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भगवान महावीर और म० बुद्ध। १६५ कि " बौद्धमत हिन्दुओंकी पेचीदा वर्णव्यवस्थाके और जैनियोंकी कठिन तपस्याके विरोधमें संस्थापित हुआ था, न कि एक नूतन सैद्धान्तिक दर्शनके रूपमें; कमसे कम प्रारंभमें तो नहीं।"
अस्तु, इस प्रकार हम देख चुके कि बौद्धमतका विकास चारित्र नियमकी. कठिनाईके कारण हुआ था और प्रारंभमें सैद्धान्तिक ज्ञान बुद्धकी शिक्षाका कोई आवश्यक माग नही था। सच्चा धर्म एक अमली शिक्षाके सिवा और कुछ न था। दुःखसे छुटकारा मनकी शुद्धता द्वारा प्राप्त होता है। मनकी शुद्धता इच्छा रहित होनेसे होती हैं। इच्छासे निवृत्ति तपस्या और ध्यानसे होती है, जो मनमें वैराग्य उत्पन्न करते हैं अर्थात् संसार और इन्द्रियोंक निरोधसे । खयं बुद्धका मत विशेष अवसरोंपर निश्चित नहीं था। कमी वह सत्ताकी नित्यताको माननेवालेके रूपमें शाश्वत बातचीत करता था और कभी २ नाशके संबंधमें वह कहता था। परन्तु वस्तुतः बुद्धका सिद्धान्त जीवकी अनित्यतापर पूर्णरूपेण जोर डालता है। (देखो असहमतसंगम ४० १८६ ) यह भी अवश्य था कि वह सैद्धान्तिक विज्ञानसे अनभिज्ञःथा। इसीकारण उसकी अमली शिक्षा भी अपूर्ण थी जिसके विषयमें मि० हरिसत्य भट्टाचार्य एम० ए० बी० एल० लिखते हैं कि "परीक्षा करनेपर यह प्रकट होनायगा कि बौद्धधर्मका सुन्दर आचारवर्णन एक कम्पित नीव पर अवस्थित है। हमें वेदोंकी प्रमाणिकताका निषेध करना है-अच्छी बात है। हमें अहिंसा और त्यागका पालन करना है-अच्छी बात है। हमें कौके बंधन तोड़ने हैं अच्छी बात है, परन्तु सारे संसारके लिए यह तो बताईए हम हैं क्या? हमारा ध्येय क्या है ? खाभाविक