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• ईसवी सन् ७८३ - ७८४ में होनेवाले श्री जिनसेनाचार्यजी दिगम्बर इंष्टिसे 'भगवान महावीरके गणधरोंका वर्णन इसप्रकार करते हैं कि- “ भगवानके इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, शुचि - दत्त, सुधर्म, मांडव्य, मौर्यपुत्र, अकंपन, अचल, मेदार्य और प्रभास ये ग्यारह गणधर थे। ये समस्त ही सात प्रकारकी ऋडियोंसे संपन्न और द्वादशांगके वेत्ता थे ॥ ४० - ४३ ॥ तप्त दीप्त आदि तपऋद्धि (१), चर्तुवुद्धि विक्रिया (२), अक्षीणर्डि (३) औपघि (४) लब्धि (५) रस और (६) बलऋद्धि (७) ये सात ऋडिया हैं ॥ ४४ ॥ गौतम आदि पांच गणधरोके मिलकर सब शिष्य दशहजार सौ पचास और प्रत्येकके दो हजार एकसौ तीसर थे । छठे और सातवें गणधरोके मिलकर सव शिष्य आठसौ पचास और प्रत्येकको । चारसौ पच्चीस २ थे। शेष चार गणधरोमें प्रत्येकके छैसो पच्चीस पच्चीस और सब मिलकर ढाई हजार थे । एवं सब मिलकर चौदह हजार थे || ४५ || ४६ ॥ "
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भगवान महावीर ।
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गणोके अतिरिक्त मुनियोंकी आत्मोन्नतिके लिहाज से गणना इस प्रकार थी । अर्थात् ९९०० साधारण मुनिः ३०० अंगपूर्वधारी मुनिः १३०० अवधिज्ञानधारी मुनिः ९०० ऋद्धिविक्रिव्यायुक्तः ५०० चार ज्ञानके धारी; ७०० केवलज्ञानी; ९०० अनुतरवादी, सब मिलकर १४००० मुनि थे ।
इन्द्रभूतिके अतिरिक्त सुधर्माचार्यने भी भगगनके पीछे धर्मशासनकी प्रभावना ना रक्खी थी। सुधर्मस्वामी सर्वर गच्छकी पट्टावलीमें कोल्लाग ग्रामके एक ब्राम्ह्मणका पुत्र होना लिखा है । ( Sce Indian Antiqusry, Vol. XI, P, 246 )