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विहार और धर्मप्रचार |
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अपना विशेष समय व्यतीत किया था । और वहांके लोगोंकी भी आपमें अचल और गाढ़ भक्ति थी । उस समय मगधके अधिपति राजा श्रेणिक बिम्बसार थे, जो जैनधर्मके प्रखण्ड प्रभावक और भगवान महावीरके अविचल भक्त थे । आपका दिग्दर्शन पाठकोंको हम आगाड़ी करांयगे ।
श्रीमद्भगवत् जिनसेनाचार्यने अपने हरिवंशपुराण में ( पृष्ठ १८) भगवानके विहारके विषयमें लिखा है कि " जिस प्रकार भव्यवत्सल भगवान ऋषभदेवने पहिले अनेक देशों में विहारकर उन्हें धर्मात्मा वनाया था उसी प्रकार भगवान महावीरने भी मध्यके (काशी, कौशल, कौशल्य, कुसंध्य, अश्वष्ट, साल्व, त्रिगर्त पंचाल, भद्रकार, पाटच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, सूरसेन एवं वृकार्थक ) समुद्रतटके (कलिग, कुरुजांगल, कैकेय, आत्रेय, कांबोज, वाल्हीक, यवनश्रुति, सिधु, गांधार, सौवीर, सूर, भीरु, दशेरुक, वाडवान, मारद्वान औ क्वाथतोय ) और उत्तर दिशाके (तार्ण, कार्ण, प्रच्छाल आदि) देशोमें विहारकर उन्हें धर्मकी ओर ऋजु किया था ।"
इतनी बात यहांपर ध्यान में रखनेकी है कि भगवान ने यह विहार एक साधारण साधुकी भांति नहीं किया था; बल्कि समवशरण (सभागृह ) के साथ २ उस प्रभावनाके साथ जिसका कि उल्लेख हम पहिले कर चुके हैं विहार किया था | इस समवशरणमें क्या ? रचना होती है और वह कितनी ऊँची होती है, यह महिनाथपुराणके हम लोकसे व्यक्त होजाती है:
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