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धारिषण मुनि। थे। आपने कुमारावस्थामें ही दैगम्बरीय जिन दीक्षा लेली थी यह निन्न कथासे विदित है। आपका सम्यत्व इतना गाढ़ था कि आन जैन समाजके आबालवृद्धकी जिह्वापर आपका नाम है। सम्यकूदर्शन और चारित्रके अझोंका ध्यान करते ही हमें बारिषेण मुनिका भी स्मरण हो आता है।
जिन दीक्षा लेनेके कारणका समागम कुमार बारिषेणको अपने आत्मध्यानमें मग्न होते समय होगया था। एक समय आप राजगृह नगरके बाहर निर्जनस्थान में सामायिक कर रहे थे । राजगृह नगरमें विद्युत नामक चोर मगधसुन्दरी वेश्यापर आशक्त रहता था। वेश्याने विद्युतसे श्रीदत्त नामक सेठके यहांसे रत्नहार ला देनेको कहा । विद्युत उसी रात्रिको सेठके यहांसे रत्नहार चुरा लाया, मार्गमें उस हारको लाते कोतवालने देख लिया। कोतवालने उसका पीछा किया। इस कारण वह भागकर उसी निर्जन स्थानमें पहुंच गया, जहांपर कुमार बारिषेण आत्मध्यानमें लीन थे। उसने उन्हींक निकट हार पटक दिया और आपवहीं छिप गया रत्नहार वारिषेणके निकट होनेके कारण कोतवालको उन्हीं पर संदेह होगया । और राजा श्रेणिकने कोतवाल आदिके विश्वासपर उनका मस्तक काट डालनेकी आज्ञा दे दी, परन्तु जिस समय चान्डाल उनका मस्तक धड़से जुदा कर रहा था, तो सहसा पुण्यप्रभावसे तलवार पुष्पहार हो गई । राजा श्रेणिकको यह समाचार सुनकर अपनी मूर्खता पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। उन्होंने कुमारसे क्षमा मांगी और घरपर चलनेको कहा परन्तु उन्होंने संसारका ऐसा चरित्र देखकर जिन टीया ले ली।