनी आत्माका ध्यान कर रहे थे, तब सहसा आपको वैराग्य होगयाआप विषयोंसे विरक्त होगए। आपको अपने पूर्व जन्मोंका स्मरण हो आया। आपने नान लिया कि उद्धत इन्द्रियोंके विषयोंकी तृप्ति कभी नहीं होनेकी और अपने निर्मल अवधिज्ञानसे अपनी आयुकी स्थिति भी जान लो, इन निमित्त करणोको पाकर उन्होंने सुनिव्रत धारण करनेका दृढ़ निश्चय कर लिया । यद्यपि आप अभी यौवना'वस्था में ही थे । सुतरां उन्होने अपनी आत्मग्लानिमें विचारा कि " मैं तीन ज्ञान नेत्र रखता हूं, आत्मज्ञानी हूं, तो मैने मूर्खके समान इतना काल वृथा ही गृहस्थाश्रममें ठहरकर खो दिया । " इस तरह घरको जेलखाना जानकर उसे राज्यलक्ष्मीके साथ छोडकर वनमें तपके लिए जानेका प्रभुने परम उद्यम कर लिया । आपके माता पिताओने जब आपका यह निश्चय सुना, तो बड़े व्याकुल और विह्वल होगए और आपको राजषी सम्पत्तिका न त्याग करनेकी सम्मति देने लगे । रानी त्रिशलादेवी स्वभावसे भाववत्सला - कोमल हृदयकी थी । वे अपने पुत्रको इस तरह समझाने लगी- " प्यारे पुत्र राजकुमार वर्द्धमान ! तुम अभी युवक Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 ९२ भगवान महावीर । हो। तुमने कभी भी सूरजकी गर्मी सर्दी नहीं सही है। तुम कैसे धूपकी तपसको सहन कर सकोगे ? तुम्हारा सुकुमार शरीर और कोमल अवयव दिगम्बरीय दीक्षाके कठिन परीषहोको नहीं सह सकेंगे ! तुम तो राज्यकीय महलोंमें रहो और पिताजीको राज्यमार संभालने में सहायता दो। वैसे मैं जानती हूं कि वत्स ! तुम्हारा जन्म संसारके सामान्य मनुष्योंकी भांति इन्द्रियतृप्तिमे ही सुख माननेको नहीं हुआ है। तुम जगतको विषयवासनाके कूपसे निका-लने, प्रत्येकको स्वतंत्रताका पाठ पढ़ा उसे स्वावलम्बी बनाने और लोगोंको यह बतानेके लिए कि मनुष्य निज आत्माका आश्रय लेकर अपनी गुप्त शक्तिको प्रकाशमें लाकर ही खाधीनता स्वतंत्रत्ता - मोक्ष पासक्ता है; अवतीर्ण हुए हो । परन्तु नंदन | अभी तुम्हारी अवस्था दुर्धर तपश्चरण करनेके योग्य नहीं है । परन्तु भगवान - महावीर अब रुकनेवाले नहीं थे । उनके वैराग्यको देवोंने आकर और पुष्ट कर दिया था । वे मातासे इस प्रकार उत्तरमें "" L लगे कि “ पूज्य मातुश्री !. संसार इन्द्रजालवत् है, इसकी वस्तुऐं सांसारिक मोहान्धव्यक्तियोंको देखनेमें अपनी असलियतसे विभिन्न दीखतीं हैं । इसलिए मनुष्यको रागको छोड़कर सन्यास धारण करना चाहिए, जिससे मोक्षकी प्राप्ति हो । नगके दृश्य "पदार्थ जलबुदबुदकी तरह नष्ट होजानेवाले है । रोग, शोक, परिताप सदा मनुष्यके साथ लगे रहते हैं । ये शारीरिक सौन्दर्यको नष्ट कर देते है । मृत्यु हरघड़ी व्याधि भांति पीछे लगी रहती है और अवसर पाते ही फौरन शस्त्रप्रहार कर देती है, फिर आत्माके साथ कुछ नहीं रहता, रहता है तो केवल अपना किया हुआ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैराग्य और दीक्षाग्रहण। भला या बुरा कार्य । अस्तु प्यारी माता ! मेरा वनमें जाकर आत्मध्यानमें लीन होना परमोपादेय कर्तव्य है।" पुत्र विछोहके भयके मोहसे व्याकुल माता प्रभूको पहिले तो छोड़ न सकी, किन्तु प्रभूके हदनिश्चय और संसारकी नश्वरता समझाने पर उन्होने अपनी मिथ्या भ्रान्तिको त्याग दिया। भगवानने तीस वर्षकी अवस्थामें निर्ग्रन्थ मुनिपदको धारण किया। और उप्ण सुवर्णके समान भगवान्का शरीर नग्न अवस्थामें अपने स्वाभाविक तेन और प्रकाशसे सूर्यके समान शोभता हुआ। जिस समय आपने गृहस्थावस्थाको त्यागनेका निश्चय कर लिया था, उस समय कहते हैं कि आपने अपनी. सर्व वस्तुओंका दान कर दियाथा।अपनी विशालसम्पदाको याचकोमें वितीर्ण करदिया था। बादमें, श्रेष्ट रत्नमई चन्द्रप्रभा नामकी पालकीमें आरुढ़ होकर भव्यजनोंसे वेष्टित वीरनाथ भगवान कुण्डलपुरके बाहर निकले। नागखंड (ज्ञात्रिखंड) वनमें पहुंचकर आपने पालकीको रुकवाया। और पालकीमेसे उतरकर भगवान अत्यंत निर्मल स्फटिकमाणमय पाण्डुशिला पर विराजमान हुए थे। इस शिलाके निकट ही अशोक • वृक्ष था। भगवान उसी वृक्षके नीचे इस शिलापर उत्तर दिशाको मुखकर बैठे और सर्व आभूषणो व वस्त्रोंको उन्होने त्याग दिया। फिर उन्होंने सिद्धोंको नमस्कारकरके परिग्रहका त्यागकर २८ मूलगुणोंको धारण किया था और पंचमुष्टि केशलुंचन किया था। (जैन साधुओंके लिए यह नियम है कि वे हाथसे पांच दफेमें अपने बालोको उखाड़कर फेंक दें। वे हिन्दू सन्यासियोकी तरह बाल बनवाते नहीं हैं। ) इस प्रकार मगसिर शुक्ला दशमीको भगवानने Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर । मुनिपदको धारण किया था, जैसे हिन्दी उत्तरपुराणमें कहा है: "रत्नशिला परे तिष्टे सही, उत्तर आस्वासन मुख लही। मार्गशीर्ष सुदि दशमी जान, 'हस्त उत्तरामय खसिमान ॥ अरु अपराह्न समय जिनराय, संयम सन्मुख भए समाय ॥" 'भगवानने शीघ्र ही सात लब्धियोंको प्राप्त कर लिया। और मनः पर्यय ज्ञानको पाकर वे तमरहित भगवान रात्रिक समय नहीं प्राप्त किया है एक कलाको जिसने ऐसे चन्द्रमाकी तरह विल्कुल शीमने लगे। - - * जैनशानोंमें ज्ञान पांच प्रकारका बतलाया है यथा:'" मतिश्रुतापनिमनःय्ययकेवलानि ज्ञानम् " (तत्वाय स्त्र -१) ___अर्थात् (१) मति (२) श्रृंत (३) अधि ।) मनापर्यय (५) केवलज्ञान । मदिनान संसारके दृश्य पहायोंका ज्ञान है जो इन्द्रियों और मनद्वारा जाना जाता है। मतिज्ञान के साथ २ बोके स्वाय और अध्ययनसे प्राप्त सनन्त पदार्थो शानको शुनजान कहते है। उन सत्र बातोंका ज्ञान जो वा रही हो बिना वहां जाए ही २ जान लेनेको भरपि कहते है। दुसरोके मनोभावको जान लेना मनापर्यय है और बगडके भा भविपत वर्तमानके समस्त पदार्थों को युगान बान लेना पटशान है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपश्वरण और केवलज्ञानोत्पत्ति । ( १८ ) तपश्चरण और केवलज्ञानोत्पत्ति । " श्री वर्धमानमानंद नौमि नानागुणाकरं । विशुध्यानदीप्ताचित कर्मसमुचयं ॥ " ९५ भगवान महावीरके तपश्वरण और केवलज्ञानोत्पत्तिका वर्णन करनेके पहिले आइए उन भगवानके घातियां कम्मोंके क्षय होकर - केवलज्ञानोत्पत्तिके हर्षोपलक्षमें उनका स्मरण हृदयसे करलें, जिससे उन जैसी शुभ्र दशाको मैं व आप जैसी भव्य आत्माऐं प्राप्त हों । अस्तु । · भगवान महावीर अब जैनमुनिके कठिन तपश्चरणका अनुसरण करने लगे थे, परीषहोंको जीतते थे, व्रतोंका पालन करते अपनी आत्मोन्नतिके लिए बड़े २ उपवास करते थे । और · उनमें अपनी आत्माके शुक्लध्यानमें लवलं न रहते थे । इस समय आप यत्रतत्र भ्रमण अवश्य करते थे, परन्तु अभी आपने प्रकट रीत्या जनतामें उपदेश देना प्रारंभ नहीं किया था; जैसे कि नियम है कि तीर्थकर भगवान केवलज्ञानकी प्राप्ति तक उपदेश नहीं देते हैं । इस भ्रमणके मध्य आप चातुर्मासमे एक स्थान पर वर्षाऋतुके चार महीने रहते थे; क्योंकि इन दिनों बहुतसे सूक्ष्म जीव पृथ्वी पर उत्पन्न होजाते हैं । और उनके प्राणोंकी हिन्सा न करनेके लिए जैन मुनि भ्रमण नहीं करते हैं । इस भ्रमण और केवलज्ञान त्पत्तिके बादके भ्रमणका वर्णन जैन शास्त्रोंमें बहुत खूबीके साथ दिया हुआ है । दिगम्बर और श्वेताम्बर ग्रन्थ इस बातको व्यक्त Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ भगवान महावीर । • करते हैं कि भगवान महावीरने केवलज्ञान प्राप्तिके पहिले बारह वर्ष तक दुर्धर तपश्चरण किया था, और भारतवर्षके विविधस्थानों पर भ्रमण किया था । परन्तु इस भ्रमण वृतान्तमे दोनोंमें मतभेद है। दीक्षाके उपरान्त आपने छै महीनेका तप धारण किया था जिसमें आप निश्चल व्यानारुड़ रहे थे। इसके पश्चात छे महीनेके अन्तमें आप आहार हेतु कूलपुर नामक ग्राममें गए थे। वहांके कूल नृपने' आपको विनयके साथ आहार कराया था। दीक्षा ग्रहण करनेके बाद प्रथम पारणा आपका यही हुआ था । कूलपुर और कूल नृपके विषयमें शास्त्रोमें कुछ विशेष वर्णन नहीं है। महावीर चरित्रमें केवल इतना उल्लेख है कि (टष्ट २५९ ) " एक दिन महान सत्वपराक्रमसे युक्त वीर भगवानने जव कि सूर्य आकाशके नव्यभागमें आगया उस समय बड़े महलोंसे भरे हुए कूलपुरमें पारणाके लिए अर्थात् उपदासक्के अनन्तर आहारके लिए प्रवेश किया । कूल यह पृथ्वीमें प्रसिद्ध है नाम जिसका ऐसा एक राजा उस नगरका स्वामी था ... उसने भगवानको आहार करनेके लिये ठहराया । " इस ग्रन्थले पहिलेका संकलित गुणभद्राचार्य कृत उत्तरपुराणकी हिन्दी छन्दोबद्ध वृत्तिमें इस विषय में इस प्रकार उल्लेख है कि:" अव भटारक तन थित काज | अशन निमित्त उठे महाराज ॥ कूल नामपुरमें जव गया । कूलमूप जिनको लख लिया || " इस वर्णनसे इन कूलनृप और उनके नगर कूल्यपुरके विषयमें कुछ विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। यही नहीं जाना जासका कि यह कूलपुर कहां था और यह कूलनृप कौन था, जिसने भगवानको प्रथम आहार देकर असीम पुन्य सचय किया था | " Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपधरण और केवलज्ञानोत्पत्ति। ९७ मि० ला की पहिले उल्लिखित पुस्तकमें एक कोल्यि क्षत्रिय नातिका उल्लेख है। इस जातिके विषयमें वे लिखते हैं (प्ट० २०३) कि "रामगामके कोल्यि, यह नाम प्रकट करता है कि यह जाति देवदहके कोल्यि क्षत्रियोंमेसे ही निकली थी । कनिगघम साहवके अनुसार रामगाम (रामग्राम) और देवकलि एक ही ग्राम हैं।.... दिषनिकायके महापारिनिव्वान सुत्तन्तमें रामगॉवके निवासियोंको नाग नातिसे सम्बन्धित बतलाया है।" ___ इसमें कोल्यि शब्दसे कूल शब्दकी बहुत सादृश्यता है और यह विचारनेकी बात है कि कूलपुरका अधिपति कूल नृप जैनशास्त्रोंमें लिखा है। नगर और राजाका नाम एक होना यह निश्चय दिलानेको एक प्रबल कारण प्रतीत होता है कि यह कूल नाम एक जातिका था; और उस कूल जातिके अधिपति जैन शास्त्रोंमें कूलनृप कहे गए हैं। और उस कूल जातिकी राजधानी होनेके कारण उस कूल जातिके नृपतिका नगर कूल्यपुर कहा गया है। मि० ला एक क्षत्रिय कोल्यि नातिका उल्लेख करते ही हैं। अस्तु, बहुत संभव है कि इसी जातिके अधिपति कूलनृपके नामसे विख्यात हैं। और उस जातिकी राजधानी रामगॉम ही कूल्यपुर होगी रामगामका कूलपुर नाम संभव है इस प्रकार पड़ गया होगा कि रामगाम और देवकलि एक ही ग्राम थे । देवकलिमेंसे अन्तिम पद कलिकी कुछ सादृश्यता कूलसे बैठती है। अस्तु, इस सादृश्य भावको ध्यानमें रखते हुए कूल जातिकी अपेक्षा ही इस ग्रानका नाम कूल्यपुर कवियों द्वारा रख लिया गया होगा। कालान्तरमें उस नगरका यथार्थ नाम नजरोंसे ओझल होगया होगा क्योंकि Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ भगवान महावीर । TO 1 L इतिहासकी ओर इतना गंभीर लक्ष्य पहिलेके विद्वानोंका नहीं था । इस प्रकार कूल्नृप और कूलपुरकी ऐतिहासिकता प्रगट होती हैं, किन्तु यह निश्वय रूपमें अमी स्वीकार नहीं की जासक्ती अस्तु! भगवान महावीर इस कूल्यपुरसे प्रस्थान करके दशपुर नामक नगरको गए थे ! वहां भी कूलनृपने जाकर भगवानको दुख और चांवलका आहार विनयपूर्वक दिया था । इसके उपरान्त भगवान महावीर वनको वापस चले गए थे। और फिर कितनेक स्थानोंका 'भ्रमण करके बारह प्रकारके तपोंका अभ्यास करने लगे थे। इस तपश्चरणके प्रभावसे आपको आठ प्रकारकी ऋद्धियों और कई प्रकारकी सिद्धियोंकी प्राप्ति होगई थी। इसके पश्चात् आपने पंच महाव्रतों, पांच समितियों, तीन गुप्तियों और चौरासी हजार उत्तर गुणोंका पालन किया था । इस तपश्चरणके उपरान्त भी आपने कितनेक स्थानोमे गमन किया था । + इसी परिभ्रमणके मध्य एक समय आप उज्जयनी नगरी में पहुंचे थे। और वहॉके अतिमुक्तक नामक स्मशान भूमिमें रात्रिके समय प्रतिमायोग धारणकर खड़े हुए थे उस समय भव नामके रुद्रने अपनी अनेक प्रकारकी विद्याओके विमवसे बहुत कुछ उपसर्ग किए, पर वह उन विभव-संसार रहितको जीत न सका । तब उन जिननाथको उसने नमस्कार करके भगवानका 'अतिवीर ' - नाम रक्खा था। 1 उज्जैन से महावीरस्वामी कौशाम्बीको गए थे। यहांपर चन्दना नामक स्त्रीने आपको आहार दिया था। यही चन्दना पश्चातमें आपके आर्यिका संवकी नायका हुई थी, इनके विषय में हम अगाड़ी 1 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपश्चरण और केवलज्ञानोत्पत्ति। ९९ कहेंगे । यहाँसे भगवान पुनः बनको प्रस्थान कर गए थे और वहांपर उपवास व ध्यान करने लगे थे। अब आपने बारह वर्षके लिए निश्चल मौनवृत धारण करके कठिन तपस्याका अभ्यास किया था। . इस बारह वर्षके तपश्चरणके पश्चात् आपको केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही अन्य इस समय भगवानकी अवस्था ब्यालीस वर्षकी होचुकी थी ऐसा व्यक्त करते हैं और दोनों ही भगवानके केवलज्ञान प्राप्तिका स्थान भी एक ही बतलाते हैं। . " श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें जो भ्रमणके स्थानों में मतभेद है, वह संभव है, वैसे नगर होंगे जिनका उल्लेख दिगम्बर शास्त्रोंमें नहीं दिया हुआ है। केवल यह ही लिख दिया गया है कि भगवानने विविध स्थानोंमें भ्रमण किया था। दिगम्बरशास्त्रोंमें केवल उन्हीं स्थानोंका नाम दिया है, जहांपर कोई विशेष बात हुई थी और श्वेताम्बरोंके कल्पसूत्र में . भगवानके चातुर्मासोंक हिसाबसे भ्रमणके ग्रामोंका उल्लेख किया है अर्थात् कल्पसूत्रके अनुसार भगवानने प्रथम चातुर्मास अस्थिकग्राममें किया था। और तीन चतुर्मास चम्पा और एष्टिचम्पामें किए थे और अवशेषमें आठ वैशाली और वणिनग्राममें किए थे। और उनके आचारंग सूत्रमें लिखा है कि आप सर्व प्रथम कुमारग्राममें पहुंचे थे। इस प्रकार दोनों ही संप्रदायोके शास्त्रोंसे विदित होता है कि बारह वर्षका तपश्चरण करनेके पहिले आपने भारतवर्षके विविधस्थानों में भ्रमणकर लिया था और इसके उपरान्त केवलज्ञानको प्राप्त किया था। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www भगवान महावीर । . यह इस प्रकार हुआ कि एक दिन ऋजुकूला नदीके किनारे पर बसे हुए श्री जम्मक नामके ग्राममें पहुंचकर अपराह्न समयमें अच्छी तरहसे षष्ठोपवासको धारणकर सालवृक्षके नीचे एक चट्टानपर अच्छी तरह बैठकर जिननाथने वैशाख शुक्ला दशमीको जब कि चंद्र, सूर्यके ऊपर था ध्यानरूपी खड्गके द्वारा सत्तामें बैठे हुए थाति कर्मोकी नष्ट कर केवलज्ञानको प्राप्त किया। अपनी केवलज्ञान संपत्तिके द्वारा सदा यथास्थित समस्त लोक और अलोकको युगपत् प्रकाशित करते हुए, इन्द्रियोंकी अपेक्षासे रहित, अच्छाया (शरीरकी छायाका न पड़ना) इत्यादिक दशगुणोसे युक्त जिनेश्वरकी त्रिदशेश्वरोंने आकर भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। (देखो महावीरचरित्र प्रष्ट २९९-२६०) पूर्वोल्लिखित हिन्दी उत्तरपुराणमें भी इसीप्रकार वर्णन है यथाः- . "द्वादश वर्ष तपस्यामांहि । पूरण जिन कीन्हें मन लाहि ॥ जंमक नाम ग्राम इक जान | ताढिग सरिता एक प्रमान ॥ ऋजुकूला नामासो कही । तातट आरण्य मनोहर सही ॥ 'तामें रतनशिला इक सार । तापर प्रतिमा जोग सुधार ॥ साल वृक्षके तल जिनराज | वेलो धरलीनो जिनराज ॥ सुदी वैशाख दसै अब जान | और समय उत्तम अपराह्न ॥ तप केसार निवतर माहि । विपकश्रेणि आरूढ़ कराहि ॥ शुकल ध्यान घ्यायो सुधभाय । घातिकर्म दुखदाय खिपाय ।।" • जब भगवानको केवलज्ञान प्राप्त होगया और आप सर्वहितैषी, सर्वज्ञ निनराजपदको (अर्हत-तीर्थकर) प्राप्त होगए, तब देवोने उत्सव मनाकर आपके समवशरण (सभागृह)की रचना करदी थी। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपश्चरण और केवलज्ञानोत्पत्ति। १५ इस विषयका वर्णन हम तीर्थकर कौन हैं ?' इस प्रकरणमें कर चुके हैं। उसी प्रकार इन अन्तिम तीर्थकर भगवानके मी सर्व रचना क्रमसे होगई थी। और अब भगवानका शरीर भी वैसा ही दिव्यरूपका होगया था, जैसा कि प्रत्येक तीर्थकरका होता है। निसका वर्णन हम पहिले कर चुके हैं। इस समयसे भगवानकी वाणी खिरना (उपदेश होना) प्रारंभ होगई थी और आपके मुख्य गणघर इन्द्रमूति गौतम उस उपदेशको ग्रहण करते थे। इन गणधरका वर्णन हम अगाड़ी चलकर करेंगे। भगवानने समवशरणमें विराजमान हो पुनः भारतवर्ष में , विहार किया था। इस विहार और धर्मप्रचारका वर्णन करनेके पहिले हम श्वेताम्बर ग्रन्थोंकी उन कथाओंको भी दिए देते हैं जो भगवानके केवलज्ञानोत्पत्तिके पहिले उपसर्गरूपमें वर्णित हैं; यद्यपि दिगम्बर शास्त्रों में उनके विषयमें उल्लेख नहीं है। इन कथाओंसे भगवानकी मुनि अवस्थामें चारित्रकी दृढ़ताका भान होनाता है, और इसी भावसे उनका मूल्य और महत्व है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगकन महावीर। SA विविध उपसर्ग वर्णन। निरापरध निवर महामुनि तिनको दुष्टलोग मिल मारें कोई खैच खम्भसे बांये कोई पावकमै परजारै । तहां कोप नहीं करें कदाचितू पूर्व कर्म विचारें। समरथ होय सह अधबन्धनते गुरु सदा सहाय --- वाइस परिषह मुघरदासजी कृत। हम पहिले देख आए हैं कि महावीरचरित्रमें वर्णित है कि भगवान महावीरपर, रुद्र द्वारा उपसर्ग हुआ था । और भगवान्ने उसे समताभावसे सहन किया था । दिगंवर शास्त्रोंमे इसके अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नहीं है । श्वेताम्बर ग्रन्थोमें हमें कई ! एक कथानक मिलते हैं। उनमें से कुछका उल्लेख हम यहां करते हैं। इन कथानकोको प्रकट करनेमें, इनके रचयिता आचार्योंको भाव भगवानके चारित्रकी दृढ़ता और निर्मलता दिखानेका प्रतीत होता है । अस्तु । एक समय भगवान ध्यानमै मग्न थे । देवाङ्गनाएँ इनके ध्यानकी परीक्षा करने आई और वे गीतनृत्य करने लगी। अपने हावभावोंसे इन्हें रोमांचित करना चाहती थीं-इनके उग्रतपको मंग करना चाहती थीं, परन्नु भगवान महावीर, संसार-विजयी बीर-वासना विनयी वीर आत्मव्यानसे हटकर इनकी ओर क्षणमात्रके लिए भी नहीं देखते ये। विचारी देवाहना हताश Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छ विविध-उपसर्ग - वर्णेन । १०३ होकर चलीं गई । सत्य है - जिस व्यक्तिकै हृदय पर वासनाओंका कुछ प्रभाव नहीं होता, जिसके हृदय में सुख या दुख खेळवली पैदा नहीं करसक्ते; जिसके अविचल मेरुतुल्यं मनको संसारके बड़े बड़े झंझावात नहीं हिला सक्ते ऐसे अचल ध्यानी वज्ञशरीरी वीरके मनको चलायमान करने के प्रयत्न में देवांगनाऐं हताश न होतीं तो क्यों होती । (देखो जैनसंसार वर्ष १ अङ्क ४ ) दूसरा कथानक इस प्रकार है कि दीक्षा ग्रहणकर प्रभू वीर विचरते हुए कुमारगांवके निकट आए, और नासाग्रदृष्टि लगा, हाथ लंबेकर दोनों पैरोंके बीचमें चार अंगुलकी दूरीरख अचल हो, कायोत्सर्ग कर ध्यान करने लगे । पासही में एक खेत था । किसान खेतको जोतकर सांयकालके समय बैलोंको महावीर भगवानके निकट छोड दूध दुहनेके लिए अपने घर चला गया । पीछेसे बैल कहीं जंगलमें चले गये, क्योंकि प्रभू तो कायोत्सर्ग करके खड़े थे अतः उन्हें क्या मतलब था कि वे किसीको देखते या किसीके बैलोंकी रक्षा करते । किसान लौटकर आया तो वहां बैल दिखाई नहीं हुए। उसने प्रभूसे पूछा परन्तु कुछ उत्तर न मिला । इसीलिए किसान उन्हें खोजने के लिए जंगलमे चला गया। बेचारा रातभर बैलोंकी खोज में भटकता रहा, परन्तु कही बैलोका पता नहीं चला। अतः थककर पौफटनेके पहिले वापस लौट आया । वहां आकर क्या देखता है कि बैल महावीरखामीके पास चेठे हुए हैं। यह देखकर उसे बड़ा क्रोषं आया और प्रभूको कष्ट देनेको तत्पर हुआ । भगवानका स्मरण करते हुए सहसा यह बात इन्द्रको मालूम होगई । वह तत्काल ही वहां आया, और Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर । किसानसे कहने लगाः-"रे मूर्ख ! तू यह क्या करनेको तत्पर हुआ है ? क्या तू जानता नहीं है कि ये महात्मा हैं । ये अपना ही राज्य, धन, धान्य सब छोड़ चुके हैं। तव तैरे वैलोंका क्या । करते ? " किसान इन्द्रकी वातसे सन्तुष्ट हुआ और अपने बैल लेकर चला गया। (देखो जैनसंसार वर्ष १ अङ्क ८-९) ____ इनके अतिरिक श्वेताम्बर अन्योंमें प्रभूके अपूर्व गुणोंको व्यक्त करनेवाले अन्य कथानक भी हैं। उपर्युक्त कथानकोंसे भगवानकी सहिष्णुता, प्रेम, दया, शील, संयम आदि सद्गुणोंका दिग्दर्शन भलेप्रकार होनाता है। । बिहार और धर्मप्रचार । 'गिरिमित्यवदानवता श्रीमत इव दन्तिनः । अवहानवतः। तव शमवादानवतो गतमर्जितमपगतप्रमादानवतः -श्रवृहतस्वयंभूस्तोत्र । . खामो समन्तभद्राचार्यजी उक्त श्लोक द्वारा व्यक्त करते हैं कि " हे वीर ! दोषोंके उपशम प्रतिपादक, शास्त्रोंके रक्षक तथा प्रकृष्ट हिसाके नाश होनेसे अहिंसावत वा अभयदान सहित आपका उत्तम विहार हुआ जैसे सम्पूर्ण भद्रलक्षणों सहित झरते हुए मदवाले जिसको पर्वतीय मित्तिका अवदान है ऐसे हायीकी गति होती है।" Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www विहार और धर्मप्रचार। १०५ __ भगवानके इस विहारमें देवगण और उनके गणधर, मुनि और आर्यिकाऐं, श्रावक और श्राविकाएं सब साथ रहा करते थे और भगवानका विहार जिस अपूर्वतासे होता था (निसका वर्णन तीर्थकरके प्रकरणमें कर चुके हैं। ) उससे अन्य लोगोंक चित्तोंपर बड़ा प्रभाव पड़ता था। वे अपने मिथ्या श्रद्धानको खो बैठते थे। अब भगवानने अपनी उस निर्वाण प्राप्तिकी अभिलाषाको प्राप्त कर लिया था, जिसके लिए वे अहर्निश अपनी आत्माके ध्यान और योग साधनमें बारह वर्ष तक तल्लीन रहे थे। यद्यपि अभी मोक्ष प्राप्त करनेमें कुछ अवकाश अवशेष था। . ' भगवानने अब अपने संसार-परिभ्रमणकारक आठ कोपर विजय प्राप्त कर ली थी। अब आप 'जिन' की पदवीको प्राप्त हो गए थे। आप संसारकी समस्त दशाओंको अपने ज्ञानमें देख सक्त थे, और मानवोंके हृदयविचारोंको जान लेते थे । आपका ज्ञान सम्पूर्ण लोकालोककी वस्तुओं में व्याप्त होगया था। आपको अपनी आत्मा और लोकके स्वरूपका ध्यान करनेसे परमोच्चतम सम्यकदर्शन और ज्ञानका भान होगया था। इस समय भगवान यथार्थमें भगवान थे। निस धर्मको भगवानने अपने अनुभव द्वारा साक्षात देखलिया, उसीका प्रचार करनेके लिए आपने उपर्युल्लिखित विहार किया । संसारतापसे झुलसी हुई सुखकी पिपासी आत्माओंको आपने धर्मामृतका पान कराया-सुख और शान्तिका मार्ग बताया । भव्योको उसी समय अनन्त मुखका रसास्वादन कराया। अनुमानतः तीस वर्षतक इस प्रकार आपने भारतवर्ष में यत्रतत्र Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T bes. भगवान महावीर । A धर्मका प्रचार किया | पवित्र विहारके ही उपलक्षमें वह प्रान्त नेहाँपर आपका समवशरण आया था और नहाँसे आपको निर्वाणको लाभ हुआ था बिहार (Modern Bihar) कहलाया । आप वर्षाऋतु चार्तुमासके निमित्त एक ही स्थानंपर अवश्य रहते ये किन्तु वास्तवमे यह जीवन दिव्य कर्तव्य और उत्कृष्ट तपश्चरणका था । यह सम्पूर्णकाल आपने धर्मका स्वरूप समझाने में व्यतीत किया था। आपके वीरसंघका आश्रयं उत्तरीय भारतके बड़े २ राजाओं ने लिया था उनका वर्णन हम अगाड़ी करेंगे। " महावीर भगवानको अपने गत बारह वर्षे तपश्चरणंकी उपयोगिताका विश्वास था और आपके वह दिवस वृथा व्यतीत नहीं हुए थे, क्योंकि आपको इसके अंतमें नौ लब्धियोका (= (१) अनन्तदर्शन (२) अनन्त ज्ञान (३) क्षायिक सम्यक्त्व (४) क्षायिक 10 चारित्र (९) अनन्त दान (६) अनन्त लाभ (७) अनंत भोग (८) अनन्त उपभोग और (९) अनन्त वीर्य) और अनन्त चतुष्टयका लार्म हुआ था। तप और ध्यानकी महिमासे ही आपको कैवल्यपद प्राप्त हुआ था । इस बिहारके वर्णनमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायकि आचार्य करीब २ एक मत हैं । विहारका वर्णन करनेके पहिले यह घटना उल्लेखनीय है कि भगवानके केवलज्ञान प्राप्त होनेके पश्चात् सहसा ही वाणी (श्रुति-उपदेश ) नहीं खिरने लगी थी; नर्वतक कि इन्द्रभूति गौतम नामक ब्राह्मण उनके समवशरणमें आकर मुख्य गणधरकी पदवीपर आसीन नहीं होगया था, इसका उल्लेख हर्म अगाड़ी पूर्णरूपेण करेंगे । इन्द्रभूति गौतम भगवानके' Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहार और धर्मप्रचार। १०७ साथ २ मुख्य गणधर ( Chief Pontir) के रूपमें तीस वर्षे पर्यन्त रहे थे और जब भगवानका निर्वाण हुआ था तब उसी समय आपको केवलज्ञान प्राप्त हुआ था। भगवान महावीरने अपना प्रथम उपदेश गौतमको दिया था। पश्चात् अपने निकटके मनुष्योंको और उपरांतमें अन्य देशोंमें विहारकर उपदेश दिया था। (See life of Maharvira P. 44.) अधर्मके घोर अज्ञानान्धकारमें भगवानने जैनधर्मके प्रचारसे ज्ञानसूर्यको प्रकट करके निर्मल धर्म प्रकाशको चहुंओर फैला दिया था। अन्य विविध धर्मपन्थोंके अनुयायी आपकी शरणंमें आए थे। यहां तक कि बिचारे निरपराध, निर्बोध, निर्बल पशुओंके भी त्रास दूर हो गए थे। लोगोंने धर्मका यथार्थरूप देख लिया था. वे अब क्रियाकाण्डमें नहीं फंसते थे। यज्ञवेदको रुधिरकी मर्मस्टशी लाल धारासे नहीं रंगते थे । अहिसा परमो धर्मः' का अहिर्निश ध्यान रखते थे। भगवान भी भवभ्रमण भवातुर भव्यात्माओंको सन्मार्ग पर लानेमें प्रबल कारण थे । उनको वस्तुको खभाव यथावत् दर्शानेमें साक्षात् ज्ञान प्रकाशका कार्य करते थे। उनके दर्शनसे लोगोंकी शङ्काएँ मिट जाती थीं। वे गडाके दोनों ओर अपना प्रकाश फैलाते विंचर रहे थे। सर्व प्रथम आपका शुभागमन मगधमें हुआ था। वहां व कुण्डलपुरके इर्दगिर्दके देशोंमें आपने धर्मोपदेश दिया था। मगधसे । भगवान विहारको गए थे। वहाँपर आपने श्रावस्ती नगरीको अपने दिव्यज्ञान-प्रकाशसे प्रकाशमान किया था। और वैषष्ठी आदि स्थानोंपर सरस ज्ञानामृतका पान लोगोंको कराया था फिर Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ भगवान महावीर t आप हिमालयकी तलहटीतक दिव्यध्वनि, प्रध्वनित करते विचरे थे। ‘सिथिलामें भी भगवानने अपने सदुपदेशसे जनताको कृतार्थ किया था; वहां के राजागण विशेष प्रभावशाली और विद्यापटु थे।'* श्वेताम्बराम्नायके कल्पसूत्र ग्रन्थमे भगवानके चातुर्मासोंका इसप्रकार वर्णन है। अर्थात् चार चातुर्मास तो भगववानने वैशाली और वणिज ग्राममें बिताए थे; चौद राजगृह और नालन्दके निकटवर्तमें; छै मिथिलामें; दो भद्रिकामें; एक अलमीकमें, एक पान्यि भूमिमें; एक श्रावस्वतीमें और अंतिम पावापुरमें पूर्ण किया था। इनमेंसे कुछका नाम महावीरपुराण में वर्णित स्थानोंमें नहीं है; यद्यपि दोनों वर्णनोंमें विशेष अन्तर नही है । महावीरपुराणके अनुसार आपने सम्पूर्ण उत्तरीय भारतमें विहार किया था | विदेहमें वहां के शासनसत्तासम्पन्न राजा चेटकने आपके चरणोका आश्रय लिया था । और आपकी विशेष विनय की थी। अंगदेशके अधिपति कुणिकने 1 भी भगवानके शुभागमनपर अपने अहोभाग्य समझे थे । और - वह भगवानके साथ २ कौशाम्बी तक गया था । कौशाम्बीके नृपति शतनीकने भगवानके उपदेशोंको विशेष भाव और ध्यानसे श्रवण किया था। भगवानकी वन्दना उपासना बड़ी विनयसे 'की थी । और अन्तमें भगवानके संघमें सम्मिलित होगया था । 1 भगवान महावीरके इस तीस वर्षके दिव्य पर्यटनमें मगध विहार, प्रयाग, कौशाम्बी, चंपापुरी एवं उत्तरीय भारतके अन्य कितनेक प्रभावशाली राज्य जैनधर्मके श्रद्धानी और अनुगामी बन गये थे, किन्तु मगघदेशकी राजगृहनगरी ही ऐसा स्थान है जहां भगवानने *(देखो The Heart of Jainism.) Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहार और धर्मप्रचार | १०९ अपना विशेष समय व्यतीत किया था । और वहांके लोगोंकी भी आपमें अचल और गाढ़ भक्ति थी । उस समय मगधके अधिपति राजा श्रेणिक बिम्बसार थे, जो जैनधर्मके प्रखण्ड प्रभावक और भगवान महावीरके अविचल भक्त थे । आपका दिग्दर्शन पाठकोंको हम आगाड़ी करांयगे । श्रीमद्भगवत् जिनसेनाचार्यने अपने हरिवंशपुराण में ( पृष्ठ १८) भगवानके विहारके विषयमें लिखा है कि " जिस प्रकार भव्यवत्सल भगवान ऋषभदेवने पहिले अनेक देशों में विहारकर उन्हें धर्मात्मा वनाया था उसी प्रकार भगवान महावीरने भी मध्यके (काशी, कौशल, कौशल्य, कुसंध्य, अश्वष्ट, साल्व, त्रिगर्त पंचाल, भद्रकार, पाटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन एवं वृकार्थक ) समुद्रतटके (कलिग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कांबोज, वाल्हीक, यवनश्रुति, सिधु, गांधार, सौवीर, सूर, भीरु, दशेरुक, वाडवान, मारद्वान औ क्वाथतोय ) और उत्तर दिशाके (तार्ण, कार्ण, प्रच्छाल आदि) देशोमें विहारकर उन्हें धर्मकी ओर ऋजु किया था ।" इतनी बात यहांपर ध्यान में रखनेकी है कि भगवान ने यह विहार एक साधारण साधुकी भांति नहीं किया था; बल्कि समवशरण (सभागृह ) के साथ २ उस प्रभावनाके साथ जिसका कि उल्लेख हम पहिले कर चुके हैं विहार किया था | इस समवशरणमें क्या ? रचना होती है और वह कितनी ऊँची होती है, यह महिनाथपुराणके हम लोकसे व्यक्त होजाती है: $ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० भगवान महावीर । 'प्राकाराश्चैत्यवृक्षाश्च केतवो वनवेदिकाः । स्तूपाः सतोरणाः स्तंभा मानस्तंमाश्च तेऽखिलाः प्रोक्तास्तीर्थकरोत्सेधादुत्सेवेन द्विषट् गुणाः । दैर्ध्यानुरूपमेतेषां रौद्र्यमाहुर्गणाधिपाः ॥ १२९ ॥ । · भावार्थ:- आकार, चैत्यवृक्ष, ध्वजा, बनबेदी, स्तूप, स्तंभ, तोरण सहित, मानस्तंभ इन सबकी ऊँचाई तीर्थकरके शरीरकी ऊँचाईसे. १२ गुणी होती है । उसीके अनुकूल चौड़ाई होती है । रत्नमई मानस्तंभ समवशरणके अग्रभागमें रहते थे, वे ऐसे मालूम पड़ते थे कि मानो 'महादिशाओंमें अन्त देखनेकी इच्छासे पृथ्वीपर आये हुए मुक्तिके प्रदेश हों ।' भगवान महावीरका दिव्योपदेश 'अनाक्षरी भाषा' में होता था, जिसको उनके मुख्य गणधर इन्द्रभूति गौतम मागधी भाषामें प्रगट करते थे । भगवानकी वाणीके विषयमें उक्त पुराणमें लिखा है कि: 'मुखाम्बुजेऽस्य वक्तुर्विकृतिर्नाभून्मनाग् न च । ताल्वोष्ठानां परिस्पंदा निर्ययौ भारती मुखान् ॥" भावार्थ:- भगवान के मुखकमलमें कोई विकार न हुआ, न तान्दु ओंठ ही हिले, इसतरह चाणी प्रगट हुई।' भगवानकी वाणीमें क्या अपूर्वता थी उसीको स्वामी समन्तभद्राचार्य विक्रमकी दूसरी मारंभ इस प्रकार प्रगट करगए हैं: Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहार और धर्मप्रचार। १११ 'बहुगुणसंपदसकलं परमतमपि मधुरवचनविन्यासकलम् । नय भक्त्यवतंसकलं तव देव ! मतं समन्तभद्रं सकलम् ॥ . अर्थात् सर्वज्ञत्व, वीतरागत्वाडिक जो बहुगुण तद्रूप सम्पत्ति उससे न्यून, तथा मधुर वचनोंकी रचनासे युक्त मनोज्ञ, ऐसा पुरका मत है, तथा आपका मत (धर्मोपदेश) सम्यक् प्रकारसे भव्य प्राणियोंको कल्याणका कर्ता है और नैगमादि नयोंका नो भंग ( स्यादस्तीत्यादि भेद) तद्रूप नो कर्णभूषण उसको लानेवाला है, अर्थात् नैगमादि नय व सप्तमंगों सहित है। भगवानके धर्मोपदेशमें एक मुख्यता यह भी थी कि आपके धर्मोपदेशसे प्रभावित व्यक्तिको भगवान के संघमें आश्रय मिलता था । जातिभेद-वर्णभेदकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता था। सर्व प्रकारके जीवों के लिए भगवानके संघमें स्थान था । स्वयं भगवानके मुख्य गणधर ब्राह्मण थे। इस प्रकार भगवानके संगमें सर्वप्रकार के मनुष्य जैन धर्मानुयायी थे। और भगवानने अपने उत्कृष्ट तीस वर्ष इस प्रकार धर्मप्रचार और विहार करते हुए, प्रभावशाली राज्योंको जैनधर्ममें परिवर्तन करते हुए विता दिए थे । अब भगवानके निर्वाण प्राप्तिका समय आगया था, परन्तु उस पुण्यमई अवसरका वर्णन करनेके पहिले हम भगवानके गणधरों, मुनियों, विशेष भक्तों और समकालीन मनुष्योंका परिचय पाठकोंको करादेंगे। NDJEEMA Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर । . . ( २१) . · इन्द्रमति गौतम। त्रैकाल्यं द्रव्यषट्कसकलगणितगणाःसत्पदानवैव। विश्व पंचास्तिकायतसमितिविदासप्तनत्वानि धर्म सिद्धे मार्गस्वरूपं विधिजनितफल जीवषट्काय लेश्या एतान्या श्रद्धधातिजिनपचनरतो मुकिमामीसभव्यः भगवान महावीरके म्यारह गणधर थे, जिनमें मुख्य इन्द्रभूति गौतम थे। ये सर्व गणधर अन्य धर्मोसे जैन धर्ममें आए थे। भगवानके सम्यक् उपदेशको श्रवण करके इनको जैन धर्ममें श्रद्धान हुआ था । अस्तु, यह विद्या सर्व भगवानके मोक्ष प्राप्त कर लेने के पश्चात् इन्होंने ही धर्मका प्रचार चालू रखा था। भगवान महावीरके मुख्य गणधर इन्द्रभूति गौतम व मुमति नामक ब्राह्मणके पुत्र थे। यह पाराङ्गत विद्वान थे। हिन्दू शास्त्रोके ज्ञाता थे और वेदादिके पारगामी पंडित थे। इस कारण इनको अपनी विद्यापटुताका बड़ा गर्व था। भगवान महावीरको केवटज्ञान प्राप्त होनेपर सहसा वाणी नहीं खिरने लगी थी। देवोका इन्ट जो उस समय भगवान के निकट अवस्थित था, उसने अपने अवधिज्ञानसे जान लिया कि गणघरके न होनेसे भगवानकी टिव्यवनि नही होरही है। और यह भी जान लिया कि गौतम नामक ब्राह्मण विहाद ही भगवानका गणधर होगा। इसलिए स्वयं इन्द्र ही उस ब्राह्मग विहानके निकट गया था। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म इन्द्रभूति गौतम। ११३ ___इन्द्रको मालूम था कि इन्द्रभूति गौतम बड़ा मानी और गर्वी व्यक्ति है, यद्यपि उसकी बुद्धि निर्मल और विशुद्ध है ! इस लिये वह अपना रूप बदलकर एक बृद्ध विद्यार्थीक रूपमें उसके निकट पहुंचकर बोला कि " महारान ? मेरे पूज्य गुरुने मुझे एक श्लोक बताया है किन्तु उसका अर्थ बतानेके पहिले ही वे अपने शुक्लध्यानमें आरूढ़ होगए । अब इस श्लोकका अर्थ मुझे कोई नहीं बता सकता है परन्तु मैने आपकी विद्वत्ताकी महिमा खूब सुनी है । सुना है कि आप वेद और पुराणोंके पारगामी विद्वान् हैं और मुझे इस श्लोकके अर्थ जाननेकी उत्कट लालसा लग रही है। अस्तु, मैं आशा करता हूं कि आप इस श्लोकका अर्थ बताकर मेरी आत्माकी अशान्तिको मिटायगे । “इन्द्रभूति उस लोकका अर्थ बतानेको राजी होगए, परन्तु उन्होंने भी यह ठहरा लिया कि ' मेरे अर्थ बता देनेपर इन्द्रको मेरा शिष्य होना पड़ेगा।' वृद्ध विद्यार्थीरूप इन्द्रने यह बात स्वीकार करली और वह श्लोक पढ़कर सुनाया जिसका भाव करीब २ उपर्युक्त श्लोककी भांति था; अर्थात् छै द्रव्य त्रिकालिक हैं ? नव सत्पदार्थ हैं, पंचातिकायमें विश्वका समावेश होजाता है, क्रियाका फल यह मोक्षमार्गका स्वरूप है, तत्व सात हैं, जीवके छै लेश्यायें हैं, इन व अन्य जिनवर वचनोमें श्रद्धा रखते हुए मुक्तिमार्गके अनुगामी हैं, वे भव्य जीव हैं।" गौतम इस श्लोकको सुनकर असंमजसमें पड़ गए, उनका मस्तिष्क चकराने लगा, वे कुछ भी नहीं समझ सके कि इसका अर्थ क्या हो सका है। छै द्रव्य क्या हैं ? पंचास्तिकावसे क्या Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' ११४ भगवान महावीर । mmmmmmmmiummmmmmm मतलब है ? तत्वोंसे क्या भाव है? छै: लेश्यायें कौनसी हैं ? और वह अन्यथा अर्थ बतानेको भी साहस नहीं कर सके, क्योकि वह जानते थे कि यह वृद्ध पुरुष,नब इस श्लोकका यथार्थ अर्थ जानेगा तब मेरे अन्यथा वताए हुए अर्थके कारण मेरा उपहास करेगा, इस लिए उनने यह ही उत्तम समझा कि स्वयं भगवान महावीरके निकट चलकर इस श्लोकका अर्थ बताना चाहिये, जिससे मिथ्या बतानेका ''दोष मेरे सिरपर न आवे और इसी विचारसे वह अपने दो लघु भ्राताओं-अग्निभूति और वायुभूति एवं अपने पांचसौ शिष्योंक साथ २ भगवान महावीरके समवशरणके लिए प्रस्थानित हुआ । मार्गमें उसे भगवान के निकट चलनेमें संकोचकी शङ्का भी हुई, परन्तु उनके भाइयो और शिप्योंने चलने का अनुरोध किया । भाइयों के अनुरोधसे इन्द्रभूति भगवानके समवसरणके निकट पहुंचे । पहिले मानस्तंभको देखते ही उनका मान और गर्व मन्द पड़ गया और समवशरणके भीतर प्रवेशकर त्रिलोकवंदित त्वयं भगवान महावीरकी परम वीतराग मुद्राको देखकर. उसका हृदय नत्रीत होगया, योगावस्याकी यात्मविभूति देखकर प्रभावित होगया । उन्होंने भगवानको साष्टांग नमस्कार किया, और भगवानके उपदेश सुननेकी वांछा प्रगट की। भगवानने उनको जनधर्मक तत्वोंग हतप वताय और जेनिटांतके यथार्थ मनको समझामा, निकले सुनकर Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्रभूति गौतम। ११५ इस प्रकार विद्यार्थीका वेश धारण करनेवाला इन्द्र गौतमको वादका छल करके भगवानके निकट लिवालाकर-भगवानके मुख्य गणघर पदपर उनको आसीन देखता हुआ था। उस गौतमने दीक्षाके साथ ही पूर्वाह्नमें निर्मल परिणामोंके द्वारा तत्काल बुद्धि, औषधि, अक्षय, ऊन, रस, तप और विक्रिया ! इन सात लब्धियोंको प्राप्त किया और उसी दिन अपराहमें उस गौतमने जिनपतिके मुखसे निकले हुए पदार्थोंका है विस्तार जिसमें ऐसे उपांग सहित द्वादशाङ्ग श्रुतकी पद रचना की। जब भगवान महावीरका निर्वाण होरहा था उसी समय आपको भगवानकी मोक्ष प्राप्तिके साथ २ केवलज्ञानकी प्राप्ति होगई थी। भगवान महावीरके पश्चात् आप ही संघके नायक रहे थे और भगवानकी मोक्षप्राप्तिके बारह वर्ष उपरान्त आप भी भगवानके अनुगामी हुए थे । इस प्रकार आप सुनि अवस्थामें पचास वर्ष रहे और कुल ९२ वर्ष जीवित रहे थे । आपके विषयमें चीनयात्री हुईनसांगने लिखा है कि वह महावीर स्वामीके मुख्य गणधर थे। इस उपर्युक्त वर्णनसे हमे भगवान महावीरके मतकी धार्मिक उदारताका पता चलता है। भगवानके ज्ञानमें जो सत्यका प्रकाश हुआ, उसीको उन्होंने संसारके समक्ष प्रगट कर दिया और जिस भव्यको उस सत्यमें श्रद्धान हुआ उसीने यथार्थ धर्म स्वीकार किया। किसी भी वाह्याडम्बरनप लालच य प्रमावसे किसीने . जैनधर्मकी शरण नही ली, बलि सत्य शनजी यथार्थतान्ने पार ही लोग शगवानके अनुयायी हुए थे । इसपर जिसे धर्नमे सत्य. श्रद्धान हुआ और उसने चारित्रको धारणमिना वीजेन कहलाया। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ भगवान महावीर । २२) A सुधर्माचार्य एवं अन्य शिष्य। " जैवत दयावंत सुगुरुदेव हमारे, संसार विषम खार सों जिनमक उपारे ।। जिन वीरके पीछे यहाँ निर्वानके थानी । बासठ वर्षमें तीन हुए केवलज्ञानी ॥ फिर सौ वर्षमें पांच ही श्रुतकेवली भये । सर्वांग द्वादशांगका उमंग रस लये ॥ 3वंत दयावंत सुगुरु देव हमारे, संसार विषम खार सों जिनमत उघारे ॥ . . श्रीविधर वृन्दाग्नदास । इन्द्रमूति गौतमके अतिरिक्त दश गणधर और थे, यह भगवानके मुख्य शिष्य थे। भगवान महावीरकै संघमें चार प्रकारके आचारके अनुयायी मनुष्य थे। प्रथम प्रकारके शिष्य मुनि वा श्रमण कहलाते थे, इनकी संख्या १४००० थी, इन्हीकी प्रतिष्ठा संघमें सर्वोच्च थी और इनके चारित्रके नियम भी अति दुर्धर थे। श्वेताम्बर दृष्टिसे यह संघ-अंग नौ गणोंमें विभक्त था और प्रत्येक गणके मुनिजन एक गणघरके आधीन रहते थे। 'लाइफ ऑफ महावीर' नामक पुस्तक (पृष्ठ ९६) में इन गणधरोके नामादिना एक उत्तम नकशा संभवतः श्वेताम्बर दृष्टिसे दिया हुआ है उससे हम जानसके हैं कि (१) प्रथम मुख्य गणघर इन्द्रभूति गौतम, गौतम गोत्रके थे और उनके गणमें ५०० मुनि थे। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्माचार्य एवं अन्य शिष्य । ११७ (२) दूसरे गणधर अग्निभूति भी गौतम गोत्रके थे। इनके गणमें भी १०० मुनि थे । (३) तीसरे गणधर वायुभूति, इन्द्रभूति और अग्निभूतिके भाई गौतम गोत्री थे । इनके आधीनगणमें भी ५०० मुनि थे । (४) आर्यव्यक्त चौथे गणधर भारद्वाज गोत्रके थे। इनके गणमें भी १०० सुनि थे । · (९) अग्नि-वैशयायन गोत्रके पांचवें गणघर सुधर्माचार्य थे। इनके आधीन भी ५०० मुनि थे । (६) मण्डिक पुत्र अथवा मण्डित पुत्र वशिष्ट गोत्रके थे; और २९० श्रमणोंको धर्मशिक्षा देते थे । (७) मौर्यपुत्र काश्यपगोत्री भी २५० मुनियोंके गणधर थे। (८) अकम्पित - गौतमगौत्री और (९) हरितापन गोत्रके अचलवृत दोनों ही साथ २ तीनसौ श्रमणोंको धर्मज्ञान अर्पण करते थे । (१०) मैत्रेय और (११) प्रभास कान्डिन्य गोत्रके थे । दोनोंके संयुक्तगणमें ३०० मुनि थे । इन ग्यारह गणधरोंमेंसे केवल इन्द्रभूति गौतम और सुधर्माचार्य भगवानकी निर्वाण प्राप्तिके पश्चात् जीवित रहे थे, अवशेष गणधर भगवानके जीवनकालमें ही मुक्तिको प्राप्त हुए थे। यह सव केवली थे । उपर्युक्त वर्णनसे विदित होता है कि इन गणधरोंके आधीन ४२०० मुनियोके अतिरिक्त मुनि और भी थे जिनकी गणना करके हमको १४००० मुनि बतलाए गए हैं। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ • ईसवी सन् ७८३ - ७८४ में होनेवाले श्री जिनसेनाचार्यजी दिगम्बर इंष्टिसे 'भगवान महावीरके गणधरोंका वर्णन इसप्रकार करते हैं कि- “ भगवानके इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, शुचि - दत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदार्य और प्रभास ये ग्यारह गणधर थे। ये समस्त ही सात प्रकारकी ऋडियोंसे संपन्न और द्वादशांगके वेत्ता थे ॥ ४० - ४३ ॥ तप्त दीप्त आदि तपऋद्धि (१), चर्तुवुद्धि विक्रिया (२), अक्षीणर्डि (३) औपघि (४) लब्धि (५) रस और (६) बलऋद्धि (७) ये सात ऋडिया हैं ॥ ४४ ॥ गौतम आदि पांच गणधरोके मिलकर सब शिष्य दशहजार सौ पचास और प्रत्येकके दो हजार एकसौ तीसर थे । छठे और सातवें गणधरोके मिलकर सव शिष्य आठसौ पचास और प्रत्येकको । चारसौ पच्चीस २ थे। शेष चार गणधरोमें प्रत्येकके छैसो पच्चीस पच्चीस और सब मिलकर ढाई हजार थे । एवं सब मिलकर चौदह हजार थे || ४५ || ४६ ॥ " 1 भगवान महावीर । · गणोके अतिरिक्त मुनियोंकी आत्मोन्नतिके लिहाज से गणना इस प्रकार थी । अर्थात् ९९०० साधारण मुनिः ३०० अंगपूर्वधारी मुनिः १३०० अवधिज्ञानधारी मुनिः ९०० ऋद्धिविक्रिव्यायुक्तः ५०० चार ज्ञानके धारी; ७०० केवलज्ञानी; ९०० अनुतरवादी, सब मिलकर १४००० मुनि थे । इन्द्रभूतिके अतिरिक्त सुधर्माचार्यने भी भगगनके पीछे धर्मशासनकी प्रभावना ना रक्खी थी। सुधर्मस्वामी सर्वर गच्छकी पट्टावलीमें कोल्लाग ग्रामके एक ब्राम्ह्मणका पुत्र होना लिखा है । ( Sce Indian Antiqusry, Vol. XI, P, 246 ) Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुधर्माचार्य एवं अन्य शिष्य। ११९ इन्द्रभूतिके उपरान्त आप ही मुख्य गणधर हुए थे। आपने धर्नका प्रचार भी खूब किया था। प्रख्यात जम्बूस्वामी अन्तिम केवली. आप ही के शिष्य थे । जम्बूस्वामीने मथुराके निकट चौरासीसे; मुक्ति लाम किया था । आपने १२ वर्ष उपरान्ततक धर्मप्रचार किया था । अबतक महावीर स्वामीको मोक्षगए ६२ वर्ष हो चुके थे। इसके १०० वर्ष वाद भद्रबाहु श्रुतवली हुए थे। इस प्रकार इस मुनिसंघ द्वारा १६२ वर्ष पर्यन्त धर्मका प्रचार खूब प्रभावनाके साथ रहा। इसके पश्चात् १८३ वर्ष बाद तक दश पुओंके ज्ञानके धारी मुनि धर्मप्रचार करते रहे, जिनके नाम इस प्रकार है-(१) विसाषाचार्य (२) प्रोष्टलाचार्य (३) क्षत्रयाचार्य (४) जयाचार्य (६) नागसेन (६) सिद्धार्थ (७) ध्रुतसेन (८) विनय (९) बुधल (१०) गंगसेन (११) सुधर्म, और हम देखते हैं कि इस जमानेके चन्द्रगुप्त मौर्यः भिक्षुरान खारवेल आदि प्रसिद्ध सम्राट् जैनधर्मानुयायी थे। इसके पश्चात् २२० वर्ष तक ११ अंगके धारी मुनि विहारकर धर्मका उद्योत करते रहे। वे यह थे अर्थात् (१) नक्षत्राचार्य (२) जयपाल (३) पाण्डु (४) ध्रुवसेन (५) कंसाचार्य । पश्चात् केवल एक अंगके पाठी सुभद्र, यशोभद्र, यशोवाहु और लोहाचार्य रहे। अन्तमें इनका भी अभाव होगया। फिर लोहाचार्यके पश्चात क्तियधर, श्रीदत्त, शिवदत्त और अईदत्त ये चार आरातीय मुनि अंग पूर्वज्ञानके कुछ भागके ज्ञाता हुए और फिर पूर्वदेशके पुण्बवनपुरमें श्री अईहलि मुनि अवतीर्ण हुए, जो अंगपूर्व देशके भी एक देश (भाग) के जाननेवाले थे। इनके पश्चात् माघनन्दि आदि मुनि Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० . भगवान महावीर। हुए । इसी समय ग्रन्थ लिपिबद्ध किए गए थे। अबतक वे स्मृति द्वारा कण्ठस्थ याद रखे जाया करते थे ! पश्चातमें सर्वसे प्रसर आचार्य कुन्दकुन्दका पता हमको चलता है और उमास्वामि, समन्तभद्राचार्य प्रभूत आचार्य होते रहे थे।, वर्तमानमें भी इस मुनिगणके कठिन मार्गका अभ्यास करनेवाले साधारण मुनिगण विद्यमान हैं। इस प्रकार भगवानके संघका यह अंग. अब तक जीवित है। __ मुनियोंके पश्चात् संघके दूसरे अंगमें आर्यिकायोकी गणना थी। यह आर्यिकाऐं भगवानके समयमें छत्तीस हनार थीं। यह सब भारतीय महिलाएं थीं जिन्हें अपनी आत्माका ज्ञान होगया था - और जिसके कारण ही उन्होंने मुनियों जैसे कठिन व्रत, संयम और आत्मसमाधिकी शरण ली थी। वे सांसारिक प्रलोभनों एवं संसर्गासे नितान्त बिलग रहती थीं। इन आर्यिकायोंकी नायिका चेटकरानाकी लघु पुत्री चन्दना थीं। भगवानके संघके इस अंगका वर्तमान में अमावसा ही है, यद्यपि श्वेताम्बरानायमें अब भी बहुतसी आर्यिकाएं मिलती हैं किन्तु इन आर्यिकायोके चारित्र नियम भगवानके समयकी आर्यिकायो जैसे उत्सष्ट नहीं है। भगवानके संघके तीसरे अंगमें एक लाख श्रावक थे जिनमें मुख्य साखस्तक थे। संभवतः यह व्रती श्रावक थे अथवा उदासीन । आवक थे। इनके अतिरिक्त अन्तिम अङ्गमें तीन लाख श्राविकाएं थीं जिनमें मुख्य मुल्सा और रेवती थीं। इनके अलावा एक बड़ी संख्या बहुतसे गृहस्थ और देव भगवानके भक्त थे। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिलारत चन्दना। इस प्रकार भेगवान महावीर स्वामीका चतुनिकायक संघ था जो अभी तक अपने प्रत्यक्षरूपमें जैन नातिके भीतर विद्यमान है। और इस संघके चारित्र नियमकी उचित व्यवस्था भी एक कारण थी जिससे जैनधर्म हिन्दू बौडादिकोंसे भारी वेदना सहकर आन भी भारतवर्षमें मौजूद हैं, यद्यपि इसका मुख्य कारण इसके सिद्धान्तोंका वैज्ञानिक सत्य होना ही है। avart (२३) महिलारत्न चन्दना। " सोचो, नरोसे नारियां, किस बातमें हैं कम हुई ? मध्यस्थ वे शास्त्रार्थमें हैं, भारतीके सम हुई ? क्या कर नहीं सकतीं भला यदिशिक्षिता होनारियाँ ? रणरङ्ग, राज्य, सुधर्मरक्षा, कर चुकी सुकुमारियाँ !" भारतीय महिला-संसारका पूर्व इतिहास अपनी अपूर्व छटामें एक ही है। जब कभी उस अपूर्वताका एकाध चमकता हुआ रत्न नेत्रोके सामने आनाता है, तब हमारा हृदय उसी समानकी वर्तमान दशाका अवलोकनकर द्रवीभूत होनाता है । इस पवित्र समाजकी भगवान महावीरस्वामीके समयमें क्या दशा धी? यह इसीसे व्यक होसका है कि वह कितनी उत्कृष्ट न होगी कि जिसमें से ३६००० महिलाएं सांसारिक विषयसुख और अपने Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग हावार। प्रिय आभूषणों एवं गार्हस्थिक बन्धनोंको तोड़कर आत्ममयममें लीन होगई थीं। उनका- ज्ञान, उनका चारित्र कितना बड़ा, चढ़ा न होगा! श्रीमती महिलारत्न चन्दनादेवी इन्ही आयिकायोकी नायिका थी। वे वैशालीके अधिपति चेटक्की सर्व लघुपुत्री थी और सर्वगुणसम्पन्न, परमसुंदरी थीं। एक दिन वे वागमे वायु सेवनकर रही थी । वहांसे एक विद्याधर विमानमें बैठा निकला। उसने चंदनाकी रूपराशिपर अपने नेत्रोको उलझा उनपर आसक होगया और उनको उठाकर अपने विमानमें बैठाकर ले गया, परन्तु अपनी गृहिणीके भयसे उसले उन्हें मार्गमें ही एक अनमें छोड़ दिया। वेचारी शोकसागरमे व्याकुल हो वहांपर अश्रुधाराएं वहारही थीं कि इतनेमे एक भील आया और उन्हें कौनाम्चीले जाकर एक वृपमसेन नामक धनिक वणिकके यहां बेच दिया। धनिक सेठने उन्हें अपने घरमे रखलिया, पर कुछ दिनों उपरान्न जाप पूण यौवनावस्थाको प्राप्त होगई जिससे सेठको स्त्री सुभद्रा उनसे रूपरागिके कारण ईप्या करने लगी। वह चन्दनाको हरतरहके दुःख लगी. नराव भोजन देने लगी, फटे कपड़े पहिननेको देने लगी, फनी २ ताड़नाको नी कानमें लाने लगी : पूर्व दुष्कर्मक फलस्वरूप चन्दना यह यातनाएं गान्तिपूर्वक महन सकी थीं। सतोपका परिणाम भी मिट होना है। चन्दना शुभ सत्यक पुण्योदयसे एक दिवस सापान ननावीर म्यानी रिने । उफर नगरको आहारदान दिया था, यह हम पहिलेदय अप है। इस गटार Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महिलारत्न चन्दना। १२३ दानके प्रभावसे चन्दनाका यश पुरभरमें फैल गया था। वहांकी रानीने इन्हें आमंत्रित किया था। देखनेपर पहिचाना कि यह तो मेरी लघु भगिनी है, जो बाल्यावस्थामें लुप्त होगई थी । बहिनोंकी प्रसन्नताका ठिकाना न रहा। चन्दनाकी इस वहिनका नाम गृगावती था । चन्दना मृगावतीके पास रहने लगी थी, पर भगवान वीरका पावन उपदेश सुनकर उसे संसारसे पूर्ण वैराग्य होगया, जिसके कि अङ्कर उसके हृदयमें पहिलेसे विद्यमान थे, और वह आर्यिका होगई। निर्मल चारित्रका अनुसरणकर दुर्घर तप तपने लगी, आत्मज्ञानकी ज्योतिसे अपने नेत्रोंको भूषित करने लगी और पवित्र साधु धर्मका पालन करती करती आप भगवानके आर्यिका संघके नायिका पदपर विभूषित हुई थी, यह हम पहिले देख आए हैं। अन्तमें आप वगंधामको सिधारी थी। आपके चारित्रसे हमें संयम, नियम, संनोषव्रत आदिमें परम दृढ़ता रखनेका अपूर्व पाठ मिलता है व भारतीय रमणियोके अपूर्व गुणोंका दिग्दर्शन होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भगवान महावीर | ( २४ ) वारिषेण मुनि । " समकित सहित आचार ही, संसारमें इक सार है। जिनने किया आचरण उनको, नमन सौ सौ बार है ॥ " www "जीवकी अशुभ परणतिको पाप कहते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, ये पांच पाप प्रसिद्ध हैं। इन पांच पापोंक्त -त्याग किए बिना आत्मस्वभावमें थिरतारूप निश्चय चारित्र नहीं होसक्का । इससे पांच पापोंका त्याग निश्चय चारित्रका कारण है और इसीलिए पंच पापोंके त्यागको व्यवहारमें चारित्र कहते हैं । " । जिन जीवोंको सर्वज्ञ आप्तदेव तीर्थकर भगवान कथित धर्ममें विश्वास है अथवा निश्वयसे जिनको अपने आत्माके अस्तित्व और अनन्तगुणों का विश्वास है वे सम्यकूदृष्टि कहलाते हैं। सम्यकदृष्टि जीवोंको चारित्र धारण करनेकी बड़ी रुचि रहती है । शुभोदय और वैराग्यकी तीव्रतासे वे किसी रोज पांच पापोंका त्यागकर मुनि होजाते हैं और साधु धर्मके महाव्रतोंका पालन करते हैं। जो जीव पांच पापोंका पूर्ण त्यागकरके महाव्रतोंका पालन नहीं करसके चै उनका थोड़ा २ त्याग करते हैं और वे श्रावक कहलाते हैं । वारिपेण सुनि पूर्ण सम्यकूदृष्टि थे. और उनका चारित्र भी परम निर्मल था । आप नैन जैनधर्मानुयायी मगधाधिपति राजा श्रेणिकके पुत्रोमेंसे एक थे। कुमार अवस्थासे ही आप संसारसे उदासीन थे। विषयभोगोंकी धधकती आगकी झुलसने रहते हुए -भी उसमें दग्ध नहीं हुए थे। अपने श्रावकके व्रताचरणमें तल्लीन ' " Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारिषण मुनि। थे। आपने कुमारावस्थामें ही दैगम्बरीय जिन दीक्षा लेली थी यह निन्न कथासे विदित है। आपका सम्यत्व इतना गाढ़ था कि आन जैन समाजके आबालवृद्धकी जिह्वापर आपका नाम है। सम्यकूदर्शन और चारित्रके अझोंका ध्यान करते ही हमें बारिषेण मुनिका भी स्मरण हो आता है। जिन दीक्षा लेनेके कारणका समागम कुमार बारिषेणको अपने आत्मध्यानमें मग्न होते समय होगया था। एक समय आप राजगृह नगरके बाहर निर्जनस्थान में सामायिक कर रहे थे । राजगृह नगरमें विद्युत नामक चोर मगधसुन्दरी वेश्यापर आशक्त रहता था। वेश्याने विद्युतसे श्रीदत्त नामक सेठके यहांसे रत्नहार ला देनेको कहा । विद्युत उसी रात्रिको सेठके यहांसे रत्नहार चुरा लाया, मार्गमें उस हारको लाते कोतवालने देख लिया। कोतवालने उसका पीछा किया। इस कारण वह भागकर उसी निर्जन स्थानमें पहुंच गया, जहांपर कुमार बारिषेण आत्मध्यानमें लीन थे। उसने उन्हींक निकट हार पटक दिया और आपवहीं छिप गया रत्नहार वारिषेणके निकट होनेके कारण कोतवालको उन्हीं पर संदेह होगया । और राजा श्रेणिकने कोतवाल आदिके विश्वासपर उनका मस्तक काट डालनेकी आज्ञा दे दी, परन्तु जिस समय चान्डाल उनका मस्तक धड़से जुदा कर रहा था, तो सहसा पुण्यप्रभावसे तलवार पुष्पहार हो गई । राजा श्रेणिकको यह समाचार सुनकर अपनी मूर्खता पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने कुमारसे क्षमा मांगी और घरपर चलनेको कहा परन्तु उन्होंने संसारका ऐसा चरित्र देखकर जिन टीया ले ली। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ भगवान महावीर । __ यही मुनि नहां तहां विचरते और लोगोंको उपदेश देते हुए पलाशकूट नगरमें पहुंचे। वहां राना श्रेणिकके मंत्र का पुत्र पुप्पडाल रहता था। वह सच्चा सम्यग्दृष्टी था। उसने वारिषेण मुनिको आहार दिया था। पश्चात् वारिषेण मुनिने पुप्पडालको ज्ञान वैराग्यका उपदेश दिया था, जिसके कारण वह भी उनके निकट मुनि होगया । मुनि तो वह होगया किन्तु उसका मन सदैव अपनी स्त्रीमें लगा रहता था। एक दिन वे दोनों महावीर खामीके समवशरणमें पहुंचे। वहां उसने एक गंधर्वको एक श्लोक पढ़ते सुना, जिसका भाव था कि हे भगवान् ! आपने पृथ्वीरूप स्त्रीको तीस वर्षतक अच्छी तरह भोगके छोड़ दिया है। इसलिए वह धेचारी आपके विछोहसे दुःखी होकर, नदीरूप आंसुओसे आपके नामको रो रही है । इसके सुनते ही उसे अपनी स्त्रीकी याद आ गई और वह अपने घरकी ओर जाने लगा। परन्तु अंतरयामी मुनि वारिषेणने उसे जाने न दिया-उसे धर्ममे स्थिर रखना उचित समझा इसलिए वे उसे राजगृह नगरमे राजप्रासादमें ले गए। और वहां अपनी स्त्रियोको उसे दिखाकर कहा कि "हे मुनि ! जिस घनके लिए तुम मुनिपद छोड़कर जाना चाहते हो, सो यह अतिशय रूपवान स्त्रियां गृहण करो और भोगकर देख लो कि इनमें सुख है या मुनिमार्गमे सुख है।" पुष्पडाल यह वचन सुन लजित हुआ और गुल्ले प्रायश्चित्त लेकर मुनिधर्ममें पुनः बढ़तामें मनको लगाकर मोमको प्राप्त हुआ था । वारिपेण मुनि इस प्रकार , मुनिको धर्नमे स्थिर रखने के कारण विशेष यशके भागी हुए, और अन्तमें वे भी मोक्षको प्रात होगए थे। : Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षत्रचूद भगवान महावीरके संघमें राजषी इससे हमें ज्ञात सामिग्रीके भो भी सम्मिलित थे और वे केवल श्रावकके ही व्रत नहीं पालते थे, बल्कि मुनिधर्मका पालनकर देशमें धर्मका प्रचार करते थे । अनेक प्रख्यात राजाओंने भी भगवानके समवशरणमें दीक्षा ली थी उनमेंसे कुछका वर्णन निम्न प्रकार है ( २५ ) शव चूड़ामणि- जीवंवर । " करणer सुतृप्तिविधायिनः शुभगवन भूपितविग्रहः । ୬ परविभूतियुताः सदुपायिनः कति कति प्रथिता न नराविषाः ॥" "असद भुक्तं राज्यं युवति शतान्यपि तथैव भुक्तानि । 'वर सम्पदोपि चात्मा न खलु विशुद्धः स्मृतो निजानन्दः || येन स्मृतेन झटति प्रकटविनष्टा भवनि रागाद्याः । प्रभवति मुक्तिरधीना चैतन्यामृतपयोधिमग्नानाम् ॥ तद्भ्रातर इह लोके समुपगतनृनन्मसार मणिराशौ । भवितव्य न द: प्रच्युतसारेः प्रमादवश गत्वात् ॥" जैनाचा उपर्युक्त छोकोद्वारा व्यक्त करते हैं कि "इन्द्रियोंको संतृप्त करनेवाले, सुन्दर यौवनभूपित शरीरवाले, उत्कट विभूतिके धारण करनेवाले और बड़ी २ भेटोके ग्रहण करनेवाले कितने २ राजा सारमें प्रसिद्ध नहीं हुए? ” "अनेकवार राज्यभोग किया, 1 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAA १२८ भगवान महावीर। अनेकवार सैकड़ों स्त्रियोंका भोग किया और श्रेष्ठ सम्पत्तिका भी खूब भोग किया, परन्तु खेद है कि विशुद्ध निजानन्द खरूप आत्माका स्मरण कमी नहीं किया जिसके कि स्मरणसे चैतन्यामृत समुद्रमें मग्न रहनेवाले पुरुषोंकि रागादिक शीव ही नष्ट होजाते हैं, और मुक्तिलक्ष्मी उनके आधीन होजाती है। इसलिए हे माई ! प्रमादके वशीभूत होकर मनुष्य जन्मरूपी सारभूत मणियोंकी राशिवाले संसारमें सारभागको छोड़कर दरिद्री नहीं बने रहना चाहिये।" -(वृन्दापनविलास पृ. १४५) क्षत्रचूड़ामणि जीवंधर ही धन्य थे कि उन्होंने अपनी आत्माका कल्याण किया था। जीवंघरखामी क्षत्रियोके चूड़ामणि अर्थात् वीर-शिरोमणि थे। इनके चरित्रको चित्रण करनेवाले ग्रन्थ नैनसमाजमें अनेक हैं। इनकी कथा बड़ी रोचक और चित्ताकर्षक है। क्या ही उत्तम हो कि इनके विषयमें ऐतिहासिक प्रकाश अपना विकाश प्रकटकरे ! जिसका प्रकट होना सुगम प्रतीत होता है क्योकि जीवधरखामीका ऐतिहासिक व्यक्ति होना विशेष युक्तिसंगत है। ____ भारतवर्षके सोनेकी खानियोकी शोभाको धारण करनेवाले हेमांगद नामक प्रदेशको राजधानी राजपुरी थी। सत्यंधर नामका राना राज्य करता था। राजा अपनी शीलवती विनया नामक रानीपर इतना आसक्त हो रहता था कि उसने अपने रामपाटया भारा मार एक कासांगार नामक रान-कर्मचारीक मूर्द कर दिया था। कुछ दिनो पश्चात विनया रानीक गर्भ रहा था। उस समय रानीको एक स्वम हुआ था जिनके पलको विचारकर गाने निलम लिया कि में मारा जागा इसलिए उसने अपनी बनाने Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --. .AAKAAR क्षत्रचूडामणि-जीवंधर। वंशकी रक्षाके विचारसे एके मयूरके आकारका यंत्र बनाया जो एक कलके घुमानेसे आकाशमें उड़ सका था। और उसमें बैठार कर रानी विजयाको आकाशमें उड़ानेका अभ्यास कराने लगा, कि जिससे समय आनेपर रानी अपनेको बचाकर वंशको नष्ट होनेसे बचासकेगी। इधर काष्टांगारको दुष्टता सूझी। उसे पराधीनतामें रहना. असह्य होगया, इसलिए आखिर उसने सत्यंघरको मारकर स्वयं राजा बन जानेका निश्रय कर लिया। तदनुसार उसने एक सेना राजाके मारनेको भेज दी। राजाने अपना अंत निकट आया समझ रानीको तो गयूरयंनमें बैठाल उड़ादिया, और आप सेनासे लड़तेर मृत्युको प्राप्त हुआ । यद्यपि अन्त समय उसका मन आत्मध्यानमें लीन था । वह मयूर यंत्र वाहर समगानने आकर गिरा, वहीं राजपुरीका प्रसिद्ध सेठ गन्धोत्कट अपने पुत्रकी दम्पक्रिया करने आया था। विनयारानीने वहीं पुत्र प्रसव किया और उसे वही छोड दिया। सेठको वह पुत्र दृष्टि पड़ गया। उसने उसको लेगाकर अपनी स्त्रीको दे दिया। स्त्रीने उसका पुत्रवत् पालन पोपण किया और उसका नाम जीवंधर रक्खा | रानीविजया दण्डकारण्यमें तपस्वियोंके एक आश्रममें चली गई। जीवंधरकुमार इन्हीं सेठके यहां रहने लगे और जमकर आप युवावस्थाको प्राप्त हुए । आर्यनन्दी नामके प्रसिद्ध आचार्य जीवंधरकुमारके गुरु हुए। और किसी विद्यालयमें शिक्षा पाकर वे बड़े भारी विद्वान होगये, उनका बल भी विशाल था यह उनके भीलोसे युद्ध करके नन्दगोप ग्वालेकी गऊओंको लादेनेसे विदित Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० , भगवान महावीर । है। पश्चात् आपका विवाह गान्धार देशकी राजकन्या गन्धर्वदत्तासे हुवा था। गन्धर्वदत्ताको आपने वीणा बजानेमें परास्त किया था क्योकि ज्योतिषियोंने पहिले ही कह दिया था कि गन्धर्वदत्ताका पति वह होगा जो इसे वीणावादनमें परास्त करेगा। . पश्चात् एक समय जीवंवरने एक कुत्तेको मरते समय बड़ी सान्त्वना देकर णमोकार मंत्र सुनाया, जिससे मरकर वह सुदर्शन नामक यक्ष हुआ। इस कुत्तेको ब्राह्मणोंने हविद्रव्य दृषित करने के कारण मारा था। — राजपुरीमें सुरमंजरी और गुणमाला दो कन्यायें थी । 'गुण- , माला जिस समय स्नान करके घर जारही थी, उस समय एक उन्मत्त हाथी छूटा हुआ था। वह कन्यापर झपटा ही था कि, कुमारने जाकर उसे मारकर अलगकर दिया। इस समय इन दोनोंकी चार आंखें होगई । गुणमाला कुमारपर मोहित होगई और अन्तमें उसके मातापिताओने बड़ी प्रसन्नतासे उसे कुमारके साथ व्याह दिया । और सुरमंजरीसे भी कुछ काल पश्चात् कुमारने विवाह कर लिया था। कुमारने गुणमालाको बचाते समय काष्टांगारके हाथीको कड़ा मारा था। इसलिये क्रोधित होकर उसने इन्हें पकड़ बुलवाया और मार डालनेका हुक्म दे दिया। कुछ समयमें लोगोंने समझा कि कुमार मार डाले गए, परन्तु यथार्थमें उन्हें सुदर्शन यक्ष उठा ले गया और चन्द्रोदय पर्वतपर उन्हें पहुंचा दिया। वहांते चलकर कुमारने एक स्थानमें हाथियोंगे दावानलसे जलते हुए बचाया और अनेक तीरोंकी वन्दना ही। आगे चंद्रमा नगरीके राना धनपतिकी पुत्री पनाको जिसे कि Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षणचूडामणि-जीवंधर। १३१ - सांपने काट खाया था, जीवदान दिया। इससे प्रसन्न होकर राजाने वह कन्या और अपना आधा राज्यकुमारको दे दिया। कुमार पद्माके साथ कुछ दिन सुख भोगकर वहांसे चले गए। और तापसोंको सच्चे धर्मका खरूप समझाते हुए दक्षिण देशक सहस्रकूट चैत्यालयमें पहुंचे। उस चैत्यालयके किवाड़ खोलकर दर्शन किए । यह देखकर एक आदमी इन्हें प्रार्थना करके सुभद्र नामक सेठके यहां क्षेमपुरी लिवा ले गया। सेठने अपनी क्षेमश्री कन्या इनको प्रदान की, क्योंकि ज्योतिषियोने इनके विषयमें पहिलेसे कहा था। एक दिन जीवंधरस्वामी किसीसे विना कुछ कहे सुने क्षेमपुरीसे चलदिए। उनके पास जो बहुतसे वस्त्र आमूषण थे उन्हें उन्होने किसी पात्रको दे देना चाहा, परन्तु जब कोई पात्र नहीं मिला, तब रास्तेमें एक शूद्र पुरुषको पाकर उन्होंने उसे सुखका, संसारका और सागार, अनागारधर्मका स्वरूप समझाया, जिसे सुनकर वह पुरुष प्रतिबुद्ध होगया और उसने उसी समय गृहस्थधर्म स्वीकार कर लिया। इस तरह जब वह श्रावक होकर पात्र होगया, तब कुमारने उसे अपने बहुमूल्य वस्त्राभूषण उतारकर दानकर दिए। ___ वहांसे चलकर आप हेमामा नगरीमें पहुंचे। वहांके राजा इदमित्रने इन्हें अपनी कनकमाला नामक सुन्दर कन्या व्याह दी, क्योंकि कुमारने उसके पुत्रोको धनुष-विद्यामें निपुण बना दिया था। यहां पर इनको गन्धोत्कट सेठके पुत्र नन्दाब्य और पद्मास्य मित्रोंसे भेट हुई। उनके कहने पर आप अपनी माता विजयासे मिलकर राजपुरीमें पहुंचे, वहां सागरदत्त सेठने अपनी कन्या विमला इनको व्याह दी। उसने कहा कि “आज मेरी दुकानके Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M भगवान महावीर। नहीं बिकनेवाले भी रत्न विक गए हैं, और निमित्त-ज्ञानियोंने कहा था कि जिस पुरुषके आनेसे यह रत्न ,विक्रय होगा, वही विमलाका पति होगा, अतएव स्वीकार कीजिए। .. तदनन्तर जीवंधरखामी गन्धोत्कट सेठसे सम्मति लेकर अपने मामा गोविन्दराजके यहां धरणीतिलकानगरीको गए, और उनसे परामर्श करके उनके साथ काष्टांगारके निमंत्रण मिलने पर ससेना राजपुरीमें आए। फिर गोविन्दराजने वहां अपनी पुत्री लक्ष्मणाका स्वयंवर रचा और प्रगट किया कि चंद्रक यंत्रके तीन वराहोंको जो छेदेगा, उसे अपनी कन्या व्याह दूंगा। सर्व राजागण इसमें विफल हुए। जीवंधरने वातकी वातमें उन वराहोको छेद दिया। इसी समय गोविदराजले सब राजाओंपर प्रकट कर दिया कि यह सत्यंधर महाराजका पुत्र जीवंधर है। अब काष्टांगार बहुत घबराया और युद्धपर उतारू हुआ, परन्तु आखिर वह पापी जीवंधरके हाथसे मारा गया। - इसके पश्चात् गोविन्दराजने नीवंधर कुंमारका बड़े भारी उत्साहसे राज्याभिषेक किया और जीवंधर महाराज अपना कुल परम्परागत राज्य करने लगे। फिर अपनी पद्मा आदि सब रानियोंको बुलाकर उसने उनके व्याकुल हृदयको शांत किया, और मामा गोविन्दराजकी पुत्री लक्ष्मणासे पाणिग्रहण किया । * इस नगरीको प्रचूड़ामणि काव्यमे जिसके अनुसार यह क्या लिखी गई है, 'विष्हदेशकी घरणीतिलका नाम राजधानी' और गोविन्दराजको विहे देशमा राजा लिखा है, परन्तु दुनी और विदेडकी राजधानी मिथिला कही गई है। इससे सम्मश्वा यही व्यक होता है कि वह दो हिमानों शिमक था। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANAL क्षाचूडामणि-जीवंधर। महाराज नीवंधर सब प्रकारके सुखोंसे संपन्न हो राज्यकर रहे थे। उसी समय एक दिन उनकी माता विनयाको वैराग्य हो गया और उन्होंने संसारको अनित्य समझकर पद्मा नामकी आर्यिकाके पास दीक्षा लेली। जीवंधरस्वामी वसन्तऋतुमें अपनी आठों स्त्रियोंके साथ जलक्रीड़ा कर रहे थे कि सहसा आपको वैराग्य हो गया। आपने उसी समय बारह भावनाओंका चिन्तवन किया और अपने पुत्र सत्यंधरको राज्य देकर, महावीर भगवानके समवशरणमें ना पहुंचे और वहां दिगम्बरी दीक्षा लेकर वे महान तप करने लगे। अंतमें जीवंधरस्वामी महामुनि आठों कर्मोका नाशकरके अविनाशी मोक्ष सुखके स्वामी हुए। ___इस प्रकार जीवंधरस्वामीकी कथा है। इसके वर्णनसे हमारे पहिलेके कथन 'कि महावीर खामीके समयमें समाजके जातीयबंधन आजकलकी तरह कठोर नहीं थे, और उस समयके विवाह क्षेत्रमें भी बहुत स्वतंत्रता थी' की पुष्टि होती है। और हम देखते हैं कि धार्मिक उदारता इतनी बढ़ी हुई थी कि एक शूद्र मी शुद्ध किया जाकर गृहस्थधमेका पालन करनेवाला श्रावक बनाया जा सक्का था। साथमें बहुविवाहका प्रचार होना भी प्रतीत होता है और निमित्तज्ञानके प्रचार एवं ज्योतिषशास्त्रमे बढ़ विश्वास होना भी प्रगट होता है। इनका प्रचार महावीरस्वामीके पहिलेसे जनसाधारणमें प्रचलित था। यह बात आजीवक सम्प्रदायक संस्थापक मक्खाली गोशालके वर्णनसे पाठकोंको और भी अच्छी तरह प्रकट होजायगी। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। MMM (२६) . जैन सम्राटू श्रेणिक विम्बसार • और चेटक। , 'विपुलाचल पर जिनवर आये, सुनत श्रवण नृप श्रेणिक धाये । समवसरन सुरधनद बनाये, जासु रुचिरता त्रिभुवन छाये ॥ द्वादश सभा जहाँ दरसाये, तामधि आप जिनेश सुहाये । नाति विरोध त्याग पशु आये, जिनपद सेवत प्रीति बढ़ाये ॥ गौतम गणधर अस्थ सुनाये, धर्म श्रवणकरि पाप नसाये।। श्रेणिक सोलह भावन भाये, प्रकृति तीर्थकर बंध कराये ॥" . - जैन कवि देवीदास । प्राचीन भारतवर्षके आधुनिक इतिहासमें जैन सम्राट् श्रेणिक बिम्बसारसे ही ऐतिहासिक रीत्या क्रमवार भारतीय सत्तासम्पन्न शासकोंका वर्णन प्रारम्भ होता है। हम पहिले लिख चुके हैं कि सम्राट् श्रेणिक महावीर भगवानके शिष्य थे, इसलिए उनके समकालीन होनेके कारण आपका समय जो ईसासे पूर्व ६४३ से ४९१ का माना गया है वह ठीक बैठता है। इनके राजत्वकालमें इन्होने रानगृह नामक अपनी राजधानीको फिरसे निर्माण किया • था और अपने वंशपरम्परागत प्राप्त राज्यकी वृद्धि भी की थी। (See Oxford History of India by V. Smith P. 56.) सम्राट् श्रेणिक विम्बसार अपने प्रारंभिक जीवनमें बल्कि । युवावस्थाके वादतक बौद्ध धर्मावलंबी रहे थे यह नियोंके शास्त्र Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक और चेटक। खयं व्यक्त करते हैं परन्तु अवशेष जीवनमें आपने जैन धर्म अपनी रानी चेलनाके प्रयत्नसे ग्रहण किया था। यही कारण प्रतीत होता है कि बौद्ध शास्त्रोंमे इनके अन्तिम जीवनकालका कोई निश्चित वर्णन नहीं है जिसका न होना ठीक भी है, क्योंकि जब महाराज श्रेणिक जैन होगए थे तब मला प्रतिपक्षी धर्मकी विजयका हाल बौद्ध लोग कैसे लिखते और यही कारण है कि बौद्धोंने उनके पुत्र कुणिकको, जो अपने पिताकी भांति अपने प्रारंभिक जीवन में जैनधर्मका श्रद्धालु था, 'सर्व दुष्कृत्योंका समर्थक और पोपक' लिखा है । इससे हमारा श्रणिक महाराजको अन्तमें जैनधर्मानुयायी लिखना उपयुक्त प्रतीत होता है। सन १९२१ की अप्रेल मासकी 'सरस्वती' के प्रष्ट २३३ से २३७में प्राचीन जैन सम्राट् खारवेलका वर्णन खंडगिरी उदयगिरि पर्वतकी हाथी गुफावाले शिलालेखके आधारपर दिया हुआ है, उससे भी विदित होता है कि श्री श्रेणिक महाराज अर्थात् विम्बसार और अमात- . शत्रु अर्थात् कुणिक प्रसिद्ध जैन राजा श्री महावीर खामीके समयमें हो गए हैं । अस्तु, नैन शास्त्रोंका श्रेणिक और कुणिकको जैन धर्मानुयायी लिखना यथार्थ है। जैनशास्त्रोंमें श्रेणिकके विषयमें निम्न प्रकार वर्णन है और इनकी मान्यता जैनसमाजमें इतनी है कि वे मानते हैं कियदि महाराज श्रणिक महावीर भगवानके समवशरणमें नही होते और भगवानसे ६०००० प्रश्न न करते तो आज जैनधर्मका नाम भी न सुनाई पड़ता! परन्तु अभाग्यवश इन इतने प्रश्नोंमेसे आज हमें अति अल्पसंख्यक प्रश्नोंका उत्तर मिलता है। अव Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। सव कालकी चाल और विधर्मियोंकी उपासे अंधकारके गर्तमें पहुंच चुके हैं। जनशास्त्रोंमें महाराज श्रेणिकके पिताका नाम उपश्रेणिक लिखा है । वे राजगृहमें रहकर मगधपर राज्य करते थे। यह बड़े धर्मवीर और शूरवीर थे। और इन्होंने अपने इर्दगिर्दके राज्यों पर विजय प्राप्त कर ली थी। चन्द्रपुरका राजा सोमशर्ना अपने पराकरके अगाडी सवको तुच्छ गिनता था परन्तु महारान उप श्रेणिकने इसे परास्त किया था। यद्यपि अन्तमें उसका राज्य असीको दे दिया था। इसी शूरवीरताके कारण संभव है कि हिन्दूओं के विष्णुपुराणों शिशुनाग वंशके चौथे राजाका नाम अत्रौजस लिखा है, जन कि श्रेणिक उसी वंशके पांचवे राना है। इस प्रकार क्षत्रौजस जैनगालोके उप-श्रेणिक ही प्रतीत होते हैं। महारान उप-श्रेणिककी रानी इन्द्राणीके गर्भसे महाराज श्रे'णिकका जन्म हुआ था। इन " कुमार श्रेणियमे सर्वोत्तम गुण थे, रुप शुभ था और अतिशय निर्मल था । वह अत्यंत भाग्यवान और लक्ष्मीवान थे।" क्रमशः कुमार श्रेणिक पढ़ने लगे और वे अपने वाल्यकालसे ही दुद्धिी चतुराईके कारण सननोको मान्य होगये। "इन्होने बिना परिश्रमके शीघ्र ही शालरूपी समुद्रको पार कर लिया था और क्षत्रिय धर्मकी प्रधानताके कारण अनेक प्रकारकी शस्त्रविगएँ भी सीख ली थी। इस प्रकार यौवनावस्थाको प्राप्त अत्यन्त बलवान श्रेमिकलपनी सुन्दरता आदि मंझनसे संपन्नये।" । एक समय महाराज उपश्रेणिक एक नए घोड़की परीक्षार , रहे थे कि वह घोड़ा उनको एक अज्ञात स्थान ले भागा और । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक और चेटक | १३७ उन्हें एकं गहनवनमें जा पटेका। वहां पर भीलोंके अधिपति यमदंडने इनको अपने यहां रक्खा । यह क्षत्रिय राजा राज्यसे भ्रष्ट हो यहां रहता था । महाराज उपश्रेणिक इसकी सुन्दर कन्या तिलकवतीके रूपलावण्य पर गुग्ध हो उससे उसकी याचना करने लगे। उसने इस शर्तपर वह कन्या इनको देदी कि उसका ही पुत्र राज्याधिकारी होगा । तदनुसार तिलकवतीके पुत्रं चलाती नामक हुआ था और उसीको राज्याधिकार मिला था । कुमार श्रेणिकको कुछ दोष लगाकर देशनिकालेका कठोर दण्ड मिला था और मंत्री आदिके कहनेसे उन्होंने पितृ आज्ञाका उल्लंघन नहीं किया था। ऐसा ही उल्लेख सर रमेशचंद्रदत्तने अपने 'भारतवर्षकी सभ्यताके इतिहास' में दृष्ट २१ पर किया है कि “.. मगधके एक राजकुमार ... को .. ईसाके पहिले पांचवीं • शताब्दिमें उसके पिताने....... देशसे निकाल दिया था । " संभव है कि यही राजकुमार कुमार श्रेणिक हों। जो हो, राजगृहसे निकलकर वे नंदिग्राम पहुंचे, परन्तु वहांके ब्राह्मणोंने इनको आश्रय नही दिया । इस लिए वह अगाडी चलकर वौद्ध सन्यासियोके आश्रम में गए, और वहां उनका आतिथ्य स्वीकार किया । बौद्धाचार्यके मीठे चचनोंके प्रभावसे कुमार श्रेणिकने बौद्धधर्म स्वीकार किया । और बौद्धधर्मके पक्के अनुयायी हो गए । वे कुछ दिन पर्यंत वही पर रहे । । पश्चात् बौद्धाश्रमसे इन्द्रदत्त सेठीके साथ२ अन्यत्रको चल दिए । और इन्द्रदत्त सेठिके नगर वेणपद्ममें पहुंच गए। श्रेष्ठि इन्द्रदत्तके एक युवती कन्या नंदश्री नामकी सर्वगुण सम्पन्न थी, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ भगवान महावीर | वह महाराज श्रेणिक्के गुणोकी श्रेष्ठताके कारण उनपर आसक होगई । और सेठि इन्द्रदत्तने उसका पाणिग्रहण कुमार श्रेणिकके साथ कर दिया | कुमार आनंदसे रहने लगे I , इधर महाराज उपश्रेणिकका देहांत होगया और चलाती प्रजापर बडा अन्याय करने लगा, जिसके कारण प्रजाने दुखी हो कुमार श्रेणिकको बुला भेजा । कुमारका आगमन सुन चलाती भयभीत हो गया । श्रेणिक राज्याधिकारी हुए और शत्रुओंसे रहित होकर नीतिपूर्वक प्रजाका पालन करने लगे । “उनके राज्य करते समय न तो राज्यमें किसी प्रकारकी अनीति थी और न किसी प्रकारका भय ही था किन्तु प्रजा अच्छी तरह सुखानुभव करती थी । पहिले महाराज बौद्धधर्मके सच्चे भक्त होचुके थे, इसलिए वे उससमय भी बुद्धदेवका वरावर ध्यान करते रहते थे ।" उपरान्त जम्बूदीपकी दक्षिण दिशामें अवस्थित केरलानगरीके अधिपति राजा मृगाइने अपनी यौवनावस्थापन विलासवती पुत्री महाराज श्रेणिकके भेंट भेजी, क्योकि उनको मालूम हो गया था कि इसका वर श्रेणिक होगा। इनका ही उल्लेख संभवतः बौद्धोंके तिव्वतीय दुल्वमे वासवीके नामसे है । और उनके गर्मसे कुणिक अजातशत्रुका होना लिखा है जो स्वयं उनके पाली ग्रन्थोंक वर्णनमें ढूंढनेसे नहीं मिलता है । (See The Kshatriy Clans in Buddhist India P. 125.) बात यह है कि यहांपर बौद्धांने अजातशत्रु (कुणिक) को यथार्थमें महाराज चेटककी पुत्री चेलनासे उत्पन्न न बताकर वासवीसे, जो कि उपर्युक्त विलासवती ही प्रतीत होती है, इसीसे बताया है कि कुणिक प्रारंभ में जैनधर्मका पक्षपाती Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwwwwwwwww श्रेणिक और चेटक। १३९ था । और इसीलिए उक्त बौद्ध ग्रन्थमें वासवीको एक साधारण लिच्छावी नायककी पुत्री लिखा है। जब कि लिच्छावी जातिकी कन्या चेटकराजाकी पुत्री और राजा श्रेणिककी रानी चेलना ही है, जिनका वर्णन अगाड़ी है। बौद्ध ग्रन्थों में महाराज श्रेणिककी एक अन्य रानी कौशलके नृपतिकी भगिनी बताई गई हैं, इनका उल्लेख जैनशास्त्रोमें नहीं है। संभवतः यही रानी खेमा होंगी, जो बौद्ध El it ! (Soe Gotama Buddba by K. J, Saunders P. 53) ____ महाराज श्रेणिकके राज्य प्राप्त करनेके पहिले नन्दश्रीके गर्भसे पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ था, जिसका नाम उन्होने अभयकुमार रक्खा था और नन्दश्रीके पास छोड़ आए थे। इनका वर्णन हम अगाड़ी करेंगे। राज्यसत्तासम्पन्न हो महाराज श्रेणिकको नंदिग्रामके विप्रोकी याद आई और उन्होने उनको दण्ड देना चाहा । अस्तु, अपराध लगानेके लिए उन्होने उनको दुष्कर कार्य करनेको बताए, परन्तु राजकुमार अभयकी सहायतासे वे उन्हें पूर्ण कर सके। जिससे विस्मित हो महाराज श्रेणिककी अभयकुमारसे भेट हुई और उन्होंने नन्दश्रीको बुला भेना । और उसे महादेवी बनाया | अभयकुमार युवराज हुए। अथानन्तर विदेह देशकी वैशाली नगरीके अधिपति चेटकके सात कन्यायें थीं। इनमें प्रथम प्रियकारिणीका विवाह कुंडलपुरके खामी महाराज सिद्धार्थके साथ हुआ था, यह हम पहिले देख आए हैं। द्वितीय कन्या वत्सदेगमें कौशांबीपुरीके खामी महाराज नाथ अथवा सारको विवाही गई थी। तथा तृतीय कन्या जो कि वसु Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० भगवान महावीर । www MA प्रभा थी, उसका विवाह राजा चेटकने दर्शाण (दशासन) देशमें हेर• कच्छपुर (कमैठपुर ) के खामी सूर्यवंशीय राजा दशरथसे किया था । एवं चतुर्थ कन्या, प्रभावतीका विवाह कच्छदेशके रोरुकपुरके खामी महातुरके साथ हो गया था । उत्तरपुराणमें कच्छदेशके स्वामी उद्दायन लिखे हैं और श्रेणिकचरित्र में महातुर वहांके राजा बतलाए गए हैं। इवर डॉ० डी० आर० भाण्डारकर दो मुख्य ग्रंथ - स्वप्नवासवदत्त और प्रतिज्ञा यौगन्धरायणले प्रगट करते हैं कि "शतनीकके पुत्र और सहश्रेणिकके पौत्र उद्दायन भारतवंशमें हुए प्रतीत होते हैं । और वह 'विदेहपुत्र' अपनी माताके कारण कहलाते थे, जो कि विदेहके राजाकी पुत्री थीं ।" और हमें ज्ञात है कि शतनीक कौशाम्बीके नृपति थे, परन्तु श्रेणिकचरित्र और उत्तरपुरांणमें वहांके राजाका नाम क्रमसे नाथ और सार लिखा है। इसलिए यह - सम्भव हो सक्ता है कि कौशाम्बीके नृपतिका तीसरा नाम अथवा यथार्थ नाम शतनीकथा। जिनके कि पुत्र उद्दायन विदेहपुत्र कहलाते थे । और यदि डा० भाण्डारकर के सह- श्रेणिक एवं श्रेणिकचरित्रके उपश्रेणिक एक व्यक्ति हैं, तो उद्दायन सम्राट् श्रेणिकके पिता उपश्रेणिकके पौत्र हो सके है, क्योंकि नृप श्रेणिककी रानी चेलना इनकी माताकी बहिन थी । इस तरह श्रेणिकचरित्रमे रोल्कपुरके स्वामी महातुर लिखना ठीक प्रतीत होता है। और उद्दायन कौशाम्बीके राजकुमार थे ऐसा ज्ञात होता है । अब कौशाम्बी और कच्छदेशंका सम्बन्ध प्रगट करना अवशेष रहजाता है। हमारे विचारसे इसमें किसी प्रकारका भ्रम होना संभव है 'है, क्योकि राजा चेटककी राजधानी विशाला (वैशाली) को श्रेणिक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक और चेटक। १४१ चरित्र में कच्छदेगमें होना लिखा है जब कि विशाला अथवा वैशाली विदेहमें थी, जैसा हम देख चुके है। अतः यह संभव होना प्रगट होता है कि जैनाचार्योंने उस देशको कच्छदेशके नामसे लिखा था जिसमें कि विशाला, कौशाम्बी और रोकपुर अवस्थित थे ! फलतः नृप उद्दायन कौशाम्बीके नृपति शतगीकके पुत्र रानी मृगावतीसे थे, जो राजा चेटकके घेवते थे और राजा उपश्रेणिकके नाती थे। शायद यही नृपउदायन अपने सम्यक्त के कारण जैनसमाजमे विख्यात हैं। और महातुर कच्छदेशके रोरुकपुरके खामी प्रभावतीके पति थे। महाराज चेटककी अवशेष तीन कन्याएं अभी कुमारी ही थी! इनमेसे एककी याचना गांवारदेशके महापुरके राजा महिपालके पुत्र सात्यकीने की थी। सभवतः वौद्धोके जातक कथानकके गांधारदेशके राना बोधिसत्त ही यह सात्यकी हैं। वोधि शब्द सत्तके साथ बौद्ध लेखकोंने व्यवहृत किया होगा । उस कथानकमे इन्ही बोधिसत्तको पंचव्रत (अणुव्रत-lonal Precepts) धारण करते लिखा है। और सन्यास लेना भी लिखा है। (Sea The Kshatriya Clans in Bur'dhist India P. 153) इससे सात्यकी और बोधिसत्तका एक व्यक्ति होना प्रतीत होता है। अस्तु, इन सात्यकीकी याचनाको राजा चेटकने स्वीकार नहीं किया, जिसके कारण वह दीक्षा ले गया। ___ पश्चात् कवि खुशालचन्दछत पूर्वोल्लिखित उत्तरपुराणकी छन्दोबद्ध हिन्दी आवृत्तिमे यह उल्लेख है कि राजा चेटक मगधपर आक्रमणकर राजगृहके निकट ठहरा हुआ था। वहांपर इनको इनकी पुत्रियोंका चित्रपट किसी चित्रकारने दिया था। इस लड़ाईका Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। उच्छख डॉ० माण्डारकर मी करते हैं और कहते है कि राजा श्रेणिकका पाणिग्रहण वैदेही (चेलना) के साथ इस युद्धके आपसी निवटेरेके उपरान्त हुआ था। और उत्तरपुराणके वर्णनसे भी श्रेणिकचरित्रकी निम्नघटनाके सदृश ही है, यही प्रगट होता है कि इस युद्धके पश्चात राजा श्रेणिकका विवाह चेलनाके साथ हुआ था। राजाचेटकका एक अन्य युद्ध अंगदेशके राजा कुणिकके साथ भी हुवा था। इसी संबंधमें श्रेणिकचरित्रमें वर्णन है कि चित्रकारने वही पट ले जाकर महाराज श्रेणिकको दिया और इसका सर्व वृतान्त बताया। और यह भी जतलाया कि महाराज चेटक अपनो पुत्रियोंको सिवाय जैनीके और किसीको नहीं देते हैं। अणिक उन पर आसक्त हो गए थे। कुमार अभय वैशालीसे उन कन्यायोंको छलसे लेने गए और वहां पर अपनेको नैनी प्रगट करते हुए उन पुत्रियोंको राजा श्रेणिककी ओर विशेष उपायोंसे आकर्षित करने लगे और अन्तमें वे सब उनके साथ चलनेको राजी होगई। परन्तु दोतो पिताके भयसे लौट गई । केवल चेलना रह गई । सो भी अकेली जानेको तैयार न थी। परन्तु अभयकुमार उसे लिचा लाए। और रानगृहमें आकर उसका पाणिगृहण श्रेणिकसे कराया, परन्तु जब उसे यह ज्ञात हुआ कि श्रेणिक बौद्ध धर्मानुयायी है तो उसे अति दुःख हुआ। और वह मलिनचित्त रहने लगी। श्रेणिकने इसन्न कारण पूछा तब उसने कह दिया कि यह राजनी भोगोपभोगकी सामग्री जिस कामक्री, जय प्राणोको हितवर्धक प्यारे सत्यधर्मका पालन ही न होसके । इस पर श्रेणिकने उनको अपने गुरुओंगी विनय आदि करनेकी आज्ञा दे दी थी। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक और चेटक। १५३ बौद्धग्रन्थोमें चेलनाका उल्लेख है। श्वेताम्बर सम्प्रदायके प्रख्यात् ग्रन्थ निर्यावली सूत्रमें भी चेलनाको वैशालीके राजाओंमें एक राना चेटककी पुत्री लिखा है, जिनकी कि वहिन क्षत्राणी रानी त्रिशला महावीर स्वामीकी माता थी। वुद्धके एक तिब्बतीय जीवनचरित्रमें चेलनाका नाम श्रीभद्रा और कहीं २ मदा लिखा है। संभवतः राजा श्रेणिककी पहिली रानी नन्दश्रीकी अपेक्षा ऐसा लिखा होगा। वैसे साधारण रीत्या बौद्ध ग्रन्थोंमें चेलनाका उल्लेख वैदेहीके नामसे आया है और उसके पुत्र कुणिक अजातशत्रुका नाम विदेह पुत्तोंके नामसे व्यवहृत हुआ है । बौद्धग्रंथ दिव्यावदानके एक अवदानमें अजातशत्रुको वैदेही पुत्र करके लिखा है। और उसी ग्रन्थमें अन्यत्र वर्णन है कि " रानगृहमें राजा विम्बसार राज्य करता है । वैदेही उसकी महादेवी (पटरानी) है और अजातशत्रु उसका पुत्र एवं युवराज है । " (See The Kshatriya Clans in Buddhist India P. 125.) इससे प्रकट है कि अजातशत्रुका जन्म वैदेही (चेलना) राजा चेटककी पुत्रीके गर्भसे हुआ था। जैन धर्म और बौद्धधर्मकी आपसी प्रतिस्टद्धाके कारण हम देख चुके हैं कि उन्होने कही २ पर इनके विषयमें-भ्रमात्मक वात लिख दी है जो कि खयं उनके पाली ग्रन्योमें नहीं है। हम कह चुके हैं कि राजा श्रेणिकने अपनी चेलना रानीको अपने निर्ग्रन्थ गुरुओकी विनय पूजा और जैनधर्मका पालन करनेकी आज्ञा दे दी थी। इसके अगाडी श्रेणिकचरित्रमें वर्णन है कि इस वातको सुनकर बौद्धगुरु राजा श्रेणिकके पास आए थे, और रानी Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। चेलनाको बौद्धधर्म स्वीकार कराने के प्रयत्नमे लगे थे । उन्होंने अपनेको सर्वज्ञ बतलाया था। चेलनाने उनकी परीक्षा ली थी जिसमे वह अनुत्तीर्ण हुए थे। और इस परीक्षाके सत्यसे उनकी अवज्ञा भी हुई थी, जिसके कारण जैन गुरुओके प्रति श्रेणिक महाराजके हृदयमें द्वेष धधकने लगा था। महाराज श्रेणिक एक दिवस आखेटको गए थे कि उन्होंने मार्गमें एक दिगम्बर मुनिको ध्यानारूढ़ देखा । देखते ही अपने गुरुकी अवज्ञाका बदला चुकानेके लिए महाराज श्रेणिकने उनके गलेमें एक मरा हुआ साप डाल दिया और वापिस राजगृहको लौटे। उधर दिगम्बर मुनिने अपनेपर उपसर्ग जाया जान अपनी ध्यानमुद्रा और भी चढ़ादी और नित्य अनित्यादि बारह भावनाओंका स्मरण करने लगे। बौद्ध गुरुओको यह सब हाल राजा श्रेणिकने कह सुनाया जिससे वे अतिप्रसन्न हुए परन्तु यह सुनकर रानी चेलनाचे बहुत दु.ख हुआ। और उसके नेत्रोंसे अखिल अनुधारा वह निकली । राजा श्रेणिकसे अपने प्रियाका रोदन नहीं देखा गया। वह उसे सांत्वना देने लगे और कहने लगे कि " प्रिये ! तू इस वातके लिये जरा भी शोक न कर, वह मुनि गलेसे सपे फेंक कत्रका वहाँसे चल वसा होगा ।" महाराजळे ये वचन सुन रानीने कहा कि नाथ ! आपका यह कपन भ्रममात्र है। मेरा विश्वास है, यदि वे मेरे सच्चे गुरु हैं तो कदापि उन्होंने अपने गलेले सर्प न निशला , होगा। इस पर महाराज श्रेणिज्ने रानी समेत उसी स्थानको प्रत्यांन किया जहां पर वह मुनिशे छोड़ गया था। यहां पहुँचन्द Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M ' अणिक और चेटक। १४५ उसके विस्मयका, मारावार न रहा, उसने देखा कि वह अविचल ध्यानी मुनि अपने ध्यानसे जरा भी चल नहीं हुए हैं, और वह । मृत सर्म उनके गलेमें पड़ा हुआ है। यद्यपि उसमें अब कीड़ियां लग गई हैं। मुनिराज मला चल कैसे, होसक्के थे, क्योंकि नियम - है कि जबतक उपसर्ग रहे तबतक मुनिको ध्यानारूढ़ रह बारहमावनाओंका चिन्तवन करना चाहिये। सजा और रानीने समान भावसे: मुनिको नमस्कार, किया, क्योंकि रानाके हृदयपर इस दृश्यका बड़ा प्रभाव पड़ा था। और उनके गलेसे सर्प अलहदा कर दिया और मुनिरानके शरीरके तापको दूर करनेके लिए चन्दनसे उनका अभिषेक किया !, मुनिरानने समयानुसार मौनवृत त्यागकर रानारानीको समान भावसे धर्मवृद्धि दी जिससे श्रेणिकका हृदय परम शांतिका अनुभव करने लगा और वे अवाक रह गए। उनको मुनिमहाराजके शत्रु मित्रसे समान वर्तावके कारण उनपर बड़ी भक्ति होगई । मुनिराजने धर्मवृद्धि दे उनसे कहा कि: "विनीत मगवेश ! संसारमें यदि जीवोंका परम मित्र है तो धर्म ही है। इस धर्मकी कपासे जीवोंको अनेक, प्रकारके ऐश्वर्य मिलते हैं, उत्तम कुलमें जन्म मिलता है और संसारका नाश भी धर्मफी ही कपासे होता है इसलिए उत्तम पुरुषोको चाहिए ' कि वे सदा उत्तम धर्मकी आराधना करें।" राना श्रेणिकका हृदय धर्मरससे भीन रहा था। उन्होंने उन परमज्ञानी मुनिके निकट अपने पूर्वभव सुने । मुनिसे आपको .. मालूम हो गया कि पूर्वभवमें वे सूर्यपुरके खामी सुमित्र थे। इनके Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १४६ भगवान महावीर मत्रीका पुत्र सुषेण मुनि होगया था। सुषेणको प्रीतिवश आहार देनेके लिए इन्होंने अपने पुरवासियोंको उन्हें आहार देनेकी मनाई . कर दी थी, परन्तु देवयोगसे इधर आप भी अन्य कार्योंमें व्यस्त होगये थे जिससे वह मुनि निराहार कई दफे लौट गये थे। अंतिम चार जब वह लौटे जारहे थे तब उनके कानमें लोगोके वचन पड़े कि "रांना न स्वयं आहार देता है और न हमें देने देता है।" यह सुनते ही मुनि ईर्यापथसे विचलित होगये और क्रोधके मारे उनका सारा शरीर धधकने लगा और पत्थरसे ठुकराकर एकदम गिरगए जिससे तत्काल ही उनके प्राणपखेरू उड़ गए । खोटे निदा. नसे मुनि सुषेण व्यंतर हुए थे। सुमित्र भी अन्तमें तापस होगया था और मरकर देव हुआ था। यही देव खर्गसे आकर राजा श्रेणिक हुआ और यह व्यंतर रानी चेलनाके गर्भसे कुणिक नामक पुत्र हुआ, जो पूर्वमवके वेरके कारण सदेव श्रेणिकका शत्रु रहा था। ' मुनिरानके पाससे धर्मश्रवण करनेसे राजा श्रेणिकको जनधर्ममे कुछ प्रीति होगई थी, परन्तु बौद्धाचार्याक समानेपर उन्हें पुनः जैनगुरुओमें अश्रद्धान होगया था। उनके मनमें फिरने जैनधर्म एवं जैनमुनियोंकी परीक्षाका विचार आकर सामने दुगने लगा था। तदनुसार महारानने जनमुनियोंकी परीक्षा ली थी, जिसमें महारानके हृदयमें पुनः जनधर्मक प्रति सन्नाव होगय थे। अन्तनः जब भगवान महावीरस्वामी समस्कारण गनगरक निकट विपुलावन पर्वतपर आया था नाम महाराज श्रेभिक मावादके समकारणने गए थे, जैसा कि उपयुक पविताने मोहरू प्रारंभ की हुई है. विदित होता है। माया मान Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक और चेटक। १४७ भगवानकी बन्दना पूजा की थी और जैनधर्मका खरूप समझा था । जिससे आपको जैनधर्ममें पूर्ण श्रद्धा होगई थी और आपको क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई थी। । । ____एक दिवस राजा श्रेणिकने गौतमगणधरसे अपनीबुद्धि व्रतोंकी ओर नहीं झुकनेका कारण पूछा जिसके उत्तरमें गणधरने महाराजको बतला दिया कि मुनिराजके गलेमें सांप डालनेसे वह नर्क आयुका बंघ बांध चुके हैं, इस कारण नियमसे उनकी बुद्धि व्रतोंकी ओर नहीं झुकती । यद्यपि उन्होंने राजा श्रेणिकको भव्य और उत्तम बताया और यह भी जतला दिया कि क्षायिक सम्यक्त्वके प्रमावसे राजा श्रेणिक आगामी उत्सर्पिणी कालमें इसी भरतक्षेत्रमें पद्मनाम नामके प्रथम तीर्थकर होंगे, क्योंकि उन्होंने अंतमें सोलहभावना भानेसे तीर्थङ्कर पदका बंध बांध लिया था। । अन्तमें महाराज श्रेणिक परमोच्च श्रावक होगये थे और वै धर्मकी प्रभावनामें निशिदिन तल्लीन रहते थे। हमे मालूम है कि श्री सम्मेदशिखर पर तीर्थकर भगवानके मोक्ष स्थानोंपर आप ही ने टोंके (Shrines) बनवाई थीं, जैसे कि मि० टी० डी० बनर्जी, सव-जन, पटना हाईकोर्ट ने अपने शिखरजीके मुकद्दमेके फैसलेमें लिखा है: "The Hindu Traveller's account published in Asiatic Society's Journal for January 1824 reveals the fact, how Raja Sarenik of Magadha, contenporary of Mahaveer Snawi, bad discoYered the places of the Tirthancars and established Charan there." Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८, भावान महावीर । mei n . अर्थात् जनवरी, १८२४ के एसियाटिक सोसाइटीके पत्रमें: जो-हिन्दू यात्रीने हाल प्रगट किया है उससे प्रगट है. कि श्री महावीर खामीके समकालीन मगधदेशके राजा श्रेणिकने तीर्थकरों के मोक्ष स्थानोंकी खोज़ की और वहाँ चरण स्थापित किए। . महाराज श्रेणिक आनन्दसे जिन भगवानके धर्मका पालन करते हुए-दिन व्यतीत कर रहे थे, कि आपके कुणिक नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था जिसके गर्म और जन्मसे ही ऐसे लक्षण हुए थे, जिससे प्रगट होगया कि, वह अवश्य ही महाराज श्रेणिकका शत्रु है । कुणिकका जन्म महाराज श्रेणिकके जैन मुनियोंकी परीक्षा लेने.वाद और भगवान के समवशरणमें आनेके पहिले होचुका था। रानी चेलनाने अपने पतिका इसे शत्रु नान इसे अन्यत्र भेज दिया था, परन्तु राजाने अपने पुत्र-मोहसे उसे मंगवा लिया था। रानफुमार कुणिक दिन प्रतिदिन बढ़तेर यौवनावस्थाको प्राप्त हो गए थे।. महारानी-चेलनासे कुणिकके अतिरिक्त वारिपेण, हल्ल, विदल, नितशत्रु और गजकुमार यह पुत्र और हुए थे। , युवराज कुमार अभय मी पिताके साथ भगवान महावीरके समवशरणमें गए थे और धर्मोपदेश सुना था, इसलिए उन्हें संसारसे वैराग्य होगया था और वे मुनि होगए थे। उनके पश्चात् कुणिकको युवराज पद मिल था। अनन्तर "किसी सनय धर्मसेवनार्य, चिताबिनाशार्थ और मुखपूर्वक स्थितिके लिए पूर्वनन्नके मोहसे महारानने समस्त भूपोंको इकट्ठा क्रिया और उनकी सम्मतिपूर्वक बडे समारोहके साथ अपना विशाल राज्य युवराज कुणिकको देदिया । अब पूर्व पुण्यके Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक और चेरका १४९ उदयसे युवरान कुणिक महाराज कहे जाने लगे। वे नीतिपूर्वक 'नाका पालन करने लगे और समस्त पृथ्वी उन्होंने चौरादि भयविवर्जित करदी।" ___“ कदाचित् महाराज -कुणिक सानंद राज्यकर रहे थे कि अकस्मात उन्हें पूर्वमवके वैरका स्मरण हो आया । महाराज श्रेणिकको अपना वैरी समझ पापी, हिंसक, महाअभिमानी, दुष्ट कुणिकेने मुनिकण्ठमें निक्षिप्त सर्पजन्यपापके उदयसे शीघ्र ही उन्हें काठके पीजरेमें बंद कर दिया। महाराज श्रेणिकके साथ कुणिकका ऐसा बर्ताव देखकर रानी चेलनाने उसे बहुत रोका किन्तु • उस दुष्टने एक न मानी, उल्टा वह मूर्ख गाली और मर्मभेदी दुर्वाक्य कहने लगा। खानेके लिए महाराजको वह रूखासूखा कोदोंका अन्न देने लगा और प्रतिदिन भोजन देते समय अनेक कुबचन भी कहने लगा । महाराज श्रेणिक चुपचाप उस पिजरेमें पड़े रहते और कर्मके वास्तविक स्वरूपको जानते हुए पापके फलपर विचार करते रहते थे। यह याद रखनेकी बात है कि यह घटना भगवान महावीरके निर्वाण प्राप्तिके पश्चातकी प्रतीत होती है। कुणिकके ईसासे पूर्व ४९१ में राज्याधिकारीके होनेके कुछ वर्ष 'उपरान्त ही यह घटना घटित हुई थी ऐसा प्रतीत होता है। इस समय कुणिकका हृदय बुद्धदेवकी ओर आकर्षित होरहा था ऐसा हमें बौद्ध ग्रन्थसे मालूम होता है और बहुत संभव है कि यही निमित्तकारण श्रेणिकको काट देनेको कुणिकको मिल गया था। क्योंकि बौद्धग्रन्थ अमितायुरध्यान सूत्र में लिखा है कि " अजात शत्रुने देवदत्तके कहनेपर अपने पिता विम्बसारको पकड़वा लिया Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१५० "भगवान महावीर . और उन्हें सात दिवालोंसे घिरे हुए- कारावासमें डाल दिया । बिम्बसारकी परम-हितैषी महादेवी वैदेही (चेलना) ने स्नानादि क्रियाकर अपने हारमें अंगूरोंका रस छिपाकर उनके दर्शनकर रस देकर इसके प्राण बचाए थे। अजातशत्रुने अपने पिता वावत दर्याप्त किया और पहिरेवाले सिपाहीसे ज्ञात किया कि वैदेहीने क्या किया था इससे वह क्रुद्ध होगया और अपनी माताको मारना चाहा परन्तु इसपर मंत्रियोने इसे रोका और उसने ऐसा करनेका भाव छोड़ दिया। वैदेहीको भी एकान्त स्थानमें रक्खा गया।" • यह कथन श्रेणिकचरित्रके उपर्युक्त कथनके सदृश है, परन्तु इसमे हमें कुणिकको अपने पिताको 'कष्ट देनेके निमित्तकारणका पता बलजाता है जैसे हमने उपर व्यक्त किया है। निस देवदत्तका उल्लेख है वह पूर्ण बौद्ध था और. म० बुद्धके स्थानपर खयं संघका नायक होना चाहता था। इस समय कुणिक इसका मित्र था, जिसकी रुचि बौद्धधर्मके प्रति पहिलेसे होगई थी। जैसे कि मि० के. जे. सॉन्डम अपनी गौतम बुद्ध नामक पुस्तक पृष्ठ ७०-७१पर लिखते हैं:-. Though they no mob for the firet time, it Seep's clear that bond at least of the Songtra had dealings with Ajatsafter Thilst he was still Rajkunigr." . __ अर्थात् यचपि इस समय वे (गौतमबुद्ध और अमानमत्रु ) पहिले ही पहिल मिले, परन्तु यह प्रगट है कि कनमें कम संवा कुछ व्यक्तियोंश अमावसत्तम सम्पन्न उनी रानामगरवाल था। इसमें प्रगट है कि बोडो उकमाने और पूर्व नगर कपल Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेणिक और चेटक। १५१ , अजातशत्रु कुणिकने अपने पिता श्रेणिक बिम्बसारको जो कि जैन धर्मानुयायी थे, कष्ट दिया था और इसीसे बौद्ध ग्रन्थ उनके अंतिम परिणामका कुछ निश्चित उल्लेख नही करते ((See Saunder's Gotama Buddha P.71.) क्योंकि अन्तमें कुणिकने जैनधर्मके परमश्रद्धालु अपने पिताको बन्धन-मुक्त करना चाहा था, जैसे कि श्रेणिकचरित्रके निम्न वर्णनसे प्रगट है, परन्तु यहांपर यह याद रखना उत्तम है कि बौद्धग्रन्थोंमें जो कुछ वर्णन है वह सदैव साफ साफ नहीं है क्योंकि जैनियोंसे उनकी पूर्ण स्पर्धा थी और उनमें अपने उन अनुयायियोंका कही भी उल्लेख नहीं है जो जैनी होगए थे। जब कि जैनशास्त्रोंमें साफतौरसे लिख दिया गया है कि जबर उसके अनुयायीने बौद्धादि परमतको ग्रहण किया था.। इस हेतु उनका वर्णन विशेष उपयुक्त होसक्ता है। अस्तु । श्रेणिक चरित्रमें लिखा है कि रानी चेलनाने कुणिकको बहुत समझाया और पिताके मोहको दर्शाया कि राजा श्रेणिकने कुमार कुणिकके लिए कितने कष्ट सहे थे, इससे कुणिकको दया आगई थी और वह अपने इस दुष्कृत्यका पश्चात्ताप करता हुआ हुआ राजा श्रेणिकको मुक्त करने जारहा था। राजा श्रेणिकने जो उसे आते देखा तो वे धवड़ागए और सोचने लगे कि आन न जाने यह क्या अनर्थ करेगा। इससे डरकर उन्होने अपना सिर दीवालसे घरमारा, जिससे उनके प्राणपखेरू उसी समय उड़कर अपने दुष्पापोंका परिणाम प्रथम नरकमें भोगनेको चले गए ! वहांसे आप आकर अगाड़ी तीर्थकर होगे। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '१५२ भगवान महावीर ' रांगा कुणिक और रानी चलना इस हृदयविदारक घटनासे चड़े दुःखी हुए और विलाप करने लगे । पश्चात् राना कुणिकने ब्राह्मणोको दान दिया, इससे विदित होता है कि उसका विश्वास ब्राह्मण धर्ममें भी था। रानी चलनाको संसार असार दीखने लगा इसलिए उसने 'चंदना आर्यिकाके निकट दीक्षा लेली और तप तपकर देवगतिको प्राप्त हुई । कुणिकके विषयमें अगाडी कुछ वर्णन नहीं है और 'पहिले वर्णनसे हमे ज्ञात हो चुका है कि वह मिथ्यात्वी हो गया यो अर्थात् उसने वौद्धधर्म स्वीकार कर लिया था। इस प्रकार राजा श्रेणिक निम्बसारका सम्बन्ध भगवान महा'चीरसे प्रकट है जो पहिले बौद्धं थे पश्चात् रानी चेलनाके प्रमावसे भगवान महावीरके परममक्त और आम शिप्य होगए थे । साथमे यह भी प्रकट है कि राजा चेटकके यहां जैनधर्मका गाढ़ श्रद्धान था। HTTER ST hin' Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। होगई। गोपालके द्वारा मगधेश, बिम्बसारने इसके विषयमें सुना और वे उसके निकट वैशालीमें आए, यद्यपि उस समय वे वैशालीसे युद्ध कररहे थे और सात दिनतक उसके यहां रहे। आम्रपालीको इनसे गर्भ रहगया और एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसको उसने अपने पिताके पास भेज दिया। यह बालक राजाके निकट निर्भयरूपसे पहुंचा और उनकी छातीपर चढ़ गया, जिससे उनने कहा कि इस बालकको भय नामनिशानको नहीं मालूम होता। सो वह अभयके नामसे विख्यात हुआ". । उक्त कथा मि० बिमलचरण लॉ० एम० ए० बी० एल० की पुस्तक The Kshatriya clans in Buddhist India P. P. 127-28 में दी हुई है। और इस पर मि० लॉका कथन है कि "यह कथा जो अभय अथवा जैन शास्त्रानुसार अभयकुमारको वैशालीकी वेश्या आम्रपालीका पुन व्यक्त करती है, पाली ग्रन्थों (बौद्ध) के खिलाफ है।" यथार्थमें जैनियोंसे द्वेषके कारण बौद्धोंका इस प्रकार लिखना ठीक ही है। उन्होने इनकी माताकी वास्तविकताका चित्र चित्रण किया है। कुमार अभय महावीर, खामीके परमश्रद्धालु शिष्य थे और जैनधर्मके पक्के अनुयायी थे यह बात स्वयं बौद्धग्रंथके निम्न वर्णनसे प्रगट है:- . "जब आनंद (बुद्धके मुख्य शिप्य) वैशालीमें थे, तब अभय नामक लिच्छावी और एक अन्य पण्डित कुमार नामक लिच्छावी । आनन्दके पास आए। अभयने आनन्दसे कहा कि " निग्रन्थ नातपुत्त (भगवान महावीर ) सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है। वह ज्ञानके प्रकाशको जानते हैं (अर्थात् केवलज्ञानी हैं ) उन्होने जाना है कि Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M AAAAA अभयकूमार व अन्य राजपुत्र । १५५ ध्यानद्वारा पूर्वकर्मोको नष्ट किया जा सका है। कर्मोके नष्ट होनेसे दुःखका होना वन्द होजाता है । दुःख (Suffering )के बन्द हो जानेसे हमारी विषयवासना नष्ट होजाती है और विषयवासनाके क्षय हो जानेसे संसारपर अगाड़ी दुःख नही होगा। इस वर्तमान जीवनमें दुःखसे निवृत्ति शुद्धता द्वारा है।" (Anguttara Nikaya, Vol. 1. (P. T. S.) P. P. 220-221)* अस्तु, कुमार अभय राजा श्रेणिकके पुत्र थे। वे असाधारण विद्वान थे। उनकी विद्यापटुता और न्यायदर्शिताका अनुपम वर्णन जैन शास्त्र श्रेणिकचरित्रमें खूब दिया हुआ है । उन्होने युवराज अवस्थामें उत्तम नीति और बुद्धिमत्तासे काम लिया था। अंतमें हम देख चुके हैं कि कुमार अभय भी श्रेणिकमहाराजके साथ २ महावीरखामीके समवशरणमें गए थे। वहांपर इन्होंने भगवानका दिव्य उपदेश और अपने पूर्व भवार्णव सुने थे । इस कारण इनको संसारसे अरुचिसी होगई थी। अस्तु, कुछ काल पश्चात् संसारकी वास्तविक स्थितिको जानते हुए, वे राजसमामें आए। ' उन्होने भक्तिपूर्वक श्रेणिक महाराजको नमस्कार किया और वे समस्त सम्योके सामने सर्वज्ञभाषित अनेक भेद प्रभेदयुक्त यथार्थ तत्वोंका उपदेश करने लगे। तत्वोंका व्याख्यान करते २ जव सब लोगोंकी दृष्टि तत्वोंकी ओर झुक गई तब अवसर पाकर अपने पितासे मुनि हो नानेकी आज्ञा - - - is See Kshatriya Clans in Buddhist India P. P. 102-103. Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ - भगवान महावीर मांगी। महाराज श्रेणिक मोहके मारे विह्वल होंगए, परन्तु अन्तमें । उन्होंने पुत्रको मुनि होनेकी आज्ञा प्रदान कर दी। ___कुमार अमेय महावीरखामीकै समवशरणमें गणधर गौतमके निकट मुनि हो गए थे। उन्होंने दुर्धर तपश्चरण करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था। अंतमें कुछ दिनों विहारकर अचित्य अव्याबाध मोक्ष-सुख पाया था। हम देख चुके हैं कि भगवान महावीरके समयमें एक ओर मगध, कौशल, वत्स, काशी और अवन्तीमें राजतंत्र थे, व दूसरी ओर शाक्य, कालाप, कोलीय, मोरीय, मल्ल, लिच्छवी, विदेह इनमें लोकतंत्र शासन था। राजतंत्रोमें मगधमें हम जैन धर्मके प्रचारका वर्णन कर चुके हैं। वत्सदेशकी कौशाम्बी नगरीके नृपति भी जैनधर्मोनुयायी थे, यह भी हम पहिले लिख चुके हैं। और यह भी जान चुके हैं कि वे महावीरखामीके निकट संबन्धी थे। कौशल और काशीमें भी जैन धर्मकी गति थी, यह कल्पसूत्र कथनसे व्यक्त है। जिसमें कहा है कि महावीर भगवानके 'निर्वाणगमनके होंपलक्षमें कौशल और काशीके १८ राजाओंने "और ९ मलक व ९ लिच्छावियोने दीपमालिका उत्सव मनाया था। कलिंगदेशके यादववंशी नृपति नितशत्रु भगवान महावीरके फूफा थे; और वहां भी जैनधर्मका प्रचार था। लोकतंत्र राज्यो में हम विदेह और लिच्छावियोमें जैनधर्मक उत्कट प्रचारका दृश्य देख चुके हैं। अवशेषमें शोक्योंके यहां भी बुद्धके प्रारंभिक “समयमें जैनधर्मका प्रचार "था; ऐसा प्रगट होता है । जैनशास्त्रोंमें कथन है कि म बुद्धने पार्धनाथ भगवा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ 1 " नके तीर्थकालके पिहिताश्रवनामक दिगम्बर मुनिसे दीक्षा ली थी । जैनमुनि होना स्वयं- बुद्धने भी स्वीकार किया है, क्योंकि वह एक:नगह कहता है कि “मैं बालों और दाड़ीको उखाड़नेवाला भी था, और शिर एवं मुखके बाल नौचनेकी परीषह मी सहन करचुका हूं।" ( See Saunders Gotama Buddha P. 15. ) यहांपर संकेत जैनमुनिकी केशलुंचन क्रिया की ओर है । इसके अतिरिक्त 1 Jainism : The early Faith of Asoka नामक पुस्तकमें वर्णन है कि “ तिव्वतभाषाके बौद्ध ग्रन्थ ललितविस्तार में लिखा है कि जब गौतमबुद्धं शिशु था तब अपने सिर में ऐसे चिन्हवाले लक्षण पहिनता था - श्रीवत्स, स्वस्तिका, नंद्यावर्त, और वर्द्धमान । " इन चिन्होंमें पहिले तीन तो सीतलनाथ, सुपार्श्वनाथ तथा अरह नाथ तीर्थङ्करके चिन्ह हैं तथा चौथा श्री महावीरस्वामीका नाम है । अस्तु, इससे भी प्रगट होता है कि शाक्य घराने में जैनधर्मका प्रचार था और इसकी पुष्टि वौद्ध ग्रन्थ महावाके इस कथनसे होती है, कि बुद्धने अपने पहिलेके २४ बौद्धोको देखा था । मल राजतंत्र में भी जैनधर्मके माननेवाले बहुत थे । ९ मल्ल राजा महावीरस्वामीके परमभक्त थे । इन्हीमेंके राजा हस्तिपालके राज्यमे पावानगरीसे भगवान महावीरने मुक्ति-लाभ किया था । अभयकुमार व अन्य राजपुत्र 1 इस प्रकार हम देखते हैं कि समस्त उत्तरीय भारतमें भगवान महावीरके जीवनकालमें ही जैन धर्मका प्रचार होगया था। अब हम भगवानके समकालीन म० बुद्ध और मक्खाली गोशालका भी सम्बन्ध भगवान महावीरलामीसे प्रगट करेंगे । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८) : INFO भगवान महावीर और म"बुहार 'सिरि पासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्यो । पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुकित्तिमुणी ॥ ६ ॥ तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपवजाओ परिब्मट्टो । .. रतवरं धरित्ता पवष्टिय तेण एयंत ॥ ७॥ मंसस णत्यि जीवो जहा फले दहिय दुख-सकरए. तम्हा तं वंछित्ता तं भक्खंतो ण पाविट्ठो ॥८॥ मजं ण वज्जणिज्नं दवदव्वं जहनलं तहा एदं । इदिलोए घोसित्ता पवट्टियं सव्व सावज ॥९॥ अण्णो करेदि कम्म अण्णो तं भुजदीदि सिद्धते । परि कप्पिऊण णूणं वसिकिचा णिरयमुववण्णो ॥१ . दर्शनमार ! जैनाचार्य श्री देवसेन उपर्युक्त श्लोकोंडारा विक्रम संवत ९०९में व्यक्तकर गए हैं कि "श्री पार्श्वनाथ भगवानके तीर्थ सरयूनदीके तटवर्ती पलाश नामक नगरमें पिहिताश्रव साधुको शिष्य बुद्धकीर्ति सुनि हुआ, जो महाचत या बड़ा भारी शास्त्रज था। मुर्दा मछलियोंके आहार करनेसे वह ग्रहण की हुई -दीक्षासेज भ्रष्ट होगया और रकाम्बर (लाल वस्त्र) धारण करके उसने एकान्त । मतकी प्रवृत्ति की । फल, दही, दूध, शक्कर, आदिके समान मौसम . 'भी नीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण कर में कोई पाप नहीं है। जिस प्रकार जल, एक द्रव द्रव्य अर्थात 47 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और म. बुद्ध। १५९ तरल या वहनेवाला पदार्थ है, उसी प्रकार शराब है, वह त्याज्य नहीं है। इस प्रकारकी घोषणा करके उसने संसारमें संपूर्ण पापकमकी परिपाटी चलाई । एक पाप करता है और दूसरा उसका फल' भोगता है, इसतरहके सिद्धान्तकी कल्पना करके और उससे लोगोंको करके या अपने अनुयायी बनाकर वह मरा" इन वाक्योंमें बोडके क्षणिकवादकी ओर इशारा किया गया है। जब संसारकी सभी वस्तऐं क्षणस्थायी हैं, तब जीव भी क्षणस्थाई ठहरेगा और ऐसी अवस्थामें एक मनुष्यके शरीरमें रहनेवाला जीव जो पाप करेगा उसका फल वही 'जीव नहीं, किन्तु उसके स्थान पर आनेवाला दूसरा जीव भोगेगा। - (जनहितेपी भाग १३ अंक ५-६-७ पृ०२५१-२५२) इस प्रकार हमारे पूर्वप्रकरणमें कथित कथन-कि बुद्धदेव अपने प्रारंभिक जीवनमें जैनधर्मानुयायी रहे थे, का स्पष्टीकरण होता है, निसको स्वयं बुद्धदेवने भी स्वीकार किया है जैसे पहिले प्रगट किया जा चुका है, परन्तु उधर माथुर संघके प्रसिद्ध आचार्य अमितगति लिखते हैं:- . 'रुष्टः श्री वीरनाथस्य तपस्या मौडिलायनः । शिष्यः श्री पार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥ ६ ॥ शुद्धोदनसुतं बुई परमात्मानमब्रवीत् ।' अर्थात् पार्श्वनाथकी शिप्य परम्परामें मौडिलायन ( मौद्विलायन ) नामका तपस्वी था। उसने महावीर भगवानसे रुष्ट होकर बुद्धदर्शनको चलाया और शुद्धोदनके पुत्र वुद्धको परमात्मा कहा। इस प्रकार देवसेनाचार्य और आचार्य अमितगतिकी बतलाई हुई Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamerammam भयुवान महावीर । बातों में विरोध ओता है, परन्तु एक तरहसे-दोनोंकी संगति के जाती है. क्योंकि मि० के० जे० सॉन्डरसकी Gotama Buddha, नामक पुस्तक (पत्र ४०)के निन्न वाक्य. प्रगट करते हैं कि मौद्गलायन बौद्धसंघका नेता था और उसका गुरु संजय था। "...... Gotan himself promoted Şaripatta and . Moggallada to Positions of Leadership... They, were wandering ascetics, disciples of Sanjaya." ' इसके अतिरिक्त महावग्ग आदि बौद्धग्रन्थोसे भी इसी • बातकी पुष्टि होती है कि मौदलायन बौद्धसंघका नेता और प्रचारक था । इस दृष्टिसे मौद्गलायनको बौद्धदर्शनका प्रवर्तक कहना . अपयुक्त नहीं ठहरता है। मौद्गलायन पहिले जैन मुनि था यह भी इस प्रकार प्रकट है । अशककवि छत महावीरपुराणमें एक चारणऋद्धिधारी मुनि संजयका उल्लेख है और मौद्गलायनके गुरुका नाम भी यहां संजय बतलाया गया है। अस्तु, यह दोनो संजय एक ही व्यक्ति थे ऐसा प्रतीत होता है अतएव अब उक्त दोनों आचायोंका सम्मिलित अभिप्राय यह निकला कि पार्श्वनाथके धर्मतीर्थमे पिहिताश्रव नामक जैन साधुके शिप्य बुद्धदेव हुए और बुद्धदेवका शिप्य मौद्रिलायन हुआ, जो खयं भी पहिले जैनथा। इस प्रकार हम बौद्धमतकी उत्पत्ति जैनधर्मसे देखते है जैसे कि मि कोलबुक आदि प्राच्यविद्या महार्णवोने भी प्रकट की है। थस्तु, जैन धमके विपरीत मतके स्थापन करनेवाले म बुद्धके विषयमें विचार । करनेसे हमें ज्ञात होता है कि शास्य प्रजातंत्र राजकुमार थे। स्वतंत्र स्वातीन विचार उनके हृदय में कूटर कर भरे हुए थे। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और मा बुद्ध । सांसारिक बन्धन उनको असह्य थे, इसलिए वह साधु होगए। हम यह नहीं कहसके कि उनने प्रारंभमे किस साधु सम्प्रदायके व्रत ग्रहण किए थे और वह जैनमुनि कब हुए थे। उनके स्वयंके कथनसे यह प्रगट है कि उनने सर्व प्रकारके मतोके साधुमार्गका पालन किया था और अन्तमें दुर्घर तपश्चरण करनेपर भी उनको आत्मज्ञानका भान न हुआ। तब वह उससे भी निराश हो गये और शरीरकी रक्षा करना पुनः प्रारंभ करदी। इससे यह बहुत संभव है कि वह इस अवस्थाके प्रारंभ करनेके पहिले जैन मुनि थे परन्तु वह मुनिधर्मके यथार्थ ज्ञानके भानसे अनभिज्ञ प्रगट होते प्रतीत होते हैं। अतएव "हमें यह नहीं ज्ञात है कि बुद्ध क्या विचार करते अथवा क्या इस विषयपर कहते यदि उनको यह विदित होजाता कि वह सन्यासमे स्वयं दृढता प्राप्त करनेका प्रयत्न विदून ग्रहस्थाश्रमका साधन किए हुए करना चाहते थे। संभवतः उनने इसपर कभी ध्यान नही दिया कि शिखरपर पहुंचनेके लिए सीढ़ीकी आवश्यक्ता होती है और यह कि तपस्यासे सिवाय दुःख और केशके और कुछ भी प्राप्त नहीं होता, यदि वह सम्यक्दर्शन और सम्यज्ञानके साथ न हो।" (असहमतसंगम पृष्ठ १८६-७) श्री समयसारजीमें श्रीमन्महाराज श्री कुन्दकुन्दाचार्यनीने भी ऐसा ही कहा है:गाथा-परमट्ठहिन दुमठिदो जो कुणइ नवं वयं च धारई। तं सव्व वालतवं वालपदं विति सव्वराहू ॥ । भावार्थ-जो परमार्थ भूत आत्माके स्वभावमें स्थिर नहीं है, । वह जो कुछ तप या व्रत करता है सो सर्व बालतप व बालवत है Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANAMAMA १६२ भगवान महावीर। ऐसा सर्वज्ञ, भगवानने कहा है। इसलिए मुख्यतासे कोंकी निराका कारण आत्मानुभव है । इसके होनेहीसे यह आत्मा निर्वाणका भागी होसका है । आत्मानुभवसे शून्य पुरुष कैसा भी व्यवहारमे सावधान हो, परन्तु कर्मोंसे मुक्ति नहीं पा सका । जब कि आत्मानुभवका दृढ़ अभ्यासी सोते हुए भी कर्मोकी निर्जरा करता है । इस तरह तात्पर्य यह निकालना चाहिए कि कौक बन्धनसे छूटनेका उपाय मात्र एक आत्माका सच्चा श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र है-निश्चय रत्नत्रय ही मोक्षका साधक है। बुद्धदेवने इस ओर ध्यान नहीं दिया था। इसीकारण कठोर तपश्चरण करनेपर.मी उनको यथार्थ ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई। तपश्चरणमें उनको अश्रद्धासी होगई और उन्होंने उसकी कठिनाईको इन शब्दोंमें स्वीकार किया:___ "दुःख बुरा है और उससे बचना चाहिए। अति (BKoess) दुःख है। तप एक प्रकारकी अति है, और दुःखवर्धक है । उसके सहन करनेमें भी कोई लाभ नहीं है। वह फलहीन है।" ( The Encyclopaedea of Religion and Ethics Vol: II. P. 70.) और उनको विश्वास भी होगया कि " न इन कठिनाइयोंकि सहन करनेवाले नागवार मार्गसे मैं उस अनोखे और उत्कृष्ट पूर्ण (आयर्याके) ज्ञानको, जो मनुष्यकी बुखिके बाहर है, प्राप्तकर पाऊंगा। क्या यह सम्भव नहीं है कि उसके प्राप्त करनेका कोई अन्य मार्ग हो?" (Tod P. 70.) अतएव इसी समयसे उनन शरीरकी रक्षा करना पुनः प्रारंभ कर दी थी, जिसके कारण वह Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवान महावीर और म बुद्ध। १६३ इन्द्रिय लिप्सामें भी किसी कदर अगाडी बढ़गये। और 'अन्तमें वह मध्यका मार्ग जिसकी वह खोजमें थे, विख्यात बोधिवृक्षके नीचे प्राप्त हो गया। वह मध्यमार्ग कठिन तपस्या और वैरोकटोककी विषयलोलुपताके दर्मियान जो कर्मयोग (सांसारिक कार्योंमें निष्काम मनसे संलग्न होने ) के भेषमें प्रचलित थी, एक प्रकारका राजीनामा (मेल) था । अथवा वह मध्यमार्ग वैज्ञानिक दृष्टिसे सिद्ध है या असिद्ध, यह प्रश्न न था। भाव यह था कि दुःखसे हर प्रकार बचें । यदि स्वयं तप दुःखका कारण है तो उससे दुःखका नाश कैसे हो सका है ? (असहमतसंगम दृष्ट १८६) इस प्रकार--यद्यपि बुद्धदेवको तपश्चरण आदिमें विश्वास नहीं रहा था, परन्तु उनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेकी अमिलापाका श्रद्धान अब भी कम न हुआ था। इसीसे उन्होंने उपर्युक्त मध्यमार्गको ढूंढ निकाला और उसका प्रचार करने लगे। अस्तु । ___ हम देखते हैं कि बुद्धदेवने परीषहोसे भयभीत हो उतावलीमें जैनधर्मके मुनिपदसे भृष्ट हो उससे विपरीत मतको स्थापन किया जो कि सैद्धांतिक न होकर एक तरहका आचार सम्बन्धी मनोनुकूल सुधार था! और उसने उसके द्वारा हिंसाकी पुष्टि की, यद्यपि वह अपनेको अर्हन्त कहते थे। परन्तु आश्चर्य तो इस पर है कि अहंत होनेपर भी उनसे इंद्रियनिरोध न हो सका, और उनके हृदयमें शल्य घुसी रही-वह अपने ज्ञानको जगतके निस्ट प्रकट करनेमें हिचकते रहे । वास्तवमें बात यह है कि उनको जव बोधिसत्त वृक्षके नीचे मध्यमार्गका भान हो गया तब वह जानेको अर्हन्त कहने लगे, यद्यपि वह यथार्थ अन्तिावस्थाले कोसो दूर Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। थे और यथार्थ सिद्धान्तसे नितान्त अनभिज्ञ थे जैसे कि मि० के० जे० सॉन्डसके निन्न वाक्योंसे प्रगट है: "जब उसने निव्वानके विषयमें कहा तब वह अपने अनुभवको ही प्रगट करनेका प्रयत्न कर रहा था। और नैतिक आचार्य होनेकी अपेक्षा उसने उसका वर्णन आचार संबंधी नियमोमें किया। (पष्ट २८) बुद्धने दूसरे शब्दोंमें कहा कि हम निम्बानका स्वरूप तब तक नहीं कह सके जब तक कि हम आत्माका यथार्थ स्वरूप न जानलें। और कोई आत्मा है ही नहीं ! कमसे कम इन चार बातोंको बुद्धने व्यक्त करनेसे इन्कार कर दिया था अर्थात् (१) क्या संसार अनादिनिधन है ? (२) क्या वह अनन्त है ? (३) क्या शरीर और आत्मा एक है ? (४) और क्या अर्हत मृत्युके पश्चात मी सत्तामें रहता है। (पृष्ट ३०)" (See Gotama Buddha) ___ इसीलिए मि० सॉन्डर्स कहते हैं कि " यह इस कारणसे नही था कि उसने सत्यका प्रचार किया था, जिससे उसके श्रोताओने उस पर विश्वास किया, बल्लि यह इस कारणवश था कि उसने उनके हृदयोंको बशमें कर लिया था जिससे उसके वाक्य उन्हें सत्य प्रतीत होते थे।" (Ibid P. 75.) अस्तु, यह प्रगट है कि यथार्थमें वह धार्मिक सिद्धान्तोंसे अनभिज्ञ थे। इसी कारण अपने आचार संबंधी नियम भी, वह यथार्थ प्रगट न कर सके और इससे कहना पड़ेगा कि बुद्धने किसी नए रूपमें नए सिलसिलेसे बौद्ध धर्मको स्थापित नही किया था। मि० चम्पतरायजी जैन वैरिष्टर इस बातको अपनी असहमतसंगम' नामक पुस्तकके पृष्ट १८४ पर इस तरह पुष्ट करते हैं Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भगवान महावीर और म० बुद्ध। १६५ कि " बौद्धमत हिन्दुओंकी पेचीदा वर्णव्यवस्थाके और जैनियोंकी कठिन तपस्याके विरोधमें संस्थापित हुआ था, न कि एक नूतन सैद्धान्तिक दर्शनके रूपमें; कमसे कम प्रारंभमें तो नहीं।" अस्तु, इस प्रकार हम देख चुके कि बौद्धमतका विकास चारित्र नियमकी. कठिनाईके कारण हुआ था और प्रारंभमें सैद्धान्तिक ज्ञान बुद्धकी शिक्षाका कोई आवश्यक माग नही था। सच्चा धर्म एक अमली शिक्षाके सिवा और कुछ न था। दुःखसे छुटकारा मनकी शुद्धता द्वारा प्राप्त होता है। मनकी शुद्धता इच्छा रहित होनेसे होती हैं। इच्छासे निवृत्ति तपस्या और ध्यानसे होती है, जो मनमें वैराग्य उत्पन्न करते हैं अर्थात् संसार और इन्द्रियोंक निरोधसे । खयं बुद्धका मत विशेष अवसरोंपर निश्चित नहीं था। कमी वह सत्ताकी नित्यताको माननेवालेके रूपमें शाश्वत बातचीत करता था और कभी २ नाशके संबंधमें वह कहता था। परन्तु वस्तुतः बुद्धका सिद्धान्त जीवकी अनित्यतापर पूर्णरूपेण जोर डालता है। (देखो असहमतसंगम ४० १८६ ) यह भी अवश्य था कि वह सैद्धान्तिक विज्ञानसे अनभिज्ञःथा। इसीकारण उसकी अमली शिक्षा भी अपूर्ण थी जिसके विषयमें मि० हरिसत्य भट्टाचार्य एम० ए० बी० एल० लिखते हैं कि "परीक्षा करनेपर यह प्रकट होनायगा कि बौद्धधर्मका सुन्दर आचारवर्णन एक कम्पित नीव पर अवस्थित है। हमें वेदोंकी प्रमाणिकताका निषेध करना है-अच्छी बात है। हमें अहिंसा और त्यागका पालन करना है-अच्छी बात है। हमें कौके बंधन तोड़ने हैं अच्छी बात है, परन्तु सारे संसारके लिए यह तो बताईए हम हैं क्या? हमारा ध्येय क्या है ? खाभाविक Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , १६६ भगवान महावीर । Wwwww उद्देश्य क्या है ? इन समस्त प्रश्नोंका उत्तर बौद्धधर्म में अनूठा पर भयावह है, अर्थात् 'हम नहीं हैं'। तो क्या हम छाया में श्रम परिश्रमकर रहे हैं ? और क्या अंधकार ही अन्तिम ध्येय है ? क्यों हमें कठिन त्याग करना है और हमें क्यों जीवनके साधारण इन्द्रिय सुखोंका निरोध करना चाहिए ! केवल इसलिए किशोकादि नष्टता और नित्य मौन' निकटतर प्राप्त होजाऐं । यह जीवन एक प्रान्तवादका मत है और दूसरे शब्दोंमें उत्तम नहीं है । अवश्य ही ऐसा आत्माके अस्तित्वको न माननेवाला विनश्वरताका मत सर्वसाधारणके मस्तिष्कको संतोषित नहीं करसक्ता । बौद्धमतकी आश्चर्यजनक उच्चति उसके सैद्धान्तिक विनश्वरतावाद (Nihilism) पर निर्भर नहीं थी, बल्कि उसके नामधारी " मध्यमार्ग" की तपस्याकी कठिनाईके कम होनेपर ही थी ।" (See Jain Gazette Vol. XVII No. 5). < सुतरां बुद्धदेवके आचार नियमोंकी अपूर्णता और असार्थकता 1 इससे भी प्रकट है कि उसने मृतपशुओंके मांसको खानेका भी निषेध नहीं किया ! देशके प्रसिद्ध नेता लाला लाजपतरायजी भी इस बातको स्वीकार करते और कहते हैं कि "बौद्धोंमें मृतपशुक्रे मांस खानेका निषेध नही । ब्रह्मामें, सिहलमें, चीन, जापानमे, सारांश यह कि सभी बौद्ध देशोंमें बौद्ध लोग मांस खाते हैं। परन्तु कोई भी जैन मांस नही खाता। जैनोंका सबसे बड़ा नैतिक सिद्धान्त अहिसा है ।" (देखो 'भारतवर्षका इतिहास' ष्ष्ट १३१) इस प्रकार दुबके "मध्यमार्ग" ने तपस्या की कमठाई और इंद्रिय सुखकी सुविधाजनक नियमित उपभोगकी आज्ञा देनेके एवं उनकी चाणी ललित और भिष्ट होनेके कारण उन्नति पाई । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और म० बुद्ध । १६७ बुद्धके जीवनकालमें ही उसका यह आचारनियम इसी प्रकार शिथिल था, यह खयं बौद्ध ग्रन्थोंसे प्रमाणित है क्योंकि बौद्धोंके महावग्ग ग्रन्थ मे लिच्छवियोंके सेनापति सीहका उल्लेख है कि वह निगन्थ नातपुत्तका शिष्य था, जो मो० बुहलर और जेकोबीके अनुसार प्रमाणित रीत्या जैनियोंके भगवान महावीरखामी हैं । महावग्ग में लिखा है कि सेनापति सीहने बुद्धकी बड़ी प्रसंशा सुनी थी और वह अन्तमें बौद्ध भी होगया था। बौद्ध होने पश्चात् सीहने बुद्ध और बौद्ध भिक्षुओंको भोजनार्थ आमंत्रित किया था और उनके भक्षणके लिए बाजारसे वह मांस लाया था। इसके अगाड़ी महावग्ग में लिखा है कि " इस समय एक बड़ी संख्या में निर्ग्रन्थ लोग वैशाली में, सड़क सड़क और चौराहे चौराहेपर यह शोर मचाते दौड़ रहे थे कि आज सेनापति सीहने एक बैलका बघ किया है, और उसका आहार समण गौतमके लिए बनाया है। समण गौतम जानबूझ कर कि यह बैल मेरे आहार निमित्त मारा गया है पशुका मांस खाता है; इसलिए वही उस पशुके मारनेके लिए बधक हैं ।" (See Vensya Texts, Saored Books of the East, Vol: XVII, P. 116. & the Kshatriya Clans in Buddhist India P. 85) इसके अतिरिक्त बौद्धके अंतिम जीवनमें जो उसके संघमें फूट पड़ी थी उसका मुख्य कारण भी इसी बातकी पुष्टि करता है जैसे कि: "देवदत्त (बौद्धके शिष्य) का दूसरा कार्य संघको छिन्नभिन्न करना था। उसने तपश्चरणके कुछ आधिक्य होनेपर जोर दिया, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ भगवान महावीर। और ख़ासकर कहा कि भिक्षुओंको केवल बनमें रहना चाहिए, मांस नहीं खाना चाहिये, और फटे पुराने कपड़ेसे शरीरकी रक्षा करना चाहिये ।" (See Gobama Buddha by K. T. Saundars 2. P. 72-78.) ___अस्तु, हम देखते हैं कि बुद्धने प्राचीन धर्ममें सुधार मात्र किया था, जो भी यथार्थ न था। किन्तु बुद्धदेवको ज्ञान प्राप्त करनेको इतना दृढ श्रद्धान भगवान महावीरके जीवनसे प्राप्त हुआ था। जैसे कि निन्न पंक्तियोंसे प्रकट है। परन्तु आश्चर्य है कि बुद्धके जीवनचरित्रमें उसके ५०से ७० वर्ष तकके जीवन की घटनाओक उल्लेख नहीं है। जैसे कि विशप बिगनडेट साहब कहते हैं कि "करीब २ एक पूरा अभाव है।" ("An almost complete blank." See Gotama Buddha P. 45) , इसका कारण भी यही है कि इस समय में भगवान महावीरका पवित्र विहार हो रहा था, जिसके कारण बुद्धकाप्रभाव उठसा गया था। और उल्टे भगवान महावीरका प्रभाव इनके संघपर पड़ा थां, जिससे उसमें मतभेद होगया, क्योकि उसके शिष्य मी असलियतको और अपनी कमताइयोंको जान गए थे। पुनः जब ७२ वर्षकी अवस्थामें बुद्धको हम कर्मक्षेत्रमें देखते हैं, तो उसका प्रभाव पहिले जैसा प्रगट नहीं होता, क्योंकि जब वह राजगृहमें पहुंचते हैं, तब खयं पुछनेपर एक कुम्हारके घरमें रात विताते हैं। ___ अस्तु, भगवान महावीरका प्रभाव म० बुद्धपर भी पडा था, और उनकी सर्वज्ञता एवं उनके धर्मकी यथार्थता बुद्धके निम्नशब्दोंसे प्रगट है, जिसमें उसने इन बातोंको स्वीकार किया है और अपने क्षणिक सिद्धान्तमें अश्रद्धाको भी प्रगट किया है अर्थात Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और म० बुद। १६९ "भाइयो ! कुछ ऐसे सन्यासी हैं, (अचेलक, आजीविक, निर्गय आदि) नो ऐसा श्रद्धान रखते और उपदेश करते हैं कि प्राणी जो कुछ सुख दुःख व समभावका अनुभव करता है वह सब पूर्व कर्मके निमित्से होता है। और तपश्चरणसे, पूर्व कोके नाशसे, और नये कर्मोके न करनेसे, आगामी जीवनमें आश्रवके रोकनेसे, कर्मका क्षय होता है और इस प्रकार पापका क्षय और सर्वदुःखका विनाश है । भाइयो, यह निग्रंथ (जैन) कहते हैं......मैंने उनसे पूछा क्या यह सच है कि तुम्हारा ऐसा श्रद्धान है और तुम इसका प्रचार करते हो....उन्होने उत्तर दिया....हमारे गुरू नातपुत्त सर्वज्ञ हैं........उन्होने अपने गहन ज्ञानसे इसका उपदेश दिया है कि तुमने पूर्वमें पाप किया है, इसको तुम उग्र और दुस्सह आचारसे दूर करो और जो आचार मन वचन' कायसे किया जाता है उससे आगामी जन्ममे बुरे कर्म कट जाते हैं...... इस प्रकार सब कर्म अन्तमें क्षय होनायगे और सारे दुःखका विनाश होगा। इस सर्वसे हम सहमत हैं।" (Majjhima II, 214. ofi 238 देखो असहमतसंगम प्रप्ट ". यहां बुद्धदेव स्पष्टतया (१) परमात्मन् महावीर, (२) जैनधर्म, और (३) जैनियोंके इस अत्यावश्यक वादका कि परमात्मन् महावीर सर्वज्ञ थे, उल्लेख करते हैं और बुद्धदेवकी जो इच्छा निगंथ (जैन) से बातचीत करनेकी हुई वह केवल कौतुकरूप नही थी कि जिसका कोई सप्ट फल न हो । उनके चित्तमे उस पूर्ण ज्ञानके प्राप्त करनेका उच उद्देश्य था जो उन्होंने परमात्मन् Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का .. १७० भगवान महावीर। महावीरमें देखा था। तत्पश्चात् उनका सब जीवन इसी ढांचेमें ढल गया ।....उपरोक उद्धृत वाक्योंसे निम्न बातें पूर्णतया प्रमाणित हो जाती हैं: (१) परमात्मन् महावीर वास्तविक ऐतिहासिक व्यक्ति थे न कि कोई कल्पित वस्तु । (२) वह बुद्धदेवके समकालीन थे। (३) परमात्मन् महावीरके सर्वज्ञ होनेका प्रतिपादन जैनियोंने स्पष्टतया किया था, जिनका धर्म यह शिक्षा देता है कि प्रत्येक आत्मामें सर्वज्ञता शक्तिरूपसे है और वह निर्वाण प्राप्तिके समय पूर्णतया व्यक्त हो जाती । (४) मिनेन्द्रके दर्शनसे बुद्धदेवको उस ज्ञानकी प्राप्तिकीतीव्र इच्छा हुई थी जिसके विषयमें उन्होंने बड़े चमकते हुए शब्दोंमें कहा है कि वह सर्वव्यापी श्रेष्ठ आर्यज्ञानका महान और विविक्त दर्शन है जो मनुष्यकी समझमें नहीं आ सका। । (6) बुद्धदेव समझते थे कि ज्ञान तपश्चरणसे प्राप्त हो सक्ता है और उन्होंने उसकी प्राप्तिके लिये उग्र तपश्चरण किया। (६) उनको तपश्चरणसे यथेष्ट फल नहीं मिला, किन्तु उन्होंने अपना प्रयत्न नहीं छोड़ा, बल्कि अपने उद्देश्यको दूसरे मार्गसे जिस प्रकार भी हो सके, प्राप्त करनेका संकल्प कर लिया। - अतः बुद्धदेवको मनुष्यकी समझसे बाहर सर्वव्यापक श्रेष्ठ, आर्यज्ञान के विविक और महान दर्शनके विषयमें किंचित्मात्र भी संदेह नहीं था। उनको ऐसे ज्ञानके विषयमें द विश्वास था। उसके लिए उन्होने कड़ेसे कड़े तपश्चरण वर्षों किए, और शरी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर और म० चूछ। १७१ रके क्षीण और बलहीन होनेपर भी उन्होंने अपने प्रयत्नको नहीं छोड़ा। ऐसा दृढ़ श्रद्धान बुद्धदेवको तीर्थकरके साक्षात् दर्शनसे ही हुआ होगा। हम यह भी कह सकते हैं कि और कोई ऐसा नहीं था जिसका दृष्टांत बुद्धदेवके दिलपर ऐसा प्रभाव डालता, क्योंकि जैनधर्मके अतिरिक्त और किसीने भी पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञ होनेका दावा नहीं किया है।" (देखो मि० चम्पतराय जैनका “गौड खंडन" पत्र ५-७) इस प्रकार हमारे उपर्युक वर्णनसे प्रगट है कि म० बुद्धके जीवन पर भगवान महावीरके जीवनका विशेष प्रभाव पड़ा था, जिसके कारण उन्हें यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेका हृढ़ विश्वास होगया था। यद्यपि वह उसमें पूर्ण सफल प्रयास नहीं हुए और वह अपने 'मध्य-मार्ग' का प्रचारकर लोगोंको दुःखसे बचनेके लिए शून्यतामें गर्त हो जानेका उपदेश देते रहे। और असी वर्षकी अवस्थामें सूभरका मांस खानेके पश्चात् मृत्युको प्राप्त हुए। . ___ अस्तु, बुद्धदेवके उपदेशका प्रभाव बहुत लोगोके हृदयोंपर इस कारणसे पड़ा कि उसमें कठिन तपस्या नहीं करनी पड़ती थी, और उसने हठयोगकी कठिनाइयोंको भी, जो वास्तवमें एक व्यर्थ मार्ग शारीरिक शोंका है और जिसका तपस्याके यथार्थ खरूपोंसे जैसे जैन सिद्धांतमें दिए हुए हैं, प्रथक् समझना आवश्यक है, हलका कर दिया था, परन्तु बुद्धसिद्धान्तके विषयमें एवं उसके आवागमनके मतके संबंधमें जिसमें कर्म करनेवालेके स्थानपर एक अन्यपुरुषको कम्मौके फलरूपदुःखसुखको भोगनापड़ता है और उनकी मानी हुई आत्माओंकी अनित्यताकी पावत हम चाहे Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। • १७२ जो कुछ विचार करें या कहें तो भी हमको संसारी जीवोंके दुःखको बहुत स्पष्टरूपसे जानलेनेके लिए और उस दुःखको शब्दोंमें अपूर्व योग्यतासे चित्रित करने के लिए उसकी अवश्य प्रशंसा करनी पड़ती है। । (असहमतसंगम पृष्ठ १८७-106) इस प्रकार हम भगवान महावीरके समकालीन विशेषप्रख्यात साधुका और उसके मतका दिग्दर्शन करचुके । हमने देखा कि महावीरखामीका प्रभाव उनके ऊपर भी पड़ा था, और उनका मत भगवान महावीरके धर्मसदृश वैज्ञानिक ढंगका नहीं था। बुद्धकी मृत्युके पहिले भगवान महावीर निर्वाण प्राप्त कर चुके थे, क्योकि बौद्धग्रन्थोंमे लिखा है कि जब बुद्ध भगवान शाक्य भूमिको जारहे थे, तब उन्होंने देखा कि पावामें नातपुत्त महावीरका निर्वाण होगया है। इसके पश्चात् बुद्धने पुनः अपने धर्मका प्रचार किया था और अजातशत्र आदि राजाओने उनके धर्मको ग्रहण किया था। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्खारी गोशाल और पूरण काश्यप। १७३ मकवाली मोशाल और दूर काश्यप। 'सिरिवीरणाहणतित्थे बहुस्सुदो पाससंधगणिसीसो । मकडिपुरणसाहू अण्णाणं भासए लोए॥" -दर्शनसार । उक्तश्लोकसे व्यक्त है कि महावीर भगवानके तीर्थमें पार्श्वनाथ तीर्थकरके संघके किसी गणीका शिष्य मस्करी पुरण नामका साधु था। उसने लोकमें अज्ञान मिथ्यात्वका उपदेश दिया। यहां पर देवसेनाचार्यने आजीवक सम्प्रदायके मुख्य प्रवर्तक मक्खाली गोशाल और अचेलक मतके संस्थापक पुरण कश्यपको एक ही व्यक्ति लिखा है । यद्यपि दोनोंने ही जैनधर्मसे विपरीत अज्ञान मतका उपदेश दिया था। परंतु देवसेनाचार्यके समयमें आजीवक लोग ही मिलते थे और दोनों सम्प्रदायोके साधु नग्न रहते थे, इन कारणोंवश संभवतः देवसेनाचार्यने इन दोनोको एक व्यक्ति लिख दिया है जैसे कि बौद्धोके अद्भुत्तर नामक ग्रन्थमे मक्खाली गोशालके छह अभिजाति नामक सिद्धांतको पूरण काश्यपका बतलानेमें भ्रम खाया गया है । और देवसेनाचार्यने उक्त गाथाके उपरांत गाथाओमें उनके सिद्धान्तोंका वर्णन किया है जो उनके ज्ञात सिद्धान्तोसे ठीक नहीं बैठते हैं जैसे जीवोका मरनेके पश्चात् आगमन न मानना और संसारका एक शुद्धबुद्ध परमात्मा का मानना । सम्भव है कि देवसेनाचार्यकै समयके आजीवकोंका इस प्रकारके सिद्धान्तोमें विश्वास हो गया होगा, क्योंकि वह प्राचीन मानीवक सिद्धान्तोंके Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ भगवान महावीर। माननेवाले ही नहीं रहे थे, बल्कि उन्होंने आवश्यक्तानुसार उनमें संशोधन भी कर लिए थे जैसे कि उन्होंने वैदिक देवताओंकी पुना करना प्रारम्भ कर दी थी (Sen The . Ajivakas by Dr. B. M. Barua, M. A., D. Litt. Part I P.58) अस्तु, मस्करी अथवा मक्खाली गोशाल और पुरण कश्यप अलग अलग दो व्यक्ति थे जैसा कि बौद्ध शास्त्रोंसे प्रगट है। और इनमेंसे मक्खाली गोशाल संभवतः जैन मुनिका शिष्य था, क्योंकि इसके नेतृत्व कालमें आजीवक सम्प्रदाय एक व्यवस्थित धर्म बन गया था, जिसकी कुछएक बातें जैनधर्मके चारित्र नियमसे मिलती हुई प्रतीत होती हैं। जैसे जैनियोका समाधिमरण नियम अथवा सल्लेषणावत और मक्खाली गोशालका बताया हुआ चत्तारि पाणगायं चत्वारिअपाणगायं नियम अर्थात The doctrine of Four Drinkables and four Substitutes. अस्तुः । ___कोई कोई इस सम्प्रदायको जैन सम्प्रदायके ही अन्तर्गत बतलाते हैं, किन्तु श्वेताम्बर ग्रन्थ भगवतीसूत्र और आचारागसूत्रके पाठ मालूम करनेसे होता है, कि आनीवक सम्प्रदाय नैन सम्प्रदायसे भिन्न है, (जैसे दर्शनसारका उत श्लोक प्रगट करता है ।) शेष तीर्थक्षर महावीरखामीके समसामयिक महली पुन गोशाल इस सम्प्रदायके एक प्रधान आचार्य थे। भगवती गुनसे जाना नाता है. कि मङ्गली नामक एक भिक्षक औरस और उनकी पत्नी मद्राके गर्भसे गोशालका जन्म हुगा था। इसीरे उनका नाम महाडि पुन (मस्खाली) गोशाल पड़ा। महावीरवानीक Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्वाली गौशाल और पूरण काश्यप । १७५ . संसार छोड़नेके बाद दूसरे वर्ष राजगृहमें सामान्य भिक्षुकरूपसे गोशाल भी जा पहुंचे । गोशाल महावीरखामीका परिचय पाकर उनके शिष्य होनेको उद्यत हुए थे। भगवान महावीरने गोशालकी प्रार्थना पूर्ण की। फिर ६ वर्ष गोशाल उनके सङ्ग शिष्यरूपसे रहे एवं उसी समय से क्रमशः सुख, दुःख, रति, विरति, मोक्ष और बन्धन प्रभृति विषय समझने लगे । पीछे कूर्म नामक आममें भगवान महावीरके साथ गोशालका मतभेद हुआ था। राहमें फलपुष्पशोभित तिलवृक्षको देखकर गोशालने महावीरस्वामीसे जिज्ञासा की, - यह वृक्ष मरेगा या नही, एवं मरनेके बाद इसके सप्तजीवका क्या परिणाम होगा ? महावीरस्वामीने उत्तर दिया, वृक्ष मर जायगा, किन्तु इसी वृक्षके बीजसे पुनः सप्तजीव उत्पन्न होगा । गोशालने उनकी बात पर विश्वास नकर वृक्षको उखाड़ डाला था । कई मास बाद दोनों जब उस स्थानको वापस गए, तब यह देख दङ्ग रह गए, कि पानी पड़नेसे उसी तिलका एक बीज पेड़ हो गया था । महावीरस्वामीने गोशालसे कहा, हमने तुमसे पूर्वमे जो बताया, उसका प्रत्यक्ष प्रमाण देख लीजिए। पहला वृक्ष मर गया था, परन्तु उसीके बीजसे नूतन वृक्ष उत्पन्न हुआ । गोशाल फिर भी उनकी वातपर विश्वास कर न सके, और पेड़का एक बीज उठा उसकी छाल नोच २ कर देखने लगे, कि प्रकृत ही उसके मध्य अति सूक्ष्म सात दाने थे ! इसीसे गोशालको धारणा हुई, केवल वृक्षलता ही नही सकलजीवका जन्मान्तर संभव है । फिर कठोर योन्य साधनकर गोशालने अनानुपिक क्षमता प्रात को एवं स्वयं एक जिनके नामसे परिचित हुए, किन्तु महावीरस्वामीने Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। उनका कभी जिनत्व स्वीकार किया न था। निम्रन्थ एवं आजीवक सम्प्रदायके मध्य बहुत दिन तक परस्पर द्वेषभाव रहा । आनीवक गणको विश्वास था,-परिणाममें मोक्ष या परममार्ग पानेपर सब जीवोंको चौरासी लाख कल्प सप्तदेवयोनि, सप्तनड़योनि, सप्तजीवयोनि, और सप्तजन्मान्तर अतिक्रमण करना पड़ता है। " (हिन्दी विश्वकोष भग २ पृष्ठ ५२२-५२३) उपर्युक्त वर्णनसे हमें आजीवक सम्प्रदायका पृथकत्व, उसके पसिद्ध प्रवर्तक आचार्य मक्खाली गोशालका जन्मसंबंधी विवरण, महावीरस्वामीसे संबंध और उनके श्रद्धानयुक्त सिद्धान्तका पता चल जाता है। जन्मसंबंधी विवरणकी पुष्टि चौद्धग्रंथ भी करते हैं, परन्तु भगवान महावीरखामीसे जो उनका · सम्बन्ध शिष्यरूपमे प्रगट किया गया है, उसका उल्लेख बौद्धग्रंथोंमें कहीं नहीं मिलता है, और वह दिगम्बराम्नायके दर्शनसार ग्रन्थके, उक्त डोककी मान्यताके विपरीत है। एवं डॉ. बारुआने अपनी पुर्वोल्लिखित 'आजीवक' नामक पुस्तकमे इसको अच्छी तरह प्रमाणित किया है कि भगवान महावीरका मजलि गोशालसे शिष्यपनेका संबन्ध नहीं था। और वे कहते हैं कि " भगवती सूत्रका यह वर्णन स्वयं उसीकी एवं अन्यत्रकी व्याख्याओंसे बाधित होता है। इतिहासवेत्ताके भ्रममें पड़नेकी और गोशालके प्रति अन्याय करनेकी संभावना है यदि वह भगवती सूत्रके विवरणको नितान्त ऐतिहासिक सत्य मान लेगा।" परन्तु उनका यह कहना कि खयं महावीर भगवानने आनीवक सम्प्रदायके सिद्धान्तोसे अपने धर्मोपदेश देनेमें सहायता ली थी, नितान्त भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है, क्योकि Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्खाली गोशाल और पूरण काश्यप। १७७ उन्होने आजीवक सम्प्रदायकी उत्पत्ति ईसासे ७०० वर्ष पहिले एक हिन्दू वानप्रस्थके ब्राह्मण ऋषिसारभङ्ग वा उदैकौन्डलके शिष्य किपवच्छके द्वारा मानी है। यद्यपि किषवच्छके पहिले भी वे नन्दवच्छ नामक वानप्रस्थ ऋषिसे आजीवक सम्प्रदायका संबन्ध बतलाते हैं और यह ऋषि ब्राह्मण वानप्रस्थसे किसी कारणवश विलग होगए थे तथैव अपने पृथकूपनेकी स्वाधीनताको बनाए रखनेके लिए इन्होंने वानप्रस्थके खिलाफ रहकर अपना पृथक् रूप प्रकट किया था। इनका दिगम्बर भेष और पूर्वोसे आठ महानिमित्तों और दो . मार्गोका लेना व्यक्त करता है कि इन्होंने पार्श्वनाथजीके तीर्थकालमे प्रवर्तित जैन धर्मसे बहुत कुछ लिया था। भगवान पार्श्वनाथके तीर्थकालके जैन मुनि वस्त्र धारण करते थे, यह मानना बिलकुल मिथ्या है । क्योकि वे भी निर्ग्रन्थ श्रमण कहलाते थे और उनके वस्त्र धारण करनेका उल्लेख न बौद्ध ग्रन्थोमें मिलता है और न हिन्दुओंके शास्त्रोमे । इसका विशेष उल्लेख हम श्वेताम्बरोका उल्लेख करते हुए अगाडी करेंगे । अस्तु, भगवान महावीरने मानीवक सम्प्रदायके सिद्धान्तोंसे कुछ नहीं लिया था, क्योकि उसके सिद्धान्त खयं अपूर्ण और अवैज्ञानिक थे, बल्कि उल्टे जैनियोके पूर्वोसे आठ महानिमित्तों और दो मार्गोको लेकर आजीविकोंने अपने धर्मशास्त्रो की रचनाकी, और कुछ २ नैनधर्मसे और कुछर वानप्रस्थसे मिलते जुलते सिद्धान्तोके माननेवाले रहे और उनने नग्नवेष श्री पार्श्वनाथ भगवानके तीर्थकालके साधुओके दिगंबर वेषसे लिया था, क्योंकि आजीवकोंसे पहिले सिवाय जैनधर्मके अन्य किसीने भी दिगम्बर भेषका निरूपण नहीं किया । जब मक्खाली Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ . भगवान महावीर । momimmenseminimumminimirmwommmmmmmmmmmm गोशालके नेतृत्वमें आजीवक सम्प्रदाय आगयातब वह एक धार्मिः । करूप धारण कर सका था; यद्यपि अपने पितृ धर्मकी (वानप्रस्थ) 'बहुतसी बातें उसमें तब भी, रहीं थी, जैसे वनमें भ्रमण करना, "शरीरकी परवा न करना, वनके कलोंपर निर्वाह करना, मनुष्योंसे दूर रहना अथवा, गोवर या मच्छी खाना, डन्डा हाथमें रखना .. इत्यादि। . . . . . मक्खाली गोशालने आजीवक सम्प्रदायका विशेष प्रचार किया था। उसका मुख्य कार्यक्षेत्र श्रावस्ती रही थी। यद्यमि .. उसका प्रचार समस्त मध्यदेशमें हो गया था। मक्खाली गोशालो २४ वर्ष तक अपने मतका प्रचार किया था। वह अपनेको तीर्थकर प्रगट करता था । आश्चर्यका विषय है कि भगवान महावीरके अतिरिक्त उस समय अन्य पांच मताप्रवर्तक भी अपनेको तीर्थकर प्रगट कर रहे थे ! परन्तु जरा विचार करनेसे हमे उनका अप'नेको तीर्थकर प्रगट करनेका कारण मालूम हो जाता है। बात यह है कि उस समय लोगोंको मालूम था कि २३ तीर्थकर हो चुके हैं और अंतिम २४वें होनेवाले हैं, जिनकी वह लोग स्वभावतः बाट जोह रहे होंगे, क्योंकि धर्मका हास उस समय पूर्णतया हो चका था. जैसा कि हम पहिले देख चुके हैं। इस कारण हरकोई अपनेको तीर्थकर वतलाकर ब्राह्मणोंका विरोध करके लोंगोंको अपना लेता था । मक्खाली गोशाल भगवान महावीरसे उमरमें बड़े थे, और उनकी मृत्यु भगवानकी निर्वाण प्राप्तिके पहले होचुकी थी। इसलिए उनने अपने धर्मका जो कि बहुतसी वाह्य बातोंमें प्राचीन जैनधर्मसे मिलता था जैसा कि हम पर लिख चुके हैं, Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मrखाली गौशाल और पूरण काश्यप । GS " प्रचार भगवानकी केवलज्ञानोत्पत्तिके पहिले ही किया था ऐसा प्रतीत होता है और यही कारण था कि उनके अनुयायी एक बड़ी संख्या में होगए थे, “किन्तु जब प्रभु महावीरका विहार और प्रचार हुआ तब लोगोंको यथार्थ तीर्थङ्करका पता चलगया, क्योंकिं भगवान महावीरका उपदेश बिल्कुल वैज्ञानिक रीत्या वस्तुस्थिति रूपमें होता था, जैसाकि आज भी प्रकट है। उपर्युक्त व्याख्याको पढ़ते हुए यह भी ध्यान में रखनेकी बात है कि सिवाय जैनधर्मके अन्यर्धमोंमें आदि रूपसे तीर्थकरोंको नहीं माना गया है। भगवान महावीरंसे पूर्वके इन वास्तविक तीर्थकरोंके अस्तित्वकी पुष्टि हिन्दूओंकि वेद भी करते हैं जब 'कि इन अन्य नाममात्रके तीर्थका उल्लेख उन वेदोंमें नहीं है । इस नाममात्र के तीर्थङ्कर मक्खाली गोशालके सिद्धान्तोंका वर्णन डॉ० बारुआने अपनी आजीवक नामक पुस्तकमें जैन और बौद्ध शास्त्रोंसे छानबीन करके लिखा है, क्योंकि आजीवकोके निजी - शास्त्रोंका पता नहीं चलता है; और वह वहींसे जाना जासक्ता है। यहां पर उनका पूर्ण विवरण स्थानाभावके कारण नहीं दिया जासका है, तो भी पाठकोंके अवलोकनार्थ तत्संबंधी कुछ वाक्य हम यहां लिखे देते हैं। 'मलिन्दप्रश्न' नामक वौद्धग्रन्थ में लिखा है- "सम्राट् मलिन्द ने गोशालसे पूछा - "अच्छे बुरे कर्म हैं या नही ? अच्छे बुरे कर्मोका फल भी मिलता है या नहीं ? " गोशालने उत्तर दिया * जनधर्मके वैज्ञानिक रूपकी यथार्थता जाननेके लिए श्रीयुत चम्पतरायजी वैरिष्टरकी Key of Knowledge और भसहमत संगम नामक पुस्तकें व जैन आप्रिन्य देखना चाहिए। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १८०, ।। भगवान महावीर।' हे सम्राट, 'अच्छे बुरे कर्म भी- नहीं है और उनके फल भी 'कुछ नहीं हैं।" बौद्ध कहते हैं कि वह मरकर अवीचिनरकमें गया। उसके मतसे समस्त पानी विना कारण अच्छे बुरे होते हैं।। संसारमें शक्ति सामर्थ्य आदि पदार्थ नहीं हैं। जीव अपने अदृष्टके प्रभावसे यहां वहां संचार करते हैं। उन्हें जो सुखदुःख भोगना पड़ते हैं, वे सब उनके अहष्टपर निर्भर हैं। इत्यादि। .... (देखो जैनहितेषी भाग १३ अंक ५६ पत्र २६०), .... “बौद्ध सम्प्रदायके 'समनफलंसूत्र' से प्रगट है कि महाराज 'अजातशत्रुसे मजलिपुत्र गोशाल मिले थे। अजातशत्रुने बुद्धसे गोशालका मत इस तरह प्रकट किया-"महाराज ! वितरण. दान. बलिविधान, पुण्य, पाप, पापपुण्यका फलाफल, वर्तमान जगत, स्वर्ग नर्क, पिता, माता, देव, अप्सरां, नीवलोक, श्रमण, ब्राह्मण आदि कहीं कुछ भी नहीं होता और न उसकी विद्यमानताका कोई प्रमाण ही दे सका है। जो लोग इन द्रव्योका अस्तित्व बताते वह झूठे हैं।" (हिन्दी विश्वकोप भाग २ पृष्ठ ५२३) - मक्खाली गोशालकी मृत्यु श्रावस्तीके हालाहलाकी कुम्भारशालामें ज्वरके कारण महावीरस्वामीकी निर्वाणप्राप्तिके १६ वर्ष पहिले हुई थी। इस समय अंगदेशके वायसराय और पश्चातमें मगधके राजा कुणिक और वैशालीकराजा चेटकसे युद्ध एवं महावीर भगवानका । धर्म प्रचार होरहा था । मक्खाली गोशालके परिणामवादके घोसमें अब लोग नहीं आ रहे थे। इसलिए " जनता से इस प्रकार विश्वास उठ जानेके कारण गोशाल दिनोदिन हीनताको प्राप्त होता गया, और अंतमे वह एक मूर्खकी भांति मृत्युको प्राप्त हुआ।" । (S08 tlo Eleart of Jainisiu P. 60.) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मrखाली गोशाल और पूरण काश्यप । १८१ 1 गोशालकी मृत्युके कुछ पहिले निम्नलिखित है दीक्षाचर उनके पास पहुंचे थे, साण, कलन्दु, कणियार, अत्येद, अग्निवेशायण और अज्जण गोमायपुत्र । इन्होंने गोशालका मत स्वीकार किया था। उन्होंने अपनी बुद्धिके अनुसार पूर्वोमें गर्भित आठ महानिमित्तों और मार्गोमेंसे कुछ वाक्य उद्धृत किए । गोशालने स्वयं महानिमित्तोंसे अपने लिए छैः विषय चुने थे, मुक्ति, बन्धन, सुख, दुख, जीवन और मरण । इन्हीं दीक्षाचरोंने बादमें आजीविक सम्प्रदायको जीवित रक्खा था। गोशालका महानिमित्तों से अपने सिद्धान्तोंको चुनना व्यक्त करता है कि वह ज्योतिष और मंत्रवादका आचार्य था । उसके उपदेशमें इन्हीं की बहुतायत रहती थी ऐसा प्रगट होता है क्योंकि उसने आनन्दसे कहा था कि वह नष्ट करनेके मंत्रको जानता है । और उसने दो जैन मुनियोंको भी मंत्रविद्यासे नष्ट किया था । (See The Ajivakas by Dr. Barua M. A. D. Litt P. बौद्धग्रन्थ कथाचरितसागर की तरङ्ग १३, नं० ६८के जातक 28.) कथानकमें साफ लिखा है कि बुद्धके जीवनकालसे ही आजीवकोके निकट ज्योतिषबाद जीविका उपार्जन करनेका एक मार्ग होगया था। ( See Ibid P. 68. ) उसके आठ महानिमित्तों में सिवाय ज्योतिष और मंत्र विद्याके और कुछ न था और दो मार्गो में संभवतः संगीत शास्त्र अथवा आजीविक सम्प्रदायके चारित्र नियमोंका उल्लेख था । गोशालकी मृत्युके समय आजीविक सम्प्रदायमें कुछ नियम और बढ़ाए गए थे, अर्थात् आठ अंतिम नियम ( अनुचरमायं = • Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीरम wight-finalis); ( १ ) अतिम पानं (२.) अंतिम गान (३) अतिम नृत्य (४) अंतिम कुशील | Solicitation), (५) अंतिम आंधी ( Tornadi) (६), अंतिम छिड़कनेंवाला'हाथी (७) अन्तिम बड़े, पत्थरोंसे लड़ाई (८) और अन्तिम तीर्थकर मक्खालीपुत्त और चत्तारिपाणगाय व चत्तारि अपाणगायंका नियम । पूर्वके नियमोका यथार्थ भाव प्रगट नहीं है।" संभव है इसमें भी कुछ मंत्रवादका अंश हो ।डॉ० हॉर्नल साहब इनमेंसे प्रथम चारको गोशालके अन्तिम समयके वेसुधीकी दशासे सम्बंधित बतलाते हैं और अवशेषके चारमेंसे तीनको उस समयकी घटनाओंसे सम्बंधित बतलाते हैं जब, गोशालकी मृत्यु हुई' थी परन्तु वह धार्मिक सिद्धान्त क्यो माने जाने लगे यह बात अर्धकारमे है। शायद यह कारण हो कि गोशालके तीर्थकरत्वको प्रगट करनेके लिए उन्होंने यह प्राकृतिक घटनाएं ले ली हों। और यही बात ठीक जंचती है क्योकि इस समय भगवान महावीरका प्रचार हो रहा था, और लोगोंको असली तीर्थङ्करका पता 'चलंगया था। इसलिए उनका विश्वास मक्खाली गोशालके तीर्थ'करपनेमें कम हो चला था, जिसके कारण ही आजीवकोंको 'मक्खाली गोशालको ही तीर्थकर माने जानेके लिए यह सैद्धांतिक 'नियम रचना पड़ा था ऐसा प्रतीत होता है और इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने प्राकृतिक घटनाऐं भी प्रमाणरूपमें ले लीं थीं। अस्तु, इस नियमका इस प्रकार खुलासा होनाता है, जिससे प्रगट होता है कि इसमे कुछ भी सैद्धातिक भाव न था। चत्तारि पाणगायं आदि नियमके विषयमें हम- पहिले कह चुके हैं कि उसका Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्खाली गोशाल और पूरण काश्यप। १८३ साहश्य जैनियोके सल्लेखनावृत्तसे है, परन्तु आजीवकोंके निकट वह केवल आत्महत्या (Suicide ) भावमें है-उससे आत्मानुभवका कुछ संबंध प्रतीत नहीं होता | आजीविकोंका विश्वास था कि जो कोई इस नियमका पालन करता है, उसके निकट छै महीनेकी अंतिम रात्रिको पुनभद और माणिभद्द देवता प्रकट होते हैं और वे उसके अवयवोंको अपने ठंडे और गीले हाथोंमें ले लेते हैं। यदि अवयव उनके इस ऋत्यसे उल्लसित होगए तो वे सोका कार्य करते हैं । अन्यथा उनके शरीरसे एक गुप्त अग्नि निकलती है जो अवयवोंको भष्मकर डालती है । बात यह है कि यहाँपर आत्मानुभव द्वारा समाधिमरण करके आत्मशुद्धि करनेकी ओर ध्यान नहीं है, बल्कि वही मंत्रतंत्रकी बात आगई है कि देवता प्रगट होंगे। , गोशालकी मृत्युके साथ २ आजीवक सम्प्रदायका कार्यक्षेत्र श्रावस्तीसे हटकर विन्ध्यापर्वतके पाण्डुदेशमें चला गया था। श्रावस्तीमें वह गोशालके समयसे ही हासको प्राप्त हो चलाथा। पाण्डके राजा महापद्म अथवा देवसेन वा विमलवाहनने आजीवक सम्प्रदायको आश्रय दिया था और निर्ग्रन्थ सम्प्रदायको कष्ट दिए थे। वहांसे दक्षिणको बढ़ते २ आजीवक सम्प्रदाय १४ वी शताब्दिमें लुप्त होगया। इसके बहुतसे अनुयायी जैन हो गए थे। जब भगवान महावीरका दिव्योपदेश हो रहा था तब उसका प्रभाव आजीवकोके ऊपर विशेष पड़ा था और वे आवस्तीसे हट चले थे। उनका मंत्रादिमें विश्वास कम हो चला था। अस्तु, मक्खाली गोशालके मांत्रिक नकलीतीर्थकरत्वका वर्णन देखकर हम अब पुरण कश्यपका भी दिग्दर्शन पाठकोको कराये देते हैं। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४. भगवान महावीर । बौद्धग्रन्थोंसे मालूम होता है कि "यह एक म्लेच्छस्त्रीके 11 7 गर्मसे उत्पन्न हुआ था । ' कश्यप उसका नाम था । इस जन्मसे पहिले यह ९९ जन्म धारण करचुका था । वर्तमान जन्ममें 7 } " उसने शतजन्म पूर्ण किए थे इस कारण इसको लोग 'पूरण- कश्यप ' कहने लगे थे। उसके खामीने उसे द्वारपालका काम सौंपा था; परन्तु उसे वह पसन्द न आया और यह नगरसे भागकर वनमें रहने लगा। एक बार कुछ चोरोंने आकर उसके कपडेलत्ते छीन 1 लिये, पर उसने कपड़ोंकी परवा न की, यह नग्न ही रहने लगा । " 1 उसके बाद यह अपनेको पुरण कश्यप बुद्धके नामसे प्रकट करने लगा और कहने लगा कि मैं सर्वज्ञ हूं। एक दिन जब वह नगर में गया, तो लोग उसे वस्त्र देने लगे, परन्तु उसने इन्कार कर दिया। और कहा - "वस्त्र लज्जानिवारण के लिए पहिने जाते हैं और लज्जा पापका फल है। मैं अर्हत हूं मैं समस्त पापोसे मुक्त हूं, अतएव मैं लज्जासे अतीत हूं । " लोगोंने कश्यपकी उक्तिको ठीक मानली और उन्होने उसकी यथाविधि पूजा की, उनमेंसे ५०० मनुष्य उसके शिष्य हो गए और सर्वत्र शिष्य यह घोषित हो गया कि वह बुद्ध है और उसके बहुतसे हैं । परन्तु बौद्ध कहते हैं कि वह 'अवीचि ' नामक नर्कका निवासी हुआ । सुत्तपिटक दीर्घनिकाय नामक भागके अर्न्तगल 'सामाओ फलसुत' में लिखा है कि पूरण कश्यप कहता था- 'असत्कर्म करनेसे कोई पाप नही होता और सत्कर्म करनेसे कोई पुन्य नहीं होता । किए हुए कर्मो का फल भविष्यत् कालमें मिलता है, इसका कोई प्रमाण नही है । " (देखो जनहितैषी भाग १३ अंक ५-६ पृष्ठ २६८) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्खाली गोशाल और प्रण काश्यप। १८५ इस प्रकार महावीरस्वामीके एक अन्य समकालीन पुरुषका मत था जो स्वयं अपनी सर्वज्ञताकी डोंडी पीटता था, और लोगोंको अज्ञानके गर्तमें डाल रहा था। वीर भगवानका वास्तविक ज्ञानसूर्य प्रगट होते ही इन लोगोंकी यथार्थता खुल गई थी और इनका मत लुप्त हो गया था। इन लोगोंकी वाञ्छा लोगोंमें अपनी प्रतिष्ठा जमानेकी थी इसी लिए वे अपने आपको तीर्थकर प्रगट करके अपने अनुकूल मनुष्योंको अपनाने लगे थे। उन्हें सत्यअसत्यकी ओर ध्यान नहीं था, परन्तु सत्य स्वयं प्रगट हो जाता है। और इसीसे भगवान महावीरका तीर्थङ्करपना लोगोंपर स्वयं प्रगट हो गया था। इसीसे हमारे पूर्वकथनकी पुष्टि होती है कि तीर्थकर भगवानका आगमन निकट जानकर धार्मिक शृङ्खलाके उस डांवांडोल जमानेमें लोग अपनेको तीर्थकर प्रगट करके जनताको भुलावा दे रहे थे। और वास्तविक ज्ञानसूर्यके प्रकट होते ही एकदफे चहुंओर उजाला फैल गया था। उस समयके बड़े माने जानेवाले धार्मिकनेता म० बुद्ध भी उस प्रकाशके प्रभावसे वंचित नही रहे थे, जैसा कि हम देख चुके हैं। परन्तु म० बुद्धके उच्च वंशका ही यह प्रभाव प्रतीत होता है कि उन्होंने यथार्थताको छिपाया नही और भगवानकी सर्वज्ञताको प्रकट शब्दोंमे स्वीकार किया और कहा कि मेरेसे पहिले २४ बुद्ध वा जिन वा तीर्थकर हो चुके हैं जैसे कि डॉ० स्टीवेन्सन साहब भी कहते हैं कि "यह प्रगट है कि बुद्धने अपने २४ पूर्ववर्ती बुद्धोंको देखा था, परन्तु इस कप्पो (काल) में उसने चार ही देखे । (Mahavanso, book I. Ch. 1) और जैन अपने सिद्धान्तानुसार व्यक्त करते Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर।। हैं कि महावीरने उस कालके अपनेसे पूर्वगामी २३ तीर्थंकरोंको देखा था। बौद्धधर्मकी इस व्याख्यासे साफ प्रगट है कि उनका २४.बुद्धोंसे मतलव २.४ जैन तीर्थकरोंसे है ।" (Ses' Prokace to Kalpasutra P. XIII.) , अस्तु, अब हम महावीर भगवानके निर्वाण प्राप्तिके दिव्यावसरका वर्णन, करके भगवानके, दिव्योपदेश और उनके पश्चात् अनेक संघकी दशाका दिग्दर्शन पाठकोंको करायंगे । A भगवानका मोक्षलामा | ‘त्वमसि सुरासुरमहितो ग्रन्थिकसत्त्वाशयप्रणामामहितः। , लोकत्रयपरमहितोऽनावरणज्योतिरुज्वलडामहितः ॥" बृहस्वयंभूस्तोत्र। • हे वीर ! आप सुरासुरोसे वंदित, वा मिथ्यादृष्टियोंसे अवं. दित. तीन लोकके परमहितकारक, निरावरण ज्योतिः अर्थात् क्षायक 'ज्ञान (केवलज्ञान) उससे प्रकाशमान जो मोक्षस्थान है उसको प्राप्त ' होनेवाले हैं। ...जैन शास्त्रोमें तीर्थकर भगवानके जो पांच अति उत्कृष्ट दिव्यअवसर, कल्याणक कहे हैं उनमेंसे हम भगवान महावीरके गर्म, जन्म, तप और ज्ञान- कल्याणकोंका वर्णन कर चुके हैं। अवशेष मोक्षकल्याणक जो सर्वमें सर्वोत्कृष्ट है, उसका दिग्दर्शन * हम यहां करते हैं । इस ही अवसर पर तीर्थकर भगवानकी संसारी ', आत्मा अपनी संसारपरिभ्रमणकारक स्थितिका अन्त सदैवके लिए' Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका मोक्षलाभ। १८७ करती है और सिद्धावस्थाके जीवनका अनुभव प्रारम्भ करती है। इस सिद्ध जीवनमें आत्मा पवित्र और विशुद्ध होती है, परमसुखका भोग करती है और अविछिन्न शांति एवं अनन्त वीर्यका आनन्द लेती है। इस दशाका वर्णन करना बचनअगोचर है, इसका खरूप समाधिस्थित आत्मा ही समझ सक्ती है। ___ संसारमें समस्त जीवित प्राणियोके जीवनका एक दिन अन्त होता है, परन्तु वह अन्त एक दूसरे जीवनको प्रारंभ कर देता है। भगवान महावीरके मानुषिक भौतिक जीवनका दिव्य अन्त 'फिर संसारमें न आनेके लिए ' हुआ था, इसलिए वह उत्कृष्ट था। उससे जन्ममरणके दुःख-पाश कट गए थे, जिनके कारण जीवित प्राणी संसारमें चक्कर लगाते हैं। इसी कारण कहा जाता है भगवानने मोक्षलाभ किया। यह दिव्य अवसर ईसासे पूर्व ५२७ वें वर्षमें भगवान महावीरको प्राप्त हुआ था। भगवान गणघरादिके साथ विहार करते हुए दीक्षा ग्रहण करनेके करीब तीस वर्ष उपरांत, समस्त प्राणियोके हितका उपदेश देकर पावापुरके फूले हुए वृक्षोंकी श्री शोभासे रमणीय 'मनोहर' नामक उपवनमें आकर प्राप्त हुए थे। पावापुरी संभवतः राजा हस्तिपालकी राजधानी थी, जो (राजा) भगवान महावीरके परमभक्त थे। ___ पावामें राजा हरितपाल भगवान महावीरके शुभागमनकी बहुत दिनोसे प्रतीक्षा कर रहे थे। जब उन्होने भगवानका आगमन सुना तो समस्त पुरवासियोंको आनन्द मनानेकी आज्ञा दे दी निसके कारण मार्ग साफ कर दिए गए थेगलियोमें गुलाबजल Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। छिड़क दिया गया था, और वृक्षोंपर कन्डील और पताका लटका दिए गए थे । पुरवासी सुन्दर बहुमूल्य वस्त्राभूषणोंको धारण करके , भगवानकी बन्दनाको गए थे। भगवान उस उपवनमें एक तालाबके मध्य एक प्रेक्षकुञ्जमें अवस्थित थे। श्वेताम्बर ग्रन्थ व्यक्त करते हैं कि भगवानने यहां पर भी दिव्योपदेश दिया था। परन्तु महावीरचरित्रमें लिखा है कि उस वनमे आकर भगवानने सभाको छोड़ दिया था अर्थात् उनका समवशरण विघटित होगया था। • भगवानका उत्सष्ट आत्मिक प्रभाव उनके चहुंओर एक अच्छी सीमा तक फैल रहा था और उसका प्रभाव समस्त प्राणियोंपर पड़ा था, जिससे वे आपसमें परमसमताभावको धारण किए हुए थे, और सुख एवं आनन्दका अनुभव करने लगे थे। पशु भी अपने वैरको विसार चुके थे। सिह और गाय साथ २ घूमते थे। एक कवि इस भावको अंग्रेजी भाषामें किस उत्तमतासे व्यक्त करते हैं। SPOTTED DEER." *Broused fearless where the tigress fed her cubs, And cheetahs lapped. the pool beside the bucks, Under the eagle's rook the brown kares Eloured, Thele his fiercs beak but preened an idle wings The snake sunned all lua je veld in die bulk 18 TVith deadly fangs in sheath, the elrile le presso The nestling-finck; the cmerald huleymano, Suts dreaming whild the fishes played benualth; Nor huuhed the nerous, thoryh the butter, Lits, Crimson and blue and umbor-fitted liai Around his perch; the spirit of our Lordha Lay potent upon mont and bird wad bud., * -Jiin Garetse Vol.xv. sort a Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका मोक्षलाभ। १८९ भावार्थ-विरोधी पशुओने एक दूसरेसे मैत्री कर ली थी, जिससे प्रगट होता था कि भगवानका दिव्य प्रभाव मनुष्य, पक्षी और पशुओंमें पूरा पुरा असर करगया है। ___ 'भगवानकी आत्मिक दिव्य ज्योतिके प्रभावसे प्रकृति भी स्वयं उल्लसित हो गई थी। आकाश निर्मल होगया था। पृथ्वीने हरी २ घास और रंगविरंगे फूलोको धारण करके मानों भगवानके चरणोंकी पूजा की थी। चहुंओर सुवासित धीमी २ पवन चलने लगी थी । वह स्थान "जय जय की ध्वनिसे गुंजायमान होगया था और समस्त प्राणी हर्षमें मग्न होगए थे । संक्षेपमें सुन्दर वनोपवन और आनन्दसे विह्वल मनुष्योंसे वेष्टित पावापुरी साक्षात् खर्गका मान देने लगी थी।' ( Ibid) ___ समवशरणके विघटित हो जानेपर दिव्य एवं अनुपम समयमें "निर्मल परमावगाढ़ सम्यक्त्वका धारक वह सन्मति भगवान जिनेन्द्र षष्टोपवासको धारणकर योगनिरोधकर कायोत्सर्गके द्वारा स्थित होकर समस्त कर्मोको निर्मूलकर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रात्रिके अंतसमयमें जब कि चन्द्र खातिनक्षत्र पर था, प्रसिद्ध है श्री जिसकी ऐसी सिद्धि (मुक्ति) को प्राप्त हुआ उस जिनेन्द्रके अव्यावाध अतिशय अनंत सुखरूप पद-स्थानको प्राप्त करते ही, सिहासनोके कंपनेसे जानकर-भगवानका मोक्षकल्याणक हुआ है ऐसा समझकर अपनी अपनी सैन्यके साथ शीघ्र ही अनुगमन करनेवाले सारे देव और उनके अधिपति भगवानके पवित्र और अनुपन शरीरकी भक्तिपूर्वक पूजा करनेके लिए उस स्थानपर जा पहुंचे।" ( अशक अधिकृत महावीरचरित पृष्ट २५६) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० , ' 'भगवान महावीर। mmimmmmmmmmmmmmmmmmmmmm '.'. . भगवानका निर्वाण सर्वक प्रगटरूपमें हुआ था। कहा जाता है कि जिस समय आपकी परमोत्कृष्ट आत्मा अवशेष अघातिया कर्मोका नाश करके लोकशिखिरपर स्थित सिद्ध शिलाकी ओर जा रही थी, उस समय कृष्णपक्षकी रात्रिका अन्धकार होते हुए भी एक अपूर्व दैदीप्यमान प्रकाश चहुंओर फैल गया था, समस्त लोकमें एक अद्भुत चमत्कार दृष्टिगोचर होने लगा था, जिससे उर्व, मध्य एवं पाताल लोकके प्राणियोंको भगवानकी निर्वाण प्राप्तिका शुभ समाचार ज्ञात हो गया था, जैसे कि महावीरचरित्रके उक्त कथनसे व्यक्त है। समुद्रने भी अपूर्व गर्जन प्रारम्भ कर दी थी। एथ्वी जरा कम्पित हो गई थी। देवलोकके देवमासादोंमें घंटे आदि स्वयं बजने लगे थे। देवोंने आकर भगवानकी पूजा करके उनके शरीरकी अन्त्य क्रिया की थी, और फिर वे अपनेर स्थानको वापस गए.। श्वेताम्बर आन्नायके अन्योसे प्रकट है कि, 'निस पवित्र स्थानसे भगवान महावीरको मोक्षलाम हुआ था, वहांपर एक स्तूप इस पवित्र दिनकी स्मृतिके स्मारकरूपमें निर्मित कर दिया गया था। भगवानकी निर्वाणप्राप्तिके उपलक्षमें उत्तरीय भारतके काशी, कौशलके १८ राजागणोने और मछगणतंत्र संघके ९ राजाओंने और लिच्छावि संघके ९ राजाओंने मिलकर उस दिन दीपक जलाए थे और हर्ष मनाया था। पावापुरीमें भी राजा हस्तिपालने दीपावली उत्सव किया था। प्रत्येक गृहप्रासाद तडाग आदि दीपकोंक प्रकाशसे खूव चमचमाते नजर आरहे थे। मानो यही व्यक्त कर रहे थे कि "यथार्थ ज्ञानका प्रकाश तो अब संसारमें नहीं है परन्तु Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका मोक्षलाभ। १९१ पौद्गलिक:प्रकाश अपना विकास दिखा रहा है । " यह दीपावली (दिवाली) का उत्सव आजसे करीब साढ़े चौवीस सौ वर्ष पहिले - ईसासे पूर्व संवत् १२७ में भारतवासियों द्वारा परम हर्ष और आनन्दसे मनाया गया था, जो आजतक अपने उसी रूपमें प्रचलित है, यद्यपि उसकी असलियत भुला दी गई है । हरिवंशपुराणके निम्न श्लोक इसी बात बातको अच्छी तरह प्रगट कर देते हैं, अर्थात: ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया, - सुरासुरैदीपितया प्रदीप्तया । तदास्म पावानगरी समंततः, प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥ १९ ॥ ३३ ॥ ततश्च लोकः प्रतिवर्षमादरा प्रसिद्ध दीपालिकयात्र भारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं, जिनेन्द्रनिर्वाणविभूति भक्तिभाक् ॥ २१ ॥ ६६ ॥ " अर्थात् - उस समय भगवान महावीरके निर्वाण कल्याणके उत्सवके समय सुर असुरोंने महादेदीप्यमान जहां तहां दीपक जलाये - रोशनी की जिससे कि पावानगरी अति सुहावनी जान पड़ने लगी और दीपकोके प्रकाशसे समस्त आकाश जगमगा उठा ||१९|| भगवानके निर्वाण दिनसे लेकर आज तक भी जिनेन्द्र महावीरके निर्वाण कल्याणकी भक्ति से प्रेरित हो लोग प्रतिवर्ष भरतक्षेत्र में दिवाली के दिन दीपोकी पंक्तिले उनका पूजन स्मरण करते हैं ॥ २१ ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMAARANA १९२ . . भगवान महावीर। '.. भगवान के निर्वाणोपलक्षके शुभ स्मारकमें प्रचलित भारत के सर्वोपरि जातीय त्यौहारकी असलियत लोगोंने किस तरह . भुलादी है, उससे भारतवासियोंके आत्मगौरव विस्मृतिका पता हृदयको विह्वल करदेता है। कितने पवित्र उच्च आदर्शक स्मारकमें हर्ष मनाना-दीपक जलाना; और कहां उसी समय आसुरी प्रवृत्तियों (धूतरमण आदि)में प्रवृत्त हो जाना ! भारतवासियो ! अपनेको पहिचानों! अपने आदर्श भगवान महावीरके चारित्रका अनुकरण करो; निसका कि उत्कट प्रभाव आपके पूर्वजों पर इस प्रकार पड़ा था कि उन्होने भगवानकी पवित्र स्मृतिमें एक जातीय त्योहार नियत किया था। .: ' जिन विज्ञ पाठकोंने भगवानकी निर्वाणप्राप्तिके शुभस्थानके दर्शन करनेका सौभाग्य नही पाया है, उनके लिए मि० जुगमन्दरलाल जैनी० एम० ए० वैरिष्टरादिका निम्नवर्णन पावापुरीका परोक्ष दर्शन करादेगा। आप लिखते हैं कि " सीमित फैलावका छोटासा ग्राम, अधिकांशमें मिट्टीके गृहोंसे पूर्ण पावापुरी अपने साधारण रूपमे प्यारी जगह तो है ही, परंतु धार्मिक संबंध होने के कारण वह और भी प्यारी है। जैन यात्रियोंके लिए वहां कई धर्मशालाएं हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बरियों द्वारा निर्मित करीब ५-६ मंदिर हैं। पुरुष और महिला समाजके बहुतसे यात्री वहां जाते हैं, परन्तु खासकर दिवालीके दिन उनकी संख्या अधिक होती है। इसी पवित्र दिन भगवानने मोक्ष प्राप्त की थी। और इसके पश्चात मार्च मास तक यही दशा रहती है। उपरान्तमें यात्री घट जाते है। मुख्य मंदिर जिसमे भगवान महावीरके पवित्र चरण-चिह्न Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका मोक्षलाम। . १२३ विराजमान हैं, कमलपत्रों और अन्य प्रकारकी जलजलता-बलरियोंसे अलंकृत एक तालावके मध्य अवस्थित है। पानीके मध्य अनेक मछलियां तैरती नजर आती हैं; और उनका रतिपूर्ण तैरना मनोरंजनका एक सलौना दृश्य है । कभी २ एक बड़ी मछली छोटी मछलियोके गिरोहपर झपटकर उन्हें तितर वितर करके पानीमें भीतर दौड़नानेके लिए बाध्य करती है। इस समय तालाबमें कमल नहीं खिल रहे थे, परन्तु यह अनुमान करना कठिन नहीं है कि कैसा न चिताकर्षक दृश्य तलावका होजाता होगा जब श्वेत और रक्तवर्णके कमलदल उसकी सतहको अलंकृतकर देते होंगे, एवं उसकी स्वच्छ तलीमे मछलिया कमलोंकी जड़ोंके तन्तुओंमें किल्लोलें करती तैरती दिखाई पड़ती होंगी। सूर्य भी उस समय उस जलबिन्दुको जो मछलियोके किडोलमय नृत्यसे कमलदलपरआन पड़ाहो, अति मनोहर गुलावी वर्णक मोतीमें परिवर्तित करता नजर आता होगा। हमारे भगवानके पवित्र मंदिर तक पत्थरका पुल बन्धा हुआ है, जिसके द्वारा वहां पहुंचा जाता है। इस मंदिरमें एक छोटी कोठरी है, जिसमें पूर्वकी ओर मुख किए तीन ताक है। इन ताकोंके मध्यवाले ताकमें हमारे अंतिम भगवानके पवित्र चरण-चिन्ह अंकित हैं। इस ताकके सीधे हाथवाले ताकमें भगवानके गणधर इन्द्रभूति गौतमकी और उसके दाई ओर दूसरे गणधर सुधर्माचार्यकी चरणपादुकाएं प्रतिष्ठित हैं। यह दोनों ही महात्मा भगवान महावीरके जीवनकालमें हुए थे। और भगवानके निर्वाणकालके १२ वर्ष उपरान्त पावासे ही मोक्षको प्राप्त हुए थे। इन पवित्र चरणचिन्होंके दर्शन करनेरो नित शांति और शुद्धिका आनन्द मिलता है Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। WWW वह साक्षात् अनुभवसे ही अन्दाजा जा सका है। " . ...हम आशा करते हैं कि हमारे विद्वान् मित्रगण अपने फालतू समयको अन्यथा व्यर्थ न जाने देंगे, बल्कि पावापुरीकी यात्रा करके भगवानके परोक्ष परन्तु साक्षात् चरणों तले बैठनेका सौभाग्य प्राप्त करेंगे, जिनकी प्रकाशमान उँगलियां आन भी सनातन मार्गको व्यक्त कर रही हैं और जिनकी हितमितपूर्ण वाणी अब भी व्यथित यात्रीको शांति, सुख और सत्यके पवित्र देशको ओर पग बढ़ानेको ललचारही है !" • , वस्तुतः पावापुरीका साधारण पर मनमोहक सौन्दर्य आत्मामें एक अपूर्व उत्साह भरनेका काम करता है। उसका विशेष अनुभव और महत्व उन्ही लोगोंको मालूम हो सका है, जिन्होने - अपनी आत्माका स्वरूप साक्षात् अनुभव द्वारा देख लिया है। उनके निकट-भगवानके पवित्र चरणोके समीप बैठना मानो स्वर्गीय सुखका अनुभव करना है। वहां बैठना क्या है ? वरिक मुक्तिके द्वारके ताले खोलना है। वहां स्थान ही धन्य है-पवित्र है, जहां प्रभूके चरण चर्चित है । और उधर आते पग उघार, मस्तकसे नमि लेना ! दरशन कर पवित्र चरणका, स्वातम लखलेना ! है वह पावन और, वहाँ है महिमा दिखती ! उस सम और न ठौर, मही नहाँ सुन्दर खिती ! ชม “ระบห้ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका दिव्योपदेश। (३१) भगवानका दिव्योपदेश और निर्मल कारिन्। “ History koons no chapters 80 beautiful and noble as those which tell of the coming of the great propbets and founders of religions to the men of their time......They tell how greab new thoughts of eternal things oume to men through the human dedium of & noble prsonality, hory like magnets they drow to the new torcher, the flower of the noble youth of the time, who followed the Master Learned his gi cat lunguage, cought his cleur acounts, Mlade him their patt:in to lire and to die " - DS Cairns. मि० कैरनस उक्त शब्दोमे किस उत्तमतासे भावको व्यक करते है कि इतिहासमे कोई भी प्रकरण ऐसे प्यारे और उत्तम नहीं है जैसे कि वह जिनमें उस समयके किसी आचार्य वा धर्मक संस्थापकके आगमनका वर्णन किया गया है ! लोग उन महात्माओंकी निर्मल वाणीको सुनकर उनके चरणोमें चलकर अपनेको कृतार्थ मानते हैं। ऐसे महात्माओके चारित्र और उपदेशके वर्णन करनेका साहस करना दुस्साहस मात्र है, परन्तु जबतक कि किसी भी मतप्रवर्तककी इन व्यक्तिगत वातोपर प्रकाश नहीं पड़ता है, तबतक उसका महत्व नजरोमे इस वजहसे नही बढ़ जाता है Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '१९६ भगवान महावीर कि उसकी मान्यता और भक्तितं एक बड़े और गण्यमाण्य मनुष्य 1 " · समुदायने की थी । वास्तवमें चारित्र संसार में एक बड़ी वस्तु है। अस्तु । " भगवान महावीरके चारित्रकी उत्कृष्टता और निर्मलताका दिग्दर्शन कराना कोई साधारण कार्य नही है । वे तीर्थंकर थे और अन्तमें साक्षात् चारित्ररूप थे । अर्हतके छ्यालीस गुण उनमे विरा जमान थे । वे सशरीरी सर्वज्ञ बुद्ध - परमेश थे । परमात्मा के सम्पूर्ण 1 गुण उनमें दृश्य थे। उनका उल्लेख करनेको शब्द पर्य्याप्त नहीं हैं। परन्तु उनके पवित्र, जीवनपर दृष्टि रख इस विषय में हम निम्नप्रकार कुछ प्रकाश डालेंगे | 1 कहा जाता है कि महात्माओंके चारित्रकी उत्कृष्टता प्रकट करनेवाली तीन बातें हैं; अर्थात् शारीरिक बल, मानसिक उत्तमता, और नैतिक चारित्रकी पवित्रता । अस्तु, हम देख चुके हैं कि भगवान महावीरका शारीरिक बळ अनन्त था । उनका शरीर सर्वोपरि उत्कृष्ट और उत्तम था, देखनेमे सुन्दर था और सुवासित था। सात हाथका स्वर्णके वर्णका था जिसके अपरमितं बलसे भगवानने मंत्त हाथिको पकड़ लिया था। भगवान जीवनपर्यन्त बेलिब्रह्मचारी रहे थे । भगवानकीं मानसिक उत्कृष्टता इसीसे प्रकट है कि वह जन्मसे ही मति, श्रुति और अवधिज्ञानके धारक थे। और दीक्षां ग्रहण करनेके उपरान्त आपको अवशेष मनःपर्यय और केवलज्ञानकी प्राप्ति हो गई थी। योग द्वारा आपने ज्ञान प्राप्त किया था, जो अनन्त यथार्थ और सर्वव्यापक था। आप एक बड़े प्रभावशाली अनुपम वक्ता भी थे। आपके मुखसे सदैव यथार्थ + Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका दिव्योपदेश। १९७ सत्यके अमृतकी वर्षा होती थी। आपके नैतिकचारित्रके विषयों कहना होगा कि आप साक्षात् शील संयमकी प्रति--मूर्ति थे। आप एक उत्कृष्टं धर्मप्रचारक थे। धर्मका स्वरूप स्वयं इच्छा विना ही आप द्वारा वस्तुस्वरूपमें प्रगट होता था। और उपदेशसे उदाहरण विशेष प्रभावक होता है, इसलिए जिस यथार्थ नियम व सिद्धान्तका आप प्रचार करते थे, वह स्वयं आपके विमल चारित्रसे प्रगट हो जाता था अर्थात् निस धर्म और आचारका आपने निर्दर्शन, कराया था, उसपर आप स्वयं चल चुके थे। उसका स्वरूप आपके चारित्रसे दर्शता था। सहिष्णुता और संतोष भी आपमें अपूर्व था। दुष्ट जीवोंके दुष्ट व्यवहारसे आप किंचित भी विचलित नहीं होते थे । हम देख चुके हैं कि रुद्रने आपको ध्यानसे विचलित करनेके लिये कितना त्रसित न किया था, परन्तु इनकी अपूर्व संतोषवृत्तिके समक्ष उसे नतमस्तक होना पड़ा था। श्रावकावस्थामें आपकी अपने मातापिताओके प्रति गाढ़ भक्ति थी। और आप एक परम आनन्दकारी सुपुत्र थे, यह इसीसे प्रगट है कि आपने मातापिताकी सम्मतिसे दीक्षातक ग्रहण की थी। इन्हीं जैसे अपूर्व गुणोके कारण ही भगवान महावीरने परमोकष्ट तीर्थकालकी प्रवृत्ति की और स्वयं विशाल परमात्मपदको प्राप्त हुए थे। __ " श्री जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण " (घट १८) के निन्नवर्णनसे भगवानके चारित्रप्रभावका हमको यथार्थ दृश्य प्रगट हो जाता है। वहां लिखा है कि “ जिन महानुभावोने भगवान महावीरका वचन सुना या उन्हें प्रत्यक्ष देखा उनकी प्रवृत्ति मिथ्या धर्मोंसे सर्वथा हटगई. ॥ ९॥ मलमूत्र रहित शरीर १, स्वेदका Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। अभाव (पसीना न आना)२, दूधके समान श्वेत रक्त ३, वजवृषभनाराचसंहनन , समचतुरस्त्रसंस्थान ५, अद्भुतरूप ६, अतिशय सुगंधता ५, एक हजार आठ लक्षणयुक्त शरीर ८, अनंतवल ९, और प्रियहितकर वचन १०, ये दश अतिशय तो भगवानके जन्मकालसे ही थे परंतु केवलज्ञान प्राप्तिके समय निमेषउन्मेषरहित सुन्दर लोचन १,नख और केशोंकी वृद्धि न होना २, भोजनका अभाव ३, वृद्धावस्था न आना ४, शरीरकी छाया न पडना १, परमकांतियुक्त एक मुखका चौमुख मालूम पडना ६, दोसौ योजन तक सुभिक्ष होना ७, प्राणियोंको उपसर्ग और दुःख न होना , आकाश गमन ९, और समस्त विद्याओमें प्रवीणता १०, ये दश अतिशय और भी प्रकट हुये। इसलिये भगवान के रूप देखनेसे और वचन सुननेसे समस्त लोगोंको परमानंद होता था “ १०-१५ ॥"+ + इस बात को पृष्ट करनेवाला वर्णन बौद्धोंके अथ 'मज्झिमनिकाय' (P.TS. Vol. I. PP.92-93 के निम्बाशमें है । उसमें लिखा है कि "जब बुद्ध राजमहमें ठहरे हुए थे तब उन्होंने महानामसे कहा कि 'एक दफे कुछ निग्गन्य इसिगिलीके पास पृथ्वीपर पर तपस्या कर रहे थे । एक सायकालके समय मैं उनके निकट गया चोर उनसे यहा उस तरह पड़े रहनेका कारण पूछा । उन्होंने उत्तरमें फरा कि उनके नाचपुत्त भायानने (जो सर्वज्ञ, सर्वदशी थे) उन्हें पतलाया है कि उनने पूर्व जन्ममें पाप किए हैं उनके निवारणके लिए उपवरण करना चाहिए। उन्हें मन, वचन, कायसे त्यागको अपनाना चापि जिससे भविष्य पापोंसे छुटकारा मिले" इससे प्रकट Rifia are उस समय भी लोगोंको भगवानके प्रति श्रद्धान था। भर वर म उसको यथार्थ शान प्रात करनेा भवान भी उन्हीमें गया यह म पदिले देश हैं। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ . भगवान महावीर। वह साक्षात् अनुभवसे ही अन्दाजा ना सक्ता है। " ___ "....हम आशा करते हैं कि हमारे विद्वान् मित्रगण अपने फालतू समयको अन्यथा व्यर्थ न जाने देंगे, बल्कि पावापुरीकी यात्रा करके भगवानके परोक्ष परन्तु साक्षात् चरणों तले बैठनेका सौभाग्य प्राप्त करेंगे, जिनकी प्रकाशमान उँगलियां आज भी सनातन मार्गको व्यक्त कर रही हैं और जिनकी हितमितपूर्ण वाणी अव भी व्यथित यात्रीको शांति, सुख और सत्यके पवित्र देशकी ओर पग बढ़ानेको ललचारही है !" वस्तुतः पावापुरीका साधारण पर मनमोहक सौन्दर्य आत्मामें , एक अपूर्व उत्साह भरनेका काम करता है। उसका विशेष अनुभव और महत्व उन्ही लोगोंको मालूम हो सका है, जिन्होने - अपनी आत्माका स्वरूप साक्षात् अनुभव द्वारा देख लिया है। उनके निकट-भगवानके पवित्र चरणोके समीप बैठना मानो स्वर्गीय सुखका अनुभव करना है। वहां बैठना क्या है ? बरिक मुक्तिके द्वारके ताले खोलना है। वहां स्थान ही धन्य है--पवित्र है, जहां प्रमूके चरण चर्चित हैं । और उधर आते पग उधार, मस्तकसे नमि लेना ! दरशन कर पवित्र चरणका, स्वातम लखलेना! है वह पावन ठौर, यहां है महिमा दिखती ! उस सम और न ठौर, मही जहाँ सुन्दर दिखती ! Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका दिव्योपदेश। (३१) मगवानका दिव्योपदेश निर्मल चारित्र। “ History knows no chapters 80 beautiful and noble as those which tell of the coming of the great prophets and founders of religions to the men of their time......They tell how great new thoughts of eternal things come to men through the human median of a noble prsonality, how like magnets they drew to the new teacher, the flower of tho noble youth of the time, who followed the Master"Learned his gi cat language, cought his clear accents, • Mads him their pattern to lire and to die " -DS Cairas. 'मि. कैरन्स उक्त शब्दोमें किस उत्तमतासे भावको व्यक्त करते हैं कि इतिहासमे कोई भी प्रकरण ऐसे प्यारे और उत्तम नहीं है जैसे कि वह जिनमें उस समयके किसी आचार्य वा धर्मक संस्थापकके आगमनका वर्णन किया गया है ! लोग उन महात्मा ओंकी निर्मल वाणीको सुनकर उनके चरणोंमें चलकर अपनेको कृतार्थ मानते हैं। ऐसे महात्माओके चारित्र और उपदेशके वर्णन करनेका साहस करना दुस्साहस मात्र है, परन्तु जबतक कि किसी भी मतप्रवर्तककी इन व्यक्तिगत बातोपर प्रकाश नही पड़ता है, तबतक उसका महत्व नजरोमें इस वजहसे नहीं बढ़ जाता है। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। कि उसकी मान्यता और भक्ति एक बड़े और गण्यमाण्य मनुष्य समुदायने की थी। वास्तवमें चारित्र संसारमें एक बड़ी वस्तु है। अस्तु। भगवान महावीरके चारित्रकी उत्कृष्टता और निर्मलताका दिग्दर्शन कराना कोई साधारण कार्य नही है। वे तीर्थकर थे और अन्तमें साक्षात् चारित्ररूप थे। अहंतके छयालीस गुण उनमें विराजमान थे । वे सशरीरी सर्वज्ञ बुद्ध-परमेश थे। परमात्माके सम्पूर्ण गुंण उनमें दृश्य थे। उनका उल्लेख करनेको शब्द पर्याप्त नहीं हैं। परन्तु उनके पवित्र जीवनपर दृष्टि रख इस विषयमें हम निम्नप्रकार कुछ प्रकाश डालेंगे। कहा जाता है कि महात्माओके चारित्रकी उत्सष्टता प्रकट करनेवाली तीन बातें हैं; अर्थात् शारीरिक बल, मानसिक उत्तमता, और नैतिक चारित्रकी पवित्रता। अस्तु, हम देख चुके हैं कि भगवान महावीरका शारीरिक बल अनन्त था। उनका शरीर सर्वोपरि उत्कृष्ट और उत्तम था, देखनेमे सुन्दर था और सुवासित था। सति हाथका स्वर्णके वर्णका था जिसके अपरमित बलसे भगवानने मॅत्त होथीको पकड़ लिया था। भगवान जीवनपर्यन्त बीलबहींचारी रहे थे। भगवानकी मानसिक उछंष्टता इसीसे प्रकट है कि वह जन्मसे ही मति, श्रुति और अवधिज्ञानके धारक थे। और दीक्षांग्रहण करनेके उपरान्त आपको अवशेष मनापर्यय और केवलज्ञानकी प्राप्ति हो गई थी। योग द्वारा आपने ज्ञान प्राप्त किया था, जो अनन्त यथार्थ और सर्वव्यापक था। आप एक बड़े प्रभावशाली अनुपम वा भी थे। मापके मुखसे सदैव यथार्थ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका दिव्योपदेश। १९७ सत्यके अमृतकी वर्षा होती थी। आपके नैतिकचारित्रके विषयमें कहना होगा कि आप साक्षात् शील संयमकी प्रति--मूर्ति थे । आप एक उत्कृष्ट धर्मप्रचारक थे। धर्मका स्वरूप स्वयं इच्छा विना ही आप द्वारा वस्तुस्वरूपमें प्रगट होता था। और उपदेशसे उदाहरण विशेष प्रभावक होता है, इसलिए जिस यथार्थ नियम व सिद्धान्तका आप प्रचार करते थे, वह स्वयं आपके विमल चारित्रसे प्रगट हो जाता था अर्थात् जिस धर्म और आचारका आपने निर्दर्शन, कराया था, उसपर आप स्वयं चल चुके थे। उसका स्वरूप आपके चारित्रसे दर्शता था। सहिष्णुता और संतोष भी आपमें अपूर्व था। दुष्ट जीवोंके दुष्ट व्यवहारसे आप किचित् भी विचलित नहीं होते थे। हम देख चुके हैं कि रुद्रने आपको ध्यानसे विचलित करनेके लिये कितना त्रसित न किया था, परन्तु इनकी अपूर्व संतोषवृत्तिके समक्ष उसे नतमस्तक होना पड़ा था। श्रावकावस्थामें आपकी अपने मातापिताओके प्रति गाइ भक्ति थीं। और आप एक परम आनन्दकारी सुपुत्र थे, यह इसीसे प्रगट है कि आपने मातापिताकी सम्मतिसे दीक्षातक ग्रहण की थी। इन्हीं जैसे अपूर्व गुणोके कारण ही भगवान महावीरने परमोकष्ट तीर्थकालकी प्रवृत्ति की और स्वयं विशाल परमात्मपदको प्राप्त हुए थे। ___ "श्री जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण" (एष्ट १८) के निम्नवर्णनसे भगवानके चारित्रप्रभावका हमको यथार्थ दृश्य प्रगट हो जाता है। वहां लिखा है कि " जिन महानुभावोने भगवान महावीरका वचन सुना या उन्हें प्रत्यक्ष देखा उनकी प्रवृत्ति मिथ्या धर्मोंसे सर्वथा हटगई.॥९॥ मलमूत्र रहित शरीर १, स्वेदका Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwwww १९८ भगवान महावीर। अभाव ( पसीना न आना) २, दुधके समान श्वेत रक्त ३, वजवृषभनाराचसंहनन ४, समचतुरलसंस्थान १, अद्भुतरूप ६, अतिशय सुगंधता ७, एक हजार आठ लक्षणयुक्त शरीर ८ अनंतबल ९, और प्रियहितकर वचन १० ये दश अतिशय तो भगवानके जन्मकालसे ही थे परंतु केवलज्ञान प्राप्तिके समय निमेषउन्मेपरहित सुन्दर लोचन १,नख और केशोकी वृद्धि न होना २, भोजनका अभाव ३, वृद्धावस्था न आना ४, शरीरकी छाया, न पडना ५, परमकातियुक्त एक मुखका चौमुख मालूम पडना ६, दोसौ योजन तक सुभिक्ष होना ७, प्राणियोंको उपसर्ग और दुःख न होना ८, आकाश गमन ९, और समस्त विद्याओंमें प्रवीणता १०, ये दश अतिशय और भी प्रकट हुये। इसलिये भगवानके रूप देखनेसे और वचन सुननेसे समस्त लोगोको परमानंद होता था “१०-१५ ॥+ + इस बात को पृष्ट करनेवाला वर्णन बौद्धोंके प्रथ 'मज्झिमनिकाय' (P.TS. Vol. I, PP. 92-93 के निम्नांशमें है। उसमें लिखा है कि "जब बुद्ध राजग्रहमें ठहरे हुए थे तब उन्होंने महानामसे कहा कि 'एक दफे कुछ निग्गन्थ इसिगिलीके पास पृथ्वीपर पड़ तपस्या कर रहे थे। एक सायकालके समय में उनके निकट गया और उनसे वहा उस तरह पड़े रहनेका कारण पूछा । उन्होंने उचरमें कहा कि उनके नातपुत्त भावानने जो सर्वज, सर्वदर्शी थो उन्हें बतलाया है कि उनने पूर्व जन्ममें पापकर्म किए हैं उनके निवारणके लिए उन्हे तपश्चरण करना चाहिए। उन्हें मन, बचन, कायसे त्यागको अपनाना चाहिए जिससे भविष्यके पापोंसे छुटकारा मिले। इससे प्रकट है कि किस तरह उस समय भी लोगोंको भगवानके प्रति श्रद्धान था।' और खय म० बुद्धको यथार्थ ज्ञान प्राश करनेका भवान भी उन्होंने मिला था यह हम पहिले देख चुके हैं। Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका दिव्योपदेश। __ भगवान महावीर वास्तविक उपासनीय आप्तदेव थे। वह सर्वोल्टष्ट गुरु थे। इसलिए उनके प्रति विनय भी सर्वोच्चतम रूपमें हमारे हृदयमे विद्यमान है। उनकी उपासना और पूजासे हमारा भाव उनका अनुकरण करनेका है । उनका प्रतिविम्ब हमें उनके जीवनका साक्षान अनुभव करा देता है। उनके अविचल ध्यानकी शांतिमुद्रामय मूर्ति हमारे पथ-प्रदर्शनका काम देती है। उनकी प्रतिविम्बकी जो हम विनय करते हैं उसका भाव हमारे निकट उसी तरह है जिसतरह अंग्रेज लोक अपने यहॉ लन्दनके ट्फलगरस्कायरमें अवस्थित एडमिरल नेलसनकी पाषाण-मूर्तिकी विनय करते है। यह मूर्तिपूजा नहीं है, सुतरां आदर्शपूजा है । परन्तु हमारे हत्भाग्य हैं कि इनके दिव्योपदेशको प्रगट करनेवाले यथार्थ ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । जो कुछ भी हमें इनके विषयमे ज्ञान प्राप्त है वह पूज्य आचार्योकी छपाका फल है । उन्होने जो कुछ कथन किया है वह सर्वज्ञ भगवानके कथनानुसार ही किया है, ऐसा उनके द्वारा कथित ग्रन्थोसे व्यक्त होता है। इनसे भगवानके दिव्योपदेशका साधारण भाव इस तरह प्रकट होता है "समस्त जीवलोक मोहसे अंध होरहा है । जगतमें वे ही जीव धन्य है जिन्होंने शीघ्र ही तृष्णारूपी विषवेलको जड़समेत उखाड़कर दूर फेंक दिया है । नाश या पतन अथवा दुःखोंकी तरफ पड़ते हुए जीवकी रक्षा करनेमें न भार्या समर्थ है, न बन्धुवर्ग समर्थ है, कोई समर्थ नहीं है। फिर भी यदि यह शरीरधारी उनमे अपनी आस्थाको शिथिल नही करना चाहता है तो उसकी इस मूढ़ प्रकृतिको धिक्कार है। सेवन किए Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० भगवान महावीर | t " हुए इंद्रियोंके विपयोंसे तृप्ति नहीं होती, उनसे तो और भी घोर तृषा ही होती है । तृषासे दुःखी हुआ जीव हित और अहितको 'कुछ नहीं जानता । इसी लिए यह संसार दुःखरूप और आत्माको अहितकर है। यह जीव संसारको कुशलनासे रहित तथा नन्मजरा वृद्धावस्था और मृत्यु स्वभाववाला स्वयं जानता है, प्रत्यक्ष देखता है और सुनता है तो भी यह आत्मा भ्रान्तिले प्रशममें कभी रत नही है । " ( महावीरचरित्र पृष्ट ९१ - १९३० ) जीवको यथार्थ सुखकी वाञ्क्षा है, इसलिए वह अपने आत्मस्वरूपका अनुभव करे - अपनी चहुंओरकी परिस्थितियोंका अवलोकन करे | याद रक्खे कि धर्म ही आत्माको हितकर है। विषयवासनामय इन्द्रियननित क्षणिक सुख जीवको अहितकर है, उसमें लिप्त होनेके कारण आत्मा संसारमे भ्रमण करता हुआ अनेक प्रकारके क्लेश और बाधाओंका अनुभव कररहा है । अनादिकालसे इन पर पदार्थोंमें रत होकर आत्मा कम्पको अपना रहा है। और इस प्रकार परतंत्रता पडा हुआ अपनी स्वाभाविक निजाधीन स्वतंत्र - ताके लिए तडफड़ा रहा है । वह अपने ही अनुभवसे निश्चय कर ले कि यथार्थमें वह स्वयं शुद्ध आत्मा है, क्योकि 'यः अतति गच्छति जानाति स' आत्मा ' इस व्युत्पत्तिसे जो जाननेवाला है वही आत्मा है । शरीर जाननेवाला नही है। आत्मा ही जाननेबाला है। इसलिए आत्मा शरीरसे भिन्न है; जिसमे ज्ञान नहीं है और जो पुद्गल के परमाणुओंसे मिलकर रचा हुआ है। धर्म आत्माका स्वभाव है | इसलिए वह जगतका सार है, सर्व सुखोंका प्रधान हेतु है और परमसुखको प्राप्त करानेवाला है. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N भगवानका दिव्यापदश। २११ mamimom संसार परिभ्रमणमें पड़ी हुई संसारी आत्माओंके दुःख पाशोंको हटानेवाला है और उन्हें सच्चे मार्गमें लगानेवाला है। सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र सच्चा मोक्षका मार्ग है। 'आत्मा आप ही अपनेको संसारमे अथवा आप ही अपनेको निर्वाणमें ले जाता है। इस लिए निश्चयसे आत्माका गुरु आत्मा है दूसरा कोई नहीं है। और यही आत्मा अपनी यथार्थ अवस्थामें शुद्धबुद्ध निर्विकल्प अव्यावाधसुख और शांतिसे पूर्ण है। उसमें सम्पूर्ण नगतका अनन्तज्ञान विद्यमान है।' सुतरां यह अपने अनुभवमें चारित्रद्वारा ले आया जा सका है इसलिए निजात्माके स्वभावमें ही रमण करना योग्य है। सर्व बाह्यविकल्पोंका इससे कुछ सम्बन्ध नहीं है। किन्तु संसारी भीरुआत्मा सहसा अपने कर्मजनित मोहको शरीरसे हटा नही सकी इसी लिए उसे चाहिए कि सर्वज्ञ कथित तत्त्वोंमें पूर्ण श्रद्धा रक्खे, उनका ज्ञान प्राप्त करे और आत्मोन्नतिके कारणभूत श्रावकके व्रतोंका पालन करे, जिससे उसकी आत्मा अपने निजत्वको प्राप्त होनेमें अग्रसर होवे । ____ मनुष्य शरीरमे जो आत्मा है, वह कर्मोकी कालिमासे कलंकित है । जिस प्रकार खानसे निकले हुए स्वर्णमे उसके वर्णमय गुण प्रकट नहीं हो सके, उसी प्रकार यह संसारी आत्मा को अनादिकालसे अपनी अशुद्धावस्थामें है, अपने परमात्मगुणोंको प्रकट नहीं कर सकी। यह इस अशुद्धावस्थाके कारण संसारके मध्य देव, मनुष्य, नरक और तिर्यञ्च नामक चार गतियोमें भ्रमण र रही है-नाना दुःख सह रही है। क्रोध, मान, माया और लोमके वशीभूत हो अपने स्वाभादिक गुणोंके ऊपर उत्तरोत्तर मेल Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ भगवान महावीर | चढ़ाती जारही है। वह बाह्य बातों में पगीहुई परपदार्थोंको अपना रही है, इसलिए वह बहिरात्मा है। जब काललब्धिकी शुभप्राप्तिसे इस बहिरात्माको अपना भान होजाता है और वह जान जाती है कि मैं अपने पौगलिक शरीरसे नितान्त विभिन्न हूं; मेरा पौगलिक पदार्थोंमें कुछ भी संबंध नही है: मै तो एक विनिर्मल, शुद्ध स्वभावकाधारी परमसुखी आत्मा हूं; तब वह इस भेदविज्ञानको पाकर अन्तरात्मा होजाती है । अन्तरात्म बुद्धिको प्राप्तकरके जब वह आत्मा अपने भेदविज्ञानके निर्मल ज्ञानको उत्तरोत्तर बढ़ाती जाती है, और निर्विकल्प ध्यान करती है तब ही " क्षपकश्रेणी में आरूढ़ होकर चारित्रमोहका नाश करती हुई, बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानमें पहुंच जाती है। वहां कुछ ठहर एकत्त्व वितर्क अविचार 'शुरुध्यानके बलसे स्वयं ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अंतराय कर्मोका नाश करके संयोगकेवली परमात्मा होजाती है। तब उस अवस्थामें उन्हें सवज्ञ वीतराग हितोपदेशी आप्तवक्ता या परहन्त कहते हैं। फिर आयु पर्यन्त उनके विहार व धर्मोपदेशसे संसारी जीवोका अज्ञान मिटता है । पश्चात् वही अर्हन्त शेष चार अघातियोसे छूटकर सिद्ध परमात्मा होजाते हैं । इन्हीको सकल और निकल परमात्मा तथा जिनेन्द्र कहते हैं । " यही सिद्धात्मा लोकके शिखिर पर अवस्थित दूसरे प्रकारके जीव हैं। इस प्रकार दोनों प्रकारके जीव अनादिनिधन अक्रत्रिम हैं, और अपनी शुद्धावस्थामें सर्वदर्शी और सर्वानन्दपूर्ण हैं, एवं अपरिमति वल वीर्य्य संयुक्त हैं। उनकी उत्पत्ति पुद्गलसे नहीं है। वे परमोत्कृष्ट चेतना स्वरूप हैं, अमूर्ती है, इन्द्रियजनित नही है और पूर्ण निराकार भी नहीं हैं, Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका दिव्योपदेश। २०३ क्योंकि उनकी सत्ता सिद्ध है। परन्तु संसारी जीव सदैवसे शरीर पुद्गलसे सम्बंधित है इसलिए अपने स्वाभाविक गुण अनन्तज्ञान, अनन्तवल और अनन्त सुखके उपभोगसे वंचित है। ___ जो संसारी आत्माएं चार गतियों देव, मनुष्य, नारकी और पशुमें भ्रमणकर रही हैं, उनके संसारी जीवनकी रक्षाके लिए दश प्राण हैंतीन बलपाण, पांच इन्द्रिय प्राण, एक आयुप्राण और एक उच्छास प्राण | कायबल, वचनबल और मनोबल तीन बलपाण हैं। पांच इन्द्रिय प्राण इस प्रकार हैं अर्थात् स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द । आयुप्राण जीवनकी उमर व्यक्त करता है। और उच्छासप्राण श्वासोस्वासकी क्रिया है। जिन संसारी जीवोके एक बल प्राण, एक इन्द्रिय प्राण, एक २ आयु और उच्छ्रासप्राण होते हैं वे स्थावर जीव कहलाते हैं । पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति स्थावर जीव हैं । अवशेषमें कमवार प्राणोंको रखनेवाले त्रस जीव कहलाते हैं। यह सैनी अर्थात् ज्ञानवान और असैनी अर्थात् ज्ञान जिनका मन्द पड़ा हुआ है ऐसे दो प्रकारके होते हैं। जीवात्माके साथ जो पौद्भलिक संबन्ध है वह निर्जीव पदार्थ है, अनीव तत्व है, चेतना रहित है, और पांच प्रकारका है (१) पुदल (२) धर्म (३) अधर्म (४) आकाश और (५) काल । अनादिनिधन अक्रत्रिम संसारका कार्य इन पांच पौगलिक द्रव्यों और छठी (६) जीव द्रव्यके संयोगसे होता है। पुद्गलद्रव्य संसारकी श्रष्टिकी जड़ है। यह स्पर्श, रस, गंध, वर्णमय है जिनका शुद्धात्म द्रव्यमें अभाव है, पुद्गल परमाणुओ और स्कन्धोंमें विभक्त है। आकाश जीवादि पदार्थोको स्थान देनेके लिए आवश्यक है, तो Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ W MA भगवान महावीर। काल भी उतना ही चलाव बड़ावके लिए आवश्यक है । धर्म, अधर्म आत्माको चलनेमे व अवकाश ग्रहण करनेमें क्रमश सहकारी हैं। ___ जीवात्मा सदैवसे कर्ममलसे मिश्रितावस्थामें है, जिस प्रकार आक्सीजन और नाइट्रोजेन गैसे, मिश्रितावस्थामें जलरूप हैं। आत्माकी इस मिश्रितावस्थामें हर समय हलनचलन उत्पन्न होती रहती है। हर समय उसमें कर्ममल आता और जाता रहता हैककि आगमनको आसव कहते हैं । आसवके उदयरूपमें,आत्मा पुद्गलपरमाणुओ कार्माणवर्गणाओंको खतः ही आकर्षित करने लगता है, और इसके विविध कषायोवश ये परमाणु आत्मासे मिल जाते हैं, जिससे आत्माके निजगुण ढंक जाते हैं और बंध बन्द जाता है। अनादिसे ही इन कर्मोके आश्रव और बन्धसे दूषित होनेके कारण जीवात्मा अनादिसे ही जन्ममरण धारणकर भ्रमण करता 'फिर रहा है। यह कर्मबंध आत्मा और पुगलके मेलसे होते हैं। और इन्हीसे जीव अपनी खाभाविक पूर्णता और खतंत्रतासे हाथ धो बैठता है। इस प्रकार बंधयुक्त कर्म जंजीरोंसे जकड़ी हुई आत्मा उस चिड़ियाके सहश है जिसके पंख सी दिए गए हों, जिसके कारण वह उड़ नही सकी है। आत्मा वा जीव वास्तवमें चिड़ियाकी तरह स्वतंत्र है। परन्तु पुदलके सम्बन्धके कारण अपने पंख कटे हुए सा समझता है और अपने सामाविक सुख व स्वतंत्रताका उपभोग नहीं कर सका है। आत्मामें कर्म वर्गणाऐं आखवित होकर कालस्थितिके लिए मिल जाकर ठहर जाती हैं। इस लिए आश्रवसे बन्ध होता है। निर्वाण अथवा मोक्ष प्राप्त करनेके पहिले इन कितने ही प्रकारके बंधनोंको तोड़ना पड़ता है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका दिव्योपदेश। पश्चात् आत्मामें कर्ममेलको एकत्रित होनेसे रोकनेवाला आसवका प्रतिकारक संवर होता है । प्रत्यक्षतः जबतक आत्मासे कर्मबन्धकी पुद्गलवर्गणाएँ दूर नहीं कर दी जायगी, तबतक मुक्ति 'प्राप्त नहीं होसती है। अतः संवर अर्थात् हर समय आत्मामें आनेवाली कर्मवर्गणाओंको आखवित न होने देना मुक्ति प्राप्त करनेके मार्गमें प्रथम पादुकाकेरूपमें है। अस्तु, जब पुढेलवर्गणा ओंका आश्रव होना रुक जाता है, तब दूसरी श्रेणीमें उन पूर्वसंचित कर्मवर्गणाओंको एक एक कर निकालना रह जाता है। यही दूसरी श्रेणी निर्जरा तत्व है। जब समस्त कर्मबंध तोड़ दिए जाते हैं और आत्माका पुद्गलसे किसी प्रकारका सम्बन्ध नहीं रहता तब आत्मा अपने खाभाविक गुण खतंत्रता, सुख और केवलेज्ञानका अनुभव करती है; अर्थात् मोक्षको प्राप्त कर लेती है।' इस प्रकार पुदलं और मूर्तीक पदार्थोंसे वेष्टित संसारके नीव चेतन पदार्थ हैं । इनमें पूर्णपने और सर्वज्ञताकी शक्ति विद्यमान है । ये शक्तियां उन्हें अपने सम्यक्वर्तावसे प्राप्त होती हैं।' इन जीवोके अनन्त दर्शन और अनन्त सुखसंयुक्त पूर्णपनेका अभाव स्वोपार्जित कर्मोदयके कारण हुआ है अर्थात् इन नीवोंने खतः ही पर पदार्थों को अपनाया है, जिसके कारण वे अपने ही कृत्योंक्श इन कर्मरूपी पुद्गलवर्गणाओंसे बांधे गए हैं और अपने यथार्थ खरूपसे विमुख हैं । अतः अब केवल यही आवश्यक है कि नीव अगाड़ी अन्य पुद्गल वर्गणाओंका समावेश न होने दे, और जो. पूर्वसंचित वधस्वरूप सत्तामें हैं उनको विध्वंश करदे । जिस समय यह किया उसी समय आत्माकी स्वाभाविक सर्वज्ञता और पूर्णपना Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ भगवान महावीर । प्राप्त हो जायगे, और स्वतंत्रता, अतीद्रियता और आनन्दका उपभोग होने लगेगा । इस समुचित प्रणालीका ढंग वैज्ञानिकरूपमें कार्य कारणके सिद्धान्तपर निर्भर है । अतः यथार्थ तत्व केवल सात हैं: (१) जीव, (२) अजीव, (३) आस्रव, (४) बंध, (५) संवर, (६) निर्जरा और (७) मोक्ष । शुद्ध निश्चयरूपमें आत्मा ही परमात्मा है जैसे प्रारंभ में पहिले कह चुके हैं। अतएव प्रत्येक द्रव्यकी विविध अवस्थाओंके स्वरूप और शक्तिको समझने के लिए द्रव्यार्थिक शुद्ध निश्चयनय और पर्यायार्थिक अर्थात् व्यवहार नय दृष्टियां है। वस्तुकी यथार्थ स्थितिके पुर्त तक पहुंचने के लिए स्याद्वादका यथार्थ भाव समझना चाहिए । ' मोह समस्त पापोंकी जड है। इससे राग और द्वेषका जन्म होता है । यह फिर आत्मासे उत्तरोत्तर अन्य पापको कराते - हैं और पापोंसे कर्मबन्ध होता है इसलिए पापोसे बचनेके लिए इच्छाका निरोध करना चाहिए, रागद्वेषको जलांजलि देना चाहिए । सम्यकचारित्रका पालन करनेके लिए (१) हिसा, (२) झंठ, (३) चोरी, (४) कुशील, (५) और परिग्रहका त्याग करना योग्य है । यह चारित्र दो प्रकारका है, (१) सकलचारित्र, (२) और विकलचारित्र । इनमेंसे सकलचारित्रके महाव्रतोंका पूर्णरूपेण पालन मुनियों द्वारा होता है, जिन्होने सांसारिक वस्तुओका ममत्व त्याग दिया है। विकलचारित्रके अणुव्रतोंका एकदेश पालन सांसारिक कार्यो में व्यस्त गृहस्थोद्वारा होता है। श्रावक महाव्रत धारण करनेके लिए क्रमसे श्रेणी श्रेणी 1 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका दिव्योपदेश । ૨૦૭ अपने चारित्रको उज्ज्वल बनाता जाता है। इनमें ही व्रतोंकी पालना होती है । यह व्रत बारह हैं जो तीन विभागों में विभक्त हैं, अर्थात् (१) अणुव्रत (२) गुणव्रत (३) शिक्षाव्रत । अणुव्रत पांच हैं । प्रथम अहिसाणुव्रत अर्थात् किसी भी एक इन्द्री या अधिक प्राणोंवाले जीवको कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा संकल्पसे मन, वचन कायकी अपेक्षा दुःख न देना ( २ ) सत्याणुव्रत अर्थात् स्वयं स्थूल असत्य न बोलना और न दूसरोंसे असत्य बुलवाना और न ऐसा सत्य ही बोलना जिससे किसीके प्राणोंको दुःख हो । (३) अचौर्याणुव्रत अर्थात् परकी वस्तुको ग्रहण न करना अथवा दूसरेको नहीं देना । (४) शीलाणुव्रत अर्थात् परस्त्री व पुरुषोसे विषयभोग मन, वचन, काय द्वारा न करना और (२) परिग्रह परिमाणाणुव्रत अर्थात् गृहस्थको अपनी इच्छाको सीमित करनेके लिए सांसारिक वस्तुओं सम्पत्ति, वस्त्र, अनाज आदिके रखनेकी सीमा बांध लेना। मुनि इन्हीं व्रतको पूर्णरूपमे पालते हैं। वे जीवके किसी प्राणको किसी तरह भी दुःख नही देते है। और इसी प्रकार शेष व्रतोका पूर्ण पालन करते हैं । श्रावकके लिए फिर तीन गुणव्रतोंका पालन है । अर्थात् (१) दिग्व्रत (२) अनर्थदण्डव्रत ( ३ ) और भोगोपभोग परिणामत्रत । इनके पालनसे अणुव्रतोका पालन महत्वपूर्ण सुविधामय होजाता है । अन्तमे श्रावकके अवशेष शिक्षाव्रतोका पालन और करना पड़ता है, अर्थात् सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत । प्रत्येक दिवस निजात्माके स्वभावका मननपूर्वक ध्यान करना सामायिक है । सत्यसिद्धान्त जिनवाणीका अध्ययन करना, कृतपापोके लिए पश्चाताप करना, आदि सामा Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ भगवान महावीर। यिकके अङ्ग हैं। देशावश्यक व्रत अपने गमनागमन स्थानको नियत कर लेना है। श्रावक प्रत्येक सप्ताहमें एक दिन निर्जल उपवास करके प्रोषधोपवास व्रतका पालन करता है । वैय्यावृतका पालन करके श्रावक अन्य जीवोंकी सहायता करता है। इस सेवाव्रतकें चाररूप हैं: (१) भोजन (२), औषधि, (३) शास्त्र; (४) और अभय (प्राणदान)। परोपकार भावसे तृषित-मुखित जीवोंकी सहायता करना योग्य है । * श्रावकके चारित्रकी ११ प्रतिमाएं हैं। श्रावक जितनी २ आत्मोन्नति करता जाता है, उतना ही उतना व्रतोंका पालन करना भी बढ़ता जाता है । प्रथम प्रतिमाके धारी दार्शनिक श्रावकको' जिन भगवान द्वारा प्रतिपादित यथार्थ धर्ममें पूर्ण श्रद्धा होती है। और वह मोक्षमार्गपर चलनेका अभिलापी होता है।. वह संसारमे अपनी गृहस्थीके साथ रहता हुआ नियमित सीमासे सांसारिक भोगोका उपभोग करता है और क्रमशः सीडी दर सीडी चढ़ते हुए संसारसे मोह कम करते हुए वही श्रावक.११वी . भवानके बताए हुए इन व्रतोंका पालन यदि समुचित रीत्या ससारमें किया जाने लगे तो उनके सर्व दुःख ऋन्दननाद काफूर हो जाय । प्रत्येक देशके व्यक्ति तब एक सधे धर्मरत स्वाधीन और समभावी नागरिक होम और सर्व प्राणियों के स्वानों की रक्षा समरूपमें कर सके । सनराष्ट्र एक दूसरेको कष्ट पहुचाने स्थानमें सहायता करने लगे और मानव समाजकी उन्नति हो उसो मुदिन सामने आ गये। भारतीयों और सासर जैनियों को अपने प्राचीन महापुरुष उनदेशका पालन करना चाहिए और उमे सर्व प्राट - करना चाहिय । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवानका दिपदेश | २०१ प्रतिमामें पहुंचकर अहस्थाश्रमका त्याग करदेता है और वनमें रहकर साधुधर्मका अभ्यास करने लगता है। इस समय वह गुरुके निकट दीक्षा लेता है, तपश्चरण करता है, भिक्षावृत्तिसे उदरपोषण करता है और केवल एक लंगोटी पहिनता है । अर्थात् वह अब मुनिधर्मके दरवाजेपर पहुंच जाता है, और फिर महाव्रतों का पालन करनेसे मुनि हो जाता है । अतएव क्रमवार संसारसे ममत्व हटाकर आत्म- मुमुक्षु जीवोंको निर्ग्रन्थरूप धारण करना योग्य है । और अपने स्वाभाविक गुणोको - परमसुखको प्राप्त करना अभीष्ट है । इसलिए जिन्हें स्वातंत्र्यमें मजा है उन्हें तो तुच्छसे भी तुच्छ वस्तुकी परतंत्रताकी आवश्यक्ता नही है। ऐसोंके लिए शरम कोई चीज नहीं है । अतएव आत्मखातंत्र्यके प्रेमियोको वस्त्रोंके झगड़ोंको छोडकर प्राकृतिक नग्नरूप - सत्यरूप धारण करना चाहिए | पर्वतपर स्वतंत्रतासे निर्मय घूमनेवाले सिंहोंको वस्त्रकी जिस प्रकार आवश्यक्ता नही है, उनके लिए वस्त्रका ध्यान ही निर्बलता है, उसी प्रकार आत्म स्वातंत्र्य - पर्वतपर भ्रमण करनेवाले मनुष्योको भी वस्त्रकी कोई आवश्यक्ता नहीं है । 'स्वाधीन चेताओके लिए तो खाभाविक नग्नवृत्ति ही है । 1 " जिन भगवान न तो आज्ञा करते हैं और न प्रार्थनां । आज्ञा, प्रार्थना और भय यह तीनों बलाऐं उनसे दूर हैं। इसलिए भ्रम में पड़कर लोग भगवानके यथार्थ उपदेशको + समझने में गल्ती + भगवान महावीरके पवित्र दिव्योपदेशको एक अजैन विद्वान मि० किशोरलाल घनश्यामलाल मशरूवालाने जिस उचित एव उन्नत प्रकार समझा है वह हम पाठकोंके अवलोकनार्थ प्रकट करते हैं । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर - - करते हैं और ऐशोआराम हीको वे लोग ‘मनुष्यत्व समझ बैठते हैं। कई मनुष्योंने तो आराम ही को मुक्ति माना है। तथैव 'नीति अनीति, धर्म अधर्मकी कक्षाएं बनाई हैं, उनके द्वारा आराम-सुखको प्राप्तव्य ठहराकर लौकिक शास्त्रोंकी रचनाकर डाली है और मनुष्योंको इन बंधनोंकी शीतल छायामें साहस, आप लिखते * कि "अम्मक मामले भगवान महावीरने अपना उपदेश प्रारम्भ किया । (आपने कहा) सर्व धोका मुल दया है। परन्तु दयाके "पूर्ण उतार्षके लिए क्षमा, नम्रता, सरलता, पवित्रता, संयम, संतोष, सत्य, तप, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह, ये देश धर्म सेवन करना चाहिए । ........शात, दान्त, व्रत नियममें मावधान और विश्ववत्सल मोक्षार्थी । मनुष्य निष्कपटरूपमें जो २ क्रिया करता है उनसे गुणवी वृद्धि होती है। जिस पुरुषकी अदा पवित्र है उसे शुभ और अशुभ दोनों ही वस्तुएं शुभ विचारके कारण शुभ रूप फल प्रदान करती हैं।....हे विचारशील पुरुष, जन्मके और जराके दुःखोंको देख । निस प्रकार तुझे सुख प्रिय है उसी प्रकार सर्व जीवोंको भी है, यह विचारकर किसी भी जीवको मार मत और न दूसरोंमे मरवा । लोगोंके दुःखों को जाननेवाले सज्ञानी पुरुषोंने मुनियों और रहस्यों, रागियों और त्यागियों, एव मोगिया और योगियोंके प्रति यह धर्म कहा है किसी भी जीवको मारना नहीं, उनपर हुकूमत चलाना नहीं, उनको पराधीन करना नहीं, और हैरान भी करना नहीं । पराक्रमी पुरुष संकट पहनेपर मी दयाको छोडवे नहीं।...हे मुनि, अदरमें युद्ध कर, दूसरे बाहरी युद्धकी क्या आवश्यका है । युद्धको सामग्री मिलना अति कठिन है।....विवेक हो तो प्राममें रहते हुए भी धर्म है और 'घनमें रहते हुए भी है। विवेक न हवे तो दोनों स्थानोंका रहना अधर्म प है।" -देखोख अने महावीर पृष्ट ८८-११ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण प्राप्ति - कालनिर्णय । २११ आनन्द, भयरहित कंगाल जीवनमें रहना सिखाया है । प्रायः मनुष्य ऐसों हीके बीच में उत्पन्न हुए और ऐसोहीकें विचाररूपी अन्नसे पले हैं। इसलिए इन बन्धनोंको तोड़नेमें वे डरते हैं । - परन्तु, लौकिक नीति और लौकिक धर्म तोड़ने - इसका संहार करने और पदार्थों का सत्यखरूप प्रगटकर उससे लोगोंको भड़का हिम्मतवान बनानेके लिए ही 'जिन भगवानका उपदेश है । वह प्रत्येक पदार्थको प्रकाशमें लाता है। इससे अन्धकारमें रहनेवाले उसपर यथाशक्य प्रहार करते हैं। और इसीलिए वह उपदेश आर्योकी अपेक्षा अनार्योको भी होता है कि वे सत्यखरूपं समझें और भड़कें ।" अस्तु, भगवान महावीरका दिव्योपदेश परम विशाल था, उसका कुछ दिग्दर्शन संसार में प्रसिद्ध अतुल जैन साहित्यसे अब भी प्राप्त है । उपर्युक्त व्याख्यान रूप जो साधारण दिग्दर्शन है: वह मात्र उसकी भूमिका कही जा सक्ती है । ******* (३२ ) निर्वाण पाति-कालनिर्णय | " “ पर्णछस्सॅयवस्सं पणमासजुदं गमिय वीर गिव्वुझ्दो । सगराजो तो कक्की चदुणवतियम हियंसगमास ॥ उक्त गाथाद्वारा त्रैलोक्यसार ग्रंथमें जैनाचार्य श्रीमद् नेमिचन्द्रजी प्रगट करते हैं कि 'महावीर भगवान के निर्वाणके ६०९ वर्ष और पांच महीने पीछे शकराना हुआ और उसके ३९४ वर्ष पीछे करिक हुआ।' इससे यह प्रगट होता है कि शक संवतसे ६०५ वर्ष पहिले भगवान महावीर ने मोक्षलाभ किया था। AS Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। शक संवतका प्रारंभ सन् ७८ ई. से होता है। इसलिए भगवान महावीरको निर्वाणकी प्राप्ति ईसासे पूर्व . ५२७वें वर्षमें हुई थी। जैसा कि सम्पूर्ण जैन सम्प्रदाय आजकल मानती है। इसी मतकी पुष्टिं अन्यग्रन्थ भी करते हैं। आर्यविद्या सुधाकरमे उल्लेख है कि राजा विक्रमादित्यसे १७० वर्ष पहिले भगवान महावीरको मोक्षलाम हुआ था । यथा ततः कलिनानखडे भारते विक्रमात्पुरा। खमुन्यं बोधि विमते वर्षे विराहयो नरः॥१॥ प्राचारजैनधर्म बोधर्म समप्रभम् । राजा विक्रमादित्यका संवत ईसासे पूर्व ५७ वर्षसे प्रचलित होता है । इस प्रकार भी भगवानके मोक्षलामका समय वही १२७ बैठता है। इससे भी प्रकट प्रमाण इसकी पुष्टिका दिगम्बर आम्नायकी सरस्वती गच्छकी पट्टावली हैं, जिनका उल्लेख हार्नलने Indian Antigaury lol XX P. 341 odd Vol XXI P. 75 पर किया है। पहावलीकी भूमिकामें लिखा है कि: (२०) बहुरि श्री वीर स्वामी मुक्ति गये पीछे च्यारससत्तर ४७० वर्ष गये पीछे श्रीमन्महारान विक्रम रानाका जन्म भया|.... इससे भी भगवान के निर्वाणकी तिथि ईसासे पूर्व १२७ की सिद्ध होती है। भोर पावली की भूमिकाकी निम्न गाना भी इसी भावको व्यक्त करती है (१३)....नवरि बटुसहगुतो तिकाला विकलो एवई गम्मो। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेताम्बरकी उत्पति। २१३ इन सब प्रमाणोंसे जो कि 'Life of Mahavira'में दिए हुए हैं, वीरनिर्वाणाब्द ईसासे पूर्व ५२७ वें वर्षसे प्रारम्भ होता प्रमाणित होता है। और उसमें अगाड़ी लिखा है कि कल्पसूत्र, महावीरपुराण आदि ग्रन्थोंसे प्रकट है कि भगवान महावीर ७१ वर्ष पर्यन्त जीवित रहे थे। जिनमेंसे ३० वर्षे वे श्रावकके रूपमें रहे थे और अवशेष ४२ वर्षोंमें १२ वर्ष मुनिरूपमें और ३० वर्ष तीर्थकर रूपमें इस प्रकार भगवानका जन्मकाल ईसासे पूर्व ५९९ का सिद्ध होता है। और भगवानका समय ईसासे पूर्व ५९९ से १२७ प्रगट होता है। किन्तु अब कुछएक विद्वान इस कालसे सहमत नहीं हैं। उनके निकट सन ई०से ५४५-१ पहिले महावीर भगवानको मोक्षलाम हुआ प्रकट होता है परन्तु उनका यह मत किसी बलवान प्रमाणके आधार पर नहीं हैं। इसलिए निर्वाण प्राप्तिका प्रचलित संवत् २४९० ही मानना युक्तिसंगत है। उधर म० बुद्धके मृत्युकालको डॉ० जे० एफ० फ्लीटने खूब मनन करके ता० १३ अक्टूबर ईसासे पूर्व ४८२में निश्चित किया है। और भगवान महावीरका निर्वाण म० बुद्धकी मृत्युके पहिले हो चुका था। इसलिए ५२७ वर्ष ईसवी सनसे पूर्व भगवान महावीरका निर्वाण काल ठीक जंचता है। श्री जिनसेनाचार्यने हरिवंशपुराणमें स्पष्ट कहा है कि शक संवतू ६०५ से पहिले अर्थात् ५२७ वर्ष खीष्टान्दसे पूर्व महावीरस्वामीने मोक्षलाम किया था। 4G Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ WWW भगवान महावीर। (३३), mom PPFRE . मगवानके संघकी अंतिम दशा श्वेताम्बर डारनायकी उत्पत्ति। और "...A schism was perpetrated, which, åt one partionlar era atleast, that in which Buddhisni fall and the modern saiva system of Hinduism was established, made Indir a field of contention to opposing religious sects, and with the extormination of that zeligion, which lias been domi. pent during the period of its grantest glory, Qocasioned the loss of those historical docume nts, which recorded the largeness and expeoits of the sovereigns of a hostile faith." i .- Rev • J. Stevenson. P D. डॉ० स्टीवेन्सन साहब उक्त शब्दोंमें ठीक ही कहते हैं कि आपसमे एक ऐसा मनोमालिन्य बढ़ रहा था, जिसने भारतवर्ष में कमसे कम उस समयमें जब कि बौद्ध धर्मका वास होरहा था और साम्प्रतके जैव हिन्दु धर्मकी नींव जमाई जारही थी, परस्पर प्रतिस्पर्धक धार्मिक मतोको एक दूसरेके प्रति लड़ने झगड़नेमें व्यस्त कर दिया था और जिसकी कपासे जो अपने अभ्युदय कालमें प्रख्यात धर्म था उसका अन्त होगया, एवं साथमें उन ऐतिहासिक प्रमाणोका नाश होगया निनसे प्रतिपक्षी धर्मकी सत्कीतियों पर प्रकाश पड़ता था। वास्तवमें इस धार्मिक वैमनस्य के कारण प्राचीन Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAN श्वेताम्बरकी उत्पत्ति। २१९ भारतकी यथार्थ स्थितिका पता लगाना कठिन हो रहा है। सम्राट अशोककी हजारों गिरिलिपियोंमेंसे आज केवल नाममात्रकी संख्यामें वे अवशेष हैं । जैन धर्मके अतुल प्राचीन साहित्यको हिदू धर्मके प्रख्यात आचार्य शङ्कराचार्यने जल गर्भकरके सब विदेशी यवन. आक्रमणकों ने उन्हें अग्निदेवीको समर्पित करके, साथ ही मूषकों व क्रमिकोंने अपनी छपा करके हमको बिलकुल हीअज्ञानान्धकारमें डाल दिया है। परन्तु जो कुछ भीसामग्री उस जमानेकी उपलब्ध है उससे हमें पता चलता है कि जैनधर्मके बाह्य शरीरमें एवं हिंदू और बौद्धधर्मोमें पूर्णरूपान्तर इन बीचकी शताब्दियोंने लाकर खड़े कर दिये हैं। हिन्दू धर्म तो सदैव समयानुसार अपना रंग पलटता रहा. है, और इस जमानेमें उसने अपनी खासी उन्नति करली थी। वेदान्तका प्रादुर्भाव इसी जमानेमें हुआ प्रतीत होता है जैसा कि डॉ० स्टीवेन्सन साहब 'कल्पसूत्र' की भूमिका (पृष्ट २६-२७) में कहते हैं कि "जैनी हिन्दू धर्मके सांख्य, न्याय, चार्वाक और वैशेषिक दर्शनोंसे विशेष परिचित होते हुए और उनका उल्लेख करते हुए, वेदान्तका उल्लेख नही करते हैं । यह भी उन अनेक कारणोंमेसे एक है जो मुझे विश्वास दिलाते हैं कि संभवतः समय उपनिषद और पुराण बौद्धधर्मकें हासके उपरान्त संकिलित हुए थे।" ___ एवं न्याय, सांख्य, वैशेषिक आदि सर्व ही हिन्दू ग्रन्थ जैनधर्मकी उत्पत्तिके पश्चात् क्रमवार उत्पन्न हुए हैं। इससे भी प्रगट है कि हिन्दू धर्मपर समयर अन्य धर्मोका प्रभाव पड़ता रहा है जैसा कि पूर्वमें लोकमान्य तिलककी सम्मतिके उल्लेखसे प्रगट किया जा चुका है । देशके दूसरे प्रसिद्धनेता ला० लाजपतराय अपनी पुस्तक 'भारतवर्षका इतिहास के प्रष्ट १३२ पर लिखते Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। हैं कि "हिन्दू धर्मपर बुद्ध धर्मकी अपेक्षा जैनधर्मका अधिक प्रभाव पड़ा है और भारतमें बौद्धोंकी अपेक्षा जैनोंकी संख्या बहुत अधिक है।" इसी बातको पुष्ट करते हुए सत्याग्रह आश्रम साबरमतीके गुजराती विद्वान मि० के० जी० मशरुवाला लिखते हैं कि “इन (महावीरजी) के धर्मके परिणामसे वैदिक धर्ममें भी 'अहिसा' परम धर्म माना गया, और शाकाहारका सिद्धान्त अधिकांशमें हिन्दू जनताने स्वीकार किया ।" (देखो, 'बुद्ध अने महावीर' पृष्ट ९२०) साथ ही दिगम्बर जैन साधुओके चारित्रका प्रभाव भी हिन्दू सन्यासियों पर पड़ा प्रतीत होता है; क्योंकि फ्रेंचइंडियामें रहे हुए एक जन और फ्रेंच लेखक मि० लुई जैकोलियट साहबने अपनी एक हिन्दू ग्रन्थ "अग्रोनचड-परिकचै" (Agronohade Parikchai) के आधार पर लिखित "दी ऑकल्ट साइन्स इन इंडिया" नामक पुस्तकमें ऐसी बातोंका वर्णन किया है, जिनसे प्रगट होता है कि हिन्दू सन्यासियोने जैन मुनियोका अनुकरण किया था जैसे उसमें लिखा है कि "सन्यासी नग्न रहते थे" (पत्र ७१) "सन्यासियोंको नहां वह अपना पग रक्खें वहांका ध्यान करके उसको पवित्र करें, और अपने पीनेके पानीको उसे साफ कर लेना चाहिए जिससे जीवोंकी हिसा न हो (पत्र ७४)" "योगीको आहार लेते समय बैठना न चाहिए (पत्र ८३)।" यह सर्व नियम जैनाचारके नियमोमें गर्मित हैं। बौद्धधर्मके विषयमे भी कहा गया है कि तब और अबके बाह्याभ्यन्तर बौद्ध धर्ममें नमीन आस्मानका अन्तर पड़गया है। बाह्यमें तो हम जानते हैं कि उनमे शाखाएं पड़ गई Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्वरकी उत्पत्ति। २१७ परन्तु आभ्यन्तरिक अवस्थाके सम्बन्धमें भी यही हालत है । जैसे कि डॉ. ओल्डन्बर्गका कहना है कि बौद्धोंके तिशरण सिद्धान्त बुद्धकी मृत्युके पश्चात मान लिया गया है। और यह ज्ञात ही है कि प्रारम्भमें बौद्धधर्म एक सैद्धान्तिक धर्म नहीं था। आनीवकोंके सम्बन्धमें भी हम देख चुके हैं कि उनके यहां भी मक्खाली गोशालकी मृत्युके पश्चात् अन्य सिद्धान्त और देवी देवताओंकी मान्यता प्रारम्भ कर दी गई थी। इस जमानेके पहिले प्राचीन नमानेमें सर्वरूपेण सर्वबातोंमें स्वतंत्रता थी जैसे कि हम पहिले देख चुके हैं। और जिसके विषयमें डॉ. स्टीवेन्सन कहते हैं कि " यदि उस प्राचीन नमानेमें कोई जैन वा बौद्ध संगठन नही था तो ब्राह्मण धर्मका भी नहीं था, अतः सत्य यह प्रतीत होता है कि इस उल्लिखित समयमें लोगोंके मध्य सर्व प्रकारके विचारों और आचारोंको स्थान मिलता था।" अन्य प्राचीन धर्मोके विषयमें तो हम देख चुके, परन्तु अब देखना चाहिये कि उस प्राचीन नमानेमें एवं उसके पश्चात् जैनधर्मकी क्या अवस्था रही थी ? जैनधर्मके तत्व वैज्ञानिक रीत्या सत्य हैं। और उनमें संशोधन किसी प्रकारका कभी भी नहीं किया जा सक्ता, क्योंकि यदि ऐसा किया जाय तो उनकी वह वैज्ञानिक लड़ी टूट नाय, जो आज हमको प्राप्त है। इसलिए जैनधर्म अपने असली और अखण्डरूपमें सदैवसे है और सदैव रहेगा, क्योंकि वह खयं सत्य है । हां ! यह अवश्य संभव है कि उसके वाह्य शरीरमें कुछ परिवर्तन कमीर होनाय । भगवान महावीरके पहिले भी जैनधर्मकी यही हालत थी तब भी इसके बाह्य शरीरमें अवश्य Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भगवान महावीर । शिथिलता आ गई थी क्योंकि आजीवक सम्प्रदाय उसी प्राचीन: धर्मकी एक शाखा कही नासक्ती है। पाश्वनाथके निर्मन्थ श्रमणोंका प्रभाव इस समय कम हो गया था और यज्ञकाण्डादिका जोर था । इसलिए भगवान महावीरको पुनः अपने तीर्थकालकी प्रवृत्ति करना पड़ी थी। जिसके भी बाह्य शरीरमें उनके मृत्युके दीर्घकाल पश्चात प्रगट मतभेद हो गया था, ऐसा प्रतीत होता है । यह भी प्रगट है कि क्रमश: चलकर उसके आचार नियमादिमें, विशेष संशोधन समयके प्रभावानुसार अन्य हिदू, बौद्ध, आनीवक. , 、 आदि धर्मोंके सदृश कर लिया गया था। जैसे कि पं० नाथूरामजी प्रेमीका कहना है कि " जैन धर्मने गत ढाईहजार वर्षोंमें न जाने कितने दुःख सुख सहे हैं, कितनी कठिनाइयां पार की हैं और कितने संकटोंसे बचकर अपना अस्तित्व कायम रक्खा है, मतःयह सम्भव नहीं कि इन सुखदुःखके समयों में इसके संचालकोने इसकी रक्षाके लिए इसका थोड़ा बहुत रूप न बदला हो । क्रियाकृाण्डोकी विपुलता, यक्ष, यक्षिणी, क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि सैकड़ों देवदेवियोंकी मान्यता, आहवनीय आदि अग्नियोंकी पूजा, सन्ध्या, तर्पण, आचमन आदि बातें मेरा विश्वास है कि मूल ज़ैनधर्ममें न थी। ये पीछेसे शामिल की गई हैं ।" O अतः यह प्रकट है कि जनधर्म अपने यथार्थरूपमें अविचल रहा है, परन्तु उसकी बाहरी बातोंमें जरूर तवमें और अबमें भेद है । प्रख्यात जैन विद्वान् मि० चम्पतरायजी जैनका मत भी इस विषयमें इस प्रकार है कि "प्राचीन और अर्वाचीन जैन धर्ममें कोई भी भेद नही है क्योंकि वह विज्ञान (Science) है । हां ! Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेतास्वरकी उत्पत्ति। '२१९ काँसे छुटकारा पानेके लिए विविध आचार नियमोंके पालन करनेमें कुछ भेद हो सका है, क्योंकि समयकी तत्कालीन आवश्य-: कानुसार एक बात उस समय आवश्यक होती है, तो दूसरे समयमें वही बात अनावश्यक हो जाती है।" इसी लिए जैनशास्त्रोंके विविध आचार नियमोंमें कहीं कहीं जरा अन्तर प्रतीत होता है। भगवान महावीरका संघ पश्चातमें एथक् पृथक् विभागमें विभक्त होगया था। इसके मुख्यता दो विभाग उल्लेखनीय हैं (१) दिगम्बर (२) और श्वेताम्बर । दिगम्बरोंके विषयमें हम पहिले ही देख चुके हैं कि जैनधर्मके आदि प्रचारक भगवान ऋषभदेवने दिगम्बर निर्गन्य धर्मका उपदेश दिया था, जैसा कि हिन्दू शास्त्र भी व्यक्त करते हैं और वह धर्म उसी रूपमें अन्तिमतीर्थकर भगवान महावीरके निर्वाण लाभोपरान्त तक चला आया था। यह कहना कि प्रार्थनाथ भगवानने वस्त्र धारण किए थे, और उनकी शिष्यपरम्परा भी वैसा करती. थी, विल्कुल मिथ्या है। यदि ऐसा होता तो हिन्दू शास्त्रोंमें उनका उल्लेख अवश्य होना चाहिए था और बौद्धशास्त्र तो अवश्य ही इस बातको प्रगट करते; क्योंकि उनमे निगन्य नातपुत्र भगवान महावीरका वर्णन प्रतिस्टद्वारूपमें है। इसलिए वे भगवान के सनातन मागसे विमुख होनेका उल्लेख नरूर करते। ऐसान होने के कारण वे इस विषयमें कुछ भी न लिख सके । स्वयं श्वेताम्बर ग्रन्थ ___ *यौदप्रन्यों में जैन मुनियोंके लिये " निगन्य' शब्दका व्यवहार लिया गया है। और उन्हें जैन भावकोसे पृपक उमझनेके लिये उनके भगाड़ी नमान्दा व्यवहार किया है। जैसे विसावा पत्यू, पम्मए - Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭ 'भगवान महावीर। सूयगडांग (Suyagadang.IL.76)में भगवान पार्श्वनाथके शिष्योंको 'निगन्थ समण कुमारपुत'के नामसे विख्यात किया है। इसमें निगन्य शब्दसे साफ प्रगट है कि वे तिलनुष मात्र परिग्रह रहित मुनि होते थे। उन्होंने उस शरमपर विजय प्राप्त कर ली थी, निसके छुपानेके लिए उन्हें वस्त्र धारण करनेकी आवश्यक्ता पड़ती। 'निगन्य' शब्दके शाब्दिक भावसे यह प्रमाणित है कि वे दिगम्बर भेषमें रहते थे । जो श्वेताम्बर कथानक इस विषयमें है, वह दिगंबर श्वेताम्बर मेद होनेके पश्चातका है, इसलिए यथार्थ नहीं है। तिसपर स्वयं श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें साधुके लिए नग्नावस्था आवश्यक बतलाई गई है। उनमें २२ परीपहोंके अन्तर्गत अचेलक या पत्यकथा (P. T. S.) Vol. I, pt. II, p. p. 384 foll. में अनेक स्थानों पर 'न' (naked) शन्द आया है। अर्थात Naked akcetics "Dialogues of the Buddha" pt. III. P 14. में भी एक जैनमुनि कण्डार-माषुकको नाम लिखा है। ऐसे ही अन्य स्थलों पर भी लेख है। इसी प्रकार हिन्दू प्रन्योंमें मी जैनमुनियोको नम ही व्यक्त किया गया है। यथा महाभारतके मादिपर्वमें 'क्षपणक का उल्लेख है। और शब्द 'क्षपणक' के अर्थ मि० मोनियर विलियम्सकी संस्थत डिक्शनरी में ( पृष्ट १२६, सन् १८९९ ) यह लिखे है कि "क्षपणक एक धार्मिक सन्यासी है, खासकर एक जैनसापु, जो कोई पत्र नहीं पहिनता है।" पगहमिहिरसंहितामें लिखा है कि "शाक्य तथा मंगे जैनी परम दयालु और शान्त हइयवाले देवताको पूजा करते हैं।" (देखो मि० दत्तका "भारतवर्षकी प्राचीन सभ्यताका इतिहास" हि. भनुमाइ पृष्ट १७१ ) असंहितामें भी अनमुनियोंको नाम बताया है •षा “मुनयः बाववसनाः।" इसके भतिरिक प्राचीनकालमें (दासे पूर्वी शतानियोंमें) मन प्रीक लोग आए तो उनें नग्न जनगुनि की Page #249 --------------------------------------------------------------------------  Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરર भगवान महावीर। दूप्य वस्त्र धारण किए थे, इसके बाद उन्होंने उसका भी त्यागकर दिया था, अर्थात पिछली अवस्थामें वे नंग्न रहे थे, परन्तु उसका -यह कथन मिथ्या है। क्योंकि हम उपर सिद्धकर चुके हैं कि दिगम्बर भेष प्राचीन है। उधर खयं कल्पसूत्रमें स्वीकार भी किया है कि पीछे वे अचेलक (वस्त्ररहित) होगए थे। :"भगवानके समयवर्ती आजीवक आदि (बल्कि प्राचीन आनीवक भी) सम्प्रदायके साधु-मी नग्न ही रहते थे। पीछे जब-दिगम्बरीवृत्ति साधुओंके लिए कठिन प्रतीत होने लगी होगी और इसलिए देशकालानुसार उनके लिए वस्त्र रखनेका विधान किया गया होगा, तब यह देवदूप्यकी कल्पना की गई होगी । भगवान रहते ये नग्न, पर लोगोंको स्त्र सहित ही दिखाई देते थे, श्वेतांबर सिम्प्रदायके इस अतिशयका फलितार्थ यही है कि भगवान नम दो बड़ी खास बात पाई जाती है तपा जो बातें जैनियोंकी सबसे प्राचीन पुस्तकों पुराने इतिहाससे ठीक २ मिलती है वे ये है कि-एक तो उनमें दिगम्बर मुनियों का होना और दुसरे पशु. मांसका सर्वेया निषेध" इन दोनों से कोई बात भी प्राचीनकालके ब्राह्मणों और बौदोंमें नहीं पाई जाती है। क्योंकि दिगम्बरं समाज प्राचीनकालसे अबतक बराबर चली भारही है। इससे मैं यही तात्पर्य निकालता हूक पश्चिमीय भारतमें जहां दिगम्बर जैनधर्म अब भी फैला है जो जैन सूफी ( Gymnosophists ) यनानियोंको मिले ये वे जैन थे।" दिगम्बर श्वेतांबरका उल्लेख करते हुए मि० भार० सी०-दस साहब लिखते है कि "मगधके लोग श्वेतवस्त्र पहिनने लगे थे, परन्तु कर्नाटका. पाले भवता भी नगे रहनेकों प्राचीन रीतिको पकडे हुए थे।"देखो' "भारतवर्षकी प्राचीन सभ्यताका इतिहास ") एक अन्य विद्वानका इस विषयमें मत है कि "महावीरजीने यह अच्छी तरह जान लिया था , कि एक पूर्ण साधुके लिए सर्व आकाक्षाओं, खासकर लथापर विजय - Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बरकी उत्पत्ति २२३ रहते थे" ( देखो नैन हितैषी भाग १३) अतः भगवान अपने दीक्षा कालके प्रारम्भसे ही परमहंस-नग्न-दिगम्बर रहे थे, यह प्रकट है । मि. विमलचरण लॉ० एम० ए० अपनी पूर्वोल्लिखित पुस्तकमें जहां भगवान महावीरके निर्वाण प्राप्तिके पश्चात बौद्ध अन्थके आधारसे संघमें मतभेद होना लिखते हैं, वहां वह यही लिखते हैं कि " इन जैनोंमें साधु और श्रावक दोनों थे, क्योंकि हम देखते हैं कि साधुओंके इन झगड़ोंके कारण 'नात्तमुत्तके गृहस्था अनुयायी:जो. श्वेतवस्त्रं पहिनते थे, वे इन निग्रन्थोंपर दुःखित, क्षुब्ध और कुद्ध थे। इससे प्रकट है कि तबके गृहस्य उसी प्रकार श्वेत वस्त्र पहिलते थे, जिस प्रकारकि आजकलकी श्वेताम्बर सम्प्रदाय ।" और मुनिगण नग्न दिगम्बर भेषमें रहते थे। इसलिए.जब भगवान महावीरके शिष्य मुनिगण दिगंबर भेषमें रहते प्राप्त करना आवश्यक हैं ।......पक्षोंके झगड़ोंसे परे होनेके कारण अन्य बहुतरे शशट छुट जाते है-खासकर उनके धोनेके लिए जलकी भावश्यक्ता नहीं रहती। हमारा भलाई और बुराईका ज्ञान, हमारी नग्नपनेकी जानकारी ही में मुक्तिसे दूर रखती है। उसे प्राप्त करनेके लिए हमें अवश्य ही नग्नताको स्वीकार करना पड़ेगा। जैन निष माई बुराईसे परे है। इसलिए उन्हें खोकी आवश्यक्ता नहीं । " (See the Heart of Jainism. P. 35.) एक श्वेताम्बर विद्वान मि० बाहरके निम्न वाक्य भी कुछ २ इसी बातको व्यक्त करते प्रकट होते है. "Gradually the manners and custor ms of the church changed and the original praotice of going abroad naked was abondoned. The asceties began to roar the "white rose." भतएव इन सब बातोसे यह प्रत्यक्ष प्रकट है कि जैन मुनियों प्राचीन रूप "दिगन्दर" ही है। करते प्रकट se dhuroh cost naked in white robase Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ भगवान महावीर। थे तब उनके गुरु आप्त देव तो अवश्य ही उसी नग्न दिगंबर पावन भेषमें रहते थे यह प्रमाणित है, और जो स्वयं श्वेताम्बर ग्रंथके कथनसे भी व्यक्त है। अस्तु, अब हम श्वेताम्बर आनायकी उत्पत्तिके विषयमें प्रकाश डालेंगे। ____ सबसे पहिले हमें देवसेनाचार्यके दर्शनसार ग्रन्थसे इस विषयमें इस प्रकार विवरण मिलता है। अर्थात् “ विक्रमादित्यकी मृत्युके १३६ वर्ष बाद सौराष्ट्र देशके वल्लभीपुरमें श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ। श्री भद्रबाहुगणिके शिष्य शान्ति नामके आचार्य थे, उनका जिनचन्द्र' नामका एक शिथिलाचारी और दुष्ट शिष्य था, उसने यह मत चलाया कि स्त्रियोंको उसी भवमें स्त्री पर्याय ही से मोक्ष प्राप्त होसक्ती है, केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है, वस्त्र धारण करनेवाला मी मुनि मोक्ष प्राप्त करता है, महावीर भगवान के गर्भका संचार हुवा था, अर्थात वे पहिले ब्राह्मणीके गर्भ में आए, पीछे क्षत्रायणीके गर्नमें चले गए, जैनमुद्राके अतिरिक्त अन्य मुद्राओं या वेषोसे भी मुक्ति हो सक्ती है और प्रामुक भोनन सर्वत्र हरकिसीके यहां करलेना चाहिए। । इसी प्रकार और भी आगम विरुद्ध बातोसे दृषित मिथ्या शास्त्र रचकर वह पहिले नरकको गया।" (देखो जनहितैषी भाग १३ अंक ५-६ पृष्ठ २५२-२५३.) अन्यत्र श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका इतिहास देवसेनसूरि छत भावसंग्रहमें इसप्रकार दिया है । "विक्रमरानाकी मृत्युके १३६ वर्ष बाद सोरठ देशकी वलभी नगरीमें श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ। (उसकी कथा इस प्रकार है) उज्जयनी नगरीमें भद्रबाहु नामके Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA श्वेताम्बरकी उत्पत्ति। રરક आचार्य थे। वे निमित्तज्ञानके जाननेवाले थे, इसीलिए उन्होंने संघको बुलाकर कहा कि एक बड़ा भारी बारह वर्षों में समाप्त होनेवाला दुर्मिक्ष होगा, इसलिए सबको अपने अपने संघके साथ और देशोंको चले जाना चाहिए। यह सुनकर समस्त गणघर अपने अपने संघको लेकर वहांसे उन उन देशोंकी ओर विहार कर गए, जहां सुभिक्ष था। उनमें एक शांति नामके आचार्य भी थे, जो अपने अनेक शिष्योंके सहित चलकर सोरठ देशकी वजमी नगरीमें पहुंचे, परन्तु उनके पहुंचनेके कुछ ही • समय बाद वहापर भारी अकाल पड़गया। भूखमरे लोग दूस रोंका पेट फाड़ फाड़कर और उनका खाया हुमा भात निकाल निकालकर खा जाने लगे। इस निमिसको पाकर दुर्भिक्षकी परिस्थितिके कारण-सबने कम्बल, दण्ड, तूम्बा, पात्र, आवरण (संथारा) और सफेद वस्त्र धारण कर लिए । ऋषियोंका (सिहावृत्तिरूप) आचरण छोड़ दिया और दीनवृत्तिते मिक्षा ग्रहण करना,-बैठ करके याचना करके और स्वेच्छापूर्वक पत्तीमे जाफर भोजन करना शुरू कर दिया। उन्हें इस प्रकार आचरण करते हुए किराना ही समय बीत गया । जब सुमिक्ष होगया, अन्नका कष्ट मिट गया, तब शांति आचार्यने संघको बुलाकर कहा, कि अब इस कुतितत आररणको छोड़ दो, और अपनी निदा, गर्दा करके फिरसे मुनियोका श्रेष्ठ आचरण ग्रहण करले। इन बचनोंको सुनकर उनके एक प्रधान शिष्यने कहा कि अव उस अतिशय दुर्मर जाचरणको कौन धारण कर सकता है ? उपवास, भोजन न मिलना, तरह तरहके दुस्सह अन्तराय, एक स्थान, वस्त्रोंका अभाव, मौन, ब्रह्मचर्न, भूनि Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ पर सोना, हर दो महीनों में केशोंका लोंच करना और असहनीय 1 बाईस परीषह आदि बड़े ही कठिन आचरण हैं । इस समय हम लोगोंने जो आचरण ग्रहण कर रक्खा है, वह इसे लोकमें भी · 1 3 सुखका कर्ता है | इस दुःषमा कालमें हम उसे नहीं छोड़ सके । तब शांत्याचार्यने कहा कि यह चारित्रसे भ्रष्ट जीवन अच्छा नहीं, यह जैन मार्गको दूषित करता है । जिनेन्द्र भगवानने निग्रन्थ प्रवचनको ही श्रेष्ठ कहा है उसे छोड़कर अन्यकी प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व है। इस पर उस शिष्यने रुष्ट होकर अपने बड़े डंडेसे गुरुके सिरमें आघात किया, जिससे शांत्याचार्यकी मृत्यु होगई और वे मरकर व्यन्तर देव हुए। उसके बाद वह शिष्य संघका खामी बन गया और प्रकटरूपमें सेवड़ा या श्वेताम्बर होगया । वह लोगोंको धर्मका उपदेश देने लगा और कहने लगा कि सग्रन्थ या सपरिग्रह अवस्थामें निर्वाणकी. प्राप्ति होती है । अपने अपने ग्रहण किए हुए पाखण्डक सहश उसने और उसके अनुयायियोंने शास्त्रोंकी रचना की, उनका व्याख्यान किया और लोगोमें उसी प्रकारके आचरणकी प्रवृत्ति 4 1 'चलादी ' वे निर्मथ नार्गको दूषित बतलाकर उसकी निदा और अपनी प्रशंसा करने लगे । ....... अव वह जो शांति आचार्यका नीव व्यंतरदेव हुआ था, सो उपद्रव करने लगा और पहने लगा कि तुम टोग जैन धर्मको पाकर मिध्यात्द मार्गपर मत चलो इससे इन सबको पड़ा भय हुआ और वे उसकी सम्पूर्ण द्रव्योसे संयुक्त अष्ट प्रकारकी पूजा करने लगे । वह जिनचंद्रकी रची हुई या चलाई हुई उस व्यंतर देवकी पूजा आज भी की जाती । आन " 1 भगवान महावीर J Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बरकी उत्पत्ति। भी वह बलि पूजा सबसे पहिले उसके नामसे दी जाती है। वह खेताम्बर संघका पूज्य कुलदेव कहा जाता है। यह मार्ग भ्रष्ट खेताम्बरोंकी उत्पत्ति कही।........" "भावसंग्रह विक्रमकी दशवी शताब्दिका बना हुआ ग्रन्थ . है, प्राचीन है, अतएव हमने उस परसे श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिकी इस कथाको यहां उद्धर्त करना उचित समझा ।" __भट्टारक रत्ननंदिने भद्रबाहुचरित्रका अधिकांश इसी काको पडवित करके लिखा है । इसमें कोई संदेह नहीं कि उनकी कथाका मूल यही है। परन्तु उन्होंने अपने अन्यमें इस कथामें जो परिवर्तन किया है, वह बड़ा ही विलक्षण है। उनके परिवर्तन किये हुए कथा भागका संक्षिप्त खरूप यह है--'भद्रबाहु खासीकी भविष्यहाणी होनेपर १२ हजार साधु उनके साथ दक्षिणकी ओर विहार कर गए, परन्तु रामल्य, स्थूलाचार्य और स्यूलभद्र आदि मुनि श्रावकोंके आग्रहसे उज्जयिनीमें रह गए । कुछ ही समयमें घोर दुर्भिक्ष पड़ा और वे सब शिथिलाचारी होगए। उधर दक्षिणमें भद्रबाहुखामीका शरीरान्त होगया । सुमिक्ष होनेपर उनके शिष्य विशाखाचार्य आदि लौटकर उज्जयिनीमें आये । उस समय स्कूलाचाम्ने अपने साथियोको एकत्र करके कहा कि शिथिशवार छोड़ दो; पर अन्य साधुओने उनके उपदेशको न माना और क्रोधिन होकर उन्हें मार डाग । स्यूलाचार्य व्यन्तर हुए। उपद्रव करनेपर वे कुलदेव मानकर पूजे गए । इन शिथिलाचारियोसे 'अईफालकर (आयो कपड़ेवाले ) सम्प्रदायका जन्म हुआ। इसके बहुत समय बाद उज्जयिनीमें चंद्रकीर्ति राना हुआ। उसकी पन्या वलनीपुरके Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर । चंद्रलेखाने अर्धफालक साधुओं के पास राजाको ब्याही गईं। विद्याध्ययन किया था, इसलिए वह उनकी भक्त थी। एक बार t उसने अपने पतिसे उक्त साधुओं को अपने यहां बुलानेके लिए कहा। राजाने बुलानेकी आज्ञा दे दी । वे आये और उनका खूब घूमघामसे स्वागत किया गया । पर राजाको उनका वेष अच्छा न मालूम हुआ। वे रहते तो थे नग्न, पर ऊपर वस्त्र रखते थे । रानीने अपने पति हृदयका भाव ताड़कर साधुओंके पास खेतचत्र पनि के लिए भेज दिए । साधुओने भी उन्हें स्वीकार कर लिया । उस दिनसे वे सब साधु श्वेतांबर कहलाने लगे ।, इनमें जो साधु प्रधान था उसका नाम जिनचन्द्र था ।" } यह उपर्युक्त वर्णन जैनहितैषी भाग १३ अंक ९-१० के ३९८-४०० पर वर्णित है । और इस पर सम्पादक महोदयकी विवेचना है कि " अब इस बातका विचार करना चाहिए कि भावसंग्रहकी कथाने इतना परिवर्तन क्यों किया गया । हमारी समझमें इसका कारण भद्रवाहुका और श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पतिका समय है । भावसंग्रहके कर्ताने भद्रवाहको केवल निमितज्ञानी लिखा है, पर रत्ननंदि उन्हें पंचम श्रुतकेवली लिखते है | दिगम्बर ग्रंथोके अनुसार भद्रबाहु श्रुतकेवलीका शरीरान्त्र चीरनिर्वाण संवत् १६२ मे हुआ है और श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति वीर नि० सं० ६०३ (विक्रम संवत् १३६ ) में हुई है। दोनों बीचमें कोई साढे चारसो वर्षका अन्तर है । रत्ननन्दिनीको से पूरा करनेकी चिन्ता हुई पर और कोई उपाय न था, इस कारण उन्होंने भद्रबाहु समयमे दुर्भिदांके कारण जो मत चला था, उसको Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बरकी उत्पत्ति। श्वेताम्बर न कहकर अर्धफालक कह दिया और उसके बहुत वर्षों • बाद (४५० वर्षके बाद) इसी 'अर्ध-फालक' सम्प्रदायके साधु जिनचन्द्र के सम्बन्धकी एक कथा और गढ़ दी और उसके द्वारा श्वेताम्बर मतको चला हुआ बतला दिया। श्वेताम्बर मत जिनचंद्रके द्वारा वञ्चमीमें प्रकट हुआ था, अतएव यह आवश्यक हुआ किदुर्मिक्षके समय जो मत चला, उसका स्थान कोई दूसरा बतलाया जाय और उसके चलानेवाले भी कोई और करार दिए जाय । इसी कारण अर्धफालककी उत्पत्ति उज्जयिनीमें बतलाई गई और उसके प्रवर्तकों के लिए स्थूलभद्र आदि नाम चुन लिये गये । स्थूलभद्रकी श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उतनी ही प्रसिद्धि है जितनी दिगंबर संपदायेमें भगवान कुन्दकुन्दकी । इस कारण यह नाम ज्योंका त्यों उठा लिया गया और दूसरे दो नाम नये ले लिए गए। वास्तवमें 'अर्धफालक' नामका कोई भी संप्रदाय नहीं हुआ। भद्रबाहुचरित्रके पहिलेके किसी भी ग्रन्थमें इसका उल्लेख नही मिलता।" ___ इस प्रकार हमें दि० जैन ग्रंथोंसे श्वेतांबर संप्रदायकी उत्पत्तिका वर्णन मिलता है । जिससे प्रगट है कि स्त्री मुक्ति आदिमें मतभेद होनेके कारण उनकी उत्पत्ति हुई थी। परन्तु, जो समय दिया गया है वह ठीक नही बैठता इसी लिए रत्ननंदिनीने उसको युक्तिसंगत बनानेको पूर्ण खुलासा प्रगट किया था। यह कहना कि 'अर्धफालक' सम्प्रदाय कोई हुआ ही नहीं, युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि विशेष संभाव्य यही है कि पूर्वके आचार्योंने प्रारम्भनें जबसे मतभेद खड़ा हुआ तबसे ही श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ लिखा और इतिहासकी ओर विशेष लक्ष्य न होते हुए उन्होंने समय वह दिया Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ जिसमे श्वेताम्बर मत बिल्कुल पृथक् स्थापित होगया था । रत्ननंदि आचार्यको यह ऐतिहासिक गणनाका फर्क नजर पड़ा होगा तब उन्होने उस प्रारंभिक समय में जितना मतभेद पड़ा था उसका उल्लेख भी , कर दिया । इसलिए दि० ग्रन्थोंका उपर्युक्त वर्णन अधिकांशमें यथार्थ प्रगट होता है । किन्तु श्वेतांबर सम्प्रदायकी ओरसे भी एक ऐसा ही समय दिगम्बरोंकी उत्पत्तिके विषय में कहा जाता है और उसके प्रमाणमे यह गाथा दी जाती है:--. । 'भगवान' महावीर ।' 1 " f छव्वास सहस्सेहिं नवुत्तरेहि सिद्धिं गयस्स वीरस्स । तो वोडियाण विट्टी रहवीरपुरे समुप्पन्ना !! परंतु उनका इस प्रकार श्वेतांबर सम्प्रदायसे दिगंबरोंकी उत्पत्ति बतलाना नितान्त मिथ्या है, क्योकि हम पहिले देख चुके हैं कि जैनधर्मके आदि प्रवर्तक भगवान ऋषभदेवसे लेकर अंतिम भगवान महावीरके उपरान्त तक जैन साधु नग्न दिगम्बर वेपमे (निग्गन्थ) रहा करते थे । तिसपर श्वेतांवरियोका उक्त प्रमाणभूत गाथा किसी दिगंवर ग्रन्थके एक गायेका रूपान्तर प्रतीत होता है, क्योंकि स्वयं श्वेताम्वराचार्य जिनेश्वरसूरिने अपने 'प्रभा-लक्षण ' नामक तर्कग्रन्थके अन्त मे श्वेताम्बरोंको आधुनिक बतानेवाले दिगम्बरोफी ओरसे उपस्थित की जानेवाली इस गाथाका उल्लेख किया है: । 1 छव्वास सएहि न उत्सरैहिं तज्ञ्या सिद्धि गयमा वीरस्स । कंवलियाणं दिट्टी बलही पुरिए समुप्पण्णा ॥ यह गाथा श्वेतांवरोकी प्रमाणभूत उक्त गाथाले बिल्कुल मिलती जुलती है। इसलिए यह प्रकट होता है कि श्वेता रोने 1 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www श्वेताम्बरको उत्पत्ति। दिगम्बरोके उत्तरमें यह गाथा पेश की थी, परन्तु वह यह भूल गए कि यह स्वयं उनके एक दूसरे आचार्यके कथनसे बाधित होती है। अतएव इस तरह भी प्रमाणित है कि इस समय दिगम्बरियोंकी उत्पत्ति न होकर श्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति हुई थी। और दिगंवर वेष तो जैन धर्ममें जैन धर्म इतना सनातन-प्राचीन है, इस ब्याख्याती पुटिने डॉ० जे० स्टीवेन्सन साहबके निम्न वाक्य भी उपयुक्त हैं: " It is much more likely however, fro.a what is said above, that the Swetambar party originated about that time ( a century before A D.) and not the Digambar. " ( See the Prelace to Kalpa Sutra by Rer: J.Stevenson D. D P.XV.) अर्थात् उपर्युक्त वर्णनसे यह विशेषतया प्रतीत होता है 'कि इस समय ( ईसवी सन् से एक शताब्दि पहिले ) श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई थी, दिगम्बरियोंकी नहीं। उपर वीर-संघके मतभेदका उल्लेख बौद्ध ग्रन्थोंने भी मिलता है। जैसे कि पूर्वमे मि० ला की पुस्तकके अनुसार उल्लेख किया है । मि० ला उसके पश्चात् कहते हैं कि “जैन संघमें जो भगवानकी निर्वाण प्राप्तिके वाद मतभेद पड़ा था, उससे म० बुद्ध और उनके मुख्य शिप्य सारीपुत्तने अपने धर्मका प्रचार करनेका विशेष लाभ उठाया प्रतीत होता है। 'पासादिक सुतंत' से ज्ञात होता है कि पावाके चन्द नामक व्यक्तिने मल्लदेशके सामगाममें स्थित आनन्दको महान् तीर्थकर महावीरके शरीरान्त होनेकी खपर दी थी । आनन्दने इस घटना के महत्वको झट अनु Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ . भगवान महावीर । भव कर लिया और कहा " मित्रचन्द, यह समाचार 'तथागतके समक्ष लानेके उपयुक्त हैं । अस्तु, 'हमें उनके पास • चलकर यह खबर देना चाहिए।" वे बुद्धके पास दौड़े गए, निन्होंने एक दीर्घ उपदेश दिया । ( Se Dialogues of the Buddhs. Pt. III. P. 112. & Kshatriya clans in Buddhistb India. P. 176.) इस वर्णनसे प्रकट है कि म० बुद्धके जीवनकालमें और भगवान महावीरकी निर्वाण प्राप्तिके उपरान्त ही संघमें मतभेद पड़ गया था। परन्तु यह नितान्त मिथ्या प्रतीत होता है। क्योकि यदि ऐसा होता तो वहीसे दिगम्बर और श्वेताम्बर गुर्वावली(शिष्य-परम्परा ) में भेद पड़ना चाहिए था । परन्तु हम देखते हैं कि भगवान महावीरके निर्वाणके वाद गौतमस्वामी, सुधर्मस्वामी और जम्बूस्वामी, इन तीन केवलज्ञानियो तक दोनो सम्प्रदायोमें एकता है । इसके आगे जो श्रुतकेवली हुए हैं, वे दिगम्बर संप्रदायमें दूसरे हैं और श्वेताम्बरमे दूसरे। आगे भंद्रबाहुको अवश्य ही दोनो सम्प्रदाय मानते हैं। इसलिए यह प्रमाणित होता है कि भगवान वीरको निर्वाणप्राप्तिके कुछ काल पश्चात् ही मतमेद उपस्थित नहीं होगया था। प्रो० नकोबीने जो इस विषयमें लिखा है कि " यह बहुत संभव है कि जैन सघका प्रथम प्रयक होनाना क्रमवार हुआ था। दोनो ही सम्प्रदायोमें एक दूसरेसे दूर रहते हुए, व्यक्तिगत उन्नति होती जाती थी। और वे अपने आपसी मतभेदसे ईमाकी प्रथम शतालिके अन्तमें भिज्ञ हुए थे।" (Sea Hastings, Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NA श्वेताम्वरकी उत्पति। Encyolopodia of Religion and Ethics, Vol. VII, P. P 465 & 466. and South Indian Jainism. Pt. I P. 25). इसीप्रकारका एक संशयात्मक मत 'जनहितैषी' भाग १३ पष्ट २६९-२६६ पर विशेष गवेषणाके साथ प्रतिपादित किया गया है, और निर्णय स्वरूपमें कहा गया है कि " श्वेताम्बर सम्प्रदायके आगम या सूत्र ग्रन्थ वीर नि० सं० ९८० (विक्रम सं० ५१०) के लगभग वलभीपुरमे देवर्धिगणि क्षमाश्रमणकी अध्यक्षतामें संगृहीत होकर लिखे गये हैं, और नितने दिगम्बर एवं श्वेताम्बर ग्रन्थ उपलब्ध हैं। और जो निश्चय पूर्वक साम्प्रदायिक कहे जा सके हैं, वे प्रायः इस समयसे बहुत पहिलेके नहीं हैं। अतएव यदि यह मान लिया जाय कि विक्रम सं० ४१०३ सौ पचास वर्ष पहिले ही ये दोनों मतभेद सुनिश्चित और सुनियमित हुए होंगे, तो हमारी सम्पझमें असंगत न होगा। इसके पहिले भी भेद रहा होगा परन्तु वह स्पष्ट और सुश्रृंखलित न हुआ होगा। खेतांबर जिन बातोको मानते होगे उनके लिए प्रमाण मांगे जाते होगे, और तब उन्हें आगमोंको साधुओंकी अरप्ट यादगारीपरसे सग्रह करके 'लिपिबद्ध करनेकी आवश्यका प्रतीत हुई होगी। इधर उक्त संग्रहमें सुखलता प्रौढता आदिकी कमी, पूर्वापर विरोध और अपने विचारोंसे विरुद्ध कथन पाकर दिगंवरोंने उनको माननेसे इन्कार कर दिया होगा, अपने सिद्धान्तोंको खतंत्ररूपसे लिपिवद्ध करना निश्चित किया होगा।" परन्तु यह दोनों ही मत प्रमाणभूत यथार्थ निश्चय नहीं माने जा Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · 'भगवान महावीर | २३४ www. " सक्के और सारभूत कारणके अभाव में इस विषयके दिगम्बर कथानकोंपर अविश्वास नही किया जाराक्ता है। हॉ. ! यह अवश्य | कि दिगंबर कथानकोंसे श्वेतांबर संप्रदायकी उत्पत्तिके समयमे किसी प्रकार संशय प्रकट हो जाता है तो भी बहुतसे आधुनिक 'विद्वान' इस समयको निश्चित करते हैं जैसे कि मि० एम. एस. रामास्वामी ऐयंगर एम. ए. अपनी 'South Indian Jainism' नामक पुस्तकके पृष्ठ २९ पर इस पृथक् होनेके समयको अनुमानतः सन्' ८२ ई० लिखते हैं । ! बौद्ध ग्रन्थके उपर्युल्लिखित वणनकी कि भगवान के निर्वाण प्राप्ति के उपरान्त ही वीर संघमे मतभेद खड़ा होगया था असंत्योक्ति इस तरह भी प्रमाणित होती है, क्योंकि एक अन्य वौद्ध ग्रन्थ ' "माज्झिमनिकाय" भाग २ पृष्ठ १४३ पर निम्न उल्लेख है:-- “एकम् समयम् भगवा शकेषु विहारति सामगामे । तेन खो, पण समयेण निम्गन्यो नातपुत्तो पावायम् अधुना कालकत्तो होति । तरस कालक्रियाय मिन्न निग्गन्थ द्वेधिकजाता, भन्डन जाता कलह 'जाता विवादापन्ना अण्णमण्णम् सुखसन्तीहि वितुदन्ता विहारिन्ता ।", इससे यह प्रगट नही होता कि म० बुद्धके जीवनकालमें ही, जिनकी मृत्युके पहिले भगवानको मोक्षलाम होगया था, जैन संघमें दो भेद होगए थे। यहांपर बतलाया गया है कि 1 म० बुद्धने सामगामको जाते हुए मार्ग में स्वयं भगवान महावीरका निर्वाण होते पावामें देखा था । इसमें, आनन्दकी 'खबर पहुचाने और म० बुद्धके उपदेश देनेका कोई उल्लेख नहीं है । इससे प्रगट है कि भगवानकी निर्वाण प्राप्तिके साथ ही संघ में मतभेद " Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बरकी उत्पत्ति। २३६ उपस्थित नहीं हुआ था। बल्कि एक दीर्घकाल पश्चात् भगवानका पावन संच दिगंबर और श्वेताम्बर संप्रदायोंमें विभक्त होगया था। बौद्धग्रन्थोमें साधारण रीतिपर लिख दिया गया है कि भगवानके निर्वाण लाभके पश्चात् संघ प्रथक् प्रथक् होगया इससे यह भाव प्रतीत नहीं होता है कि फौरन ही फूट होकर दो सम्प्रदाय होगए। अन्तमें डॉ० हॉर्नल साहब ( Dr. Hoennle ) ने इस विषयको निन्नप्रकार साफ शब्दोंमें प्रगट कर दिया है:___ "महावीरस्वामीकी निर्वाणप्राप्ति पश्चात् दूसरी शताब्दिमें, अनुमानतः ईसासे पहिले ३१ में, मगधदेश (वर्तमान बिहार )में एक बारह वर्षका दीर्थ दुष्काल पड़ा था। उस समय उस देशके अधिपति मौर्यवंशके चन्द्रगुप्त थे। और भद्रबाहु उस समय तक अखण्ड जैनधर्मके नायक थे। दुष्कालके दुष्प्रभावके कारण भद्रबाहु अपने कुछ मनुप्योके साथ दक्षिण भारतके कर्णाटक प्रदेशकी ओर प्रस्थान कर गए थे। संघके जो अवशेष मनुष्य मगधमें रहे थे, उनके नायक स्थूलभद्र हुए। दुष्कालके अन्तके निकट, नद्रवाहुके परोक्षमें, पाटलीपुत्र (पटना) में एक सम्मेलन सम्मिलित हुआ था। जिसमें जैन धर्मके ११ अङ्ग और १४ पूर्व नामक पवित्र ग्रन्थ संग्रहीत हुए थे, जो उपरांतमें १२ वा अंग कहलाये - जो जो कठिनाईया दकालमें सामने आई. उनसे जैनियोंके आचार पालनमें भी फरक पड गया । मुनियोंकी वेष भूषाके विषयमे यह नियम था कि चे बिल्कुल नग्न रहें, यद्यपि नीचेके चारित्र धारण करने वाले साधुओंके लिए कुछ वस्त्रोंक रखनेका नियम होना प्रतीत ये श्वेताम्बर आनायके आगम अंथ हैं। - - Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ भगवान महावीर । → होता है । वे मुनिगण जो पीछे रह गए थे, दुष्कालंकें " कष्टक कारण 'अपने नग्न व्रतको त्यागनेको बाध्य हुए थे और श्वेत वस्त्रोंको धारण करने लगे थे। दूसरी ओर, अपनी धर्मवत्सलता के कारण जो सुनिगण नग्न आचारं नियमका त्यागन नही करके विदेश विहार करगए थे, उन्होने यह नियम सम्पूर्ण संघके लिए अनि- ' वार्य्य रक्खा। सुकाल और सुखशांतिके पुनरागमन पर जब वे , मुनिगण, जो विहार कर गए थे, लौटकर उस देशमें आए तबतक 1 'वह आचारविभिन्नता इस कालान्तर में पूर्ण स्थापित हो गई थी,, जिससे कि उसकी उपेक्षा नही की जा सक्ती थी । विहारसे लौटे हुए सुनिसंप्रदायने उन पतित (उनके निकट ) मुनियोंसे समय-, नेका व्यवहार नहीं रक्खा जो पीछे रह गए थे। इस प्रकार दिगम्बर और श्वेताम्बर संप्रदायोफै विभागकी जड़ पड़गई थी ।" प्रख्यात योरुपीय विद्वानके उक्त कथनसे श्वेतांवर संघकी उत्पत्ति विषयक दिगंबर जैन कथानककी सत्यता झलक जाती है । ' / श्वेतांवर संघकी उत्पत्ति महावीर भगवान के निर्वाण लाभके दीर्घ कालोपरान्त हुई थी, एवं दिगंबर संप्रदाय सनातन है यह प्रमाणित हो जाता है | + + इस बातके प्रकट करने से मात्र हमारा भाव वास्तविक ऐतिहासि कताको प्रत्यक्षमें लाने का है। इसलिए साम्प्रदायिक विद्वेषका वर्धक कारण यह न समझा जाय, यह अभीष्टं है। ऐतिहासिक दृष्टिकोनही पुवर्क में सर्वत्र अन्य धम्म वा मतोंकी समालोचना की गई है। महात्मा बुद्धका वर्णन भी उसी दृष्टिसे है । अतएव हम आशा करते हैं कि हमारे पाठक भगवान 'चरित्र 'विश्वप्रम' और 'सत्य' का पाठ ही ग्रहण करेंगे । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बरकी उत्पत्ति | २३७ अस्तु, अब हम श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थों में जो भगवान महावीरके जीवन संबंध में मतभेद हैं उनपर विवेचन करेंगे। परन्तु ऐसा करनेके पहिले हम यह व्यक्त करदेना चाहते हैं कि " यह ध्यान में रहे कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सूत्रग्रन्थ सुधर्मस्वामी और. भद्रबाहुरवामी आदिके रचे हुए बतलाए जाते हैं; परन्तु वे देवर्विगणि क्षमाश्रमणके समय में वीर नि० ' संवत ९८० के लगभग पुस्तकारूढ़ किए गए थे । इसलिए यह दृढ़तापूर्वक नही कहा जा सक्ता कि यह सुधर्मस्वामी आदिकी यथातथ्य रचना है और इसमें समयानुसार कुछ परिवर्तन नहीं किया गया है। सबकी भाषा जुदी जुदी तरहकी है । रचनाशैलीमें भी अन्तर है और एक आगमसे दूसरे आगमकी बहुतसी बातें मिलतीं नहीं । जैसे समवायांग सूत्रमें आचारांग सूत्रके अध्यायोंकी जो संख्या और क्रम दिया है वह वर्तमान आचारांग सूत्रमे नही है । कल्पसूत्र श्रुतकेवली भद्रबाहुका बनाया हुआ कहलाता है; परन्तु उसमें जो स्थविरावली या गुरुपरंपरा दी है, वह भद्रपाहुसे लगभग आठसौ वर्ष पीछे तककी दी हुई है !”* भगवती सूत्रके भी बहुतसे कथन स्वयं उसीके वर्णनोंसे पूर्वापर विरोधित हैं जैसे डॉ० वी. एम. नारुआ . एम. ए. डी. लिट. अपनी Tho Ajivakas (Pt. I) नामक पुस्तकके पृष्ठ १२ पर व्यक्त करते हैं । अस्तु, प्रगट है कि श्वेतांबर संप्रदायके आगम या सूत्र ग्रन्थ भगवान के समय के निश्चित प्रमाण नही माने जाते । भगवान के समय के असली आगम सूत्र क्रमकर लुप्त हो गए * देखो जेन हितैषी भाग १३ अंक ४ पृष्ट १४५ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -wam २३८ भगवान महावीर । थे, जो कि साधुओं द्वारा कण्ठस्थ रक्खे जाते थे। जैसे २ साधुओंकी स्मरण शक्ति कमजोर पड़ती गई वैसे,२ ही आगम सूत्रोंका लोप होता गया । और उक्त ग्रन्थ पीछेसे किसी अंगघारी मुनिकी स्मृतिसे लिपिबद्ध कर लिए गए। बहुत संभव है कि देवा गणि क्षमा श्रमणने ही लिपिबद्ध करते समय इनकी रचना उक्त, प्रकार की होगी। और यह भी ध्यान में रखनेकी बात है कि उस समय भारतीय विविध धर्म सम्प्रदायोमें आपसमें खूब प्रतिस्टदा चल रही थी। इसलिए उस समयके गति प्रवाहके प्रभावसे यह ग्रन्थ अछूते न बचेहोंगे। उनमें प्रतिपक्षी सम्प्रदायोके ऊपर वार वाण जरूर छोड़े गए होंगे। .. . ____ अस्तु, सबसे पहिले श्वेताम्वर सम्प्रदायने भगवान महावीरके चरित्रमें भगपानके गर्भापहरणकी बात लिखी है कि सुनन्दा ब्राह्मणीके गर्ममेंसे भगवान त्रिशला क्षत्रियांणीके गर्भमें पहुंचा दिए गए परंतु जिस समय कल्पसूत्र संभवता रचा गया था (विक्रम, संवत्के बहुत वर्षों बाद) उस समय ब्राह्मणोंसे जैनियोंकी प्रतिस्पर्धा खूब चडीबडी थी। इसलिए जैनाचार्य ने अपने अन्यमें ब्राह्मणोंकी । प्रतिस्पोके कारण इस कथाकी उत्पत्ति की जैसे कि प्रोजैकोबीने भी व्यक्त किया है और जो स्वाभाविक थी, क्योकि भगवान महावीरस्वामी के जन्मकालके पहिलेसे ब्रामण द्वेषभरी दृष्टि से देखे जाने लगे, जैसा कि हम पहिले देख चुके हैं। इसका कारण वही था कि स्वयं बाह्मणोंने भी अपनी, प्रधानताको आस्लान पर चढ़ा दिया था और अन्य वर्गाको वे विल्कुल हीन प्टिो देखते थे जैसे कि मनुस्मृतिके निम्न श्लोकोंसे व्यक्त है: Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बरकी उत्पत्ति। . २३९ 'ब्राह्मणं दशवर्षतु शतवर्षतु भूमिपम् । पितापुत्रौ विनानीयाद् ब्राह्मणस्तु तयोः पिता ॥ १३५ ॥' " ब्राह्मणो नायमानो हि एथि व्यामधि जायते । ईश्वरः सर्वभूतानां धर्म-कोशस्य गुप्तये ॥ १॥९९॥" सर्वस्वं ब्राह्मणस्येदं यत्किचिजगती गतम् । श्रेष्टनामि जनेनेदं सर्व वै ब्राह्मणोऽईति ॥ १ ॥ १० ॥ स्वमेव ब्राह्मणो मुद्दे स्वं वस्ते स्वं ददाति च । आन शंस्याद् ब्राह्मणस्य भुञ्जते हीतरे जनाः ॥ १॥ १०१ ।। ___ इस दशामें प्राकृतिकरीत्या ही ब्राह्मणोके इस गर्वको हानेके लिए उक्त प्रकारकी कथाकी उत्पति की गई थी, ऐसा प्रत्यक्ष प्रतीत है। भगवान महावीरके जीवनमें गर्मापहरणकी कोई भी वास्तविक घटना घटित नहीं हुई थी। दूसरी मुख्य बात सेतांवर अन्योंकी यह है कि वह भगचान महावीरको बालब्रह्मचारी व्यक्त नहीं करते हैं । वे कहते हैं कि भगवानके नंदिवधन नासके एक भाई और सुदर्शना नामकी एक वहिन थी। यशोदा नागडी राजकन्या के साथ उनका विवाह हुआ था, और उससे उसके प्रियदर्शना नानकी एक कन्या हुई थी। यह ऐसा मतमेट नहीं है जो मी सास सिद्धान्तके कारण हुआ हो। दिसम्बर सम्पदाय सपने सचान्य तीवकराशे विवाहित और सन्तनवान मानता है । अब, यदि भगवान महावीरशा विवाह आदि हुआ होता तो वह अपन लिखते । दूरी तरह यदि भगबागी ती पुत्री आदि मान लिए जाय, तो बहुत संभव था कि Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ > २४० भगवान महावीर | . उनका उल्लेख कहीं न कहीं बौद्ध ग्रन्थोंमें मिलता । जिस प्रकार 'भगवान महावीरके. अन्यान्य भक्तोंका उल्लेख बौद्ध ग्रन्थोंमें मिलता हैं, वैसा इनका भी उल्लेख मिलना चाहिए था, क्योंकि स्त्री, पुत्री आदि भी भगवानके परम भक्त होते । परन्तु, बौद्ध ग्रन्थोंमें इनका उल्लेख कही भी नहीं है । इसलिए भगवान बालब्रह्मचारी " रहे थे यही प्रतीत होता है । 1 मेरी समझमें भगवान महावीरके जीवनकी बहुतसी घटना - 1 / ओंको, श्वेताम्बराचार्य जैन धर्मके इस युगफालीन आदि प्रचारक' भगवान ऋषभदेवकी जीवन घटनाओं सदृश बनाना चाहते थे । " 1 इसी लिए उन्होंने ऐसा वर्णन किया जो आदि जिनकी जीवन 'घटनाओसे मिलता है, और कुछ नितान्त मौलिक भी है, क्योंकि वह यह व्यक्त करना चाहते प्रतीत होते हैं कि भगवान महावीरने अपने धर्मका निरूपण भगवान ऋषभदेवके समान किया था । और श्वेतांबर गणं भगवान पार्श्वनाथके श्रमणोंके समान आचरण करनेवाला है जिनको कि वह अपनी दृष्टिसे वस्त्रधारी मुनि समझता है; यद्यपि वे यथार्थने नग्न 'निम्यान्थ' ही थे, जैसे कि पहले प्रगट करचुके हैं। और इसी आशयका एक संवाद उत्तराध्ययन परिच्छेद २३ में अंकित है, जहां भगवान पार्श्वनाथके शिष्य केसी और भगवान महावीरके प्रधान गणवर गौतममें दिगम्बर वेषपर समझौता हुआ प्रगट है, परन्तु इसमें वास्तविक तथ्य बिल्कुल ही प्रगट नहीं होता । अस्तु, हम देख चुके कि भगवान महावीरके निर्वाण लाभ करने पश्चात् एक दीर्घफालोपरांत जैन संघमे मतभेद खड़ा होगया। 1 Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N चोर संघका प्रभावः। और जमकर उसमें फूट पड़ गई। और अलग २ सम्प्रदाय कायम होगए जैसे कि दिगम्बर कथानकोंसे प्रगट है । भगवानके समयके यथार्थ आगम सूत्र लुप्त हो गए। उनकी पूर्ति श्वेताम्बर आचार्योंने अपनी कृतिसे की जिसमें वह सफल नहीं हुए। भगवानके धर्मबाह्यभेद बहुत. पड़ गया। और उनके अनुयायी आन उनके आदर्श सार्वभौमिक प्रेमको भूल गए-अहिंसा धर्मका नाम मात्र पालन करनेवाले रह गए। জ্বী স্কঃ ক্ষাঙ্ক ___ और पश्चात के हाशि केन्द्र राजा " India bad innumberable Kings; what religions they professed can be gathered only from the shastras, and the Jain Shastras describe many Jain Kings, persons of flesh on blood, who reigned over the various Kingdoms in Behar, Balwa, Decoen, etc. And there l'ave been Jain Kings, Generals, and soldiers not only my. tnical but historical as well." - An Ahinsast in "The Jain Ahinsa.* हमारे अबतके वर्णनसे यह प्रकट है कि भगवान महावीर के तीर्थकी प्रवृत्ति होते ही, उसका उत्कट प्रभाव सर्वव्यापक होगया था। भारतमें उस समयके प्रत्यान प्रभावशाली राजाभोने बानी Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ દરર भगवान महावीर। शरण ली थी। सत्य ज्ञानकी पिपासी आत्माओंने सर्व वर्णामसे आकर भगवानकी सुधागिरा और भक्तिरसका पान करके अपनी तृप्ति की थी। क्षत्री, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, आर्य, अनार्य्य, पशु पक्षी, देवादि सबोंने सच्चे सुखका भान पलिया था। । । ___ 'यही कारण प्रतीत होता है कि कुछ विद्वान जैनधर्मके... अनुयायियोंको " हिन्दु डिसेंटर" अर्थात् हिन्दू धर्मच्युत मिन्न । मतानुयायी कहते हैं और जैनधर्मको वर्गव्यवस्थाका लोप करनेवाला प्रगट करते हैं परन्तु यह बिल्कुल मिथ्या है। हाँ! यह अवश्य है कि भगवान महावीरके समयमें जैनियोंने नीच वर्णोके प्रति दुर्व्यवहारको हटा दिया था, जैसा कि ब्राह्मणोंकी प्रधानतामें उनपर किया जाता था; और उनका मनुष्योचित सम्मान किया था। वर्णव्यवस्थाकी रक्षाका ध्यान उनको अवश्य था, जिसके कारण यद्यपि प्रत्येक वर्ण और नातिके मनुष्योंको जैनधर्ममें आनेका मार्ग खुला हुआ था, परन्तु नीच जातियोंके मनुष्योंमें मुनिधर्म जैसे उच्च आदर्शमय जीवनको धारण करनेकी योग्यता न होनेके कारण वे मुनि नहीं होते थे।'(CE: portion concerning it on page 8 of the "South Indian Jainism" by M.S. Ramaswami Aypangar. M. A.) . ___अस्तु, यह प्रगट है कि वर्णव्यवस्थाकी रक्षा करते हुए जैन संघमें सव ही प्रकारके मनुष्योने आश्रय पाया था। __• यूनानदेशवासी जो भारतवर्षके सीमाप्रान्त पर बस गए थे, वह मी जैनधर्मके परम भक्त हुए थे। मि० विमलचरण लॉ० एम० ए. अपनी पुस्तक The Historical Gleaningsके प्रष्ट ७८ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर संघका प्रभाव ।" २४३ 1 पर लिखते हैं कि "करीब ईसासे पहिलेकी दूसरी शताब्दिमें जब यूनानी लोगोंने अधिकांश पश्चिमीय भारतपर आधिपत्य जमा लिया था तब जैनधर्मका प्रचार उनके मध्य होगया था। और इस धर्मके नायककी मान्यता भी उनके मध्य अधिक थी, जैसे कि बौद्धग्रन्थ 'मिलिन्द पन्हों' के एक कथानकसे विदित है । उस कथानकमें कहा गया है कि १०० योङ्कायों अर्थात् यूनानियोंने राजा मिलिन्द ( मेनेन्डर) से निग्गन्थ नातपुत ( महावीर ) के पास चलनेको कहा और अपने मन्तव्योंको उनके निकट प्रकट करनेके लिए एवं अपनी शकाओंको निर्वृत्त करनेको भी कहा ।" इससे यह भी प्रकट है कि राजा मिलिन्द भी संभवता भगवान महावीरके भक्त थे । अस्तु । उस समय के अन्य प्रसिद्ध मतप्रवर्तक भी इस अनुपम सौम्य सान्तवनादायक प्रभावसे वंचित नहीं रहे थे । 'जिनेन्द्रके दर्शनसे बुद्धदेवको उस ज्ञानकी प्राप्तिकी तीव्र इच्छा हुई थी, जिसके विषयमें उन्होंने बड़े चमकते हुए शब्दोंमें कहा है कि वह सर्वव्यापी श्रेष्ठ आर्यज्ञानका महान् और विविक्त दर्शन है जो मनुष्यकी समझमें नहीं आसक्ता । ' * सर्व भारतवर्ष में भगवान महावीरके पवित्र, पावन, शान्तिउत्पादक तीर्थका प्रचार होगया था । कृतज्ञ भारतने भी भगवानके इस परमोपकारके प्रति कृतज्ञता प्रकाश करने हेतु उनके निर्वागोपलक्षमें एक जातीय त्यौहार कायम कर दिया । भारतकी सन्तानको साक्षात् ऐक्यका पाठ पढ़ा दिया । और जतलादिया कि यथार्थ * देखो वैरिष्टाचम्पतरायजीका "गौड़ - खडन" पृष्ट ६० Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। सत्यपर किसी खास सम्प्रदाय, जाति या व्यक्तिका अधिकार नहीं है । सत्यकी प्रत्यक्ष मूर्ति सर्व प्राणीसमुदायकी समान सम्पत्ति है, उसकी उपासना हर कोई करसक्ता है। , • तत्कालीन जनतामें इस दिव्योपकारका इतना असर था कि उन्होंने उसी समयसे भगवान के निर्माण कालसे एक, अब्द भी प्रारंभ करदिया, जो अबतक चालू है । वीर निर्वाणाब्द ८४ जैसे प्राचीनकालका एक शिलालेख आज भी हमारी उक्त व्याख्याकी पुष्टि करनेको अवशेष है। जैनमित्र वर्ष १२ अंक ११ एंठ १६२ पर इस लेखका उल्लेख है । इसके विषयमें लिखा है कि "अजमेर जिलेमे वडला ग्राम है, वहां एक खरल मिला है अर्थात एक स्तम्भ भाग एक फकीरके पास मिला है जिसमें वह कुछ कूटा करता था । इसपर पालत भावाका लेख है, जिसपर ४ लायनमे यह लेख है: वीराय भंगवत . चतुरासी निवस्से साला मारिणीय रणि विद्र मिज्झमिके। अजमेर अनायबघरके क्यूरेटर रायबहादुर पंडित गौरीशंकरने इसे वीर संवत् ८४ का निश्चय किया है। मिज्झमिका अर्थात माध्यमिका नामकी एक नगरी मेवाड़में है। शेष कुछ अक्षरोंका भाव आप नहीं लगास्के।" परन्तु उसकी भाषा लिपिके अक्षरोंसे उन्होने इसका उक्त समय निश्चित किया है। वहत संभव है कि इस शिलालेखका Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर संघका प्रभाव રક wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww सम्बन्ध राजा मिलिन्दसे हो, जो बौद्धग्रन्थके कथनानुसार जैनधर्मानुयायी प्रगट होते हैं । अस्तु, अब्द चलानेके साथ ही साथ उस जमानेके राजाओं और सेठोंने भगवान महावीर और आदि जिन श्री ऋषभदेवके स्मारकमें सिक्के भी चलाए थे, ऐसा प्रतीत होता है। मि० सी० जे० ब्राउन एम० ए०ने अपनी पुस्तक • he Coms of India की प्रथम प्लेटमें सिकोंकी प्रतिमूर्तियोमें ऐसी कई दी हैं जिनमें ऐसे धार्मिक चिन्ह हैं जो जैनधर्मसे सम्बन्ध रखते हैं। हम यहां उनमेसे केवल दोको नं० २ और नं. ५को लेकर इस बातको प्रकट करेंगे कि उन सिकोंपरके धार्मिक चिन्ह भगवान महावीर और आदि जिन ऋषमनाथकी पवित्र स्मृतिको प्रकट करते हैं। मि० बाउन इन सिक्कोंको ईसासे पहिले ६००-३०० में ढले और प्रचिलित व्यक्त करते हैं और इनके विषयों कहते हैं कि:** " Much further detailed Study of these coins will be noeded before anything can be definitely stated about the circumstances in which they were minted " (Page 15.) ___ इससे प्रकट है कि अभीतक आप इन सिकोंके ढलनेके कारणोंको निश्चित नहीं करसके हैं। अस्तु, अब हम उक्त सिक्कोंक चिन्होंका वर्णन करके यह प्रकट करेंगे कि यह सिक्के भगवान महावीरके पवित्र स्मारकमें चालू हुए थे। उस समयकी एवं उससे पूर्वकी धार्मिक घटनाओंको प्रगट करनेवाले धर्मचिन्ह उन घटनाओंकी पवित्र स्मृति बनाए रखनेके लिए लेलिए गए थे। उनसे इसके सिवाय धार्मिक प्रचारका भाव नहीं निकाला जा सका। निस यथार्थ रीतिमें उस धर्म प्रधान जमानेमें धार्मिक घटनाएं Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। घटित हुई थीं, ठीक उसी रीतिको प्रकट करनेवाले भावमय चिन्होंको लेलिया गया प्रतीत होता है और इससे यह प्रकट हो जाता है कि उस समय जैन तीर्थङ्करोंकी विशेष प्रभावना जनसाधारणके हृदोंमें घर किए हुए थी। ___ मि० ब्राउनकी उक्त पुस्तकमें प्लेट नं० १ की कुंनी (Key to Plate 1) में नं० २ और नं० ५ के सिक्कोका इस प्रकार वर्णन दिया हुआ है २. चौकोण Ponch-marked सिका। चांदी। सीधीतरफः बैल, सूर्य आदि। उल्टीतरफः-कई अप्रकट चिन्ह । ५. तक्षशिला; Double diecoin तांबा। तौल १८० ग्रेन । सीधीतरफ:-हाथी और उसके ऊपर चैत्य । उल्टी तरफः-ताकमें, वाम ओर खड़ा हुआ सिंह जिसके ऊपर स्वस्तिका, वाममे चैत्य। नं० में बैल सूर्यादि चिन्ह बतलाए हैं, परन्तु ध्यानसे देखनेसे उसमें बैल और सूर्यके ऊपर बिगड़ा हुआ स्वस्तिका और एक गोलाकार जिसके मध्यमे बिन्दु है, प्रकट होता है। अब यह देखना है कि इन चिन्होसे जैनधर्मका क्या संवन्ध है। यह याद रहे कि यह सिक्का भगवान ऋषभनाथके स्मारस्मे प्रचलित हुआ प्रतीत होता है। परन्तु प्रतिबिम्बके अविनयके उरसे यह न सती गई और उसके स्थानपर तत्सम्बन्धी धार्मिक चिन्ह सम्बे गए। हम जानचुके हैं कि भगवान अपमनायकी प्रतिबिम्बका निहलाह और चन्द्रसे गाव गुप्त मापामे धर्मस है। सूर्यका अर्थ उसी भाषामें केवलज्ञानावम्यासे हैं | (Sta Tho Traetical Polip, 192) Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर संघका प्रभाष । २४७ खस्तिकासे प्रकट जैनभाव हम पहिले दर्शाचुके हैं। गोलाकारके मध्यविन्दुसे भाव संसारी आत्मासे होगा। इस प्रकार हमको इन चिन्होंसे यह भाव मिल जाता है कि वृषभ चिन्हकी प्रतिबिम्ब भगवान ऋषभदेवकी है। इसलिए ऋषभदेव (बैल) जो केवलज्ञानके धारक (सूर्य) थे वह बतला चुके हैं कि आत्मा और पुद्गलका मेल है, जिसके कारण जीव च गतिमें भ्रमण कररहा है (खस्तिका) और लोक (गोलाकार ) के मध्य भ्रमण करनेवाले जीवकी आत्मा उसमें मौजूद है (बिन्दु)। उल्टी तरफके अप्रकट चिन्हों द्वारा इस अवस्थासे छूटनेका उपाय बतलानेवाली घटनाका उल्लेख किया गया होगा। अस्तु, इन विन्होंका भगवान ऋषभदेवके जीवनसे इस प्रकार साक्षमस्य बैठ जाना हमको विश्वास दिलाता है कि भगवान ऋषभदेवके स्मारकमे यह सिक्का ईसासे पूर्व ६००-६००में ढाला गया था जब जैनधर्मका प्रभाव भगवान महावीरके तीर्थमें खूब फैल रहा था। नं. ५ के सिक्केके चिन्होंका सम्बन्ध भगवान महावीरसे है। उसमें एक तरफ हाथी और तीन दरवाजोंका चैत्य (Threearched ) है । हाथी भगवानकी माताको खप्नमे सर्व प्रथम दिखाई दिया था, जिसका भाव था कि तीथकरका जन्म होनेवाला है, जो संयुक्त रत्नत्रय मार्ग ( Three-arched Chaitya) को प्रकट करेंगे। दक्षिणका पाण्ड्य राजवंश जैनधर्मानुयायी था। उनके सिकोपर भी हाथीका चिन्ह है। (Sss The Coins of India P.62) इससे यही प्रकट है कि हाथीका चिह्न जैनधर्मसे संबंध रखता है। इस सिक्केके दूसरी ओर ताकमें सिह, स्वस्तिका Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। और चैत्य बतलाया गया है। चैत्य वैसा ही तीन महरावोंका संयुक्त तिदरा है; परन्तु इसके ऊपर अर्धचन्द्राकार अवश्य है। यह साफ प्रकट कररहा है कि यह तिदरा बौद्धोंका चैत्य नहीं है। बल्कि इसके कुछ अधिक माने हैं। क्योंकि अर्धचन्द्राकार चिन्ह इसके ठीक ऊपर है। इन चिन्होंका यथार्थ भाव इस प्रकार युक्तिसंगत प्रतीत होता है और वह भगवान महावीरके तीर्थकरपनेकी घटनाका उद्योतन करता है । अर्थात् ताक भगवान महावीरके समवशरणको प्रगट करता है । उसमें जो सिंह है वह इस बातको जाहिर कर रहा है कि तीर्थकर भगवानने जन्म ले लिया है और उनका तीर्थ प्रवृत रहा है । उनका दिव्योपदेश होरहा है क्योंकि हमको मालूम है कि सिंह भगवान महावीरको प्रतिबिम्बका चिन्ह हैं । अस्तु, प्रतिबिम्बके स्थानपर उनका चिन्ह रक्खा गया, निससे अविनय न हो और भाव प्रकट होनाय | भगवानने अपने दिव्योपदेशसे यह प्रकट कर दिया कि जीव और पुद्गलका संबंध है जिसके कारण जीव चतुर्गतिके दुःख उठा रहा है (स्वस्तिका)। इस दुःखसे छुटकारा पानेका मार्ग तीन दरवाजोंकी जुडी हई तिदरीमें ( रत्नत्रय मार्ग) होकर है । उस मार्ग पर चलनेसे जीवके दुःखका अन्त होता जाता है। और वह उस मार्गको पूर्ण करके अपने निजाधाम मोक्ष देश ( अर्धचन्द्राकार )में पहुंच जाता है। जनशास्त्रोमें मोक्षस्थान अर्धचन्द्राकार बतलाया गया है। इस प्रकार इस सिक्केका भी भाव नं० २ के सिकेकी भांति है। और इसका ऐकीकरण भगवान महावीरकी जीवन घटनाओंसे होजाता है। अतः यह सिक्का भगवान महावीरकी पवित्र स्मृतिमें भगवान ऋष Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धीर संघका प्रभाव। भदेवके स्मारकमें नं०२ सिकेको ढालनेवाले व्यक्ति द्वारा ही ढाला गया था ऐसा प्रतीत होता है। इनके अतिरिक्त इसी प्लेटका नं. ३ और प्लेट नं० ३ का नं. ५ के सिक्के भी भगवान महावीरके स्मारकरूपमें चले प्रतीत होते हैं। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान महावीरके नीवनकाल में जैन धर्मका अपूर्व प्रभाव प्रत्येक प्राणीके हृदय में घर करगया था। वह नसाना 'जैनकाल ' कहा जासका है। उनके पवित्र स्मारकमें सिक्कों, अब्द, त्यौहारका चलन उनके इस दिव्य प्रभावका खास उदाहरण है। पीछे जब उनके निर्वाणके उपरान्त संघमें,मतभेद खड़ा होगया, तब उस समयकी दूसरी मुख्य सम्प्रदाय बौद्धका प्रचार हुआ होगा । परन्तु अब उसका नाम ही इस प्रवित्र देशमें अवशेष है । जैन धर्मका अस्तित्व दुःख सहनेपर भी आज भारतमें विद्यमान है, क्योंकि वह साक्षात् सत्य है। भगवान महावीरके दिव्य तीर्थका प्रभाव और प्रवाह भारतवर्षमें ही सीमित नहीं रहा था । जैन सम्राट् चन्द्रगुप्त के जमानेमें सिकन्दरने भारतपर आक्रमण किया था। अपने देशको लौटते हुए सिकन्दर जैन मुनियोंको अपने साथ ले गया था। साथ ही यूनानसे लोग नैनधर्मका अध्ययन करने भारतवर्षमें आए थे, जैसे कि "Historionl Gleanings" नामक पुस्तकमें कहा है कि " श्रीक फिलासफर पैहो (Pyrrho) ईसासे पूर्वकी ४ थी शताब्दिमें यहां आया था और उसने जैन साधुओं (Gymnosophists) से विद्याध्ययन किया था।" ( Page 42 ) इसके अतिरिक्त हम पहिले ही देख चुके हैं रोम, नारवे जैसे सुदूर देशोंमें Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भगवान महावीर। भी जैनधर्मका प्रचार हुआ था। जैनधर्म भारतवर्षमें ही सीमित नहीं रहा था। भगवान महावीरके धर्मके प्रचारके विषयमें सर हेनरी रोलिन्सन साहव अपनी "प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रोयल ज्योगराफीकल सोसाइटी, सेप्टेम्बर १८८५ में और अपनी पुस्तक "सेन्टरल ऐशिया" (एष्ठ २४६)में इस बातकी ओर ध्यान आकर्षित करते हैं कि "बोक (Balk) में जो नया विहार और ईटोके अन्य खंडहर निकले हैं वह वहांपर काश्यपोंके अस्तित्वको प्रकट' करते हैं। महावीरस्वामीका गोत्र काश्यप था । और इनके अनुयायी भी कमीर काश्यपोंके नामसे विख्यात हए थे। यह भी ध्यान देनेकी बात है कि भौगोलिक नाम 'केसपिया' (Caspia) काश्यपके सहश है। अतः यह बिल्कल संभव है कि जैनधर्मका प्रचार कैसपिया, रुमानिया और समरकंद, बाक आदिके नगरोंमें रहा था ।" (See Jain Gazette Vols III No. 5 P.13) मुसलमानोके पवित्र स्थान 'जनीरुल अरव मे भी संभवता जैन साधुओंका प्रभाव पड़ा था; क्योंकि अभी हालमें जो एक जीवनी हजरत मुहम्मदकी अंग्रेजीमें प्रगट हुई है उसमें लिखा है कि 'हजरत मुहम्मदके पैदा होनेके पहिले अरबमे नंगे मनुष्य भी रहा करते थे। अस्तु, इन सब वर्णनोसे प्रकट है कि जैनधर्मका ईसाकी पूर्वकी शताब्दियोंमें प्रभावशाली अस्तित्व रहा है। और उसके अनुयायी प्रख्यात मनुष्य थे, जिनकी कीर्ति आज भी भारतीय इतिहासके मध्य वर्णाक्षरों में चमक रही है। उसकी हालत वर्तमानके जैनियोंके धर्म सदृश झासननक न थी। भगवान महावीरके पश्चात् भारतवर्षके राजाओंमें मुख्य राना Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर संघका प्रभाव। जिन्होंने जैनधर्मको अपनाया था, इस प्रकार थे-अजातशत्रु, चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, सम्पति, खारवेल, अमोघवर्ष, कुमारपाल और दक्षिण देशके पाण्डया, चोल, गंग आदि वंशोके प्रख्यात राना नैन थे। उनमें एक प्रख्यात् जैन राजाके मंत्री चामुण्डराय जैनधर्मानुयायी सिद्धांत चक्रवर्ति श्रीमद नेमचंद्राचार्यके शिष्य थे। . यह बड़े प्रख्यात् योद्धा और सेनापति थे । क्षात्रधर्ममें अपूर्वता रखनेवाले एक अन्य जैन योद्धा वह थे, जिन्होंने पृथ्वीराजके एक शत्रुकी सेनाके अध्यक्षपनेका भारे अपने सिर लिया था । मेवाड़के सच्चे भक्त, वैश्यकुलदिवाकर भामाशाहका नाम किसीसे छिपा नहीं है। यह ओसवाल जैन थे। अपनी अतुल सम्पत्तिको राणा प्रतापके चरणोमें समर्पितकर यवनोसे पददलित न होने देकर देशकी लान इन्होंने ही बचाई थी। अस्तु, भगवानके उपरान्त संघके प्रख्यात पुरुषोंका एक अलग ही इतिहास बन सका है। इसलिए यहांपर केवल तीन प्राचीन जैन राजाओंका थोड़ासा वर्णन मात्र करेंगे। ___अजातशत्रुके पश्चात् प्रख्यात सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जैन राना हुए थे। वे सन् ई०से ३२२ वर्ष पहिले गद्दी पर बैठे थे। २४ वर्ष तक सुनीतिपूर्वक अपूर्व राज्य करके उन्होंने सन् ई०से २९८ वर्ष पहिले राज्य छोडा था, परन्तु उनके शीत्र मरणका जिक्र नहीं है। इससे जैनशास्त्रोका यह कहना कि चन्द्रगुप्त जैन साधु हुए ठीक है। और वे श्रुतकेवली भद्रबाहुके पीछे १२ वर्ष तक जीते रहे। और ६२ वर्षकी अवस्थामे मृत्युको प्राप्त हुए थे। ____ आपके राज्यका सुप्रवन्ध और उसके फल खरूप सुख सम्पनता इतिहासमे विख्यात है। उनके प्रख्यात मंत्री चाणिक्य ब्राह्मण Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 . . भगवान महावीर । । थे। राज्यप्रणालीका ढंग वर्तमानकी सभ्य गर्वन्मेन्टों जैसा था । म्यून्सिपल कारपोरेशन' आदि प्रजासत्तात्मक संस्थाऐं थी। पुलिस भी थी । प्रजाके कष्टोंकी जाँच रखने के लिए 'गुप्तचर विभाग भी था। विशाल सेना भी थी जिसके उत्साहसे आपने समय भारतपर आधिपत्य जमा लिया था। 'शिल्प, चित्रकारी आदि विद्याओं और कलाओंकी भी खूब उन्नति थी। पाटलिपुत्र (पटना) नहोपर कि इनकी राजधानी थी, की खुदाई में जो सुन्दर गृह आदि निकले हैं, उनसे उस समयकी कारीगरीको अन्दाना लगाया जा सका है। चन्द्रगुप्तका बाहुबल इतना बढ़ा चढ़ा था कि प्रख्यातू इन्डोग्रीक राना सेलूकसको इनसे संधि करने पड़ी थी। प्राचीन भारतीय सेनामें जलसेनाका कही उल्लेख नहीं मिलता है। परन्तु चंद्रगुप्त मौर्यके. राज्यकी ओरसे एक जलसेना भी रहती थी जिसका प्रबन्ध जलसैना विभाग किया करता था। मेगस्थनीज और चाणिय अर्थशास्त्र इस बातकी पुष्टि करते हैं । अस्तुं, चंद्रगुप्त मौर्यका राज्यकाल एक आदर्श राज्य था। ऐसे आदर्श सम्राटका राज्यधर्म भी आदर्श था । चन्द्रगुप्त मौर्य जैन धर्मानुयायी थे । मि० विन्सेन्ट स्मिथके निझवाक्य' इस बातको साफ व्यक्त करते हैं । यद्यपि इसके उपरान्त प्रकट प्रमाणों द्वारा प्रकतन विमर्श विचक्षण रायबहादुर आर० नरसिंहाचर एम० ए० एम० आर० ए एस ने अंग्रेजी जैनगनटके भाग १८ अंक ८-९-१०-११-१२ में पूर्णरूपेणं चन्द्रगुप्त मौर्यको जैन प्रकट किया है। मि. स्मिथ लिखते हैं: "चंद्रगुप्त मौर्य के अपूर्व राज्यका अंत जिस प्रकार हुआ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर संघका प्रभाव। mmmmmmmmmms उसका प्रकट प्रमाण जैन कथानक है। जैनी इस प्रख्यात सम्राटको राना बिम्बसारकी भांति सदेव जैन प्रकट करते हैं । और कोई भी ऐसा पूर्ण कारण उपलब्ध नहीं है, जिससे उनका यह विश्वास मिथ्या स्वीकृत हो । मगधमें पश्चातके शैKगों, नंदों और मौर्यके । राज्यकालमें अवश्य ही जैनधर्म पूर्ण प्रभावका भोक्ता रहा था। यह व्याख्या कि चंद्रगुप्तको राज्यकी प्राप्ति एक विद्वान ब्राह्मण द्वारा हुई थी, जैनधर्मको राज्यधर्म माननेमें किसी प्रकार बाधकनहीं है। मुद्राराक्षस नाटकमें एक जैन राक्षस नामक मंत्रीका मित्र प्रकट किया गया है, जिस (मंत्री)ने पहिले नंदकी सेवा दी थी पश्चातमें नए सम्राटकी। एकवार इस व्याख्याके स्वीकृत होजानेसे कि चंद्रगुप्त जैन थे यह बात प्रमाणित होजाती है कि उन्होंने राज्यको छोड़कर जैन साधुवृत्ति द्वारा स्वर्गको प्राप्त किया था । यह कथानक इस प्रकार है कि जब जेन साधु (श्रुतकेवली) भद्रवाहुने उत्तरीय भारतमे एक बारह वर्षके अकालके आगमनको सूचित किया और जब यह पूर्व वाणी घटित होने लगी, तब साधुने १२००० नैनोके साथ दक्षिणके सुभिक्षमय स्थानोंकी ओर प्रस्थान किया । सम्राट् चन्द्रगुतने राज्यसिहासन छोड़कर इसी संघका साथ दिया जो मेसोरमे श्रवणबेलगोलकी ओर जा रहा था, जहां भद्रबाहु मृत्युको प्राप्त हुए। पूर्व सम्राट् चन्द्रगुप्त इनके पश्चात् १२ वर्ष जीवित रहे। और उपवास करके मृत्युको प्राप्त हुए। इस व्याख्याकी पुष्टि श्रवणवेलगोलके मन्दिर आदि; और ईसाकी सातवीं शताब्दिके शिलालेख तथैव १०वी शताब्दिके ग्रन्थ करते हैं। यह प्रमाण सारभूत नहीं गिने जासके, परन्तु खूब मननके पश्चात् में कथानककी मुख्य Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ भगवान महावीर | बातोंको सत्य माननेके लिए वाध्य हुआ हूं। यह निश्चय होना' कि जब सन् ई० से पहिले ३२२ वर्षमें चन्द्रगुप्त सिंहासनारूढ़ हुए तब वे नितान्त युवां और अनविज्ञ थे, प्रकट करता है कि जब २४ वर्ष उपरान्त उन्होंने राज्य छोड़ा तब उनकी उमर ५० वर्षके करीब थी। इतनी कम उमरमें इनका लोप होजाना साक्षी देता है कि उन्होंने राज्यभार छोड़ दिया था । राजाओंके ऐसे ही अन्य त्यागोंका उल्लेख उपलब्ध है, और १२ वर्षका अकाल भी विश्वास करने योग्य है । इसलिए जैन कथानक सत्य है । I और कोई अन्यथा वर्णन उपलब्ध नहीं है । " " इस प्रकार प्राचीन भारतीय सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य अन्तमें श्रुतकेवली भद्रबाहुके निकट जैनमुनि होंगए थे। उनके चरणचिन्ह श्रवणबेलगोलके एक मंदिर में अङ्कित हैं । और उनका बनवाया हुआ एक मंदिर भी वहां पर विद्यमान है । इसी विषय में मि० थामस साहब अपनी पुस्तक “जैनीजम और दी अर्ली फैथ ऑफ अशोक " में लिखते हैं कि राजा चन्द्रगुप्त जैन थे । तथा मेगस्थनीजने लिखा है कि राजा चंद्रगुप्त जैनमुनि श्रमणोंका भक्त था जो ब्राह्मणोके विरोधी थे। राजा चंद्रगुप्तकें पीछेके राजा भी जैनी थे। राजा अशोक मी पहिले जैन थे, फिर बौद्ध हुए। आइने अकबरीमें अबुलफजलने लिखा है कि राजा अशोकने जैनधर्म काश्मीरमें फैलाया था । राजतरिगणीमें भी यह बात लिखी है । अशोकका वह शिलालेख जो दिल्लीमे दिल्ली दरवाजे बाहर कोटलाके ऊंचे स्थानपर अवस्थित खंभेपर अंकित है, अशोकको जैनी प्रकट करता है अर्थात् यह शिलालेख उस समय लिखा गया " Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर संघका प्रभाव। २५५ था जब राजा अशोक जैनधर्मको माननेवाला था। अपने राज्यकालके २९ साल तक यह जैनी रहा। जैनधर्मभूषण श्रीमान ब्रह्मचारी शीतलप्रसादनीने नैनमित्र वर्ष २२ अंक ४३ के ६६१ एष्टपर इस शिलालेखकी नकल दी है। और उसके ऐसे वाक्योंकी टीका की है जिनसे जैनधर्म झलकता है। जैसे नं० में अपासिनवे शब्द है अपनवत्वम्-निसमें आश्रव (कर्मीका आना) न हो। यह धर्मका विशेषण है। आश्रव शब्द जैनियोंका मुख्य शब्द है। नं० ३का उपदेश बिल्कुल जैनमत सदृश है । कषायोंमें फंसनेको आश्रव शब्द दो दफे आया है। इस विषयमें डॉ. कर्नसाहब अपनी सम्मति इस प्रकार देते हैं कि " जो स्तम्भोंपर लेख है उनसे राजा अशोकने अपनी प्रजाके लिए अपने बड़े राज्यमें, जो विहारसे गान्धार और हिमालयसे कारोमंडल एवं पाण्ड्य देश तक था, क्या किया सो प्रगट होता है। योग्य समय और स्थानपर अशोक जिस धर्मको वह मानता था, उसके अनुसार नम्रमावसे वह वर्णन करता है; किंतु बुद्धमतका भाव उसकी राज्य प्रणालीमें कुछ नहीं पाया जासका । अपने राज्यके वहुत प्रारम्भसे वह एक अच्छा राजा था । पशु रक्षा परकी जो उसकी शिक्षाएँ हैं वे बौद्धोंकी अपेक्षा जैनियोके विचारों से अधिकतर मिलती हैं।" ___ अस्तु, इस वर्णनसे हमें राना अशोकके विशाल राज्यका और उसका प्रमाके प्रति प्रेमपूर्ण देखभालका पता चल जाता । और मालूम होजाता है कि प्रारम्भमें २९ सालतक उन्होने अपने राज्यका प्रबंध अपने धर्म जैनधर्मके नियमोके अनुसार किया था Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावार.। ।। गिरनारंजीमें नो अशोकका शिलालेख है उससे सच्चा दयाधर्म टपक रहा है। राजा अशोकका राज्य कितना विस्तृत था सो प्रगट है । ग्रीसमें भी उसकी आज्ञा प्रचलित थी। पवित्र अहिंसा धर्मका प्रचार अशोकने सुदूर देशोंमें किया था । जैनधर्मके सान्तवनादायक मिष्ट उपदेश संबको बताए थे। अवशेषमें सम्राट खीरबैलका वर्णन ईस प्रकार हैं.. उडीसा प्रान्तके खण्डगिरी' पर्वतपर, जो कि. कटकके पास भुवनेश्वरसे ४-६ मीलकी दूरीपर है 'हाथीगुफा' नामका एक प्राचीन सुरम्य स्थान है, जहां एक प्राचीन शिलालेख पुराने गौरवको अपनी गोंदमें लिए हुए है। लेखकी लिपि उतरीबाली है, जिसका समय बल्हरसाहबके मतानुसार ईसासे प्रायः १६० वर्ष पूर्व है। इसी लेखसे सम्राट् खारवेलके जीवनपर प्रकाश पड़ता है। मि० के० पी० जेसवाले प्रभृत विद्वानोने इसका अध्ययन करके उल्या प्रकट किया है। उससे जाना जाता है कि राजा अशोकेके पीछे करिङ्ग देशमे राजा खारवेल बडे प्रतापी जैन संबाट हुए । राना खारवेलका जन्म सन् ई०से १९७ वर्ष पूर्व अर्थात राजा अशोककी मृत्युके ४० वर्ष पीछे हुमा था। इसके पिताका नाम राजा चेत-- राज था। १३ वें वर्षमें उन्होंने युवराजपद पाया । २९ वें वर्ष में यह राजा हुए। उस समय कलिङ्ग देशमें जैनधर्मका पूर्ण प्रचार था। राज्यपरिवार भी इसी मतका अनुयायी था। तोशाली इनकी राज्यधानी थी निसे इन्होने पुननिर्माण कराई। अनेक उद्यान ठीक कराए । कके लिए नहरें खुदाई। इसके प्रजाहितैपी कार्यसे इसकी ३५ लाख प्रना बहुत प्रसन्न हुई। मूर्षिक राज्य जो करि Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर संघका प्रभाव। २५७ गके पश्चिममें पेथान (प्रस्थान) और गोडवानाके मध्यमें है उसको वश किया। तथा कई देशोंमें प्रजातंत्रात्मक राज्य था उनको भी ' अपने आधिपत्यमें लिया । चार वर्षमें यह दक्षिण भारतका सार्वभौम सम्राट् हो गया। खारवेलका राज्य अन्याय एवं निरंकुशतापुर्ण न था। राजा स्वच्छंद नहीं होता था। उसकी शक्ति मंत्रिमंडल द्वारा परिमित ' होती थी। पौरमें राजधानीके व जानपदमें ग्रामों के प्रतिनिधि रहते थे। इसने इन संस्थाओंके अधिकारोमें वृद्धि की थी। इस समय उत्तर भारतमें पुष्पमित्र पाटलीपुत्रमें राज्य करता था। मगधदेशका राना नन्द ३०० वर्ष पूर्व कलिगपर आक्रमण करके जैनियोंके प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेवकी मूर्तिको ले गया था । इस मूर्तिका उद्धार करनेके लिए खारवेलने पुष्पमित्रपर चढ़ाई की। अंतमें पुष्पमित्रने खारवेलका महत्व स्वीकार कर लिया। दोनोंमें संधि हो गई, और श्री ऋषभदेवकी मूर्ति कलिगमें पुनः आगई । इससे प्रतीत होता है कि राजा खारवेल गृहत्थवर्मका कैसा उत्तम रक्षक था। दक्षिणके पाण्ड्य राज्यने भी खारवेलका प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था। तेरहवें वर्षके अनुमान इसने बहुतसे धार्मिक कृत्य किए । कुमारी पर्वतपर अर्हत मंदिरका जीर्णोद्धार कराया व पत्थरका दूसरा भवन बनवाया । इसके धर्मकार्योंसे प्रसन्न होकर जाने उन्हें क्षेमरान, वर्द्धराज, निक्षुराज व धर्मरानकी उपाधिसे विभूषित किया। शिलालेखमें १३ वर्ष राज्यकालका वर्णन है। इसके आगेका नहीं; परन्तु उसकी प्रधान राजमहषी धष्टिका उत्कीर्ण कराया हुआ स्वर्गपुरी अथवा मंचपुरी नामका दूमरा शिलालेख Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ भगवान महावीर । है, उससे विदित होता है कि उसने ३०-४० वर्ष और राज्य 1 किया । जिन राजाओंको खारवेलने जीता उनका राज्य नहीं छीना, किन्तु उनके नाम सम्मानके साथ शिलालेखमें लिखाए । इस दृष्टिसे खारवेल मनुष्यता और राजाओ के सम्मानके कारण अशोकसे अधिक उच्च है। इसने शिल्पकी बहुत वृद्धि की । अनेक राजप्रसाद, देवमंदिर व सार्वजनिक भवनोंका निर्माण कराया। इसमें धार्मिक: सहनशीलता भी थी । प्राचीन भारतने प्राचीन यूनान और रोमके समान भिन्न धर्मावलंबियोंके साथ कभी भी अत्याचार नहीं किया।खारवेल जैन धर्मके अनुयायी थे पर ब्राह्मणोंका भी किसी खास अवसर पर सम्मान करते थे- दान भी देते थे । (देखो जैनमित्र वर्ष २२ अंक ३४ पत्र ५२१ ) . 1 इस प्रकार भगवान महावीरके तीर्थका अपूर्व प्रभाव प्रकट होता है, और भगवानके भक्तों में कुछ विशेष विख्यात् राजाओंका दिग्दर्शन प्राप्त होता है । अव हम भगवान महावीरके पवित्र जीवनसे जो शिक्षाऐं मिलती हैं, उनका उल्लेख करते हैं। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनसे प्रति प्रगट शिक्षाएँ। १९ जीवन का पट शिक्षा _ और उपसंहार " सन्त्येव कौतुक शतानि नगत्सु किंतु, विस्माकं तदलमेतदिह वयं नः। पीत्त्वाऽमृतं यदि वमन्ति विसृष्ठ पुण्याः, से प्राप्य संयमनिधि यदि च त्यजन्ति ॥" -आत्मानुशासन। श्रीमान् गुणभद्राचार्य उक्त श्लोकमें कहते हैं कि " जगमें आश्चर्यकारी बहुतसी बातें हैं; व सदा होती रहती हैं, परन्तु हम उन्हें देखकर भी आश्चर्य नहीं मानते और असली आश्चर्य उनमें है ही नहीं। वस्तुओंका जो परिवर्तन कारण पाकर होनेवाला है, बह होगा ही। उसमें आश्चर्य किस वातका ? हाँ! ये दो बातें हमको आश्चर्ययुक्त जान पड़ती हैं। कौनसी ? एक तो यह कि अति दुर्लभ अमृतको पीकर उसे उगल देना; दूसरी यह कि संयमकी निधि पाकर उसे छोड़ देना । जो ऐसा करते हैं वे भाग्यहीन समझना चाहिए।" __ मनुष्य जन्म एक आर्दश जन्म है, यदि उसका सदुपयोग किया जाय। इसीसे मनुष्य साधारणतया जीवित प्राणियोंमें सर्वोत्कष्ट माना गया है । 'अमुलमखलूकात' बताया गया है। Noblest Creature in the world जतलाया गया है। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० . भगवान महावीर।.. '. इसलिए मनुष्यने साक्षात् अमृतको पा लिया है। अब उसका कर्तव्य है कि उसका सदुपयोग करनेके लिए संयमका आश्रय ले और अपने जीवनको सार्थक बनावे, स्वस्वरूपामृतका पान करे, बाह्य दिखावटी बातोंमें न फंसे, इन्द्रियोंकी विषयपुर्तिमें अपने जीवनके अमूल्य दिवस नष्ट न करदे, अपनी इच्छाओंको सीमित करता चले, और जो बातें अपनेको प्रिय समझे, वही दूसरे. प्राणियोंके लिए भी चाहे वे कितनी भी नीच अवस्थामें क्यों न हों-प्रिय समझे । इसलिए पशुओंकी हत्या न करे। उन्हें और अपने साथी भाईयोंको यथाशक्ति मन, वचन, काय द्वारा कष्ट न ' दे, उनके जीवनको कष्टमय 'न बनाए । यदि होसके तो उनके कष्टोंको दूर हटानेका प्रयत्न करे। सदैव अपनी आत्मोन्नतिका ध्यान रखे। अपनी आत्मामें ही अपूर्व सुख, शांति, और वीर्यके भण्डारको खोजनेका प्रयत्न करे। अपनी आत्माको विना जाने और समझे कोई भी मनुष्य सत्पथ-संयमका अनुसरण नही करसका। इसलिए अपनी आत्माका ध्यान रक्खे । भगवान महावीरके जीवनका साधारण अक्स हमारे हृदयपर उक्त प्रकार पड़ता है। अनुपम नर जन्म पाकर उसको सफल बनाना हमारा परमोपादेय कर्तव्य झलकता है । अस्तु। " नरजन्म अनूपम पाय अहो, अव ही परमादनको हरिये। सरवज्ञ अराग अदोपितको; धर्मामृतपान सदा करिये ॥ अपने घटको पट खोल सुनो, अनुमौ रसरंग हिये धरिये । भवि वृन्द यही परमारथकी, करनी करि मौ तरनी तरिये ॥" अन्यया अमृतको पाकर विषयवासनाती. कांजड़में बेहद - Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन से प्राप्त प्रगः शिक्षाऐं । २३१. फंसकर अपने पैर धोने में ही उसे व्यर्थकर दीजिए और विवेकी पुरुषोंको इस अनूठी बातपर आश्चर्य करने दीजिए । परन्तु नहीं, पाठक जानते होंगे कि महान् आत्माओंका जीवनप्रकाश हमें अज्ञानान्धकारमेंसे निकाल सक्ता है इसलिए उनके जीवनसे प्राप्त मुख्य शिक्षाओंका अवश्य ही अवलम्बन करना चाहिए । अंग्रेज कवि भी इन महात्माओंके विषय में यही कहता है :--- BR Through Such Souls alone God stooping shows sufficient of His Light For us in the dark to rise by." भगवान महावीरके पवित्र पावन जीवनसे प्राप्त साधारण शिक्षाका उल्लेख पहिले किया जाचुका है । परन्तु उससे विशेष रूपमें उपयुक्तरीत्या मि० जुगमन्दरलाल जैनी एम० ए० आदि ने उनका दिग्दर्शन • Life of Mahavira की भूमिकामें निम्न प्रकार कराया है - वे लिखते हैं कि “ भगवान महावीरके जीवनमें सर्व प्रथम मुख्य बार्त यह थी कि उनके हृदयमें समस्त वस्तुओंके कारणको जाननेकी अदम्य इच्छा थी । अध्ययन, दर्शन, मनन और तपद्वारा, जो तत्कालीन भारतके एक सच्चे सत्यखोजीके जीवनके मुख्य -अंग थे, उनके प्रयत्नोंने उन्हें उनकी उस इच्छाकी पूर्ण पूर्ति की उन्हें निर्वाणकी प्राप्ति हुई । ज्ञानोपार्जनका मार्ग बड़ा नीरस है। उसमें पगपगपर विविध संशयात्मक विषयोंका समागम होता है। परन्तु हमारे अंतिम तीर्थङ्करका साहसी हृदय और विचक्षण नेत्र इन सब कठिनाइयोंपर विजयी हुए थे । और वह ज्ञान एवं प्रकाशके Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भगवान महावीर। सनातन स्थानको माप्त हुए थे ।" इसलिए भगवानके जीवनकी इस मुख्यतामें हमें यह शिक्षा मिलती है कि " पुस्तकावलोकन, अनुशीलन और मनन द्वारा ज्ञानके उपार्जनमें दत्तचित्त रहना चाहिए।" यदि मनुष्य अपने जीवनके इस कर्तव्यको जान जाएँ; और बाह्य संसारसे अपना सम्बन्ध पहिचान लें तो मानवजातिके दुःख बहुत अशोमें घट नाय.! और जीवन सुखपूर्ण व्यतीत होसके ।' . "दूसरी मुख्य बात भगवान महावीरके हृदयकी अनुपम उदारता है। प्राचीन भूतकालमें इन्होंने जो धार्मिक हलचल पैदा की थी कि जिसमें सर्व जाति और पांतिक एवं सर्व प्रकारकी सभ्यताके मनुष्य सम्मिलित हुए थे, उससे उनका जैनधर्मको उच्च उदारभावमें लेना प्रकट होता है । जैनधर्म कभी भी संकीर्ण न था जैसा' कि वह अब है। राजा, रानी, योडा, ब्राह्मण, शूद्रः आदि सबहीने भगवानके दिव्योपदेशसे लाभ उठाया था। प्रारंभिक बौद्ध धर्मकी भांति जैनधर्मने भी सामान्य जनता ( Afasses )के दुःखपाशोंको दूर किया था, जो पाखण्डी साधुओं द्वारा त्रसित किए जा रहे थे, परन्तु विस्मय है कि थोड़े ही काल पश्चात् स्वयं जैनधर्मानुयायियोंमें क्रियाकाण्ड और मिथ्या अज्ञानका, समावेश होगया । ऐहिक बातोंमें ही धर्म माने जाने लगा है। मामूली आचार पालनेमे ही धर्मपालनकी इतिश्री होजाती है। इसकी इतनी मान्यता बढ़गई है कि यथार्थ सिद्धांत दृष्टिसे ओझल होगए हैं। जो लोग सामान्य जनसमाजके लिए केवल मामूली बातोंको ही उपयोगी बताकर इनका सर्मथन करते हैं, वह इस सामान्य । जनसमाजको उसके समयसे बहुत पीछे घसीटते व्यक्त करते. हैं, Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनसे प्राप्त प्रगट शिक्षाऐं । २६३ और उन्हें उनकी मुक्तिका यथार्थ मार्ग समझनेके अयोग्य प्रगट करते हैं । हालमें उस सिद्धांतकी सम्पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, जो सिद्धांत जैनधर्मके अस्तित्वको कायम रख सकें । इस वातकी वर्तमानकी जैन समाजको विशेष आवश्यक्ता है । और यदि भगवान महावीरके जीवनसे इस विषय में ज्ञान न मिले तो मैं समझंगा कि आप अपनी भूलसे वस्तुस्थितिको नहीं जान सके । " "इस जीवनसे तीसरी शिक्षा हमें समयानुसार परिवर्तनके लिए तत्पर रहनेकी मिलती है । संसारमें जाहिरासे ज्यादा लकीरके फकीर होनेके भाव फैलरहे हैं । हमारे विचारोंसे हमारे कार्य्य जल्दी बदल जाते हैं । यही कारण है कि हम नाम मात्रमें श्री सीर्थङ्कर भगवानके उपदेशोंको अपनाते हैं, जब कि हम जानते हैं कि हमारे वास्तविक कार्य इस उपदेशसे कोसों दूर हैं, परन्तु जैनी, अन्य भारतीयोंके साथ, यह भूल गए हैं कि बिल्कुल लकीरके फकीर बने रहनेसे नाशके दृश्य नजर आते हैं और सुधार उन्नतिका मूल है | भगवान महावीरके समय में कठिन तपश्चरणकी आवश्यक्ता थी । उन्होंने उसका आवश्यक प्रचार किया था । ?? अस्तु, हमें भी योग्य सुधार के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए । चौथी मुख्य बात भगवान महावीरके जीवनकी यह है कि "आपने स्त्रियोको विशेष स्वतंत्रता प्रदान की थी। सैद्धांतिक रीत्या जैनधर्मने स्त्रियोंके धार्मिक स्वत्वोंकी समानताको स्वीकार किया है। केवल इसके कि दिगम्बर ढष्टिसे लियां स्त्रीयोनिसे निर्वाणको प्राप्त नही हो सक्तीं, परन्तु अमलमें स्त्रियोका सन्मान इतना नही है - वह मनुष्यसे हीन गिनी जाती हैं, परन्तु यथार्थमें उनको Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २६४ भगवान महावीर । अपनी मान्सिक और शारीरिक उन्नति करनेके अवसर ही नहीं.. दिए जाते । अस्तु, भगवान महावीरके भक्तोंका कर्तव्य है कि वह स्त्रियोंकी दशा उन्नत बनानेके लिए ढढ़प्रयत्न हों। इससे स्त्रियोंमें उछृंखलता आजानेका भय भयमात्र है ।" पांचवी और अंतिम "बात उन नवयुवकोंके हितकी है जो धीरे २ ऊंचे उठना चाहते हैं, और सत्कीर्तिका सुकुट अपने शीश पर रखना चाहते हैं। ऐसोंके लिए अंतिम तीर्थकर भगवानका चरित्र यह • सिखाता है कि जीवनके एक मुख्य उद्देश्यको प्राप्त करनेके लिए जीजानसे दृढ़ प्रयत्न होना चाहिए । उद्देश्यहीन जीवनसे बढ़कर दुःख और पापमय जीवन शायद ही कोई है। हमारे हजारों नवयुवकोंके हृदय शुभ्र उत्साहसे परिपूर्ण हैं, परन्तु उनकी भावनाऐं अनेक हैं । जीवनके एक मुख्य उद्देश्यको न देखनेके कारण , 1 3 - बहुतेरोंके उत्तम जीवन नष्ट होजाते हैं । अस्तु, इस कमताईको हटाना हमारा धैर्य्ययुक्त कर्तव्य है । भगवान महावीरने ज्ञानज्यो तिके दर्शन किए थे। वह उसीके उपार्जनमें लग गए और अन्तमें निर्वाणको प्राप्त हुए। जैन शास्त्र व्यक्त करते हैं कि आन हम इस भूमिसे निर्वाणको प्राप्त नहीं कर सके, परन्तु यदि हम इस ओर 'दृढ़प्रयत्न हों, तो क्या यह संभव नहीं है कि हम उस देशको - विदेहको प्राप्त कर लें, जहां अब भी केवली भगवान विद्यमान हैं; और नहाँसे अव भी नीव मुक्त होते हैं । " अस्तु, वस्तुस्थितिका ध्यान धरकर हमको भगवानके दिव्य जीवनसे अपनी आत्माका उपकार करनेका भाव सीखनेका अपूर्व मिलता है। भगवान के निर्मल चारित्रसे अपनी और परकी 1 पाठ 1 "} Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओपनसे प्राप्त प्रगट शिक्षाएँ। २६५ आत्माओं के कल्याणकारी कार्योंके करनेमें कर्तव्यशील होना हमारा कर्तव्य झलकता है। संसारमें बढ़े हुए त्रासको हटानेके प्रयत्न करना सार्वभौमिक धर्म प्रकट होता है। मानव समाजमें चहुं ओर दुःखदर्दके क्रन्दननाद होरहे हैं। त्राहि त्राहि मच रही है । उसे भगवानके पावन चरित्रसे अपने स्वरूपका भान लेना चाहिए। और आपसी विद्वेष और स्वार्थवासनाओंको हृदयसे दूर हटाना चाहिए। सारे संसारके जीव अपने समान हैं, उनके स्वत्व भी और जीवन कर्तव्य भी हमारे समान हैं। इसलिए उनसे प्रेम पूर्ण सहयोग करना मनुष्योंका कर्तव्य है। भगवान महावीरके पवित्र जीवन और दिव्योपदेशसे हमें उत्कृष्ट साम्यभावकी शिक्षा मिलतीहै। जिसका मिलना स्वाभाविक है क्योंकि भगवान महावीर अपने मानव जीवनमें ही परमात्म पदको पाचुके थे। उनकी शिक्षासे हमें विश्वप्रेम' का पाठ मिलना अनिवार्य है। किसी भी धर्म, किसी भी जाति, किसी भी योनिका जीव क्यों न हो वह हमारी घृणा और द्वेषका पात्र नहीं है । भगवानका उपदेश हमको सर्वसे मैत्री करने और सर्वको अपनी उन्नति करनेको समान अवसर प्राप्त करनेमें सहायक होनेकी शिक्षा देता है। वह आपसी धार्मिक, साम्प्रदायिक वा अन्य प्रकारके विद्रोहको मानव हृदयसे दूर हटा देता है। भगवान महावीरके समयमें इस भारतवर्षमें सैकड़ों विविध पन्थ प्रचलित थे और वह आपसी ऐंचातानीमें व्यस्त थे। भगवानने अपने उपदेशसे इस स्थितिको दूर कर दिया और जनताको यथार्थ सत्यका भान करा दिया, जिसे कि उसने भुला दिया था। उन्होंने विविध मतानुयायियोंके मन्तव्योंकी यथार्थता Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। .. प्रगट कर दी । जतला दिया कि किसी भी मतके मन्तव्य अन्यथा नहीं हो सके, यद्यपि अपेक्षाकृत ही यह संभव है। उदाहरण रूपमें आस्तिक कहता है परमात्मा है और नास्तिक कहता है कि परमात्मा नहीं हैं । प्रगटरूपमें अवश्य ही दोनोंमें भेद है-विरोध है । परन्तु भगवानकी वाणी-सर्वज्ञ वक्तव्य इस विरोधको दूर करता है । वहां बतलाया गया है कि दोनोंका कहना ठीक है। परमात्मा है भी आर नहीं भी । नयविवक्षाका भेद है । स्याद्वाद सिद्धान्त आपसी विरोधको हटाने के लिये अमोघ अस्त्र है, और इसका निरूपण फिरसे भगवान महावीरने अपने दिव्योपदेशसे प्रगट किया था। इस सिद्धान्तका महत्व नैन शास्त्रों के अध्ययनसे प्रगट होसता है। इसी सिद्धांतको लक्ष्य करके सम्राट अशोकने भी अपनी एक गिरिलिपिमें इस बातका इस प्रकार उपदेश दिया कि___"भिन्न ९ पन्थोमें भिन्न २ प्रकारके पुण्य समझे जाते हैं, परन्तु उन सबका एक ही आधार है और वह आधार सुगीलता और सम्भापणमें शांतिका होना है। इस कारण किसीको अपने 'पन्थकी प्रशंसा और दूसरों के पन्यकी निन्दा नहीं करनी चाहिए। किसीको यह नही चाहिए कि दूसरोंको विना कारण हल्ला सगझें परन्तु यह चाहिए कि उनका सब अवसरों पर उचित सत्कार करें। इस प्रकार यल करनेसे मनुष्य दूसरोकी सेवा करते हुए भी अपने पन्यकी उन्नतिकर सके हैं। इसके विरुद्ध यत्न करनेगे मनुष्य अपने पन्यकी मेवा नहीं करता और दूसरोंकि साथ भी बुरा व्यवहार करता है। तथापि जो कोई अपने पन्य भक्ति रखनके पारण अन्यकी निन्दा करता है, वह अपने पन्यमें केवल कुठार मारताहा" (देको भारतको प्राचीन मानिस Ye Rimi Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ' जीवनसे प्राप्त प्रगट शिक्षाएँ। २९७ . इसलिए भगवानके दिव्योपदेशसे साम्यभावको अपनाकर हमें उसके महत्वको दिगन्तव्यापी बनानेके लिए आपसी द्वेषोंको गौण करके उनको भूला करके भगवानकी सुधासम वाणीका पान प्रत्येक पिपासी आत्माको कराना चाहिए, और विश्वप्रेमके सुभग रज्जुमें बंधकर मानवोन्नतिमें अग्रसर होना चाहिए जरा २ से मतभेदको द्वेषों परिणित करनेके स्थानमें उनके मूल कारणको ढूंढ़ना लाभकारी है । अतएव प्रत्येकको भगवानके जीवनसे यथेच्छ लाम प्राप्त होसका है यह प्रगट है । जिस सार्वभौमिक साम्यभावकी आवश्यकता आज संसारको है उसका पाठ भगवानके दिव्योपदेशसे मिल रहा है। मात्र समझनेवालोंकी दिशाभूल है। उसको दूर करना ही 'वीरभक्तों का सच्चा कर्तव्य है। अस्तु । अन्तमें पाठको ! स्वपर कल्याणकारक, परम हितैषी, सर्वज्ञ परमात्मा 'वीर' जिनका स्मरण हृदयमें करते हुए पवित्रात्माके निम्न शब्दोंका उल्लेख करके आपसे बिदा होते हैं, परन्तु एक दूसरेसे अलग होनेके पहिले आइए भगवानके दिव्य प्रकाशको प्राप्त करनेकी भावना भालें। अस्तु, एवम् भवतु । ___वर्गासीन आत्मा जब अपने पौगलिक शरीरमें थी, तब सुमसिद्ध श्रीयुत शिववृतलालजी वर्मन् एम० ए० संपादक "साधू" " सरखतीमंडार " इत्यादिके रूपमें अपने पवित्र उद्वार इस प्रकार प्रकट कर गई " गए दोनों जहान नज़रसे गुजर । तैरे हुनका कोई वशर न मिला " Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ હ भगवान महावीर । "यह ( भगवान महावीर ) जैनियोंके आचार्य गुरु थे । पाक दिल, पाक ख्याल, मुजस्सम पाकी व पाकी जड़ी थे।...हम इनके नामपर इनके कामपर, और इनकी वेनजीर नफ्सकुशी - ( इन्द्रियनिरोध ) व रियाजतकी मिसालपर जिस कदर नाम · (अभिमान) करें बजा (योग्य) है । ' हम अपने इन बुजुर्गोंकी इज्जत करना सीखें !....... इनके गुणोंको देखें, उनकी पवित्र सूरतोंका दर्शन करें, उनके भावोंको प्यारकी निगाह से देखें क्योकि यह धर्मकर्मकी झलकती हुई चमकती दमकती मूर्ति है । ........ उनका दिल विशाल था । वह एक वेपायां कनार समन्दर था, जिसमें मनुष्यप्रेमकी लहरें जोरशोरसे उठती रहती थीं; और सिर्फ मनुष्य ही क्यों उन्होने संसार के प्राणीमात्रकी भलाईंके लिये सबका त्याग किया; जानदारोंका खून बहाना रोकनेके लिये अपनी जिन्दगीका अपूर्व उपयोग लगा दिया ! यह अहिंसाकी परमज्योतिबाली मूर्तियाँ हैं । वेदोंकी श्रुति " अहिंसा परमो धर्मः " कुछ इन्हीं पवित्र महान पुरुषोंके जीवनमें सूरत इखत्यार करतीं हुई नजर आती हैं। ये दुनियाके जबरदस्त रिफाजवरदस्त उपकारी और बड़े ऊंचे दर्जेके उपदेशक और प्रचारक हो गुजरे हैं। यह हमारी कौमी तवारीख ( इतिहास ) के कीमती रत्न हैं । हम कहाँ और किनमें धर्मात्मा प्राणियोंकी खोज करते हैं! इनहीको देखें ! इनसे बहतर (उत्तम) साहबे कमाल हमको और कहां मिलेंगे ! इनमें त्याग था, इनमें वैराग्य था, इनमें धर्मका कमाल था ? यह इन्सानी कमजोरियोंने बहुत ही ऊँचे थे। इनका खिताब " निन " हैं: Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनसे प्राप्त प्रगट शिक्षाएँ। २६९ निन्होंने मोह मायाको और मन और मानको जीत लिया था। यह " तीर्थकर " हैं। इनमें बनावट नही थी, दिखावट नहीं थी, जो बात थी साफ साफ थी। ये (२४ तीर्थकर ) वहलासानी (अनौपम) शखसीयतें हो गुज़री हैं, जिनको जिसमानी कमजोरियों व ऐबोंके छिपानेके लिए किसी जाहिरी पोशाकूकी जरूरत लाहक, नहीं हुई; क्योंकि उन्होंने तप करके, जप करके, योगका साधन करके अपने आपको मुकम्मिल और पूर्ण बना लिया था।" इसलिए: " जो अपनो हित चाहत है निय, तौ यह सीख हिये अवधारो। कर्मन भाव तजो सब ही निन, आतमको अनुभौरस गारों ॥ वीर निनचंदसों नेह करो नित, आनंदकंद दशा विस्तारो। मूढ़ लखै नहिं गूढ कथा यह, 'गोकुल गांवको पैडोहि न्यारो ॥" -वन्दे वीरम्-इति-शुभम् - - % E - - Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० भगवान महावीर। परिशिष्ट नं. १ भगवान महावीर और महात्मा गांधी। भारतप्राण महात्मा मोहनदास कर्मचंद गांधीजीने जो शब्द भगवान महावीरके सम्बन्धमें 'महावीर जयंती के अवसरपर ' अहमदावादमें कहे थे वह उपयोगी जानकर हम यहां उद्धृत करते हैं। आपने कहा था कि:--- ___ " मैं आप लोगोंसे विश्वास पूर्वक यह बात कहूंगा कि महावीरस्वामीका नाम इस समय यदि किसी भी सिद्धान्तके लिए पूना जाता हो, तो वह अहिसा है। मैंने अपनी शक्ति के अनुसार संसारके जुदा जुदा धोका अध्ययन किया है और नो जो सिद्धान्त मुझे योग्य मालूमे 'हुए हैं उनका औचरण भी मैं करता रहा हूं। मैं अपनेको एक पक्का सनातन हिंदू मानता हूं, परन्तु मैं नहीं समझता कि जन दर्शन दूसरे दर्शनोंकी अपेक्षा हल्का है अथवा उसकी गणना हिन्दु धर्ममें न हो सके और इसी लिए मैं मानता हूं कि जो संचा हिन्दू है वह नैन है और जो सच्चा जैन है वह हिन्दू है । प्रत्येक धर्मकी उच्चता इसी बातमे है कि उस धर्ममें अहिंसातत्वकी प्रधानता हो । अहिंसातत्वको यदि किसीने भी अधिकसे अधिक विकसित किया हो, तो वे महावीरस्वामी थे, परन्तु उन महावीर भगवानका वर्तमान शासन उसका पूरा पूरा आचरण नहीं करता !...आजकलके जन भाई अगणित छोटे २ जीव जंतुओंकी रक्षा भले ही करते हों परन्तु मनुष्योके प्रति जो उनका आचरण है-जो वर्ताव है-वह Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , भगवान महावीर और महात्मा गांधी। २७ कदापि ठीक नहीं कहा जासका ।...........मैं आप सब लोगोंसे विनती करता हूं कि आप महावीरस्वामीके उपदेशोंको पहिचानें, उनपर विचार करें, और उनके अनुसार आचरण करें। मेरे इस कथनका कहीं आप उल्टा अर्थ नहीं करने लगना । महावीरस्वामी: क्षत्रिय थे और उन्होंने जिस अहिसा धर्मका प्रतिपादन किया है तथा अपने चरित्रके द्वारा जिस अहिसा और करुणाके दृष्टान्त संसारके सामने खड़े किए हैं, उस अहिंसा धर्म और प्रेमधर्मको समझकर जिस समय आप आचारसे लायेंगे उसी समय समझा जायगा कि आप लोगोंने भगवान महावीरकी वास्तविक जयन्ती मनाई है।" (जैनहितैषीसे) __इसी संबंधमें हम कविसम्राट् डॉ. रवीन्द्रनाथ ठाकुरके भी उद्दार पाठकोंके समक्ष उपस्थित किए देते हैं। कविजी कहते हैं कि "श्री महावीरस्वामीने गंभीर नादसे ऐसा मोक्षका संदेशा भारतवर्षमें फैलाया कि धर्ममात्र सामाजिक रुढ़ि नहीं किन्तु वास्तविक सत्य है । मोक्ष सांप्रदायिक वाह्य क्रियाकाण्ड पालनेसे प्राप्त नहीं होसका किन्तु इस सत्य धर्मके खरूपमें आश्रय लेनेसे प्राप्त होता है। तथा धर्ममें मनुष्य और मनुष्यका भेद स्थाई नहीं रह सका । कहते हुए आश्चर्य होता है कि महावीरनीकी इस शिक्षाने समाजके हृदयमें बैठी हुई भेद-भावनाको बहुत शीव नष्ट कर दिया और सारे देशको अपने वश कर लिया।" आशा है उपर्युक्त उदारोंसे पाठक लाभ उठाएंगे। इनलम् । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર #1 भगवान महावीर । परिशिष्ट नं० २० बुद्ध - महावीर | 1 इस विषयमें मि० के० जी० मशरूवाला के विचार भी हम · कि " बुद्ध और 1 + 1 1 # " पठनार्थ उपस्थित करते हैं । आप लिखते हैं महावीर ये आयकी प्रकृतिके दो भिन्न स्वरूप हैं । जगतमें जो सुख और दुःखका सर्वको अनुभव होता है वह सत्कर्म और दुष्कर्मके परिणाम रूप है ऐसा स्पष्ट जाना जाता है। जो सुख अथवा दुःखका कारण ढूंढ नहीं सकता, वह किसी समय कृत कर्मका ही परिणाम हो सत्ता है । मैं कमी नहीं था और कमी नही होऊँगा, यह कभी मुझे प्रतीत होता नहीं। इसपरसे हमें देखना चाहिए कि हम गत जन्ममें क्या थे और मृत्युके पश्चात् भविष्य जन्ममें क्या होंगे । गत समय मैंने कर्म किये थे और वह ही इस जन्मके सुख दुखके कारण होना चाहिए । घड़ीका लटकन जिस प्रकार इबरसे उबर चलता रहता है, उसी प्रकार मैं जन्म और मरणके मध्य झूलनेवाला नीव हूं । कर्मकी चाबी करके | यह लटकन सदृश गति मिली है और जबतक यह चावी लगी रहेगी तबतक मैं इस झूले से निकल नही सक्ता । यह झूलेकी स्थिति दुःखकारक है । इसमें कमी ही सुखका अनुभव होता है, परन्तु वह अत्यन्त क्षणिक है । यह इतना ही नहीं वल्कि इससे आघात पहुंचता है । इसलिए परिणाम मे दुखरूप है। गुझे इस दुखकारक झूलेमेंसे छूटना चाहिए। किसी भी प्रकारसे मुझे इस चावी फेर हटाना चाहिए। इस प्रकारst विचार श्रेणीसे प्रेरित हो कि आर्यगण जन्ममरणके से छूटनेके लिए -मोक्ष Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट न०२० हो कितनेक आर्यगण जन्ममरणके झूले से छूटनेके लिए-मोक्ष पानेके लिए विविध प्रयत्न करते हैं। कर्मकी चाबीको किसी तरह खपादेनेके यह प्रयत्न करते हैं |....महावीरस्वामी इसी प्रकृतिकी एक प्रतिमा हैं। बुद्धकी प्रकृति इससे भिन्न है । पहिले जन्मकी और मृत्योपरान्त दूसरी स्थितिकी चिन्ता करना उसके निकट आवश्यक नहीं । जन्म नो दुःखरूप होय तो फिर इस जन्मकेदुःखतो सहन हो गए। पुनर्जन्म यदि होता होगा तो वह इस जीवनके सुस्त और दुष्कृतके अनुसार होगा। इस लिए यही जन्म सर्वका आधार है । बुद्धने इसी विश्वासके अनुसार वर्तमान दुःखकी स्थितिको दूर करनेके प्रयत्न किए। और अपने अष्टांगिक मार्गका उपदेश दिया।" (देखो बुद्ध अने महावीर १०५-१०९) परिशिष्ट नं०३। महावीरस्वामीकी सर्वज्ञताके प्रमाण । भगवान महावीरखामीके जीवनपर अब इतना प्रकाश पड़ चुका है कि उनके ऐतिहासिक व्यक्तित्वमें अब किसी विद्वान्को संदेह नहीं रहा है। यह भी पूर्णतः सिद्ध हो गया है कि महावीरखामी जैन धर्मके स्थापक नहीं थे, किन्तु एक सुप्रचलित धर्मके नायक थे। वे जैनियोंके अन्तिम तीर्थकर थे। 'तीर्थकर ' वही पुरुष होता है जो सर्वज्ञता प्राप्त कर धर्मोपदेश करे और चार प्रकारके संघकी व्यवस्था करे। महावीरस्वामी सर्वज्ञ थे, इस व्याख्यानकी पुष्टिमें जैन साहित्यमें इस विषय के स्पष्ट उल्लेखोंके अतिरिक्त एक प्रबल और परोक्ष प्रमाण यह है कि जैन सिद्धान्त या दर्शनमें Kera Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ भगवान महावीर पारस्परिक विरोधी सिद्धान्त बिलकुल नहीं पाये जाते ।।, दूसरे को दर्शना हैं; उनमें भिन्न-२ आचार्योके. कथनों में बहुत विरोधःपाया जाता है, जिसका परिहार करना, कहीं२.असम्भव है। इसका कारण यह है कि उन दर्शनों के स्थापक कोई; सर्वज्ञ नहीं थे। इससे उनमें बहुतसी अपूर्णतायें रह गई थीं, जिनको पीछेके आचार्योंने अपने मतके अनुसार पुरी करनेका प्रयत्न किया। इसीसे उनसें मरमान विरोधी बातें आगई हैं, परन्तु जैन दार्शनिक ग्रन्थोंमें ऐसे विरोध कहीं नहीं, पाये जाते । जितप आचार्योने जैन दर्शना पर अपनी बहुमूल्यः लेखनी चलाई है वहां उनके कथनों में पूरा सामान है और तद्विषयक प्राचीनतम ग्रन्थोंसे लगाकर नवीन अन्योतको कही भी किसी समयके अन्योंमें नये जोड तोड हेर फेर, वा घटाकी नहीं पाई जाती। जैन दर्शनका जो रूप आनसे दाई हजार वर्ष पूर्व था, आज भी वैसाही बना है। इसका कारण यही है कि उसमें किसी प्रकारकी अपूर्णतायें नहीं थीं समस्त वस्तु खरूपका.. उसमें सप्रमाणिक विवेचन था औरा. इसी लिये आचार्योंकी उसमें जोड़ा तोड़ी करनेके लिये न तो न स्थानमा औरान आवश्यक्ता थी। यह तभी हो सका है जब, उस-दर्शनका प्रतिपादन करनेवालेको समस्त,वस्तु स्वरूपका पूर्ण ज्ञान हो। अतः जैन तीर्थयार जिन्होंने जैन दर्शनका ऐसा पूर्ण और विशद विवेचन किया.अवश्य सर्वज्ञारहे हैं। केवल जैन ग्रन्थों में ही नहीं, चौडोंके प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथोंमें भी महावीर स्वामीकी सर्वज्ञता प्रमाण पाये जाते हैं। ये प्रमाण अन्य धर्मावलम्बियों के होनेसे विशेष महत्त्वके हैं। और Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट न. २५ पी०रिस डेविड्स व अन्य कई विद्वानोंने इस बातको 'पूर्णतः , सिंद्ध कर दिया है कि बौद्धोंके पालीग्रन्थोंकी आनसे २२०० वर्ष पूर्व रचना हो चुकी थीं। अशोकके समय अर्थात ईस्वीस से पूर्व तीसरी शताब्दिमें इन ग्रन्थोंका अधिकांश भाग प्रायः उसी रूपमें स्थिर हो चुका था जैसा उसे हम आज पाते हैं । अतः महावीर स्वामीके विषयमें इनके कथन उनके बहुत निकटवर्ती कालके होनेसे बहुत मान्य और विश्वसनीय हैं। ___'बौद्धोंके समस्त धार्मिक ग्रन्थ तीन भागोंमें विभक्त हैं जो त्रिपटक कहलाते हैं। इनके नाम क्रमशः विनयपिटक, सुतं सूत्र) पिटक, और अभिधम्म (अभिधर्म) पिटक हैं। प्रथम पिटकमें बौद्ध मुनियोंके आचार और नियमोंका, दूसरेमें महात्मा बुद्धके निन उपदेशोंका और तीसरेमें विशेषरूपसे चौद्ध सिद्धान्त और दर्शनका वर्णन है । 'सुत्तपिटक'के पांच 'निकाय व अंग हैं जिनमेंसे द्वितीयका नाम 'मझिम निकाय' है। इसमें अनेक स्थानोंपर महात्मा बुद्धका निग्रन्य मुनियोसें मिलने और उनके सिद्धान्तों आदिके विषयमें बातचीत करनेका उल्लेख आया है। इन उल्लेखोंसे सिद्ध होता है कि बुद्धको भगवान महावीरकी सर्वज्ञताका पता चल गया था और उन्हें उनके सिद्धान्तोमें रुचि उत्पन्न हो गई थी। उदाहरणार्थ इन उलेखोंमेंसे एक यहां उद्धृत किया जाता है। बुद्ध कहते है: एकमिदा है, महानाम, समयं राजगहे विहरामि गिझकूटे पन्वते । तेन खो पन समयेन संबहुला निगण्ठाइसिगिलिपस्से काल Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RE भगवान महावीर । सिलायं उपत्यका होन्ति आसन पटिक्खित्ता, ओपक्कमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदयन्ति । अथ खो हं, महानाम, सायण्ह समयं परिसडाणा बुद्धितो येन इसिगिलिपस्सम काणसिला येन ते निगण्ठा तेन उपसंकमिम् । उपसंकमित्त्वा ते निगण्ठे एतदवोचम्ः किन्तु तुम्हे आबुसो निगण्ठा उब्मटुका आसनपरिक्खित्ता, ओपकमिका दुक्खा तिप्पा कटुका वेदना वेदियथाति । एवं वुत्ते, महानाम ते निगण्ठा मं एतदवोचु, निगण्ठो, आवुसो नाथपुतो सब्व, सम्बदस्साची अपरिसेसं ज्ञाण दस्सनं परिजानातिः चरतो च मे तितो च सुत्तस्स च नागरस्सा च सवतं समितं ज्ञाणदस्सनं पच्चुपट्ठिततिः, सो एवं आहः अस्थि खो वो निगण्ठा पूब्बे पापं कम्मं कतं, तं इमाय कटुकाय दुक्करिकारिकाय निज्जरेथ; यं पनेत्य एतरहि कायेन संवृता, वाचाय संवुता, मनसा संवुता तं यति पापस्स कम्मस्स अकरणं, इति पुराणानं कम्मानं तपसा व्यन्तिभावा नवानं कम्मानं 'अंकरणा आयति अनवस्तवो, आर्यात अनवरसवा कम्मक्खयो, कम्मक्खया दुक्खक्खयो, दुक्खक्खया वेदनाक्खयो, वेदनाक्खया सव्वं दुक्खं निज्जिण्णं भविस्सति तं च पन अम्हाकं रचति चैव खमति च तेन च आम्हा असमना ति' } wwwwwwwwww (P. T. S. Majjhima Vol. IP. p. ९२-९३) इसका भावार्थ यह है : म० बुद्ध कहते हैं " हे महानाम, मैं एक समय राजगृहमें गृडकूट नामक पर्वतपर विहार कर रहा था। उसी समय ऋषिगिरिके पास 'कालशिला (नामक पर्वत) पर बहुतसे निर्ग्रन्थ (सुनि ) Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAWONNNN परिशिवन आसन छोड़ उपक्रम कर रहे थे और तीव्र तपस्यामें प्रवृत्त थे। है महानाम, मैं शायंकालके समय उन निग्रन्थोंके पास गया और उनसे बोला 'अहो निम्रन्थ । तुम आसन छोड़ उपक्रम कर क्यों ऐसी घोर तपस्याकी वेदनाका अनुभव कर रहे हो ? हे महानाम, नब मैंने उनसे ऐसा कहा तब वे निर्ग्रन्थ इस प्रकार बोले 'अहो, निग्रन्थ ज्ञातपुत्र सर्वज्ञ और सर्वदशी है, वे अशेष ज्ञान और दर्शनके ज्ञाता हैं। हमारे चलते, ठहरते, सोते, नागते समस्त अवस्थाओंमें सदैव उनका ज्ञान और दर्शन उपस्थित रहता है। उन्होंने कहा है:-निर्यन्यो ! तुमने पूर्व (जन्म) में पापकर्म किये हैं, उनकी इस घोर दुश्चर तपस्यासे निर्नरा कर डालो। मन, वचन और कायकी संवृत्तिसे (नये ) पाप नहीं बंधते और तपस्यासे पुराने पापोंका व्यय हो जाता है। इस प्रकार नये पापोंके रुक नानेसे और पुराने पापोंके व्ययसे आयति रुक जाती है, आयति रुक जानेसे कर्मोका, क्षय होता है, कर्मक्षयसे दुक्खक्षय होता है, दुक्ख क्षयसे वेदना-क्षय और वेदना क्षयसे सर्व दुःखोंकी निरा हो जाती ।" इस पर बुद्ध कहते हैं । यह कथन हमारे लिये रुचिकर प्रतीत होता है और हमारे मनको ठीक जंचता है।' ऐसा ही प्रसङ्ग 'माज्झिमनिकायमें भी एक जगह और भाया है । P. T. S. Majjhima Vol II PP. 214-218 वहां भी निर्यन्योंने बुद्धसे ज्ञात पुत्र (महावीर) के सर्वज्ञ होनेको बात कही और उनके उपदिष्ट कर्म-सिद्धान्तका कथन किया। तिसपर बुद्धने फिर उपयुक्त शब्दोंमें ही अपनी रुचि और अनुकूलता प्रगट की। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर । यह भगवान महावीर और उनके सिद्धांतोंके विषय में कहे हुए स्वयं महात्मा बुद्धंके वाक्य हैं । इनसे यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि म०' बुद्ध भगवान महावीरके सिद्धांतोंका कैसा आदर करते थे। उन्होंने न केवल निर्मन्थोंके सिद्धांतोंको, सुना ही था, किंतु उनमें अपनी रुचि और 'अनुमति भी प्रकट की थी और भगवान महावीरकी सर्वज्ञताके विषयमें जो कुछ उन्होंने सुना उसे, बड़े भावसे अपने शिष्यों को भी सुनाया । अतः इस बात में 'कुछ भी संदेह नहीं रहनाता' कि भगवान 'महावीरके जीवित कालमै 'ही 4 " " उनकी ' सर्वज्ञता पर न केवल उनके अनुयायियोंको ही पूर्ण विश्वास था वरन् एक दूसरे धर्मके 'प्रणेता और उनके 'शिष्यगणों पर भी उनका प्रभाव अवश्य पड़ गया था । ? हीरालाल जैन एम० ए० एल० एल० बी० Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ wwwwwwwwwwwwwwww पृष्टः पकि शुद्ध २. . २५ २६५ १८ . २७ १४ ૨ शुद्धिपत्रशुद्धाशुद्धिः। अशुद्ध सदाचार.रहना सदाचारसे रहती भाविक भावी पतिके विशारद जैनियों यदि । विशारद यदि उसके उसको तापसके शरीरमें लकड़ तापस उबई तो समन्तभद्र सम्राटको सम्राटको चन्द्रगुतको फरलामा फरन्पि एक काठ एक दीर्घ काल लिए गए से लिए गए व्यापारि सर्वत करगरी कारीगरी गन्यो प्रन्यों भनत शत्रु মলার अन्य के अन्य पोंक जैन शाबों वर्णन जेनशानों गम गर्म Fredom * Freedom व्याधिक 'व्यापिकी हुए . दिए यसवे' । यज्ञवेदी भगवान भगवान चौदह संग भतु, यह- विद्या सर्व भगवान भस्तु, भगवान व्यापा . . ७५ २ ५ १.१ . ६ 10 १९ ५ १० Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान महावीर। १२ १२ मुमति समति १२२ . . सतोषका परिणाम al परिणाम भाप अन जैन धर्मानुयायी भापजैनधर्मानुयायी ૧૨૭ ૧૯ जनाचार्य जैनाचार्य १४९ १५ राज्याधिकारी राज्याधिकारी हुआ राजा राज्याषिगरी १६३२ मत वृक्ष , हो जाती। १८ . अनेक १९५१ बात पातको । पातको २१४ १५ Expeoits exploits २२१ फुनो.११ 'जैनसुफी बन्द जेनस्फी(Gymnosophist)न्द २२२ , १ र उनके १३.. में वापर २२६ १ ती २४४ . भोर टोक (गोलाकार के मध्य भौर शरीर सी कारागारमें (गोलाकार) लोकके सत्य २६१ ६ २६३ " २५ पल्तु पापि २९६ १३ मे में ५ पचपन्न २० १३ बनान र दर्शन पालगण, इस बारियों एवं विशेष जी अन्य लिने शुबकर प्रयका भवलोकन करें। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- _