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क्षत्रचूडामणि-जीवंधर। वंशकी रक्षाके विचारसे एके मयूरके आकारका यंत्र बनाया जो एक कलके घुमानेसे आकाशमें उड़ सका था। और उसमें बैठार कर रानी विजयाको आकाशमें उड़ानेका अभ्यास कराने लगा, कि जिससे समय आनेपर रानी अपनेको बचाकर वंशको नष्ट होनेसे बचासकेगी।
इधर काष्टांगारको दुष्टता सूझी। उसे पराधीनतामें रहना. असह्य होगया, इसलिए आखिर उसने सत्यंघरको मारकर स्वयं राजा बन जानेका निश्रय कर लिया। तदनुसार उसने एक सेना राजाके मारनेको भेज दी। राजाने अपना अंत निकट आया समझ रानीको तो गयूरयंनमें बैठाल उड़ादिया, और आप सेनासे लड़तेर मृत्युको प्राप्त हुआ । यद्यपि अन्त समय उसका मन आत्मध्यानमें लीन था । वह मयूर यंत्र वाहर समगानने आकर गिरा, वहीं राजपुरीका प्रसिद्ध सेठ गन्धोत्कट अपने पुत्रकी दम्पक्रिया करने आया था। विनयारानीने वहीं पुत्र प्रसव किया और उसे वही छोड दिया। सेठको वह पुत्र दृष्टि पड़ गया। उसने उसको लेगाकर अपनी स्त्रीको दे दिया। स्त्रीने उसका पुत्रवत् पालन पोपण किया और उसका नाम जीवंधर रक्खा | रानीविजया दण्डकारण्यमें तपस्वियोंके एक आश्रममें चली गई।
जीवंधरकुमार इन्हीं सेठके यहां रहने लगे और जमकर आप युवावस्थाको प्राप्त हुए । आर्यनन्दी नामके प्रसिद्ध आचार्य जीवंधरकुमारके गुरु हुए। और किसी विद्यालयमें शिक्षा पाकर वे बड़े भारी विद्वान होगये, उनका बल भी विशाल था यह उनके भीलोसे युद्ध करके नन्दगोप ग्वालेकी गऊओंको लादेनेसे विदित