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भगवान महावीर। अपने ज्येष्टपुत्र भरतको राज्य सौंप परमहंस धर्म सीखने के लिए. संसार त्याग किया था। उसी समय उन्होंने उन्मत्तके न्याय विगंबर वेशमें आलुलायित कैश हो ब्रह्मावर्तसे पैर बढ़ाया .....
• "भागवतमें ऋषभदेवका धर्ममत इस प्रकार कहा है:- । । 'मानव देह पा मनुष्यको समुचित आचरण करना चाहिए। जो सकलका सुहृद, प्रशान्त, क्रोधहीन एवं सदाचार रहता और सबपर समान दृष्टि रखता, वही महत् ठहरता है। जो धनपर स्सहा तथा पुत्र कलत्रादिपर प्रीति नहीं रखता और ईश्वरपर निर्भर करें चलता, वही मनुष्योंमें बड़ा निकलता है । इन्द्रियकी तृप्ति ही पाप है। कर्म स्वभाव मन ही शरीरके बन्धका कारण बन जाता है। स्त्रीपुरुष मिलनेसे परस्परके प्रति एक प्रकार प्रेमाकर्षण होता है। उसी आकर्षणसे महामोहका जन्म है । किन्तु उस आकर्षण के टलने और मनके निवृत्तिपथपर चलनेसे संसारका अहकार नाता तथा मानव परमपद पाता है।
_ "भागवतमें लिखते, कि ऋषभदेव स्वयं भगवान् और कैवस्वपति ठहरते हैं । योगचर्या उनका आचरण और आनन्द उनका - खरूप है। . (भागवत १४,५,६ अ०).
जैनियों के प्रथम तीर्थकर ही यह ऋषभदेव हैं। उनके। जीवनकी मुख्य २ बातोंको जैसे मातापिताका नाम, जन्मसे भगवतगुण तीन ज्ञानसे परिपूर्ण होना, दिगम्बर दीक्षा धारण करना इत्यादिको हिन्दूशास्त्रमें मी जैन शास्त्रानुसार ही वर्णित किया है, किन्तु उनके धर्मके विषयमें अवश्य ही ब्राह्मण और जैनोंकी बापसी प्रतिस्पर्धाक कारण चित्रचित्रण किया गया है। आपक