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श्वेताम्बरकी उत्पत्ति। રરક आचार्य थे। वे निमित्तज्ञानके जाननेवाले थे, इसीलिए उन्होंने संघको बुलाकर कहा कि एक बड़ा भारी बारह वर्षों में समाप्त होनेवाला दुर्मिक्ष होगा, इसलिए सबको अपने अपने संघके साथ और देशोंको चले जाना चाहिए। यह सुनकर समस्त गणघर अपने अपने संघको लेकर वहांसे उन उन देशोंकी ओर विहार कर गए, जहां सुभिक्ष था। उनमें एक शांति नामके आचार्य भी थे, जो अपने अनेक शिष्योंके सहित चलकर सोरठ
देशकी वजमी नगरीमें पहुंचे, परन्तु उनके पहुंचनेके कुछ ही • समय बाद वहापर भारी अकाल पड़गया। भूखमरे लोग दूस
रोंका पेट फाड़ फाड़कर और उनका खाया हुमा भात निकाल निकालकर खा जाने लगे। इस निमिसको पाकर दुर्भिक्षकी परिस्थितिके कारण-सबने कम्बल, दण्ड, तूम्बा, पात्र, आवरण (संथारा) और सफेद वस्त्र धारण कर लिए । ऋषियोंका (सिहावृत्तिरूप) आचरण छोड़ दिया और दीनवृत्तिते मिक्षा ग्रहण करना,-बैठ करके याचना करके और स्वेच्छापूर्वक पत्तीमे जाफर भोजन करना शुरू कर दिया। उन्हें इस प्रकार आचरण करते हुए किराना ही समय बीत गया । जब सुमिक्ष होगया, अन्नका कष्ट मिट गया, तब शांति आचार्यने संघको बुलाकर कहा, कि अब इस कुतितत आररणको छोड़ दो, और अपनी निदा, गर्दा करके फिरसे मुनियोका श्रेष्ठ आचरण ग्रहण करले। इन बचनोंको सुनकर उनके एक प्रधान शिष्यने कहा कि अव उस अतिशय दुर्मर जाचरणको कौन धारण कर सकता है ? उपवास, भोजन न मिलना, तरह तरहके दुस्सह अन्तराय, एक स्थान, वस्त्रोंका अभाव, मौन, ब्रह्मचर्न, भूनि