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जैनधर्म और हिन्दूधर्म ।
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ज्ञान नैनधर्मसे उन्हें प्राप्त हुआ होगा जो भारतीय धम्मोंमें, आधुनिक खोजद्वारा, प्राचीनतामें दूसरे नम्बरका माना गया है और जिसमें कर्म सिद्धांत सम्बंधी शब्दोंको शब्दार्थ में व्यवहृत किया है जैसे इन्साइक्लोपेडिया ऑफ रिलीजन एण्ड इथ्किस भाग ७ ष्टष्ट ४७२ में प्रमाणित किया गया है:
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" जैनी लोग इन शब्दों (आश्रव-बन्ध-संवर- निर्जरा आदि ) को उनके शब्दार्थ में काम में लाते हैं और मुक्ति के मार्गको समझाने में व्यवहृत करते हैं (आश्रवोंका संवर और निर्जरा मोक्षके कारण है) अब यह शब्द इतने ही पुराने हैं जितना जैनधर्म; क्योंकि बौद्ध -लोगोंने जैनधर्मसे आस्रवका अति भावपूर्ण टर्म ( Term = शब्द ) ले लिया है । और वह उसको करीब करीब उसी भावमें व्यवहृत करते हैं जिसमें जैनी लोग; किन्तु उसके शब्दार्थ में नहीं, क्योकि वह कर्मको सूक्ष्म पुद्गल नहीं मानते हैं और आत्माकी सत्ताको भी नहीं मानते हैं जिसमें कि कर्मोंका आश्रव होसके । संवरके बजाय वह 'असवक्खय' जिसके माने आश्रवका क्षय होता है, व्यवहारमें लाते हैं और उसको मार्ग निर्दिष्ट करते हैं । यह प्रकट है कि बौद्धोंके -यहां आश्रवका शब्दार्थ जाता रहा है। और इस कारण यह आवश्यक है कि उन्होंने इसको किसी ऐसे सम्प्रदायसे लिया हो कि जो इसको इसके यथार्थ भाव में व्यवहृत करता हो; अर्थात् दूसरे शब्दो में जैनियोंसे । बुद्ध लोग शब्द 'संवर' को भी व्यवहृत करते हैं जैसे शीलसंवर और क्रियारूपमें 'सम्वत्', जो ऐसे शब्द हैं जिनको ब्राह्मण धर्मके संस्थापकोंने इस भावमें नही व्यवहृत किए हैं। इससे प्रकट है कि वह जैनधर्मसे लिए गए हैं जहां वह अपने