________________
मक्खाली गोशाल और प्रण काश्यप। १८५
इस प्रकार महावीरस्वामीके एक अन्य समकालीन पुरुषका मत था जो स्वयं अपनी सर्वज्ञताकी डोंडी पीटता था, और लोगोंको अज्ञानके गर्तमें डाल रहा था। वीर भगवानका वास्तविक ज्ञानसूर्य प्रगट होते ही इन लोगोंकी यथार्थता खुल गई थी और इनका मत लुप्त हो गया था। इन लोगोंकी वाञ्छा लोगोंमें अपनी प्रतिष्ठा जमानेकी थी इसी लिए वे अपने आपको तीर्थकर प्रगट करके अपने अनुकूल मनुष्योंको अपनाने लगे थे। उन्हें सत्यअसत्यकी ओर ध्यान नहीं था, परन्तु सत्य स्वयं प्रगट हो जाता है। और इसीसे भगवान महावीरका तीर्थङ्करपना लोगोंपर स्वयं प्रगट हो गया था। इसीसे हमारे पूर्वकथनकी पुष्टि होती है कि तीर्थकर भगवानका आगमन निकट जानकर धार्मिक शृङ्खलाके उस डांवांडोल जमानेमें लोग अपनेको तीर्थकर प्रगट करके जनताको भुलावा दे रहे थे। और वास्तविक ज्ञानसूर्यके प्रकट होते ही एकदफे चहुंओर उजाला फैल गया था। उस समयके बड़े माने जानेवाले धार्मिकनेता म० बुद्ध भी उस प्रकाशके प्रभावसे वंचित नही रहे थे, जैसा कि हम देख चुके हैं। परन्तु म० बुद्धके उच्च वंशका ही यह प्रभाव प्रतीत होता है कि उन्होंने यथार्थताको छिपाया नही और भगवानकी सर्वज्ञताको प्रकट शब्दोंमे स्वीकार किया और कहा कि मेरेसे पहिले २४ बुद्ध वा जिन वा तीर्थकर हो चुके हैं जैसे कि डॉ० स्टीवेन्सन साहब भी कहते हैं कि "यह प्रगट है कि बुद्धने अपने २४ पूर्ववर्ती बुद्धोंको देखा था, परन्तु इस कप्पो (काल) में उसने चार ही देखे । (Mahavanso, book I. Ch. 1) और जैन अपने सिद्धान्तानुसार व्यक्त करते