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तत्कालीन परिस्थिति। ५३ लिए आश्रम आदि वनवा देते थे। इनमें मुख्य परिव्राजक, आनीवक, अचेलक, वौद्ध आदि थे। मि० वेङ्कटेश नारायण त्रिपाठी एम०ए० इस धार्मिक हलचल और वेचैनीको उत्पन्न करनेवाली तीन प्रवृत्तियोंको गिनते हैं । अर्थात् (१) यज्ञकी हत्या (२) कर्मकाण्डका प्रचार और (३) हठयोगकी धारा। भगवान महावीरके जन्म समय पशु यज्ञ पराकाष्टाको पहुंचा हुआ था । निर्दोष, दीन, असहाय जानवरोंके खूनसे यज्ञकी वेदी लाल होजाती थी। यह बलि विविध देवताओंको प्रसन्न करके यजमानकी मनोकामना पूर्ण कराती समझी जाती थी। पुरोहित लोग यज्ञके करानेमें सदैव तत्पर रहते थे, क्योंकि यही उनकी जीविका थी। इस प्रवृत्तिने उस समय सबके दिलोंको दहला दिया था । और अन्तमें भगवान महावीरने इन मूक, निरापराध पशुओंके दुःखपाशको काट जीवनदान दिया था। इस विषयमें प्रख्यात विद्वान लोकमान्य स्व० बालगंगाधर तिलकने अपने व्याख्यानके मध्य एक दफे कहा था कि “ अहिंसा परमो धर्मः इस उदार सिद्धान्तने ब्राह्मण धर्मपर चिरस्मरणीय छाप मारी है। पूर्वकालमें यज्ञके लिए असंख्य पशु हिंसा होती थीं, इसके प्रमाण मेघदूतकाव्य आदि अनेक ग्रन्थोंसे मिलते हैं।..परन्तु इस घोर हिसाका ब्राह्मण धर्मसे विदाई ले जानेका श्रेय जैनधर्म ही के हिस्सेमें है।" इसके साथ २ कर्मकाण्डका प्रचार भी खूब बढ़ रहा था । ढोंग और अधर्म छाया हुआ था। मि० त्रिपाठी, इस विषयमें इस प्रकार वर्णन करते हैं कि " अनात्मवाद और कर्मकाण्ड ही का पूर्णरूपसे सार्वभौमिक राज्य था। समान वाह्याडम्बरमें फंसा हुआ था। परन्तु समाजकी आत्मा घोर अन्ध