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भगवानका दिव्योपदेश।
__ भगवान महावीर वास्तविक उपासनीय आप्तदेव थे। वह सर्वोल्टष्ट गुरु थे। इसलिए उनके प्रति विनय भी सर्वोच्चतम रूपमें हमारे हृदयमे विद्यमान है। उनकी उपासना और पूजासे हमारा भाव उनका अनुकरण करनेका है । उनका प्रतिविम्ब हमें उनके जीवनका साक्षान अनुभव करा देता है। उनके अविचल ध्यानकी शांतिमुद्रामय मूर्ति हमारे पथ-प्रदर्शनका काम देती है। उनकी प्रतिविम्बकी जो हम विनय करते हैं उसका भाव हमारे निकट उसी तरह है जिसतरह अंग्रेज लोक अपने यहॉ लन्दनके ट्फलगरस्कायरमें अवस्थित एडमिरल नेलसनकी पाषाण-मूर्तिकी विनय करते है। यह मूर्तिपूजा नहीं है, सुतरां आदर्शपूजा है । परन्तु हमारे हत्भाग्य हैं कि इनके दिव्योपदेशको प्रगट करनेवाले यथार्थ ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं । जो कुछ भी हमें इनके विषयमे ज्ञान प्राप्त है वह पूज्य आचार्योकी छपाका फल है । उन्होने जो कुछ कथन किया है वह सर्वज्ञ भगवानके कथनानुसार ही किया है, ऐसा उनके द्वारा कथित ग्रन्थोसे व्यक्त होता है। इनसे भगवानके दिव्योपदेशका साधारण भाव इस तरह प्रकट होता है
"समस्त जीवलोक मोहसे अंध होरहा है । जगतमें वे ही जीव धन्य है जिन्होंने शीघ्र ही तृष्णारूपी विषवेलको जड़समेत उखाड़कर दूर फेंक दिया है । नाश या पतन अथवा दुःखोंकी तरफ पड़ते हुए जीवकी रक्षा करनेमें न भार्या समर्थ है, न बन्धुवर्ग समर्थ है, कोई समर्थ नहीं है। फिर भी यदि यह शरीरधारी उनमे अपनी आस्थाको शिथिल नही करना चाहता है तो उसकी इस मूढ़ प्रकृतिको धिक्कार है। सेवन किए