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भगवानका शुभागमन ।
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गुणोंकी साक्षात् मूर्ति थीं। नृपति सिद्धार्थ स्वयं ही स्वाभाविक रमणीयताके धारक थे, परन्तु दूसरा कोई जिसकी समानता नहीं कर सक्ता ऐसी कांतिको धारण करनेवाली इस प्रियाको पाकर और भी शोभायमान मालूम होने लगे थे ।
भगवान महावीरके पिता राजा सिद्धार्थके विषयमें हम पहिले ही जान चुके हैं कि वे कुण्डलपुरके न्यायनिपुण और धर्मसम्पन्न शासक थे । जिन्होंने आत्ममति और विक्रमके द्वारा अर्थ - प्रयोजनको सिद्ध कर लिया था; और पृथ्वीका उद्धार करके उन्नत ज्ञातिवंशको अलंकृत कर दिया था। महाराज सिद्धार्थ विद्यामें भी
पारगामी और उसके अनन्य प्रसारक थे । यह महावीरचरित्रके ( पत्र २४२ ) इस कथनसे व्यक्त होता है कि "अपने (विद्याओंके) फलसे समस्त लोकको संयोजित करनेवाले उस निर्मल राजाको पाकर राजविद्याएं प्रकाशित होने लगीं थीं । " फलतः यह प्रकट है कि भगवान महावीर एक बुद्धिमान, धर्मज्ञ, परिश्रमी और प्रभावशाली राजाके पुत्र थे ।
जब भगवान रानी त्रिशलाके गर्भमें थे तब उनकी सेवाका विशेष प्रबन्ध था । और प्रसूतिकालमें और भी उत्कृष्टतासे उनकी सेवामें सेविकाऐं नियत थी। जैन शास्त्र कहते हैं कि स्वर्गके इन्द्रकी आज्ञानुसार ५६ दिक्कुमारियाँ माताकी सेवामें तल्लीन थीं। यह इस समय में माताके चित्तको हरतरह प्रफुलित रखती थी । कभी२ काव्य रचना करके उनके मनको हुल्लासित किया करती थी । निगूढ़ अर्थ, क्रियागुप्त, बिन्दुच्युत, मात्राच्युत, अक्षरच्युत आदि श्लोकोंको कह कहकर माताको प्रसन्न करती थी । माता त्रिशला
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