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भगवान महावीर। और उनके बाद शूद्रोंका मान था। क्षत्रिय लोग नीतिनिपुण, सदाचारी थे और ब्राह्मण केवल यज्ञकाण्डमें व्यस्त थे। इसीके कारण उनकी मान्यता कम होगई थी, और भत्री लोग उन्हें द्वेषमरी दृष्टिसे देखने लगे थे। वे इस समय धार्मिक क्रियाओंमें ब्राह्मणोंसे बढ़ चढ़ गए थे । और कोरे क्रियाकाण्डमें नहीं फंसे थे। स्वयं श्री सज तीर्थकर भगवानने उन्हीमें जन्म लिया था.! यह खींचातानी इतनी बढ़ गई थी कि पडे २ राजा लोग इन ब्राह्मणोंको तिरस्कारकी वष्टिले देखने लगे थे, और उसी मतके संरक्षक बन जाते थे जो इनके खिलाफ खडा होता था ( See Mr..K. I. Eaunder's Gotama Buddha P. 17.) इस प्रकार उस समय के सामाजिक वन्धनाका चित्र है जो कि वर्तमानके बन्धनोंसे कहीं उदार थे । यह जाति बन्धन आजकलकी तरह कठोर और कड़े कदापि न थे। जैन शास्त्रों में ऐसे उदाहरण मिलते हैं जिनसे इस व्याख्याकी पुष्टि होती है। अस्तु, देवल धार्मिक स्थितिने देखना अवशेष है कि उस समय वह कमी थी कि जिससे ब्राह्मणों और क्षत्रियोंमें इतना मनोमालिन्य बढ रहा था। - उस समयकी अवस्थाका ध्यान करनेसे विदित होता है कि. उस समय वर्मी वडी दुरी दशा थी, जब किमहावीरस्वामीने जन्न लिग ण । धार्मिक अराजकताका झण्डा चारों ओर उड़ रहा था। लोग अंधकारने पड़े हुए ज्ञान ज्योतिके प्रकाशके लिए लालायित होरहे थे। मनमय जमुनान्त. तीनसौ तिरसठ विविध वन पन्ध प्रचिलित थे (का-एपति श्री ३वीं गाय और क्षत्रिय लेग इन विचरले हुए नामे विशेष दिनवापी तेथे वरिक उनके