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. लिच्छावीय क्षत्री और उनका गण-राज्य। ५९ विद्याध्ययन करने जाते थे। उनके महल और देव मंदिर अपूर्व कारीगरीके दो २ तीन २ मञ्जिलके बने हुए थे। उन्होंने अपने पाणिग्रहण सम्बन्धी कुछ नियम भी शायद बना लिये थे; जिनका भाव यह था कि वैशाली राज्यके वाहर उनकी कन्यायें न जाए, जो उनके उच्चवंशज होनेके कारण होना खाभाविक था। "श्रेणिक चरित्र से ज्ञात होता है कि इसी संघके मुख्यराजा वैशालीके शासक चेटकने अपनी पुत्री मगधेश श्रेणिक महाराजको देना कबूल नहीं की थी। और अन्तमें उन्होंने उसे चातुर्यतासे गुप्तरीत्या - मंगवा लिया था। वह स्वयं महाराजकी रूपराशिपर मुग्ध हो चली आई थीं। इसही चेटककी इस पुत्री चेलनाने महाराज श्रेणिकको जैनधर्मका श्रद्धानी बनाया था। चेलनाका उल्लेख बौद्ध शास्त्रोंमें भी है। अस्तु, इससे उस समयके विवाह संबंधी नियमोकी उदारताका पता चलता है। यदि किसी तरह स्त्री अपने दाम्पत्यप्रणका पालन नही करती थी, तो बड़े कठोर दण्डकी भागी होती थी। और उसका. छुटकारा उस दण्डसे केवल सन्यास धारणमे होता था।.
लिच्छावी एक परिश्रमी, वीर धीर, समृद्धिशाली जाति होनेके साथ ही साथ धार्मिक रुचि और भावको रखनेवाली थी। जैनधर्म और बौद्धधर्म दोनोंका ही प्रचार उनमे था । परन्तु जैन धर्मकी प्रधानता मुख्य थी। इसका प्रचार वैशालीमे भगवान महावीरके पहिलेले विद्यमान था। संभवतः भगवान महावीर वैनालीक नागरिक थे। और उनके पिता जैनधर्मके पालक थे। उनके साथ
और अन्य जैनीभीथे। मि० विमलचरण लॉ. एम० ए० आदिने इस वातको अपनी पुस्तक The Kshatriya Clans in Buddhist