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भगवान महावीर
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आप हिमालयकी तलहटीतक दिव्यध्वनि, प्रध्वनित करते विचरे थे। ‘सिथिलामें भी भगवानने अपने सदुपदेशसे जनताको कृतार्थ किया था; वहां के राजागण विशेष प्रभावशाली और विद्यापटु थे।'*
श्वेताम्बराम्नायके कल्पसूत्र ग्रन्थमे भगवानके चातुर्मासोंका इसप्रकार वर्णन है। अर्थात् चार चातुर्मास तो भगववानने वैशाली और वणिज ग्राममें बिताए थे; चौद राजगृह और नालन्दके निकटवर्तमें; छै मिथिलामें; दो भद्रिकामें; एक अलमीकमें, एक पान्यि भूमिमें; एक श्रावस्वतीमें और अंतिम पावापुरमें पूर्ण किया था। इनमेंसे कुछका नाम महावीरपुराण में वर्णित स्थानोंमें नहीं है; यद्यपि दोनों वर्णनोंमें विशेष अन्तर नही है । महावीरपुराणके अनुसार आपने सम्पूर्ण उत्तरीय भारतमें विहार किया था | विदेहमें वहां के शासनसत्तासम्पन्न राजा चेटकने आपके चरणोका आश्रय लिया था । और आपकी विशेष विनय की थी। अंगदेशके अधिपति कुणिकने 1 भी भगवानके शुभागमनपर अपने अहोभाग्य समझे थे । और - वह भगवानके साथ २ कौशाम्बी तक गया था । कौशाम्बीके नृपति शतनीकने भगवानके उपदेशोंको विशेष भाव और ध्यानसे श्रवण किया था। भगवानकी वन्दना उपासना बड़ी विनयसे 'की थी । और अन्तमें भगवानके संघमें सम्मिलित होगया था । 1 भगवान महावीरके इस तीस वर्षके दिव्य पर्यटनमें मगध विहार, प्रयाग, कौशाम्बी, चंपापुरी एवं उत्तरीय भारतके अन्य कितनेक प्रभावशाली राज्य जैनधर्मके श्रद्धानी और अनुगामी बन गये थे, किन्तु मगघदेशकी राजगृहनगरी ही ऐसा स्थान है जहां भगवानने
*(देखो The Heart of Jainism.)