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जैनधर्म और हिन्दूधर्म |
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द्वेषपूर्ण दृष्टिसे देखने लगे । और अपने धर्मको पूर्ण बनानेके लिए उपनिषिध, पद्दर्शन आदि रचते हुए । इसीलिए मि० चम्पतरायजी बैरिप्टर अपनी " की आफ नोलेज " नामक पुस्तकमें सब धर्मोका अव्ययन करके कहते हैं :----
" खोज करने पर हरएक धर्मके द्वारसे निराशा होती है । और जब हम जैनधर्मकी तरफ देखते हैं कि क्या इससे धर्मके सिद्धान्त में संतोष मिलता है, जिसके विचारने हरएकको घबड़ा दिया है, तब यह जैनधर्म तुरत हमको छः मूलद्रव्योंकी तरफ ले जाता है, जिनकी मढ़ढ़के विना सिवाय गड़बड़ाहटके और कुछ नहीं होसक्का । ... ...जब हम सत्यकी खोज करते हुए धर्मकी तरफ पहुँचते हैं; और मान व मायाके विचारसे नहीं तब यह देखतेहै कि जैनधर्म उन सर्वमतोंमे अनुपम है जो सत्य बतानेका दावा करते हैं । "
इस
प्रकार डुबोईसाहबके उपर्युक्त उद्गार बिल्कुल ठीक बैठते है । और जैनधर्म और हिन्दूधर्मकी यथार्थता प्रकट होजाती है।