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वीर संघका प्रभाव।
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उसका प्रकट प्रमाण जैन कथानक है। जैनी इस प्रख्यात सम्राटको राना बिम्बसारकी भांति सदेव जैन प्रकट करते हैं । और कोई भी ऐसा पूर्ण कारण उपलब्ध नहीं है, जिससे उनका यह विश्वास मिथ्या स्वीकृत हो । मगधमें पश्चातके शैKगों, नंदों और मौर्यके । राज्यकालमें अवश्य ही जैनधर्म पूर्ण प्रभावका भोक्ता रहा था। यह व्याख्या कि चंद्रगुप्तको राज्यकी प्राप्ति एक विद्वान ब्राह्मण द्वारा हुई थी, जैनधर्मको राज्यधर्म माननेमें किसी प्रकार बाधकनहीं है। मुद्राराक्षस नाटकमें एक जैन राक्षस नामक मंत्रीका मित्र प्रकट किया गया है, जिस (मंत्री)ने पहिले नंदकी सेवा दी थी पश्चातमें नए सम्राटकी। एकवार इस व्याख्याके स्वीकृत होजानेसे कि चंद्रगुप्त जैन थे यह बात प्रमाणित होजाती है कि उन्होंने राज्यको छोड़कर जैन साधुवृत्ति द्वारा स्वर्गको प्राप्त किया था । यह कथानक इस प्रकार है कि जब जेन साधु (श्रुतकेवली) भद्रवाहुने उत्तरीय भारतमे एक बारह वर्षके अकालके आगमनको सूचित किया और जब यह पूर्व वाणी घटित होने लगी, तब साधुने १२००० नैनोके साथ दक्षिणके सुभिक्षमय स्थानोंकी ओर प्रस्थान किया । सम्राट् चन्द्रगुतने राज्यसिहासन छोड़कर इसी संघका साथ दिया जो मेसोरमे श्रवणबेलगोलकी ओर जा रहा था, जहां भद्रबाहु मृत्युको प्राप्त हुए। पूर्व सम्राट् चन्द्रगुप्त इनके पश्चात् १२ वर्ष जीवित रहे। और उपवास करके मृत्युको प्राप्त हुए। इस व्याख्याकी पुष्टि श्रवणवेलगोलके मन्दिर आदि; और ईसाकी सातवीं शताब्दिके शिलालेख तथैव १०वी शताब्दिके ग्रन्थ करते हैं। यह प्रमाण सारभूत नहीं गिने जासके, परन्तु खूब मननके पश्चात् में कथानककी मुख्य