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________________ १२४ भगवान महावीर | ( २४ ) वारिषेण मुनि । " समकित सहित आचार ही, संसारमें इक सार है। जिनने किया आचरण उनको, नमन सौ सौ बार है ॥ " www "जीवकी अशुभ परणतिको पाप कहते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, ये पांच पाप प्रसिद्ध हैं। इन पांच पापोंक्त -त्याग किए बिना आत्मस्वभावमें थिरतारूप निश्चय चारित्र नहीं होसक्का । इससे पांच पापोंका त्याग निश्चय चारित्रका कारण है और इसीलिए पंच पापोंके त्यागको व्यवहारमें चारित्र कहते हैं । " । जिन जीवोंको सर्वज्ञ आप्तदेव तीर्थकर भगवान कथित धर्ममें विश्वास है अथवा निश्वयसे जिनको अपने आत्माके अस्तित्व और अनन्तगुणों का विश्वास है वे सम्यकूदृष्टि कहलाते हैं। सम्यकदृष्टि जीवोंको चारित्र धारण करनेकी बड़ी रुचि रहती है । शुभोदय और वैराग्यकी तीव्रतासे वे किसी रोज पांच पापोंका त्यागकर मुनि होजाते हैं और साधु धर्मके महाव्रतोंका पालन करते हैं। जो जीव पांच पापोंका पूर्ण त्यागकरके महाव्रतोंका पालन नहीं करसके चै उनका थोड़ा २ त्याग करते हैं और वे श्रावक कहलाते हैं । वारिपेण सुनि पूर्ण सम्यकूदृष्टि थे. और उनका चारित्र भी परम निर्मल था । आप नैन जैनधर्मानुयायी मगधाधिपति राजा श्रेणिकके पुत्रोमेंसे एक थे। कुमार अवस्थासे ही आप संसारसे उदासीन थे। विषयभोगोंकी धधकती आगकी झुलसने रहते हुए -भी उसमें दग्ध नहीं हुए थे। अपने श्रावकके व्रताचरणमें तल्लीन ' "
SR No.010403
Book TitleMahavira Bhagavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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