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________________ २०० भगवान महावीर | t " हुए इंद्रियोंके विपयोंसे तृप्ति नहीं होती, उनसे तो और भी घोर तृषा ही होती है । तृषासे दुःखी हुआ जीव हित और अहितको 'कुछ नहीं जानता । इसी लिए यह संसार दुःखरूप और आत्माको अहितकर है। यह जीव संसारको कुशलनासे रहित तथा नन्मजरा वृद्धावस्था और मृत्यु स्वभाववाला स्वयं जानता है, प्रत्यक्ष देखता है और सुनता है तो भी यह आत्मा भ्रान्तिले प्रशममें कभी रत नही है । " ( महावीरचरित्र पृष्ट ९१ - १९३० ) जीवको यथार्थ सुखकी वाञ्क्षा है, इसलिए वह अपने आत्मस्वरूपका अनुभव करे - अपनी चहुंओरकी परिस्थितियोंका अवलोकन करे | याद रक्खे कि धर्म ही आत्माको हितकर है। विषयवासनामय इन्द्रियननित क्षणिक सुख जीवको अहितकर है, उसमें लिप्त होनेके कारण आत्मा संसारमे भ्रमण करता हुआ अनेक प्रकारके क्लेश और बाधाओंका अनुभव कररहा है । अनादिकालसे इन पर पदार्थोंमें रत होकर आत्मा कम्पको अपना रहा है। और इस प्रकार परतंत्रता पडा हुआ अपनी स्वाभाविक निजाधीन स्वतंत्र - ताके लिए तडफड़ा रहा है । वह अपने ही अनुभवसे निश्चय कर ले कि यथार्थमें वह स्वयं शुद्ध आत्मा है, क्योकि 'यः अतति गच्छति जानाति स' आत्मा ' इस व्युत्पत्तिसे जो जाननेवाला है वही आत्मा है । शरीर जाननेवाला नही है। आत्मा ही जाननेबाला है। इसलिए आत्मा शरीरसे भिन्न है; जिसमे ज्ञान नहीं है और जो पुद्गल के परमाणुओंसे मिलकर रचा हुआ है। धर्म आत्माका स्वभाव है | इसलिए वह जगतका सार है, सर्व सुखोंका प्रधान हेतु है और परमसुखको प्राप्त करानेवाला है.
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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