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________________ भगवान महावीर। होता था । उपर्युक्लिखित वाक्यसे प्रकट है कि व्यवहार दृष्टिके ज्ञानसे शून्य आत्मा यह नहीं जान सक्ता मैं कौन हूं, कहांसे आया हूं, कहाँ जाउंगा इत्यादि । उसी प्रकार विचारविहीन आत्माका, कोई अभ्युदय नहीं हो सका, वह अपने जीवनको प्रगतिमान नहीं बना सका । वह मनुष्य होते हुए भी पशुतुल्य है। क्योंकि वह अनात्मज्ञ, लोकके स्वरूपसे अनिमिज्ञ और कर्तव्य विचारसे हीन है। वैसे ही परमार्थ भावसे, नो आत्मा अध्यात्मभाव पराङ्मुख और ऐहिक विषय आसक्त है वह भी वास्तवमें *संज्ञा' यानी सम्यकूज्ञान हीन है। वह फिर चाहे व्यवहारसे कितना झी बुद्धिमान, प्रयत्नशील, प्रपञ्चपटु और सतत उद्योगी हो। वह नहीं विचार सका मैं यथार्थो कौन हूं, मेरा आत्मा क्या है। इत्यादि। जो आत्मा अध्यात्मक स्वरूपका जिज्ञासु है उसे सत्यमार्ग मिलता है और वह इच्छित स्थान पर पहुंच जाता है। और वही 'आत्मवादी है। जो अपने स्वरूपको जाननेवाला आत्मवादी है वही 'लोकवादी' है । वह लोकके स्वरूपको भी जान सक्का है। और यही लोकवादी कर्मकी विचित्र शक्तियोंका जगतके कार्यकारण भावका ज्ञाता (कर्मवादी ) होसक्ता है। और उसी तरह कर्मवादी बननेपर फिर वह 'क्रियावादी अर्थात् सम्यक् और असम्यक प्रवृत्ति ( कर्तव्याकर्तव्य ) का स्वरूप और रहस्य समझनेवाला बन सका है। इसी लिए श्री मोक्षशास्त्र (जैन वाइविल) में मोक्षमार्गको 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः बतलाया है। जिस प्रकार उपर्युक्त वाक्य परमार्थका उदबोधक है वैसे ही 'व्यवहारका भी उद्योतक है। अर्थात् व्यवहारमें जो कोई मनुष्य
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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