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मैंने उपर कहा है कि भगवान महावीरका जीवन अनुपम है। तीर्थकरका जीवन सदैव ही अनुपम होता है, क्योंकि वह नीवित परमात्मा होता है जिसकी उपमा दूसरे जीवित परमात्मासे ही दी जा सक्ती है, अन्यथा नहीं । भगवानका जन्माभिषेक स्वर्ग लोकके देवताओने आकर मनाया था। भगवान चरम शरीरी थे। मल, मूत्र पसीना आदि वालपन हीसे भगवानके नहीं होते थे। जन्मसे ही भगवान तीन प्रकारके (मति, श्रुति और अवधि) ज्ञानसे भूषित थे । तप कल्याणके समय चौथा अर्थात् मनःपर्याय ज्ञान भगवानको प्राप्त हुआ था और 'सर्वज्ञता' धातिया कोके नाश होनेपर मिल गई थी। केवलज्ञानको प्राप्त हुये पश्चात भगवान साक्षात परमात्मा थे, जिनके दर्शन मात्रसे भव्य जीवोंको यही प्रतीत होता था कि मानो मोक्ष निधि ही मिल गई है। भगवानके समवशरणमें विराजनेके समयकी महिमाका तो कहना ही क्या है । वयं बुद्ध ग्रन्थोंमें भगवानके सर्वज्ञ होनेकी साक्षी 'मिलती है । देखो ममिन निकार व इन्साइलोपीडिया ओफ रिलीजन एण्ड धियख भाग २ पृट ७०)।
पुद्धदेवके हृदयपर भगवानके केवलजानका ऐसा प्रभाव पड़ा कि वह निल्कुल गुग्ध होगये और स्वयं यह विचार करने लगे कि सर्वज्ञता किस प्रकार प्राप्त करें। इसके लिये उन्होंने भगवान महावीरले सदन पतुन काल कठिन तपस्या की और तप करने २ अपने गरीसो अत्यन्त दुबल और शक्तिहीन कर दिया। कतर पात कार जब कि तपकी रनिता कारण