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भगवान महावीर। थे और यथार्थ सिद्धान्तसे नितान्त अनभिज्ञ थे जैसे कि मि० के० जे० सॉन्डसके निन्न वाक्योंसे प्रगट है:
"जब उसने निव्वानके विषयमें कहा तब वह अपने अनुभवको ही प्रगट करनेका प्रयत्न कर रहा था। और नैतिक आचार्य होनेकी अपेक्षा उसने उसका वर्णन आचार संबंधी नियमोमें किया। (पष्ट २८) बुद्धने दूसरे शब्दोंमें कहा कि हम निम्बानका स्वरूप तब तक नहीं कह सके जब तक कि हम आत्माका यथार्थ स्वरूप न जानलें। और कोई आत्मा है ही नहीं ! कमसे कम इन चार बातोंको बुद्धने व्यक्त करनेसे इन्कार कर दिया था अर्थात् (१) क्या संसार अनादिनिधन है ? (२) क्या वह अनन्त है ? (३) क्या शरीर और आत्मा एक है ? (४) और क्या अर्हत मृत्युके पश्चात मी सत्तामें रहता है। (पृष्ट ३०)" (See Gotama Buddha) ___ इसीलिए मि० सॉन्डर्स कहते हैं कि " यह इस कारणसे नही था कि उसने सत्यका प्रचार किया था, जिससे उसके श्रोताओने उस पर विश्वास किया, बल्लि यह इस कारणवश था कि उसने उनके हृदयोंको बशमें कर लिया था जिससे उसके वाक्य उन्हें सत्य प्रतीत होते थे।" (Ibid P. 75.) अस्तु, यह प्रगट है कि यथार्थमें वह धार्मिक सिद्धान्तोंसे अनभिज्ञ थे। इसी कारण अपने आचार संबंधी नियम भी, वह यथार्थ प्रगट न कर सके और इससे कहना पड़ेगा कि बुद्धने किसी नए रूपमें नए सिलसिलेसे बौद्ध धर्मको स्थापित नही किया था।
मि० चम्पतरायजी जैन वैरिष्टर इस बातको अपनी असहमतसंगम' नामक पुस्तकके पृष्ट १८४ पर इस तरह पुष्ट करते हैं