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भगवान महावीर और म बुद्ध। १६३ इन्द्रिय लिप्सामें भी किसी कदर अगाडी बढ़गये। और 'अन्तमें वह मध्यका मार्ग जिसकी वह खोजमें थे, विख्यात बोधिवृक्षके नीचे प्राप्त हो गया। वह मध्यमार्ग कठिन तपस्या और वैरोकटोककी विषयलोलुपताके दर्मियान जो कर्मयोग (सांसारिक कार्योंमें निष्काम मनसे संलग्न होने ) के भेषमें प्रचलित थी, एक प्रकारका राजीनामा (मेल) था । अथवा वह मध्यमार्ग वैज्ञानिक दृष्टिसे सिद्ध है या असिद्ध, यह प्रश्न न था। भाव यह था कि दुःखसे हर प्रकार बचें । यदि स्वयं तप दुःखका कारण है तो उससे दुःखका नाश कैसे हो सका है ? (असहमतसंगम दृष्ट १८६) इस प्रकार--यद्यपि बुद्धदेवको तपश्चरण आदिमें विश्वास नहीं रहा था, परन्तु उनका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेकी अमिलापाका श्रद्धान अब भी कम न हुआ था। इसीसे उन्होंने उपर्युक्त मध्यमार्गको ढूंढ निकाला और उसका प्रचार करने लगे। अस्तु । ___ हम देखते हैं कि बुद्धदेवने परीषहोसे भयभीत हो उतावलीमें जैनधर्मके मुनिपदसे भृष्ट हो उससे विपरीत मतको स्थापन किया जो कि सैद्धांतिक न होकर एक तरहका आचार सम्बन्धी मनोनुकूल सुधार था! और उसने उसके द्वारा हिंसाकी पुष्टि की, यद्यपि वह अपनेको अर्हन्त कहते थे। परन्तु आश्चर्य तो इस पर है कि अहंत होनेपर भी उनसे इंद्रियनिरोध न हो सका, और उनके हृदयमें शल्य घुसी रही-वह अपने ज्ञानको जगतके निस्ट प्रकट करनेमें हिचकते रहे । वास्तवमें बात यह है कि उनको जव बोधिसत्त वृक्षके नीचे मध्यमार्गका भान हो गया तब वह जानेको अर्हन्त कहने लगे, यद्यपि वह यथार्थ अन्तिावस्थाले कोसो दूर