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वैशाली और कुण्डग्राम। ६७ या बैलोंसे पूर्ण है । आकाश सतार-तारागोंसे व्याप्त है, नगर भी सतार-चांदी और मोतियोंसे भरा हुआ अथवा सफाईदार है। जहां परकोटके किनारोंपर लगी हुई अरुणमणियों मन्नाओंकी प्रभाके छायामय पटलोंसे चारोंतरफ व्याप्त जलपूर्ण खाई दिनमें भी विल्कुल ऐसी मालूम पड़ती है मानों इसने सन्ध्याकालीन श्री शोभाको धारण कर रखा है।........इस नगरके नागरिक पुरुष और महल दोनों एक सरीखे मालूम पड़ते थे। क्योंकि दोनों ही अत्यन्त उन्नत चन्द्रमाकी किरण जालके समान अवदात, स्वच्छप्रभासे युक्त, मस्तक पर रखे हुए (मुकुट आदिकमें लगे हुए; महलोंके पक्षमें छत वगैरहमें जड़े हुए) रत्नोंकी कांतिसे जिन्होंने आकाशको पल्लवित कर दिया है ऐसे थे।........जहांकी कामिनियोंके खच्छ कपोलमे रात्रिके समय चन्द्रमाका प्रतिविम्ब पड़ने लगता है।...."
इस प्रकारका वर्णन भगवानके जन्मस्थानका है। प्रो० कोबीने जो उसे एक छोटासा ग्राम-मार्ग की सराय बतलाया था, वह उनका भ्रम था, क्योंकि उन्होंने “सन्निवेश" शब्दका अर्थ ऐसा लगा लिया था, यद्यपि उसका यथार्थ भाव एक धार्मिक संस्थासे है। डॉ. होर्नल जैन शास्त्रानुसार कुण्डलपुरको एक विशालनगर इस लिहाजसे मानते हैं कि वह वैशालीका ही निकट अंग था। यद्यपि यह वैशालीके निकटस्थ एक अन्य ग्राम कोडागको बहुतायतसे भगवान महावीरका जन्मस्थान बतलाते हैं, क्योंकि वहांपर नाथ वा नाय (ज्ञात्रि) वंशज क्षत्रिय रहते थे और जिनके ही कारण भगवान महावीर नाथवन्शी वा नायकुलीन कहलाते थे,