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भगवानका दिव्योपदेश ।
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अपने चारित्रको उज्ज्वल बनाता जाता है। इनमें ही व्रतोंकी पालना होती है । यह व्रत बारह हैं जो तीन विभागों में विभक्त हैं, अर्थात् (१) अणुव्रत (२) गुणव्रत (३) शिक्षाव्रत । अणुव्रत पांच हैं । प्रथम अहिसाणुव्रत अर्थात् किसी भी एक इन्द्री या अधिक प्राणोंवाले जीवको कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा संकल्पसे मन, वचन कायकी अपेक्षा दुःख न देना ( २ ) सत्याणुव्रत अर्थात् स्वयं स्थूल असत्य न बोलना और न दूसरोंसे असत्य बुलवाना और न ऐसा सत्य ही बोलना जिससे किसीके प्राणोंको दुःख हो । (३) अचौर्याणुव्रत अर्थात् परकी वस्तुको ग्रहण न करना अथवा दूसरेको नहीं देना । (४) शीलाणुव्रत अर्थात् परस्त्री व पुरुषोसे विषयभोग मन, वचन, काय द्वारा न करना और (२) परिग्रह परिमाणाणुव्रत अर्थात् गृहस्थको अपनी इच्छाको सीमित करनेके लिए सांसारिक वस्तुओं सम्पत्ति, वस्त्र, अनाज आदिके रखनेकी सीमा बांध लेना। मुनि इन्हीं व्रतको पूर्णरूपमे पालते हैं। वे जीवके किसी प्राणको किसी तरह भी दुःख नही देते है। और इसी प्रकार शेष व्रतोका पूर्ण पालन करते हैं ।
श्रावकके लिए फिर तीन गुणव्रतोंका पालन है । अर्थात् (१) दिग्व्रत (२) अनर्थदण्डव्रत ( ३ ) और भोगोपभोग परिणामत्रत । इनके पालनसे अणुव्रतोका पालन महत्वपूर्ण सुविधामय होजाता है । अन्तमे श्रावकके अवशेष शिक्षाव्रतोका पालन और करना पड़ता है, अर्थात् सामायिक, देशावकाशिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत । प्रत्येक दिवस निजात्माके स्वभावका मननपूर्वक ध्यान करना सामायिक है । सत्यसिद्धान्त जिनवाणीका अध्ययन करना, कृतपापोके लिए पश्चाताप करना, आदि सामा