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भगवान महावीर और म"बुहार
'सिरि पासणाहतित्थे सरयूतीरे पलासणयरत्यो । पिहियासवस्स सिस्सो महासुदो बुकित्तिमुणी ॥ ६ ॥ तिमिपूरणासणेहिं अहिगयपवजाओ परिब्मट्टो । .. रतवरं धरित्ता पवष्टिय तेण एयंत ॥ ७॥ मंसस णत्यि जीवो जहा फले दहिय दुख-सकरए. तम्हा तं वंछित्ता तं भक्खंतो ण पाविट्ठो ॥८॥ मजं ण वज्जणिज्नं दवदव्वं जहनलं तहा एदं । इदिलोए घोसित्ता पवट्टियं सव्व सावज ॥९॥ अण्णो करेदि कम्म अण्णो तं भुजदीदि सिद्धते । परि कप्पिऊण णूणं वसिकिचा णिरयमुववण्णो ॥१ .
दर्शनमार ! जैनाचार्य श्री देवसेन उपर्युक्त श्लोकोंडारा विक्रम संवत ९०९में व्यक्तकर गए हैं कि "श्री पार्श्वनाथ भगवानके तीर्थ सरयूनदीके तटवर्ती पलाश नामक नगरमें पिहिताश्रव साधुको शिष्य बुद्धकीर्ति सुनि हुआ, जो महाचत या बड़ा भारी शास्त्रज था। मुर्दा मछलियोंके आहार करनेसे वह ग्रहण की हुई -दीक्षासेज भ्रष्ट होगया और रकाम्बर (लाल वस्त्र) धारण करके उसने एकान्त ।
मतकी प्रवृत्ति की । फल, दही, दूध, शक्कर, आदिके समान मौसम . 'भी नीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण कर
में कोई पाप नहीं है। जिस प्रकार जल, एक द्रव द्रव्य अर्थात
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