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२३२ . भगवान महावीर । भव कर लिया और कहा " मित्रचन्द, यह समाचार 'तथागतके समक्ष लानेके उपयुक्त हैं । अस्तु, 'हमें उनके पास • चलकर यह खबर देना चाहिए।" वे बुद्धके पास दौड़े गए, निन्होंने एक दीर्घ उपदेश दिया । ( Se Dialogues of the Buddhs. Pt. III. P. 112. & Kshatriya clans in Buddhistb India. P. 176.)
इस वर्णनसे प्रकट है कि म० बुद्धके जीवनकालमें और भगवान महावीरकी निर्वाण प्राप्तिके उपरान्त ही संघमें मतभेद पड़ गया था। परन्तु यह नितान्त मिथ्या प्रतीत होता है। क्योकि यदि ऐसा होता तो वहीसे दिगम्बर और श्वेताम्बर गुर्वावली(शिष्य-परम्परा ) में भेद पड़ना चाहिए था । परन्तु हम देखते हैं कि भगवान महावीरके निर्वाणके वाद गौतमस्वामी, सुधर्मस्वामी
और जम्बूस्वामी, इन तीन केवलज्ञानियो तक दोनो सम्प्रदायोमें एकता है । इसके आगे जो श्रुतकेवली हुए हैं, वे दिगम्बर संप्रदायमें दूसरे हैं और श्वेताम्बरमे दूसरे। आगे भंद्रबाहुको अवश्य ही दोनो सम्प्रदाय मानते हैं। इसलिए यह प्रमाणित होता है कि भगवान वीरको निर्वाणप्राप्तिके कुछ काल पश्चात् ही मतमेद उपस्थित नहीं होगया था।
प्रो० नकोबीने जो इस विषयमें लिखा है कि " यह बहुत संभव है कि जैन सघका प्रथम प्रयक होनाना क्रमवार हुआ था। दोनो ही सम्प्रदायोमें एक दूसरेसे दूर रहते हुए, व्यक्तिगत उन्नति होती जाती थी। और वे अपने आपसी मतभेदसे ईमाकी प्रथम शतालिके अन्तमें भिज्ञ हुए थे।" (Sea Hastings,