SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (२). दुबाहुरिव वामनः वत् क्रिया की हो; परन्तु मैं जानता हूं कि. जहां कविकुल शिरोमणि, नरोत्तम भगवान गुणभद्राचार्य, भट्टारक. कुलभूपण श्री सकलकीर्तिनी और कविवर अशगने जिस प्रकार भक्ति-रस-संचित हृदयोयानसे परम-सरस-सौरभयुक्त पूर्ण प्रस्फुटित-प्रसून प्रभू वीरके पवित्र पाद-युगलमें समर्पण करनेका सौभाग्य प्राप्त किया था, वहां क्या मै अपनी अविकसित निर्मल भक्तिकुसुम-कर्णिकाको स्वात्माकी संतुष्टि मात्रके अर्थ समर्पित कर लतकल्यावस्थाको प्राप्त हो सका हूं ? परन्तु भक्तिवश मनुष्य सर्वे कुछ कर सकता है ! तथास्तु! यद्यपि भगवान महावीरके जीवनचरित्र लिखनेके लिए मुख्य प्रेरक हृदयकी भक्ति ही है परन्तु, बाएनिमित्त भी उसमें विशेष सहायक हैं। और यह मानी हुई बात है कि समय समय मनुप्यकी आवश्यकाएं और रुचियां बदलती रहती है; इसलिए मी भगनानके पवित्र जीवनपर नपीन ढंगसे प्रकाश डालना आवश्यक है । स्वयं भगवान महावीरने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके अनुसार वर्तन करणा उपयुक्त बतलाया था। तिसपर हिन्दी मैन, साहित्यमे भगवान महावीरका कोई भी ऐसा जीवनसंथ उपलब्ध नहीं है, जो आधुनिक रीतिपर लिला हुआ हो और अनेन विद्वानोंके हाथेमे अर्पण किया जा सके ! यही कमी गत महावीर जयन्ती महोन्स के समय इटानेने नुको विशेष रूपसे दुरित करने लगी। गाय सना गर्नाहत तुगा कि मैंने उस कमीतो स्वयं ही सीरम पूर्ण करता हल्लप कर लिया, जिसके फलस्वरूप प्रस्तुत 'जीनाममात्र धर्म-प्रगादनाती पूर्ति निमित्त
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy