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श्वेतास्वरकी उत्पत्ति।
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काँसे छुटकारा पानेके लिए विविध आचार नियमोंके पालन करनेमें कुछ भेद हो सका है, क्योंकि समयकी तत्कालीन आवश्य-: कानुसार एक बात उस समय आवश्यक होती है, तो दूसरे समयमें वही बात अनावश्यक हो जाती है।"
इसी लिए जैनशास्त्रोंके विविध आचार नियमोंमें कहीं कहीं जरा अन्तर प्रतीत होता है। भगवान महावीरका संघ पश्चातमें एथक् पृथक् विभागमें विभक्त होगया था। इसके मुख्यता दो विभाग उल्लेखनीय हैं (१) दिगम्बर (२) और श्वेताम्बर । दिगम्बरोंके विषयमें हम पहिले ही देख चुके हैं कि जैनधर्मके आदि प्रचारक भगवान ऋषभदेवने दिगम्बर निर्गन्य धर्मका उपदेश दिया था, जैसा कि हिन्दू शास्त्र भी व्यक्त करते हैं और वह धर्म उसी रूपमें अन्तिमतीर्थकर भगवान महावीरके निर्वाण लाभोपरान्त तक चला आया था। यह कहना कि प्रार्थनाथ भगवानने वस्त्र धारण किए थे, और उनकी शिष्यपरम्परा भी वैसा करती. थी, विल्कुल मिथ्या है। यदि ऐसा होता तो हिन्दू शास्त्रोंमें उनका उल्लेख अवश्य होना चाहिए था और बौद्धशास्त्र तो अवश्य ही इस बातको प्रगट करते; क्योंकि उनमे निगन्य नातपुत्र भगवान महावीरका वर्णन प्रतिस्टद्वारूपमें है। इसलिए वे भगवान के सनातन मागसे विमुख होनेका उल्लेख नरूर करते। ऐसान होने के कारण वे इस विषयमें कुछ भी न लिख सके । स्वयं श्वेताम्बर ग्रन्थ ___ *यौदप्रन्यों में जैन मुनियोंके लिये " निगन्य' शब्दका व्यवहार लिया गया है। और उन्हें जैन भावकोसे पृपक उमझनेके लिये उनके भगाड़ी नमान्दा व्यवहार किया है। जैसे विसावा पत्यू, पम्मए
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