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भगवान महावीर। शब्दार्थमें अपने व्यवहृत भावको ठीक ठीक प्रकट करते हैं।" __इसलिए प्रमाणित होता है कि जैनधर्मका कर्मसिद्धान्त जैनदर्शनका आदि और यथार्थ अंश है । और वह बौद्ध एवं हिन्दू दर्शनोंसे प्राचीन है । और हिन्दूधर्मके अन्दर किसी समयमें सर्वाग पूर्ण आत्मिक ज्ञानका प्रतिपादन नहीं किया गया। उसमे जो सम• यानुसार सामयिक बातें जोड़ी गई व जोड़ी जाती हैं और जो
स्वयं पूर्वापर विरोधित हैं उससे वह ईश्वरीय धर्म कहा नहीं जा सक्ता । ईश्वरके मुखसे निकला हुआ धर्म कमी अपूर्ण नहीं हो सक्का । और न ऐसा ही हो सका है कि उसके अनेक अर्थ लग सकें। इसलिए वेदोंको ईश्वरकृत मानना बिलकुल मिथ्या है। वे ऋषि महर्षियोंके आत्मज्ञानके फल हैं । और वह आत्मज्ञान उनको जैनधर्मसे प्राप्त हुआ था, जैसा ऊपर प्रगट किया गया है। उस समय भी लोग असम्य नहीं थे।
जैनधर्मके सिद्धान्त वैज्ञानिक हैं। दूसरे शब्दोंमे साक्षात 'सत्य' (TRUTH) हैं । और सत्य अमर है । इस हेतुसे जैनधर्म अनादिनिधन और सर्वज्ञ कथित है और उसके ज्ञानके आधार पर वेद बने हैं। इसलिए इस दृष्टिसे वेदोंको ईश्वरत मानना किन्ही अंशोंमे उपयुक्त है । वेदोंमें यज्ञादिमें पशुओंके बलिदान सम्बन्धी विधान पीछेसे किसी दुर्समयमे बढ़ा दिए गए होंगे,क्योकि म्वयं वेदामे हिंसाको बुरा कहा है। जो राक्षसों और मांसभक्षकोंको ' श्राप सम्बन्धी वाक्योंसे प्रकट है।
अस्तु, प्रकट है कि हिन्दूधर्मके प्रारम्भिक सिद्धान्त जैनधर्मलग गए थे। कालान्तरमे वैदिकधर्मावलम्बी उसके श्रोतको