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भगवान महावीर ।
'प्राकाराश्चैत्यवृक्षाश्च केतवो वनवेदिकाः ।
स्तूपाः सतोरणाः स्तंभा मानस्तंमाश्च तेऽखिलाः प्रोक्तास्तीर्थकरोत्सेधादुत्सेवेन द्विषट् गुणाः । दैर्ध्यानुरूपमेतेषां रौद्र्यमाहुर्गणाधिपाः ॥ १२९ ॥
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भावार्थ:- आकार, चैत्यवृक्ष, ध्वजा, बनबेदी, स्तूप, स्तंभ, तोरण सहित, मानस्तंभ इन सबकी ऊँचाई तीर्थकरके शरीरकी ऊँचाईसे. १२ गुणी होती है । उसीके अनुकूल चौड़ाई होती है । रत्नमई मानस्तंभ समवशरणके अग्रभागमें रहते थे, वे ऐसे मालूम पड़ते थे कि मानो 'महादिशाओंमें अन्त देखनेकी इच्छासे पृथ्वीपर आये हुए मुक्तिके प्रदेश हों ।'
भगवान महावीरका दिव्योपदेश 'अनाक्षरी भाषा' में होता था, जिसको उनके मुख्य गणधर इन्द्रभूति गौतम मागधी भाषामें प्रगट करते थे । भगवानकी वाणीके विषयमें उक्त पुराणमें लिखा है कि:
'मुखाम्बुजेऽस्य वक्तुर्विकृतिर्नाभून्मनाग् न च । ताल्वोष्ठानां परिस्पंदा निर्ययौ भारती मुखान् ॥"
भावार्थ:- भगवान के मुखकमलमें कोई विकार न हुआ, न तान्दु ओंठ ही हिले, इसतरह चाणी प्रगट हुई।' भगवानकी वाणीमें क्या अपूर्वता थी उसीको स्वामी समन्तभद्राचार्य विक्रमकी दूसरी मारंभ इस प्रकार प्रगट करगए हैं: