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भगवान महावीर ।
शिथिलता आ गई थी क्योंकि आजीवक सम्प्रदाय उसी प्राचीन: धर्मकी एक शाखा कही नासक्ती है। पाश्वनाथके निर्मन्थ श्रमणोंका प्रभाव इस समय कम हो गया था और यज्ञकाण्डादिका जोर था । इसलिए भगवान महावीरको पुनः अपने तीर्थकालकी प्रवृत्ति करना पड़ी थी। जिसके भी बाह्य शरीरमें उनके मृत्युके दीर्घकाल पश्चात प्रगट मतभेद हो गया था, ऐसा प्रतीत होता है । यह भी प्रगट है कि क्रमश: चलकर उसके आचार नियमादिमें, विशेष संशोधन समयके प्रभावानुसार अन्य हिदू, बौद्ध, आनीवक.
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आदि धर्मोंके सदृश कर लिया गया था। जैसे कि पं० नाथूरामजी प्रेमीका कहना है कि " जैन धर्मने गत ढाईहजार वर्षोंमें न जाने कितने दुःख सुख सहे हैं, कितनी कठिनाइयां पार की हैं और कितने संकटोंसे बचकर अपना अस्तित्व कायम रक्खा है, मतःयह सम्भव नहीं कि इन सुखदुःखके समयों में इसके संचालकोने इसकी रक्षाके लिए इसका थोड़ा बहुत रूप न बदला हो । क्रियाकृाण्डोकी विपुलता, यक्ष, यक्षिणी, क्षेत्रपाल, पद्मावती आदि सैकड़ों देवदेवियोंकी मान्यता, आहवनीय आदि अग्नियोंकी पूजा, सन्ध्या, तर्पण, आचमन आदि बातें मेरा विश्वास है कि मूल ज़ैनधर्ममें न थी। ये पीछेसे शामिल की गई हैं ।"
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अतः यह प्रकट है कि जनधर्म अपने यथार्थरूपमें अविचल रहा है, परन्तु उसकी बाहरी बातोंमें जरूर तवमें और अबमें भेद है । प्रख्यात जैन विद्वान् मि० चम्पतरायजी जैनका मत भी इस विषयमें इस प्रकार है कि "प्राचीन और अर्वाचीन जैन धर्ममें कोई भी भेद नही है क्योंकि वह विज्ञान (Science) है । हां !