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भगवान महावीर और मा बुद्ध ।
सांसारिक बन्धन उनको असह्य थे, इसलिए वह साधु होगए। हम यह नहीं कहसके कि उनने प्रारंभमे किस साधु सम्प्रदायके व्रत ग्रहण किए थे और वह जैनमुनि कब हुए थे। उनके स्वयंके कथनसे यह प्रगट है कि उनने सर्व प्रकारके मतोके साधुमार्गका पालन किया था और अन्तमें दुर्घर तपश्चरण करनेपर भी उनको आत्मज्ञानका भान न हुआ। तब वह उससे भी निराश हो गये और शरीरकी रक्षा करना पुनः प्रारंभ करदी। इससे यह बहुत संभव है कि वह इस अवस्थाके प्रारंभ करनेके पहिले जैन मुनि थे परन्तु वह मुनिधर्मके यथार्थ ज्ञानके भानसे अनभिज्ञ प्रगट होते प्रतीत होते हैं।
अतएव "हमें यह नहीं ज्ञात है कि बुद्ध क्या विचार करते अथवा क्या इस विषयपर कहते यदि उनको यह विदित होजाता कि वह सन्यासमे स्वयं दृढता प्राप्त करनेका प्रयत्न विदून ग्रहस्थाश्रमका साधन किए हुए करना चाहते थे। संभवतः उनने इसपर कभी ध्यान नही दिया कि शिखरपर पहुंचनेके लिए सीढ़ीकी आवश्यक्ता होती है और यह कि तपस्यासे सिवाय दुःख और केशके और कुछ भी प्राप्त नहीं होता, यदि वह सम्यक्दर्शन और सम्यज्ञानके साथ न हो।" (असहमतसंगम पृष्ठ १८६-७)
श्री समयसारजीमें श्रीमन्महाराज श्री कुन्दकुन्दाचार्यनीने भी ऐसा ही कहा है:गाथा-परमट्ठहिन दुमठिदो जो कुणइ नवं वयं च धारई।
तं सव्व वालतवं वालपदं विति सव्वराहू ॥ । भावार्थ-जो परमार्थ भूत आत्माके स्वभावमें स्थिर नहीं है, । वह जो कुछ तप या व्रत करता है सो सर्व बालतप व बालवत है