________________
भगवान महावार । India(P.82) में स्वीकार किया है । इसी पुस्तकके आधारपर यह वर्णन लिखा जा रहा है। इस विषयका पूर्ण विवरण लॉ. साहबकी इसी पुस्तकमें मिलेगा। लॉ. साहब इस वातको भी मानते हैं कि श्रमण (जैन मुनि ) प्राचीन उपनिषदके जमानेसे धर्मका प्रचार कर रहे थे; और भगवान महावीरके पिता इन्हीं श्रमणोंकी बड़ी भक्तिसे विनय करते थे । भगवान महावीरके पुनः धर्मका उपदेश देनेके पश्चात् लिच्छावियोंमें जैन धर्मके अनुयायी बहुत होगए थे। वैशालीमें जेनी उच्च पदाधिकारी थे जैसा कि वौड गन्योंसे विदित होता है। म० बुद्धके वहां कई वार अपने धर्मका प्रचार करनेपर मी जैनियोंकी संख्या अधिक थी। यह वात वौद्धोके 'महावग नामक ग्रन्थमें सेनापति सिंह के कयानकसे विदित है। (See Vinaya Tests, S.BE, Vol XVII, P. 116) अस्तु, यह प्रगट है कि लिच्छावी नीतिनिपुण, सदाचारी और सांसारिक सुख सम्पन्न होने के सायर सच्चे धर्मके अनुयायी मी थे।
लिच्छावी राज्यवासियों द्वारा धार्मिक सिद्धांतोंकी विशेष उन्नति हुई थी। इस वातको मि० लॉ और डॉ० वाल्मा भी स्वीकार करते हैं। और ऐसा होना स्वाभाविक ही है, क्योंकि उन्हीं के मध्यसे सर्वज्ञ तीर्थकर भगवान महावीरका जन्म हुआ था।
- यह हम पहिले ही कह चुके हैं कि लिच्छावियोंका गणराज्य एक प्रजातंत्र था। और उनकी राज्य प्रणाली बिल्कुल आधुनिक ढंगकी थी। जहाँपर यह दरबार करते थे वहां उन्होंने याउनहाल बना लिए थे जिनको वे सन्यागार रहते थे। इनमेंसे भेम्बर चुनकर गण संघमें जाते थे। वे सब संभवतः राना कहलाने